बुधवार, 17 मई 2023

2000 साल पहले की कवियत्री की कविताएं : गाथा सप्तशती

2000 साल पहले की अज्ञात कवियत्री की कविताएं :
गाथा सप्तशती ( गाहा सत्तसई ) 

गाथा सप्तशती प्राकृत भाषा का ग्रंथ है । प्राकृत भाषा प्राचीन काल से 10 वी शताब्दी तक पूरे भारत मे जनसामान्य की भाषा हुआ करती थी । गाथा अर्थात छंद , सप्तशती अर्थात 700 । इसमें 700 छोटी छोटी कविताओं का संकलन होने पर इस कृति का नाम गाथा सप्तशती पड़ा । 
यह कब लिखी गयी इसमें विद्वानों के एक विचार नही है । किंतु राजा सालवाहन के दरबारी कवि हाल ने इसका संकलन किया । अर्थात इसका वर्तमान स्वरूप प्रथम शताब्दी ईसवी में आया । बाणभट्ट ने भी हर्षचरित में इसका जिक्र किया ।

इस ग्रंथ को पढ़ने से पता चलता है कि अधिकांश कविताएं किसी अज्ञात कवियत्री की लिखी हुई है । पुस्तक में केरल की नदियों , गुजरात , मानसरोवर, विंध्याचल, महाराष्ट्र के स्थानों आदि का जिक्र आता है । 
आधुनिक काल मे भारतीयों को गाथा सप्तशती का पता तब चला जब जर्मन कवि वेबर ने 1870 में इसकी 17 पांडुलिपियों को खोज निकाला । ये पांडुलिपियां तमिलनाडु बिहार राजस्थान महाराष्ट्र बंगाल गुजरात कश्मीर से प्राप्त की गई । आश्चर्यजनक रूप से इनमें 430 कविताएं सभी मे हूबहू मिली । वेबर ने 1870 में गाथा सप्तशती को जर्मन भाषा में प्रकाशित करवाया । 1956 में इसका मराठी अनुवाद प्रकाशित हुआ ।

इन कविताओं में 2000 साल पहले के लोक व्यवहार , राग रंग, मिलन वियोग , प्रेम काम , हास विलास, रीति रिवाज पर स्त्री के दृष्टिकोण पता चलता है । इन कविताओं में जाति प्रथा का कोई जिक्र नही है । उस समय के समाज मे स्त्री भावनाओं से रचित कविताएं गाई जाती थी और इन्हें राजाओं का आश्रय प्राप्त था ।

गाथा सप्तशती से कुछ कविताएं प्रस्तुत है ।
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आग -
निर्वासित के चूल्हे में 
और यज्ञशाला में 
एक जैसी ही जलती है ।
सब से
अपना व्यवहार समान रखो।
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मेरे उलझे बाल 
अभी सुलझे भी नही 
और तुम जाने की बात करते हो ।
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लौटेंगे प्रीतम परदेश से ...
मैं रूठ जाऊंगी ,
वह मनाएंगे ,
मैं रूठी रहूंगी ,
वे फिर मनाएंगे ,
मैं रूठी रहूंगी ।
क्या यह है मेरे भाग्य में ?
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प्रियतम,
मुझे मेरा जीवन प्रिय है तुमसे अधिक ।
तभी तो तुम्हारी हर बात मानती हूँ ।
क्योकि तुम बिन मेरा जीवन है ही नही ।
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कुत्ता मर गया है 
सास सोई है 
भैस चरने गयी है 
पति परदेश गया है ,
मेरे बारे में कौन किसको क्या बताएगा ?
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तुम्हारे अधरों का स्वाद यदि जानते ,
तो देवता समुद्र मंथन न करते ,
अमृत के लिए !!!
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नवरात्रि

नवरात्र ईश्वर के स्त्री रूप को समर्पित है। काली, लक्ष्मी और सरस्वती स्त्री-गुण के तीन आयामों के प्रतीक हैं। वे अस्तित्व के तीन मूल गुणों-तमस, रजस और सत्व के भी प्रतीक हैं। तमस का अर्थ है जड़ता। रजस का मतलब है सक्रियता और जोश। सत्व एक तरह से सीमाओं को तोड़कर विलीन होना है, पिघलकर समा जाना है। तीन खगोलीय पिंडों से हमारे शरीर की रचना का बहुत गहरा संबंध है-पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा। इन तीन गुणों को इन तीन पिंडों से भी जोड़ कर देखा जाता है। पृथ्वी माता को तमस माना गया है, सूर्य रजस है और चंद्रमा सत्व। 
नवरात्र के पहले तीन दिन तमस से जुड़े होते हैं। इसके बाद के दिन रजस से और नवरात्र के अंतिम दिन सत्व से जुड़े होते हैं। जो लोग शक्ति, अमरता या क्षमता की इच्छा रखते हैं, वे स्त्रैण के उन रूपों की आराधना करते हैं, जिन्हें तमस कहा जाता है, जैसे काली या धरती मां। जो लोग धन-दौलत, जोश और उत्साह, जीवन और भौतिक दुनिया की तमाम दूसरी सौगातों की इच्छा करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से स्त्रैण के उस रूप की ओर आकर्षित होते हैं, जिसे लक्ष्मी या सूर्य के रूप में जाना जाता है। जो लोग ज्ञान, बोध चाहते हैं और नश्वर शरीर की सीमाओं के पार जाना चाहते हैं, वे स्त्रैण के सत्व रूप की आराधना करते हैं। सरस्वती या चंद्रमा उसका प्रतीक है। तमस पृथ्वी की प्रकृति है, जो सबको जन्म देने वाली है। हम जो समय गर्भ में बिताते हैं, वह समय तामसी प्रकृति का होता है। उस समय हम लगभग निष्क्रिय स्थिति में होते हुए भी विकसित हो रहे होते हैं। इसलिए तमस धरती और आपके जन्म की प्रकृति है। आप धरती पर बैठे हैं। आपको उसके साथ एकाकार होना सीखना चाहिए। वैसे भी आप उसका एक अंश हैं। जब वह चाहती है, एक शरीर के रूप में आपको अपने गर्भ से बाहर निकाल कर आपको जीवन दे देती है और जब वह चाहती है, उस शरीर को वापस अपने भीतर समा लेती है। इन तीनों आयामों में आप खुद को जिस तरह से लगाएंगे, वह आपके जीवन को एक दिशा देगा। अगर आप खुद को तमस की ओर लगाते हैं, तो आप एक तरीके से शक्तिशाली होंगे। अगर आप रजस पर ध्यान देते हैं, तो आप दूसरी तरह से शक्तिशाली होंगे। लेकिन अगर आप सत्व की ओर जाते हैं, तो आप बिलकुल अलग रूप में शक्तिशाली होंगे। लेकिन यदि आप इन सब के परे चले जाते हैं, तो बात शक्ति की नहीं रह जाएगी, फिर आप मोक्ष की ओर बढ़ेंगे।

 नवरात्र के बाद दसवां और आखिरी दिन विजयदशमी या दशहरा होता है। इसका अर्थ है कि आपने इन तीनों गुणों पर विजय पा ली है। आप हर एक में शामिल हुए, मगर आपने किसी में भी खुद को लगाया नहीं। आपने उन्हें जीत लिया। यही विजयदशमी है यानी विजय का दिन। 

स्त्री शक्ति की पूजा इस धरती पर पूजा का सबसे प्राचीन रूप है। सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि पूरे यूरोप और अरब तथा अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों में स्त्री शक्ति की हमेशा पूजा की जाती थी। वहां देवियां होती थीं।  दुनिया में हर कहीं पूजा का सबसे बुनियादी रूप देवी पूजा या कहें स्त्री शक्ति की पूजा ही रही है। भारत इकलौती ऐसी संस्कृति है, जिसने अब भी उसे संभाल कर रखा है। हर गांव में एक देवी मंदिर जरूर होता है। और यही एक संस्कृति है, जहां आपको अपनी देवी बनाने की आजादी दी गई थी। इसलिए आप स्थानीय जरूरतों के मुताबिक अपनी जरूरतों के लिए अपनी देवी बना सकते थे। (जैसे  - खेरमाई , सिमसा , तारिणी , मनसा, शीतला आदि ) l प्राण-प्रतिष्ठा का विज्ञान इतना व्यापक था कि यह मान लिया जाता था कि हर गांव में कम से कम एक देवी मंदिर होगा जो उस स्थान के लिए जरूरी ऊर्जा उत्पन्न करेगा। 

नवरात्रि, जिसका अर्थ ही होता है नौ रातें। यह एक ऐसा पर्व होता है जिसका इंतजार लोग साल के गुजरने से पहले से ही करने लगते है। जिसकी प्रतिक्षा हर व्यक्ति को साल भर रहती है। यह हमारी श्रद्धा तपस्या और अध्यात्म की गंगा में बहने वाला पर्व होता है। 

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। 
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

बहुत जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून

बहुत जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून -

अनियंत्रित गति से बढ़ रही जनसंख्या देश के विकास को बाधित करने के साथ ही हमारे आम जन जीवन को भी दिन-प्रतिदिन प्रभावित कर रही है। विकास की कोई भी परियोजना वर्तमान जनसंख्या दर को ध्यान में रखकर बनायी जाती है, लेकिन अचानक जनसंख्या में इजाफा होने के कारण परियोजना का जमीनी धरातल पर साकार हो पाना मुश्किल हो जाता है। ये साफ तौर पर जाहिर है कि जैसे-जैसे भारत की जनसंख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे गरीबी का रूप भी विकराल होता जायेगा। महंगाई बढ़ती जायेगी और जीवन के अस्तित्व के लिए संघर्ष होना प्रारंभ हो जायेगा।
लोगों में जन-जागृति का अभाव होने के कारण तथा मज़हबी विचारों के कारण दस-बारह बच्चों की फौज खड़ी करने में वे कोई गुरेज नहीं करते है। एक पुत्र की कामना में अनेक पुत्रियां हों इसमें कोई गुरेज नहीं क्योकि ऐसे लोगो की धार्मिक मान्यता है कि वंश पुत्र से ही चलता है । इसलिए सबसे पहले उन्हें जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक करने की महती आवश्यकता है। यह समझने की जरूरत है कि जनसंख्या को बढ़ाकर हम अपने आने वाले कल को ही खतरे में डाल रहे हैं। वस्तुतः बढ़ती जनसंख्या के कारण भारी मात्रा में खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो रहा है। जिसके कारण देश में भुखमरी, पानी व बिजली की समस्या, आवास की समस्या, अशिक्षा का दंश, चिकित्सा की बदइंतजामी व रोजगार के कम होते विकल्प इत्यादि प्रकार की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। 

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या 2024 तक चीन की भारी आबादी को पीछे छोड़कर काफी आगे निकल जायेगी। सन 2100 तक भारत दुनिया का सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बन जायेगा। 

हमें समझना चाहिए कि बेहताशा बढ़ती जनसंख्या न केवल वर्तमान विकास क्रम को प्रभावित करती है, बल्कि अपने साथ भविष्य की कई चुनौतियां भी लेकर आती है। भूखों और नंगों की तादाद खड़ी करके हम खाद्यान्न संकट, पेयजल, आवास और शिक्षा का खतरा मोल ले रहे हैं। लोकतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील कर देश की गरीबी को बढ़ा रहे हैं। सालों पहले प्रतिपादित भूगोलवेत्ता माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत के मुताबिक मानव जनसंख्या ज्यामितीय आधार पर बढ़ती है लेकिन वहीं, भोजन और प्राकृतिक संसाधन अंकगणितीय आधार पर बढ़ते हैं। यही वजह है कि जनसंख्या और संसाधनों के बीच का अंतर उत्पन्न हो जाता है। कुदरत इस अंतर को पाटने के लिए आपदाएं लाती है। कभी सूखा पड़ता है तो कभी बाढ़ इसकी मिसालें हैं। इसी तरह डार्विनवाद के प्रणेता चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत के मुताबिक ''जीवन के लिए संघर्ष' लागू होता स्पष्ट नजर आ रहा है। सीमित जनसंख्या में हम बेहतर और अधिक संसाधनों के साथ आरामदायक जीवन जी सकते हैं, जबकि जनसंख्या वृद्धि के कारण यही आराम संघर्ष में परिवर्तित होकर शांति-सुकून को छीनने का काम करता है। 

आज देश की सभी समस्याओं की जड़ में जनसंख्या-विस्फोट है। विश्व के सबसे अधिक गरीब और भूखे लोग भारत में हैं। कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है। बेरोजगारी से देश के युवा परेशान हैं। युवा शक्ति में निरंतर तनाव बढ़ता जा रहा है जो देश में बढ़ते हुए अपराधों का एक सबसे बड़ा कारण है। बढ़ती हुई जनसंख्या चिंता का विषय है।

सरकार से उम्मीद है कि वह जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाये ।

सोमवार, 15 मई 2023

अशफ़ाक़ उल्ला खान

भारत माँ के वीर सपूत , अमर बलिदानी , शहीदे आजम अशफ़ाक़ उल्ला खान की जयंती पर शत शत नमन । फांसी के समय उनकी उम्र मात्र 27 साल थी । 

अशफ़ाक़ उल्ला खान एक महान क्रांतिकारी होने के साथ उच्चकोटि के शायर भी थे । उनकी गजले देशभक्ति की भावना से भरी हुई हैं । 
उस वक़्त भी अनेक लिबरल हिंदुस्तानी थे जो अंग्रेजी राज्य को अच्छा मानते थे और उनके सपोर्टर थे । आज भी देश को ऐसे ही  आस्तीन के सापों से ज्यादा खतरा है जो विदेशी टुकड़ों पर पल रहें हैं । इन लोगो के लिये अशफ़ाक़ जी लिखते हैं -

न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई तुर्की,
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी जो आज हमको मिटा रहे हैं ।

चलो-चलो यारो रिंग थिएटर दिखाएँ तुमको वहाँ पे लिबरल,
जो चन्द टुकडों पे सीमोज़र के नया तमाशा दिखा रहे हैं।

उनकी अंतिम इक्षा थी -

ख़ुदा अगर मिल गया कहीं 
अपनी झोली फैला दूंगा 
और जन्नत के बदले उससे 
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा 
फिर आकर ऐ भारत माता 
तुझको आज़ाद कराऊंगा ।

22 october 2020


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जालियाँवाला बाग

नमन कर रहा हूँ उनको जिनका तन-मन भारत माँ को अर्पित है.
भारत माँ अपने बेटों की कुर्बानी पर गर्वित है.
जिन लोगो का लहू बह गया जलिया वाले बाग में,
उनके चरणों में शब्दों का श्रद्धा सुमन समर्पित है.
जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) हुआ था। रौलेट एक्ट और किचलू और डॉ॰ सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी !! रॉलेट ऐक्ट मार्च 1919 में भारत की ब्रिटनी सरकार द्वारा भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से निर्मित कानून था। यह कानून “सर सिडनी रौलेट” की अध्यक्षता वाली समिति की शिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। इसके अनुसार ब्रिटनी सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना दंड दिए उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था l इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जूलूस और प्रदर्शन होने लगे। गाँधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे,  जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद  लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा।
सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। 10  मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहां तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया।! 
मुख्यालय वापस पहुँच कर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फ़ौज ने हमला किया था जिससे बचने के  लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ी !!
एक अनुमान के मुताबिक़ जलियांवाला बाग़ हत्याकांड में कम से कम 1300 लोगों की जानें गयी थी जबकि जलियावाला बाग़ में लगी पट्टिका पर मात्र 120 लोगों की मरने की सूचना दी गयी है !!
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकाण्ड के विरोध-स्वरूप अपनी नाइटहुड को वापस कर दिया ! पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था परंतु इस घटना से  पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ कियाथा !! भगतसिंह जलियावाला बाग़ की वो मिट्टी को (जिस पर निर्दोष भारतीयों का खून गिरा था)  एक छोटी सी शीशी में भरकर लाये थे ! और हर वक़्त वो उस शीशी को अपने साथ ही रखते थे !!
जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह इसका बदला लेंगे।  13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल डायर को गोली चला के मार डाला ! ऊधमसिंह को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की कड़े शब्दों में निंदा की थी !!

हर दमन चक्र की तिमिर निशा में
अविरल जलता चिराग हूं ,
क्रांति क्षेत्र, शोणित सिंचित ,
मैं जलियांवाला बाग हूं ।

अश्रुपूर्ण 103 वर्ष 13 april 1919

यतीन्द्रनाथ दास

श्री यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये।
लाहौर षड्यंत्र अभियोग में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिकारियों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र,जबकि कांग्रेसी सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से मारपीट किया करते थे और उनको अमानवीय यातनाये ढ़ी जाती थी । इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी। जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने यतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है, ‘विजय या मृत्यु।'

यतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था।  यतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।

अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन खाद्य-पदार्थों को  छूना तो दूर देखते तक न थे।

जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। यतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज यतीन्द्र के चेहरे पर विशेष मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने यतीन्द्र का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे' और फिर ‘वन्दे मातरम्' गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी यतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया। देश के लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया । आज उनकी जयंती पर शत शत नमन ।

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कहाँ गए सुभाष

जीवन अपना दांव लगाकर
दुश्मन सारे खूब छकाकर
कहां गया वो, कहां गया वो
जीवन-संगी सब बिसराकर?

तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
मैं तुमको आजादी दूंगा
लेकिन उसका मोल भी लूंगा
खूं बदले आजादी दूंगा
बोलो सब तैयार हो क्या?
 
गरजा सुभाष, बरसा सुभाष
वो था सुभाष, अपना सुभाष
नेता सुभाष, बाबू सुभाष
तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
अपना सुभाष, अपना सुभाष। 
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वे कहां गए, वे कहां रहे, ये धूमिल अभी कहानी है, 
हमने तो उसकी नयी कथा, आज़ाद फ़ौज से जानी है।
आखिर कहाँ गए नेताजी सुभाष चंद्र बोस : 
यह संभव है कि 1945 मेँ नेताजी ने विमान दुर्घटना और अपनी मौत की खबर स्वयं फैलाई हो ताकि अंग्रेजो को चकमा दिया जा सके । विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी रूस जाना चाहते थे । यह बात उन्होंने अपने करीबियों को बताई थी और जापानियों से अपने मंचूरिया जाने का प्रबंध करने को कहा था । संभवतः नेताजी उस विमान में बैठे ही नहीं जिसकी दुर्घटना की बात कही जाती है , और ऐसी कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं । नेताजी की मृत्यु पर बने सभी सरकारी जांच आयोगों ने सही तरह से जांच किये बगैर वही निष्कर्ष दे दिया जो सरकार चाहती थी । सरकारी ढोल बजाने वाले इन जांच आयोगों ने देश की जनता से विश्वासघात किया ।
संभवतः अपनी मौत की खबर फैला कर ताईपेह से नेताजी मंचूरिया गए । अभी मंचूरिया चीन का प्रान्त है मगर उन दिनों यह रूस का अंग था । नेताजी को भरोसा था कि रूस की साम्यवादी   सरकार उनको साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए सहायता देगी । कुछ लोग मानते हैं कि मंचूरिया पहुचकर नेताजी मास्को गए वहां स्टालिन ने विश्वासघात किया और  नेहरू के कहने पर नेताजी को गिरफ्तार कर साइबेरिया की जेल में रखा । 
यह भी कहा जाता है कि 1952 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रूस में भारत के राजदूत थे । उनको किसी रूसी अखिकारी ने बताया कि आपके नेताजी हमारी जेल में है । नेताजी को किसी अन्य नाम से जेल में रखा गया था । राधाकृष्णन को इस बात पर भरोसा नहीं हुआ उन्होंने स्वयं नेताजी को देखने की इक्षा व्यक्त की । राधाकृष्णन साइबेरिया गए । वहां उन्होंने दूर से नेताजी को देखा । डॉ राधाकृष्णन ने रूसी अधिकारियो से बात कर उनके प्रथक सेल में रखने और दो सहायक  तथा अन्य सुविधाये दिए जाने की व्यवस्था की । मास्को आकर डॉ राधाकृष्णन ने नेताजी की रिहाई हेतु नेहरूजी से बात की । नेहरूजी ने डॉ राधाकृष्णन को चुप रहने को कहा और उनको  भारत बुला कर उपराष्ट्रपति ( बाद में राष्ट्रपति) बनवा दिया,  ऐसा कुछ लोग मानते हैं ।

यह भी कहा जाता है कि लालबहादुर शास्री जब  विदेश मंत्री और बाद में प्रधान मंत्री बने तब गोपनीय फाइलों द्वारा उनको नेताजी के रूस में होने का पता चला । 1968 में ताशकंद रूस में लालबहादुर शास्री नेताजी की रिहाई कराने का प्रयास कर रहे थे तभी उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी और नेहरू की बेटी प्रधानमंत्री बन गयी । इसके बदले KGB को भारत में कार्य करने की अनुमति और रूस को अयस्क निकलने की अनुमति और सोवियत विचारधारा के प्रचार तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को फंडिंग की अनुमति आदि मिली ।  माना जाता है कि शास्री जी की मौत का  सुभाष चंद्र बोस की रिहाई से गहरा सम्बन्ध है ।

अगर नेताजी भारत आ जाते तो उन्हें छुप कर रहने की जरूरत न पड़ती , पूरा देश उनका साथ देता और द्वितीय विश्वयुद्ध के अपराधियों को पकड़ कर इंग्लैंड के सुपुर्द करने की संधि किसी काम न आती । इसलिए उनके फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा बन कर रहने वाली बात सही हो सकती है या नही , इस पर भी कोई ठोस सरकारी इन्वेस्टिगेशन नही हुआ ।
मेरे गुरु डॉ एम् पी चौरसिया अनेक वर्षों तक रूस में रहे , 1958 में जब वे मास्को पावर इंस्टिट्यूट में कार्यरत थे तब उन्हें एक रूसी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर ने बताया कि वह साइबेरिया ट्रांसमिशन लाइन में कार्यरत था । उसने डॉ चौरसिया को बताया कि वहां कोई भारतीय रहता है जिसे एक कोठी , घोड़े तथा नौकर मिले हुए है । उस भारतीय को साइबेरिया के उस गाँव से बाहर जाने की अनुमति नहीं है । इसकी निगरानी वहां की पुलिस करती है । डॉ चौरसिया का मानना था कि वह भारतीय सुभाष चंद्र बोस ही है । यह डॉ चौरसिया ने मुझे 1984 में बताया था । 

सत्य जो भी हो हर देशवासी को पूरा अधिकार है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जानने का और उन ग़द्दारों के बारे में भी जानने का जिनकी वजह से नेताजी आजादी के बाद भी अपने देश नहीं आ सके ।



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मुंशी प्रेमचंद

जिहाद , नमक का दरोगा, पंच परमेश्वर, पूस की रात, ईदगाह आदि हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कालजयी कहानियां है - जिनके लेखक थे मुंशी प्रेमचंद । 

आज की युवा पीढ़ी को ये कहानियां अवश्य पढ़नी चाहिए जो आज भी सामयिक हैं ।
सन् 1929 में अंग्रेजी सरकार ने प्रेमचंद की लोकप्रियता के चलते उन्हें 'रायसाहब' की उपाधि देने का निश्चय किया।

तत्कालीन गवर्नर सर हेली ने प्रेमचंद को खबर भिजवाई कि सरकार उन्हें रायसाहब की उपाधि से नवाजना चाहती है। उन दिनों रायसाहब को सरकार की तरफ से घोड़ा गाड़ी कोचवान बंगला अर्दली और मासिक रुपये दिए जाते थे ।  प्रेमचंद ने इस संदेश को पाकर कोई खास प्रसन्नता व्यक्त नहीं की, हालांकि उनकी पत्नी बड़ी खुश हुईं और उन्होंने पूछा, उपाधि के साथ कुछ और भी देंगे या नहीं? प्रेमचंद बोले, 'हां!

कुछ और भी देंगे।' पत्नी का इशारा धनराशि आदि से था। प्रेमचंद का उत्तर सुनकर पत्नी ने कहा, तो फिर सोच क्या रहे हैं? आप फौरन गवर्नर साहब को हां कहलवा दीजिए।

प्रेमचंद पत्नी का विरोध करते हुए बोले, मैं यह उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।

कारण यह है कि अभी मैंने जितना लिखा है, वह जनता के लिए लिखा है, किंतु रायसाहब बनने के बाद मुझे सरकार के लिए लिखना पड़ेगा। यह गुलामी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसके बाद प्रेमचंद ने गवर्नर को उत्तर भेजते हुए लिखा, "मैं जनता की रायसाहबी ले सकता हूं, किंतु सरकार की नहीं।" प्रेमचंद के उत्तर से गवर्नर हेली आश्चर्य में पड़ गए।

(आज तो सरकारी सुख सुविधा लेने के लिए लेखकों पत्रकारों की लंबी फेहरिस्त है )

प्रेमचंद दलित नही थे मगर उन्होंने दलितों के लिए , उनकी समस्याओं पर जितना ज्यादा लिखा उतना आज तक कोई नही लिख सका । 
प्रेमचन्द के कहानी साहित्य में राष्ट्रीयता का स्वर सबसे ज्यादा मुखर है। उस युग के स्वतंत्रता आंदोलन ने ही प्रेमचन्द जैसे संवेदनशील लेखकों में राष्ट्रीयता जैसा प्रबल भाव डाला था।

 प्रेमचन्द गाँधी जी से बहुत प्रभावित हुए थे और राष्ट्रीयता के क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मानकर चले थे। गाँधी जी के आवहान पर सरकारी नौकरी छोङने वाले प्रेमचंद जी की कहानियोँ में समाज के सभी वर्गों का चित्रण बहुत ही सहज और स्वाभाविक ढंग से देखने को मिलता है।माँ, अनमन, दालान (मानसरोवर-१) कुत्सा, डामुल का कैदी (मानसरोवर-२) माता का हृदय, धिक्कार, लैला (मानसरोवर-३) सती (मानसरोवर-५) जेल, पत्नी से पति, शराब की दुकान जलूस, होली का उपहार कफन, समर यात्रा सुहाग की साड़ी (मानसरोवर-७) तथा आहुति इत्यादि वे कहानियाँ हैं जिनमें राष्ट्रीयता के विष्य को प्रमुखता से डाला गया है।इन कहानियों ने प्रेमचन्द ने एक इतिहासकार की भांति राष्ट्रीय आंदोलन के चित्र खींचे हैं।  उन्होंने विश्वास जैसी कहानी के माध्यम से गाँधी जी के आदर्शों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया।

प्रेमचन्द के मानस में भारतीय संस्कार अपेक्षाकृत अधिक प्रबल थे। विदेशी सभ्यता, संस्कृति आचरण एवं शिक्षा के प्रति उनकी आस्था दुर्बल थी।प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंडों को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। 

व्यक्तिगत जीवन में भी मुंशी प्रेमचंद जी सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन यापन करते थे, दिखावटी तामझाम से दूर रहते थे। एक बार किसी ने प्रेमचंद जी से पूछा कि – “आप कैसे कागज और कैसे पैन से लिखते हैं ?”

मुंशी जी, सुनकर पहले तो जोरदार ठहाका लगाये फिर बोले – “ऐसे कागज पर जनाब, जिसपर पहले से कुछ न लिखा हो यानि कोरा हो और ऐसे पैन से , जिसका निब न टूटा हो।‘

थोङा गम्भीर होते हुए बोले – “भाई जान ! ये सब चोंचले हम जैसे कलम के मजदूरों के लिये नही है।“

मुशी प्रेमचंद जी के लिये कहा जाता है कि वो जिस निब से लिखते थे, बीच बीच में उसी से दाँत भी खोद लेते थे। जिस कारण कई बार उनके होंठ स्याही से रंगे दिखाई देते थे।
प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से एक हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।


महान लेखक प्रेमचंद के जन्मदिवस पर उनको सादर  नमन 
🙏🙏🙏

परसाई जी का घर

लगभग 37 साल पहले मैं इस घर मे परसाई जी से मिला था । 

तब मैं बी. ई. तृतीय वर्ष का छात्र था ।  जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर दिनेश खरे (सिविल) कालेज में साहित्यिक कार्यक्रमों के इंचार्ज थे और हमारे एक सीनियर समीर निगम "सारिका कहानी मंच" के संयोजक थे । उनके साथ मुझे परसाई जी के घर जाने का अवसर मिला । परसाई जी को सभी साहित्यकार दादा कहते थे और रामेश्वर अंचल जी को दद्दा । उनका सिगरेट पीते रहना , बिंदास स्वभाव और ठहाके लगा कर बोलना आज भी याद है। हरिशंकर परसाई एक सरल और सहज व्यक्तित्व थे, उनका स्वाभाव मजाकिया था । फक्कड़ की तरह रहते थे । 

देश के जागरुक प्रहरी के रूप में पहचाने जाने वाले हरिशंकर परसाई जी ने लेखन में व्यंग्य की विधा को चुना, क्योंकि वे जानते थे कि समसामयिक जीवन की व्याख्या, उनका विश्लेषण और उनकी भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और दूसरा हो नहीं सकता ।  उनकी अधिकतर रचनाएं सामाजिक राजनीति, साहित्य, भ्रष्टाचार, आजादी के बाद का ढोंग, आज के जीवन का अन्तर्विरोध, पाखंड और विसंगतियों पर आधारित है । उनके लेखन का तरीका मात्र हंसाता नहीं वरन् आपको सोचने को बाध्य कर देता है। 

परसाई जी ने सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की जितनी समझ पैदा की उतना  हमारे युग में प्रेमचंद के बाद कोई और लेखक नहीं कर सका है । 

आज लगभग 37 वर्ष बाद किसी कार्यवश उस तरफ जाना हुआ तो सोचा चलो परसाई जी का घर भी देख ले । 

अब वहां पर कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यालय है । परसाई जी की स्मृति कही नजर नही आई ।


हरिशंकर परसाई जी व्यंग्य लेखक को डॉक्टर की जगह रखते थे. जैसे डॉक्टर पस को बाहर निकालने के लिए दबाता है. वैसे व्यंग्य लेखक समाज की गंदगी हटाने के लिए उस पर उंगली रखता है. उसमें वो कितने कामयाब हुई ये बताना नापने वालों का काम है. हमारा तुम्हारा काम है उनको और पढ़ना.

NTPC के रामाराव साहब

NTPC के रामाराव साहब 

NTPC विंध्याचल में AGM थे रामाराव साहब , विशाल आध्यात्मिक व्यक्तिव वाले। कॉलोनी में उनका घर था , जिसमे प्रवेश करते ही ऐसा लगता था जैसे मंदिर में आ गए हो । हर कमरा एक भव्य मंदिर । रामाराव साहब सत्यसाई बाबा के परम भक्त थे और विभिन्न सेवा कार्यो में लगे रहते थे । उन दिनों मैं बैढन के 132 केवी उपकेंद्र में पदस्थ था और विभिन्न कार्यो से मुझे विंध्याचल पावर स्टेशन जाना पड़ता था । इस वजह से रामाराव साहब से पहचान हुई । वे अक्सर मुझे अपने सेवा कार्यो में आने को बोलते थे और मैं कन्नी काट जाता था ।

 उन दिनों मुझे मोरवा अमरकंटक ई एच टी लाइन के टावर 446 का कार्य करने के लिए दुर्गम इलाके में जाना पड़ता था । यह स्थान एक आदिवासी इलाका था और सोनभद्र जिले से लगा हुआ था । लगभग 25 साल पहले यहां की दशा बहुत खराब थी । इन गांवों में कोई बीमार पड़ जाए तो 25 किमी तक कोई अस्पताल या स्वास्थ सेवा उपलब्ध नही थी । बीमार को खटिया में लिटाकर ग्रामीण 25 किमी पैदल ले जाते थे । 

एक बार रामाराव साहब से मैने इस बारे में चर्चा की तो बोले आप वहां एक निशुल्क अस्पताल खोल दीजिये । मैने पूछा कि मैं यह कैसे कर सकता हूँ ? तो उन्होंने कहा कि आप संकल्प ले लीजिए बाकी सब व्यवस्था  ईश्वर कर देगा । सबसे पहले नजदीक के किसी कस्बे में कोई खाली मकान देखिए जिसमे अस्पताल चलाया जा सकता हो । 

हमने काफी तलाश किया तो मिश्रा जी का टीन शेड वाला खाली घर मिल गया । हमने उनको अपनी योजना बताई और पूछा कितना किराया लेंगे तो वे बोले आप इन आदिवासियों के लिए  नेक काम कर रहे हैं इसलिए सिर्फ 1 रुपया प्रति माह । 

फिर अन्य लोगो के सहयोग से हमें बेड, स्ट्रेचर, कुर्सियां टेबल मिली , रामाराव साहब के सहयोग से NTPC हॉस्पिटल के डॉक्टर वहां जा कर सप्ताह में एक दिन निःशुल्क सेवा देते । दवाइया भी आ गयी । कुछ वर्ष बाद हमारे प्रयासों से और लायंस क्लब , रोटरी क्लब आदि के सहयोग से वहां एक्स रे मशीन और पैथोलॉजी भी हो गयी । 

रामाराव साहब की प्रेरणा से इस प्रकार शुरुआत हुई "मानस सेवा चिकित्सालय"  की,  जो आज भी चल रहा है ।

अनाहिता Anahita

अनाहिता Anahita 

अनाहिता का अर्थ होता है - किसी का अहित न करने वाली , निर्दोष , बेदाग , सुंदर 

देवी के 1008 नामों में एक नाम अनाहिता भी है 

सायरस मिस्त्री की दुर्घटनाग्रस्त हुई कार को चला रही महिला का नाम डॉ अनाहिता पंडोले था । मॉडल व टीवी ऐक्ट्रेस अनाहिता भूषण का नाम भी सुना होगा ।

400 ईसा पूर्व से देवी माँ के अनाहिता रूप में मंदिर ईरान में पाए जाते थे जहां पारसी उनकी उपासना सरस्वती के अवतार, नदी व जल की शक्ति के रूप में करते थे । 
633 से 661 ईसवी में ईरान पर हुए इस्लामी आक्रमण में अनाहिता देवी के सभी मंदिर नष्ट हो गए , किंतु अभी ईरान के बिशुपुर व कंगवार में माँ अनाहिता मंदिर के अवशेष पाए जाते है । मंदिर के स्तंभों व दीवारों को देख कर अनुमान लगाया जा सकता है कि ये कितने विशालकाय मंदिर रहे होंगे । 
अवेस्ता के अनुसार अहुरा मज़्दा द्वारा निर्मित विश्व का समस्त जल स्रोत आर्यदेवी सुरा अनाहिता से उत्पन्न होता है, जो सभी देशों को समृद्धि प्रदान करने वाली, जीवनदायिनी, पालतू पशुओं का झुण्ड बढ़ाने वाली, कृषि में कई गुना वृद्धि करने वाली है। वह मिट्टी की उर्वरता और फसलों के विकास के लिए जिम्मेदार है जो मनुष्य और जानवर दोनों का पोषण करती हैं । उनका वाहन सिंह है ।
यही वैदिक साहित्य में मिलता है -
नदीगत जलरूपो नाद्यः नमो अनाहिता चेति श्रुतिः ।।

 देवी अनाहिता की जय हो 🙏

दादाजी भोलानाथ तिवारी

दादाजी भोलानाथ तिवारी 

पिताजी के चाचा डॉ भोलानाथ तिवारी को विश्व का सबसे महान भाषा विज्ञानी कहना अनुचित न होगा । उनको विश्व की 5000 भाषाओं का ज्ञान था । उन्होंने भाषा विज्ञान (language and linguistics) पर 88 पुस्तकें लिखी । वे 12 भारतीय भाषाएं , 10 यूरोपीय भाषाएं और 8 एशियाटिक भाषाएं फर्राटे से बोलते थे । आज जब भी भाषाविज्ञान की कही रेफेरेंस देने की बात आती है तो उन्हीं का नाम लिया जाता है । किशोरावस्था में मुझे ऐसे महान व्यक्ति का सानिध्य प्राप्त हुआ ।  
संस्कृत भाषा की दो शाखाओं - शतम व कंटम के बारे में उनका यह सूत्र विश्वप्रसिद्ध है :-

ईरानी भारती चैव, बाल्टी सुस्लाविकी तथा ।
आर्मीनी अल्बानी चेता:, शतम वर्गे समाश्रिताः ।।
इटालिकीयूनानी च , जर्मनिक केल्टीकी तथा ।
हित्ती तोखारिकी चेता:, कण्टुम वर्गे प्रकीर्तिताः ।।

मैकाले की टूल किट

मैकाले की टूल किट 

मैकाले की सोच -- हमे एक ऐसी कौम बनानी है जो देखने मे हिंदुस्तानी हो मगर दिलोदिमाग से अंग्रेजों की गुलाम हो । 1857 का संग्राम हम देख चुके है ।  एक दिन हम अंग्रेजो को भारत से जाना ही होगा लेकिन जाने से पहले हम इन हिंदुस्तानी लोगों को अपनी मानसिक गुलाम कौम बना देंगे । और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा ।
(कल्पना करिए कि उस वक़्त क्या बातचीत हुई होगी)

 फिर मैकाले अपने शिष्य कर्जन और डलहौजी से बोले - हमे ये करना है जिससे कि -

- ये लोग अपने धर्म और संस्कृति पर ग्लानि व शर्म महसूस करें व उसका मखौल उड़ाए  किंतु दूसरे धर्म को अच्छा समझे 
-ये लोग अपने सभी साधु संतों को पाखंडी समझे और पोप पादरी बाइबिल को महान समझे
-ये लोग अपने प्राचीन विज्ञान को पाखंड और झूठ माने और विदेशी विज्ञान को श्रेष्ठतम माने 
- ये लोग अपनी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेदिक और यूनानी को बकवास और अवैज्ञानिक माने और अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति को श्रेष्ठ मानें
-ये लोग अपनी भाषा में पढ़ने लिखने बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखे और अंग्रेजी पढ़ने लिखने बोलने वालों को उच्च मानें । अंग्रेजी पढ़ने वालों की भारतीय समाज मे बड़ी इज्जत हो , उनको ही बड़ी नौकरियां मिलें ।
-इनके लाखो गुरुकुल जो मंदिरों में चलते है वे बंद करवाओ , इनकी शिक्षा व्यवस्था तबाह कर दो और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लागू करो ।  स्कूलों में इनके बच्चों को वही पढवाओ जो हम चाहते हैं । शिक्षा को सिर्फ नौकरी पाने का जरिया बना दो । 
-इनकी किताबे बदल दो और अंग्रेजी किताबे चला दो । हमे ऐसा करना है कि आगे 50 सालों में भारत मे संस्कृत और फ़ारसी पढ़ने और समझने वालों की संख्या 1% से भी कम हो जाये। 
-ये लोग ऐसा साहित्य पढ़े (और ऐसी फिल्में देखे) जिसमे क्षत्रिय को अय्याश अत्याचारी राजा या जमीन्दार , ब्राह्मण को धूर्त पाखंडी , वैश्य को सूदखोर लालची व शूद्र को इनके जुल्म सहने वाला बताया हो 
- ये लोग अपनी परंपराओं को ब्राह्मणवाद कह के मजाक उड़ाए और विरोध करें 
-इनको बताओ कि तुम्हारे पास कुछ भी श्रेष्ठ नही था , जो भी श्रेष्ठ है वो हम यूरोपीय लोगो ने तुमको दिया है 
- इनको बताओ कि तुम लोग भी हमारी तरह  बाहरी हो और तुम्हारे पूर्वज यूरोप से आये थे , तुम्हारी भाषा भी यूरोपीय लोगो की देन है 
- इनके देशज वस्त्र जो इनके देश के मौसम के अनुसार कम्फ़र्टेबल होते है -जैसे धोती कुर्ता गमछा उत्तरीय आदि को पहनने में इनको शर्म आये और ये इंग्लैंड के ठंडे मौसम के अंग्रेजी वस्त्रों जैसे शर्ट सूट पैंट टाई कोट को पहनने में गर्व अनुभव करें 
- ये लोग अपने नायकों का मजाक उड़ाए और विदेशी आक्रमणकारियों की तारीफ करें 
- इनको बताओ कि तुम लोग कभी एक देश नही थे । हम अंग्रेजो ने तुमको एक देश बनाया । 

डलहौजी ने पूछा सर कैसे किया जाएगा यह सब -

मैकॉले बोला - एक झूठ को यदि 100 बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है । पहले यह काम जर्मन और अंग्रेज विद्वान करेंगे फिर गुलाम भारतीय खुद ही करेंगे । हम मैक्स मूलर , स्पीयर, मेटकाफ जैसे लोगो को तनख्वाह देंगे यह काम करने के लिए । समझे डलहौज़ी , तुम मेरा बनाया हुआ इंडियन एडुकेशन एक्ट तुरंत लागू करो  । इनको धर्म जाति भाषा क्षेत्र के आधार पर बांटते जाओ और लड़वाते जाओ। 

देखना डलहौज़ी भारत की आजादी के बाद एक दिन ऐसा आएगा कि जो भारत के टुकड़े होने की बात करेगा , जो आतंकवादी नक्सली का समर्थन करेगा उसका साथ देने के लिए हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । जो भगवा पहनेगा या संस्कृत आयुर्वेद गीता पढ़ने की बात करेगा उसका विरोध करने हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । भारत में भारत माता की जय बोलने वालों को मूर्ख समझा जाएगा । 
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मैकाले की टूल किट सफल हुई । आज भी हमारे बीच मे बहुत से लोग इसी टूलकिट के अनुसार दिलोदिमाग से अंग्रेजो के गुलाम बन हुए हैं ।

ऐसे लोगो को  देश और समाज के हित में अपने दिमाग को अब decolonized कर लेना चाहिए ।

indian history in hindi, भारतीय इतिहास

निर्भया का इलाज करने वाले डॉक्टर विपुल कंडवाल

सफदरजंग अस्पताल में निर्भया का इलाज करने वाले डॉक्टर विपुल कंडवाल 

एक मुलाकात में उन्होंने बताया कि निर्भया की हालत देख वे अंदर से दहल गए थे। जिदंगी में पहले कभी ऐसा केस नहीं देखा था।मेरे सामने 21 साल की एक युवती थी। उसके शरीर के फटे कपड़े हटाए, अंदर की जांच की तो दिल मानों थम सा गया। ऐसा केस मैंने अपनी जिदंगी में पहले कभी नहीं देखा। मन में सवाल बार-बार उठ रहा था कि कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है? मैंने खून रोकने के लिए प्रारंभिक सर्जरी शुरू की। खून नहीं रुक रहा था। क्योंकि रॉड से किए गए जख्म इतने गहरे थे कि उसे बड़ी सर्जरी की जरूरत थी। आंत भी गहरी कटी हुई थी। मुझे नहीं पता था कि ये युवती कौन है।  काश हम निर्भया की जान बचा पाते । 

डॉक्टर साहब और उनकी टीम ने पूरी सामर्थ्य से अपना कार्य किया । किन्तु लेकिन तमाम कोशिश के बावजूद निर्भया को बचाया नहीं जा सका इसका उन्हें बहुत अफसोस है । 
डॉक्टर साहब से काफी बातें हुईं । आजकल डॉक्टर साहब देहरादून में पदस्थ हैं । अभी भी उनसे बातें होती रहती है । एक बात और मालूम हुई - डॉ साहब गढ़वाली लोकगीत बहुत अच्छा गाते हैं । उन्होंने एक गीत भी हमे सुनाया -- ठंडो रे ठंडो .....

खुशमिजाज , सरल स्वभाव , अतिविनम्र और अभिमानरहित मित्र का अभिनंदन !!!

शनिवार, 13 मई 2023

अब्बास अली जी

अब्बास अली जी :

आदरणीय अब्बास अली का जन्म 1920 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुआ । स्कूली जीवन से भगत सिंह , चंद्रशेखर आजाद के विचारों से प्रभावित होकर आप नौजवान भारत सभा मे शामिल हो गए । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए आपने कुँवर मोहम्मद अशरफ के साथ ब्रिटिश राज विरोधी छात्र आंदोलनों में हिस्सा लिया । आप लगभग 50 बार जेल गए ।  द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आप सेना में चले गए । नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आव्हान पर 1945 में आपने ब्रिटिश सेना छोड़ कर आजाद हिंद फौज जॉइन कर ली । अरकान और रंगून की लड़ाई में आपने बहुत बहादुरी का परिचय दिया , आपको आजाद हिंद फौज में कैप्टन का पद मिला ।  कोहिमा की लड़ाई में आप अंग्रेजो द्वारा पकड़ लिए गए । आपका कोर्ट मार्शल हुआ और आप को आजीवन कारावास की सजा मिली । 

1947 में देश आजाद होने पर कैप्टन अब्बास अली को जेल से रिहा कर दिया गया , किंतु विश्वयुद्ध अपराधी होने के कारण उनको कोई सरकारी सहायता नही मिली । 

1948 में आपने सोशलिस्ट पार्टी जॉइन की और आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया आदि के साथ रहे ।

1975 में इमरजेंसी का विरोध करने के कारण इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपको जेल भेज दिया गया । आप 19 माह जेल में रहे । 

2014 में अलीगढ़ में बीमारी से आपका निधन हुआ । 

महान देशभक्त भूमिपुत्र अन्यायविरोधी सच्चे सिपाही अब्बास अली जी को शत शत नमन 🙏🙏🙏

अब्बास अली जी ने अपनी प्रेरक आत्मकथा "न रहूं किसी का दस्तनिगर" लिखी  है , जिसे सभी को पढ़ना चाहिए । पुस्तक का लिंक दिया है -

Na Rahoon Kisi Ka Dastnigar https://amzn.eu/d/1z5WMOt

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हिन्दू शब्द का अर्थ क्या है ?

एक बड़े नेता बोले है कि हिन्दू शब्द का अर्थ बहुत गंदा है , शर्मनाक है ...

हिन्दू शब्द का अर्थ क्या है ?

हमें बचपन से पढाया गया है कि प्राचीन ईरानी पारसी व ग्रीक “स“ को “ह“ बोलते थे . इस कारण वे सिन्धु नदी को हिन्दू बोलते थे . उनके  उच्चारण दोष के कारण यहाँ के निवासियों के धर्म का नाम हिंदू धर्म और इस देश का नाम हिन्दुस्थान पड़ गया !!!!
ऐसा इतिहास लिखने वाले अंग्रेजों की यह बताने की मंशा थी कि हिन्दुस्तानियों तुम तो जाहिल गंवार थे , तुम्हारे धर्म का कोई नाम न था , तुम्हारे देश का कोई नाम न था . विदेशियों ने तुम्हारे धर्म का नाम हिन्दू रखा , और तुम्हारे देश का नाम हिन्दुस्थान रखा . तब जा कर तुमको पहचान मिली .
 
हिन्दू शब्द की उत्पत्ति सिन्धु के गलत उच्चारण से हुई , इस फर्जी सिद्धांत का प्रवर्तक एक अंग्रेज मोनियर विलियम्स था . इसने थोड़ी संस्कृत भाषा सीखी और ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में संस्कृत – अंग्रेजी शब्दकोष की रचना की . साम्राज्यवादी मानसिकता से ग्रस्त मोनियर विलियम्स ने लन्दन में इंडियन कॉलेज (आज की भाषा मे कोचिंग सेंटर) खोला जो अंग्रेजो को भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की तैय्यारी करवाता था . 1846 से 1887 तक इसने हिन्दू धर्म , संस्कृत भाषा और व्याकरण , बुद्धिज़्म आदि पर कई अधकचरी पुस्तकें लिखी और कालिदास के नाटकों का गलत अंग्रेजी अनुवाद किया . इनको ब्रिटिश सरकार द्वारा सर की उपाधि प्रदान की गयी .
 
सिन्धु से हिन्दू की उत्पत्ति बताने वाले दूसरा साम्राज्यवादी अंग्रेज था  – हेनरी एलीअट (Henry Miers Elliot). ये महाशय ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में थे और बरेली में कलेक्टर थे . इसको फ़ारसी भाषा आती थी . इसने मुग़ल काल में लिखी गयी किताबों का अंग्रेजी में अनुवाद किया . इनको भी ब्रिटिश सरकार द्वारा सर की उपाधि प्रदान की गयी .
 
इन दोनों अंग्रेजो की बनायीं हुई सिन्धु – हिन्दू थ्योरी को विश्व भर में कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने फैलाकर मान्यता दी . यहाँ तक कि अनेक भारतीय इतिहासकार भी इनके झांसे में आ गए . 

एक इंटरनेशनल सम्मलेन में एक ईरानी मेरा मित्र बना . वो तो ‘स’ को ‘स’ ही बोलता था . मैंने उससे पूछा कि क्या तुम्हारे पूर्वज ‘स’ नहीं बोल पाते थे और ‘स’ को ‘ह’ बोलते थे , इस बात पर वह बड़ा आश्चर्यचकित था क्योकि उसने यह कभी नहीं सुना था . यही प्रश्न मै अपने पारसी मित्रो से भी कर चुका हूँ और वे सभी इस बात का खंडन करते हैं की उनके पूर्वज ‘स’ नहीं बोल सकते थे और ‘स’ को ‘ह’ बोलते थे. 

अंग्रेज इतिहासकार एक मात्र प्रमाण देते हैं कि पारसियों के धर्मग्रन्थ अवेस्ता में वैदिक “सप्त सिन्धु” को “हप्त हिन्दू” कहा गया है इससे साबित होता है की ये लोग ‘स’ को ‘ह’ बोलते थे . 
अगर ऐसा था तो अवेस्ता को अवेहता क्यों नहीं बोलते थे ? फारस को फारह क्यों नहीं बोलते थे  ?  अवेस्ता में सैकड़ो बार ‘स’ शब्द आया है , प्राचीन फारसी शहरों के नाम ‘स’ से हैं ( सुशन, अशूर आदि) , प्राचीन फारसी राजाओं के नाम में ‘स’ है (डेरिअस, क्षयार्ष आदि ) . जब ये सिन्धु का ‘स’ नहीं बोल सकते थे तो ये नाम कैसे बोलते होंगे ? जबकि प्राचीन फारसी भाषा में संस्कृत की तरह तीन भिन्न प्रकार के ‘स’ हैं :--- 
 
हिन्दू शब्द की वियुत्पत्ति के समर्थन में यह झूठ भी कहा जाता है कि हिन्दू शब्द किसी भी भारतीय ग्रन्थ में नहीं पाया जाता. जबकि यह शब्द ग्रीक, ईरानी, अरबी, अफगान, मुग़ल आक्रमणकारियों के समय के विदेशी लेखों में मिलता है . अतः हिन्दू शब्द भारतीय मूल का है ही नहीं. 

जबकि हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में हिन्दू शब्द अनेक स्थानों पर आता हैं –
गौतम बुद्ध के पूर्व रचित ब्रहस्पति–आगम में वर्णित है –
हिमालयं समारम्भ्य यवाद इन्दुसरोवरम l
तं देवनिर्मितं देश हिन्दुस्थानम प्रचक्षते lI
(अर्थात – हिमालय से लेकर इन्दुसरोवर–कन्याकुमारी तक देवताओं द्वारा निर्मित इस देश को हिन्दुस्थान कहते हैं)

बुद्धकाल में रचित वृद्धस्मृतीग्रंथ में कहा गया है –
हिंसया दुयते यश्च सदाचरण तत्पर :
वेद्गो प्रतिमासेवी स हिन्दुमुख शब्दभाक l 
(अर्थात – जो हिंसा से दुःख मानने वाला है और सदाचार में तत्पर है , वेद के मार्ग पर चलने वाला , प्रतिमा पूजक है वह हिन्दू है )

मौर्यकाल में रचित पारिजातहरण नाटक में परशुराम कहतें हैं –
हिनस्ति तपसा पापान दैहिकान दुष्टमानसान l
हेतिभी: शत्रुवर्गच स हिन्दु: अभिधीयते ll
(अर्थात- जो अपनी तपस्या बल से पापों और देहिक दोषों का नाश करता है तथा अस्त्र शस्त्र से शत्रु वर्ग का संहार करता है वह हिन्दू कहलाता है )

रामायणकालीन अद्भुतकोष में हिन्दू की परिभाषा दी गयी है –
“हिन्दुहिन्द्रूश्च प्रसिद्धौ दुष्टनाम च विघर्श्यये” 
(अर्थात- हिन्दु और हिंदू ये दोनों दुष्टों को पराजित करने वाले अर्थ में प्रसिद्द हैं )

रामकोश में वर्णित है – 
हिन्दु: दुष्टों ना भवति नानार्यो विदूषक :
सद्धर्मपालको विद्वान श्रौतधर्म परायण 
(अर्थात – हिन्दू न दुष्ट होता है , न अनार्य विदूषक . वह धर्म पालक , विद्वान और वेदधर्म को मानने वाला होता है )

13वी शताब्दी में रचित “ माधव दिग्विजय“ में उल्लेखित है-
ॐकार मूल मंत्राध्याय: पुनर्जन्मद्रधाषयl
गोभक्तो भारत गुरु: हिन्दू हिन्संदूषक II
(अर्थात- ओंकार जिसका मूल मन्त्र है , पुनर्जन्म में जिसकी दृढ आस्था है , जो गो भक्त है , भारत ने जिसका प्रवर्तन किया , और जो हिंसा को दूषित मानता है वह हिन्दू है ). 
इन उदाहरणों से पता चलता है कि हिन्दू शब्द संस्कृत मूल का है.

चीनी यात्रियों ने ‘हिन्दू’ के स्थान पर यहाँ के निवासियों के लिए ‘इन-तू’ शब्द प्रयोग किया और इसका अर्थ चन्द्रवंशीय लोग बताया . इन्दु का अर्थ चन्द्रमा भी होता है और यहाँ के निवासी चन्द्रमास का कलेंडर उपयोग करते हैं तथा स्वयं को हिन्दू कहते हैं ऐसा चीनी यात्री हुएनसांग (Xuanzang) ने सातवी शताब्दी में लिखा .

प्राचीन साहित्य में हिन्दू शब्द का अर्थ स्थानवाचक था जो कि मध्यकाल में गैर-मुस्लिमों के अर्थ में जाना जाने लगा . 
हिन्दू शब्द का अर्थ इस्लामिक साहित्य में  मुशरिक काफ़िर आदि बताया गया है . यहाँ तक कि 1964 में लखनऊ में प्रकाशित ‘लुघेत-ए-किश्वारी’ नामक फारसी शब्दकोष में ‘हिन्दू’ शब्द का मतलब चोर , डाकू , राहजन, गुलाम , दास बताया गया है.  

अनेक मनीषियों, व्याकरणाचार्यों , विद्वानों जैसे श्रीला प्रभुपाद , शिवानन्द स्वामी  , डेविड फ्रावले, आत्मशोधन पीठ के स्वामी , जर्मनी देश के भाषाविद व संस्कृत प्रोफेसर एक्सेल मिशेल आदि हिन्दू शब्द को ईरानी अपभ्रंश न मान कर विशुद्ध संस्कृत मूल का मानते है . अगर हिन्दू शब्द संस्कृत मूल का है तो इसका क्या अर्थ हुआ ? इन विद्वानों के अनुसार हिन्दू शब्द – हि और इन्दु से बना है . “हि” अर्थात ‘वास्तव में’ और “इन्दु” अर्थात ‘शक्तिशाली’ . अर्थात जो वास्तव में शक्तिशाली है वही हिन्दू है . 

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जननायक बिरसा मुंडा

15 नवंबर 2020
आज भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है, बिरसा मुंडा झारखंड के रहने वाले एक आदिवासी समाज के युवक थे, जिन्होंने सिर्फ़ 25 साल की उम्र में देश के लिए अंग्रेज़ों से लड़ते हुए अपनी जान दे दी लेकिन आज़ादी के बाद लिखे शब्दों के कूटरचित इतिहास में बिरसा मुंडा के बारे में एक भी अध्याय नहीं है।

बिरसा मुंडा आदिवासी युवक थे, जिन्हें उस समय इंग्लिश मीडियम के स्कूल में शिक्षा के लिए भेजा था उनके परिवार ने। बिरसा का पूरा परिवार ईसाई धर्म क़ुबूल कर चुका था और मुंडा समुदाय के ज़्यादातर लोग भी ईसाई बन चुके थे।
लेकिन बिरसा ने स्कूल में देखा कि मिशनरी स्कूल वाले आदिवासियों को ईसाई तो बनाना चाहते हैं लेकिन उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव करते हैं, तो उन्होंने वो स्कूल छोड़ दिया। उन्होंने हिन्दू धर्म का गहन अध्ययन किया । बिरसा ने कभी ईसाई धर्म नहीं कबूला और ईसाई बन चुके आदिवासियों को वापस हिंदू बनवाया। उन्होंने आदिवासी समाज मे व्याप्त भूत प्रेत डायन अंधविश्वास का विरोध किया और लोगो को जागृत किया । 

उसी समय चाईबासा जहाँ वो रहते थे, बहुत बड़ा अकाल पड़ा, लेकिन अंग्रेज़ों ने लगान वसूलना बंद नहीं किया तो बिरसा ने अपने साथियों को संगठित करके अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। अनेक स्थानों पर उनके संगठन का ब्रिटिश सेना से युद्ध हुआ । तांगा नदी के युद्ध मे उनको विजय प्राप्त हुई ।  लेकिन तीर कमान वाला उनका संगठन गोली बंदूक़ तोप वाले अंग्रेज़ों से हार गया।  उन्हें गिरफ्तार कर रांची जेल भेज दिया गया जहाँ सिर्फ़ 25 साल की उम्र में जेल में ज़हर दिए जाने से सन 1900 में उनकी मृत्यु हो गई।
जननायक क्रांतिकारी भगवान बिरसा मुंडा को शत शत नमन

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क्रांतिकारी वीरांगनायें

10 मई 1857 क्रांति दिवस 

1857 के प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम  पर एक पुस्तक का प्रकाशन नेहरु युवा केंद्र दिल्ली द्वारा किया गया था। इस पुस्तक का नाम था “साझी शहादत के फूल!” इस पुस्तक में कई उन नायिकाओं के विषय में बात की गयी है जिन्हें वामपंथी इतिहास में एकदम ही विस्मृत कर दिया है। कौन हैं, कहाँ हैं? कोई नहीं जानता। इस पुस्तक के 132वें पृष्ठ पर मुजफ्फर नगर जनपद की क्रान्तिकारी महिलाओं के विषय में जानकारी प्रदान की गयी है 
 आशा देवी गुज्जर: इनके पति मेरठ सैनिक विद्रोह में अग्रणी स्थान पर थे। जो पहला जत्था मेरठ से दिल्ली विजय के लिए गया था, वह उसके सदस्य थे। 11 मई को जैसे ही आशा देवी को यह समाचार प्राप्त हुआ, तो वह अपनी ससुराल तहसील कैराना के एक गाँव में थीं। उन्होंने वहीं पर संकल्प ले लिया कि वह हर मूल्य पर अंग्रेजों से मोर्चा लेगी? फिर उन्होंने नवयुवतियों की टोली बनाकर उसका संचालन किया। इसके साथ ही उन्होंने एक छापामार हमला करके 13 मई को कैराना के आसपास के सरकारी कार्यालयों एवं 14 मई को शामली तहसील पर हमला बोलकर अंग्रेज सरकार को बहुत हानि पहुंचाई।
भगवती देवी त्यागी: यह अद्भुत वीरांगना थीं। उन्होंने मुजफ्फरनगर का नाम रोशन किया था। 22 दिनों तक अपनी टोली के साथ जाकर प्रचार करती रही और गाती रही कि अंग्रेज अब बस जाने ही वाले हैं। जन जागरण करती थी और फिर अंतत: अंग्रेजों की पकड़ में आ गयी और उन्हें तोप से उड़ा दिया गया।

शोभा देवी ब्राह्मणी: यह अद्भुत योद्धा थीं, जिन्हें अंग्रेजों ने पकडे जाने पर फांसी दे दी थी। इन्होने अपनी महिला टोली बनाई थी और साथ ही जो उनकी टुकड़ी थी उसमें आधुनिक हथियारों से लेकर, तलवार, गंडासा, कृपाण आदि धारण किये गए सैनिक भी थे। एक दिन उनका सामना अंग्रेजी टुकड़ी से हुआ। सैकड़ों की संख्या में पुरुष और कई महिलाओं ने लड़ते लड़ते प्राण दिए। यह पकड़ में आ गईं और उन्हें फांसी दे दी गयी।

इस पुस्तक में इस लेख को लिखने वाले इतिहासकार अरुण गुप्ता और रघुनंदन वर्मा के अनुसार कई महिलाओं ने अपने प्राण देकर मुजफ्फरनगर की धरती को उस क्रान्ति में अमर कर दिया था। इन महिलाओं में और नाम थे भगवानी देवी, इन्द्र्कौर जाट उम्र 25 वर्ष, जमीला पठान उम्र 22 वर्ष, रणबीरी वाल्मीकि आदि। इन सभी ने अपनी अपनी टोली बनाकर अंग्रेजों का सामना किया था और उनमें से सभी को फांसी पर चढ़ा दिया गया था।

ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार मुजफ्फरनगर में 255 महिलाओं को फांसी पर चढ़ाया गया था और कुछ लड़ती-लड़ती मारी गयी थीं और थानाभवन काजी खानदान की श्रीमती असगरी बेगम को पकड़ कर अंग्रेजों द्वारा जिंदा जला दिया गया था।

एक ऐसी ही वीरांगना अजीज़न बाई भी थी । उनके बारे में बाद में लिखेंगे ।

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राना बेनी माधव

राना बेनी माधव 

(कवि प्रशांत सिंह चौहान)

सन सत्तावन की तश्वीरें पुनः दिखाने वाला हूँ,
मैं राणा बेनी माधव का इतिहास सुनाने वाला हूँ...

सन सत्तावन में भारत जब क्रांति आग में सुलग गया,
तब रायबरेली के राणा ने पुनः नया इतिहास रचा,
निज शस्त्रों से अंग्रेजी सेना को उसने नापा था,
कितनी शक्ति तुम्हारी है निज बाहुबल से मापा था...

राणा जी के शौर्य तेज से जनमानस हुँकार उठा,
रायबरेली की जनता पग-पग राणा संग वार किया,
शंकरपुर के राज-पाठ की उसने आहुति दे डाली,
अंग्रेजी सेना को उसने नानी याद दिला डाली...

जब गोरिल्ला जंग छिड़ी तो आजादी संग्राम हुआ,
राणा की सेना के सम्मुख ग्रांट हॉप परेशान हुआ,
अंग्रेजी सेना बिखरी वो प्राण बचाकर भागा था,
इस क्रांति युद्ध की चिंगारी से लंदन भी थर्राया था...

गोरिल्ला संग्राम की चर्चा भारत मे मशहूर हुई,
राणा जी के शक्ति-शौर्य से हजरत भी मंजूर हुई,
बेगम हजरत राणा जी को जंगदिलेरे बोला था,
पूरा भारत मान गया ये आजादी का शोला था...
बेगम हजरत पर विजय प्राप्ति का गोरों ने अनुबन्ध किआ,
राणा जी ने बेगम के संग वो सपना विध्वंस किआ,
फिर से ख्याति बढ़ी राणा की आजमगढ़ उपहार मिला,
लखनऊ शहर में जली दिवाली जय राणा हुँकार उठा...

षड़यंत्र रचा अंग्रेजों ने फिर से जोर प्रहार किया,
युद्ध हुआ था बैसवारा में भीषण नरसंहार हुआ,
राणा की सेना टूटी और शंकरपुर वीरान हुआ,
शांति छा गई घर-बस्ती में सुना हिंदुस्तान हुआ...

उर-जल-थल-अम्बर-चेतन ने कभी हार न मानी थी,
अवधवशियो के शोणित में वर्ण बहुत अभिमानी थी,
कुपोषित काया की शक्ति जैसे पोषित होती है,
प्राची में सूरज की लाली जैसे ओजित होती है...

एक साथ जनमानस ने राणा जी से आव्हान किया,
सेना की कर लो रचना सबने पुत्रों का दान दिया,
दस हज़ार की सेना बन गई फिर से हृदय विशाल हुआ,
कण-कण से हुँकार उठी फिर से राणा विक्राल हुआ...

सेना की टुकड़ी सज्जित थी केसरिया अभिमान जगा,
नरपत और गुलाब सिंह ने आजादी का गान किआ,
हल्ला बोला अंग्रेजों पर पल में मुण्ड विखण्ड हुआ,
लखनऊ सभा मे प्रलय मचा अंग्रेजी शासन भंग हुआ...

इसी बीच राणा की काया निज धीरज खो बैठा था,
मूर्छित राणा को लेकर सज्जो जंगल को भागा था,
रक्षा की रजनीभर जिसने स्वामिभक्त वो सज्जो था,
हर संकट में अडिग रहा संकटमोचक वो सज्जो था...

हुआ प्रभात पर राणा की ऊर्जा  वापस न आई थी,
अवध वीर के जीवन पर मृत्यु की छाया छाई थी,
उस जंगल से लालचंद्र जब गुजरा देखा राणा को,
घर लाकर सत्कार किया और ऊर्जा दी थी राणा को...

पर अंग्रेजी जासूसों को इस घटना की खबर लगी,
लालचंद्र को पकड़ा फौरन खोज घर और गाली-गली,
लालचंद्र की पत्नी जो राणा की फिर से रक्षा की,
सच मानो तो राणा संग सम्पूर्ण राष्ट्र की रक्षा की...

लालचंद्र ने कारागार में घोर यातना झेली थी,
पता बताओ राणा का हर बेंत बदन से बोली थी,
आंखे फोड़ी लालचंद्र की उंगलियां काटकर फेंका था,
गर्म तवे पर लालचंद्र को रगड़-रगड़कर सेंका था...

लालचंद्र ने प्राण दे दिए पर राज एक न खोली थी,
मरते-मरते सांस आखिरी जय राणा की बोली थी,
इस राष्ट्र युद्ध मे लालचंद्र ने अपना सब-कुछ खोया था,
और भारत माँ के अश्रु नीर से निज कष्टो को धोया था...

जब राणा अपनी सेना संग नदी गोमती पर पहुंचे,
कर्नल हज अपनी सेना संग राणा से भिड़ने पहुंचे,
युद्ध भयंकर हुआ नदी में कर्नल हज की जान गई,
जय हिंद जय हिंद वन्देमातरम उद्घोषों की गान हुई...

जिसने निज शोणित से अपनी मातृभूमि को सींचा था,
युद्ध लड़ो से मिले आजादी मात्र यही सलीका था,
जब-तक जिंदा थे राणा अंग्रेजी शासन के बाधक थे,
अजर-अमर थे क्रांतिकारी और वन्देमातरम साधक थे...

जिसके नयनो में आजादी का स्वप्न सदा से पलता था,
रक्षित-पोषित हो भारत गर्व से मष्तक झुकता था,
जीवन जिया - त्याग किआ सर्वस्व राष्ट्र को दान किया,
मातृभूमि की रक्षा में राणा जी ने बलिदान किया...

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भारतीय इतिहास का घोड़ा घोटाला

भारतीय इतिहास का घोड़ा घोटाला :

भारत में घोड़े को  पालतू बनाने और शिकार के लिए घोड़े पर जाने का सर्वप्रथम प्रमाण मध्य प्रदेश के भीम बेटका की गुफाओं के चित्रों में मिलता है l आज से 10000 साल पहले भारत में रहने वाले वनवासी भी घोड़ो का उपयोग भलीभाती करते थे l ये हमारे देश के मूल नस्ल के घोड़ा  ( indigenous Indian horse- equus ferus caballus) है l 
(चित्र भीम बेटका) 
(चित्र भीम बेटका)

1989 में मध्य प्रदेश के  सीधी जिले के  बघोर गाव में 4500 BCE में घोड़ो को घरों में पालने के प्रमाण मिले हैं l कर्नाटक के कोडेकाल  में 2460 BCE में घोड़ो के डोमेस्टिक करने के प्रमाण मिलते हैं l 
( पुरातत्व रिपोर्ट) 

सिन्धु घाटी की सभ्यता के बारे में में 2005 प्रकाशित Archaeological society of India की रिपोर्ट पेज 22  में कहा गया है कि " हडप्पन साईटो में सुरकोतड़ा, लोथल ,मालवण , कालीबंगा , रोपड़ ,हड़प्पा, मोहनजोदारो, राणा घुँदाई, नौशारो , राखीगढ़ी आदि में घोड़ो के प्रमाण मिले है l (रिपोर्ट की लिंक कमेंट में ) l 
(चित्र - लोथल घोड़ा , सिन्धुघाटी)
ये प्रमाण घोड़ो के खिलौनों और सैकड़ों मृत घोड़े के अवशेषों के रूप में मिले हैं l जिससे पता चलता है कि तथाकथित सिन्धु घाटी की सभ्यता में घोड़े का उपयोग बहुत आम था l 

अभी हाल में ही पायी गयी सिनौली में तथाकथित सिन्धु घाटी सभ्यता की समकालीन सभ्यता में भी घोड़ो से चलने वाले रथ प्राप्त हुए हैं l 

गपोड़ी इतिहासकार रोमिला थापर , गप्पबाज आर एस शर्मा आदि लिखते आये है - "भारत में घोडा बहुत देर से आया  क्योकि घोडा भारतीय मूल का नहीं है l यह विदेशी जानवर है l सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग घोडा नहीं जानते थे l घोड़े को भारत में पहली बार इरान की सीमा से आर्य आक्रमणकारी ले कर आये l  तब पहली बार यहाँ के लोगो को घोडा और रथ के बारे में पता चला l  वगैरह ............"
[ ROMILA THAPAR The Penguin History of Early India FROM THE ORIGINS TO AD 1300, पेज 85-89 ] इसी तरह की सैकड़ो  गप्पबाजी  इन लोगो ने NCERT की इतिहास की किताबों में भर रखी है l 
इस गप्पबाजी का उद्देश्य इतिहास को दूषित कर अंग्रेजो की औपनिवेशिक  मान्यता को स्थापित करना है l 

यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा घोडा घोटाला है l

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भारत की यात्रा करने वाले 56 कोरियाई यात्री

इतिहास को जानने का एक स्त्रोत विदेशी यात्रियों द्वारा लिखा गया यात्रा वृतांत है जो उस काल मे भारत आये थे ।
इन यात्रियों में मेगस्थनीज, टॉलमी, ह्वेनसांग , फाह्यान, इतसिंग , अलमसूदी, अल बरुनी, मार्कोपोलो .... आदि का जिक्र इतिहास की किताबो में किया जाता है ।

यह आश्चर्यजनक है कि हमारे इतिहास में प्राचीन काल मे भारत की यात्रा करने वाले उन 56 कोरियाई यात्रियों का जिक्र तक नही है , जिन्होंने 4थी शताब्दी से 8वी शताब्दी में भारत की यात्रा की और अपने यात्रा वृतांत भी लिखे । 
इन कोरियाई यात्रियों में एक थे Hyecho , जिन्होंने सन 723 में भारत की यात्रा की , नालंदा विश्वविद्यालय में में बौद्ध धर्म की पढ़ाई की,  अनेक वर्षों तक भारत मे रहे और भारत के 5 राज्यो की धार्मिक , सामाजिक , राजनीतिक व्यवस्था पर ग्रंथ लिखा । इन्होंने लिखा है कि भारत मे कहीं भी दास प्रथा नही है , किसी को दास बनाने या दास खरीदने बेचने पर मृत्युदंड दिया जाता है ।
 गुरुकुलों में सभी वर्ण के शिष्य एक साथ पढ़ते हैं । सभी लोगो को एक समान न्याय व्यवस्था के अंतर्गत रखा जाता है । सभी राजा मंदिरों, जिनालयों, मठो विहारों को समान रूप से दान व संरक्षण देते है ,  आदि आदि .. Hyecho द्वारा लिखे गए विशद भारत यात्रा ग्रंथ की मूल पांडुलिपि फ्रांस की नैशनल लाइब्रेरी में सुरक्षित है ।
Hyecho एवं अन्य कोरियाई यात्रियों के लेखों को जानबूझकर इतिहास में नही रखा गया क्योकि इससे अंग्रेजों और मार्क्सवादी इतिहासकारों के झूठे एजेंडा का खंडन होता है - जैसे शुंगों कण्वो गुप्तो आदि ने बौद्ध धर्म को नष्ट कर दिया था , शूद्रों पर अत्याचार होता था , शैव और वैष्णवो में लड़ाई होती थी , भारत मे बलि प्रथा सती प्रथा बाल विवाह आदि व्यापक था ।

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भारत मे अनुसंधान का स्तर

भारत मे अनुसंधान का स्तर (level of research in India) : 

सन 2005 से 2013 तक हमने पीएचडी थीसिस evaluation का कार्य किया । तब मेरे पास राजस्थान , आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश आदि के अनेक विश्वविद्यालयो की ph.d. thesis चेक होने के किये आती थी । ये थीसिस इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग तथा मैनेजमेंट विषयो की होती थी । साथ मे एक 8 पन्ने का फॉर्म भी, जिसमे विभिन्न जांच बिंदुओं पर थीसिस के बारे में अपने कमेंट लिखना पड़ते थे , अंत मे यह भी लिखना पड़ता कि इनको पीएचडी हेतु अनुशंसित करता हूँ अथवा नही । 
एक पीएचडी थीसिस को चेक करने में 2 घंटे प्रतिदिन के हिसाब से लगभग 5 दिनो का समय लगता है । 
उस वक्त एक थीसिस चेक करने का विश्वविद्यालय द्वारा आनरेरियम मात्र 250 रुपये मिलता था । अब शायद 500 रुपये मिलने लगा है । आर्थिक दृष्टि से कोई लाभ नही था, किंतु विश्वविद्यालयो के अनेक मित्र प्रोफेसरो के अनुरोध पर मैने यह कार्य करना स्वीकार्य किया था ।  
2013 में मैने स्वेच्छा से यह कार्य छोड़ दिया क्योकि 
अनेक थीसिसो का परीक्षण कर मुझे अनुभव हुआ कि भारत मे रिसर्च का स्तर (अन्य विकसित देशों की तुलना में) काफी निम्न कोटि का है । इसके अनेक कारण हो सकते हैं - 
1. शोध छात्रों को शोध के लिए वित्तीय सहायता न मिलना , जिससे उसके अनुसंधान करने के रिसोर्स सीमित होते हैं । poor government funding . Low stipend or no stipend . इसलिए हमारे देश में रिसर्च को कोई अपना कैरियर नही बनाता ।
2. शोध पर्यवेक्षक (पीएचडी गाइड) का निम्न स्तर होना । बिना कोई उल्लेखनीय रिसर्च किये सिर्फ लंबी प्रोफेसरी की नौकरी के आधार पर उनको गाइड बना दिया जाता है । इन्हें अपने विषय के नवीन अनुसंधानों का कुछ भी पता नही ।  ऐसे गाइड, छात्र को कुछ भी गाइड नही कर पाते । 
3. मौलिक रिसर्च करने की बजाए किसी पुरानी रिसर्च को नए प्रारूप में थोड़ा हेरफेर कर के प्रस्तुत करना । यह सिस्टम भारत मे बहुतायत है। 
4. रिसर्च में शार्ट कट पद्धति अपनाना । रिसर्च एक शार्ट टर्म गेन हो गया है जिसका उद्देश्य येन केन प्रकार पीएचडी डिग्री हासिल करना है । चाहे छात्र में रिसर्च क्षमता aptitude हो या न हो । रिसर्च में रुचि हो या न हो , बस उसे पीएचडी करना है । ताकि कॉलेज टीचिंग की नौकरी पक्की हो जाये । 
5. स्कूल के समय से ही हमारी शिक्षा व्यवस्था steriotypical होती है । किताब पढ़ो , परीक्षा दो , पास हो जाओ । इसमें नए विचारों या इनोवेशन के लिए कोई स्थान नही होता । वही छात्र आगे चल कर शोधार्थी बनता है । 
6. छात्रों का रोल मॉडल कोई वैज्ञानिक नही होता जिसने कोई बड़ी खोज की हो । उनके रोल मॉडल फ़िल्म हीरो , क्रिकेटर , नेता या पूंजीपति होते हैं । 
7. विश्वविद्यालय में अच्छी आधुनिक रिसर्च प्रयोगशालाओं का अभाव 
8. विश्वविद्यालय और कार्यकारी कंपनियों में रिसर्च हेतु अनुबंध न होना । 

 मेरे अनुभव में यह भी आया है कि प्राईवेट विश्वविद्यालयो में रिसर्च का स्तर सरकारी विश्वविद्यालयों से निम्न है । 

इक्षा न होते हुए भी एक मित्र कुलपति के विशेष अनुरोध पर लॉक डाउन के दिनों में  पुनः एक थीसिस evaluation कर रहा हूं ।  किंतु थीसिस का स्तर वही है जो ऊपर बताया गया है । ☹️☹️☹️ ।

15-20 पुरानी थीसिसे जो घर पर पड़ी है , आज उनको छांटा । सोच रहा हूँ कि इनको JEC की लाइब्रेरी में डोनेट कर दूं । 

भारत मे अनुसंधान का स्तर निम्न होने के अन्य भी बहुत कारण हो सकते है । कुछ पर आप लोग भी प्रकाश डालें , तभी पता चलेगा कि विश्वगुरु का दावा करने वाले हम भारतीय नागरिक एक भी नोबल पुरस्कार क्यो नही ले पाते ?


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नौ रात्रि व नौ दुर्गा

नौ रात्रि व नौ दुर्गा - 

सांख्य  ( सूत्र -रागविराग योग: सृष्टि) के अनुसार प्रकृति, विकृति और आकृति इन तीन का सृष्टिक्रम होता है। पदार्थों में निविष्ट मूल तीन गुणों सत-रज-तमस को आज के विज्ञान के अनुसार पॉजिटिव,  न्यूट्रल और  निगेटिव गुणों के रूप में व्याख्यायित कर सकते है। इन गुणों का आपसी गुणों के समिश्रण से उत्पन्न बल के कारण इषत्, स्पंदन तथा चलन नामक तीन प्रारंभिक स्वर उभरते हैं। ये गति के तीन रूप हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें ही, इक्वीलीबिरियम यानी संतुलन, पोटेंशियल यानी स्थिज और काइनेटिक यानी गतिज के नाम से गति या ऊर्जा के तीन मूल स्तरों के रूप में परिभाषित करता है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीन रूप, तीन गुण और उनकी तीन क्रियात्मक वेग, इन सभी का योग नौ होता है।

माँ ईश्वर का ही रूप है। संसार की सभी मादाएं ईश्वर का ही स्वरूप हैं। इसलिए हमने प्रकृति की कारणस्वरूपा त्रयात्मक शक्ति और फिर उसके त्रिगुणात्मक प्रभाव से उत्पन्न प्राकृतिक शक्ति के नौ स्वरूपों को जगज्जननी के श्रद्धात्मक भावों में ही अंगीकार किया है। फिर दुर्गा के नौ स्वरूपों में प्रकृति के त्रिगुणात्मक शक्ति को देखा है। ये नौ दुर्गाएं काल और समय के आयाम में नहीं हैं, उससे परे हैं। ये वे दिव्य शक्तियां हैं, जो काल और समय के परे हैं। इनका जो विकार (आऊटपुट) निकलता है, वही काल और समय के आयाम में प्रवेश करता है और ऊर्जा (या पदार्थ) का रूप ले लेता है।

इस तरह आदि शक्ति के तीन स्वरूपों ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति के उपक्रमों से प्रकृति के सत्व, रज और तम तीन गुणों की उत्पत्ति होती है। इन्हें ही उनकी आभा के अनुसार श्वेत, रक्तिम और कृष्ण कहा गया है।

इस प्रकार ये नौ दुर्गा, उनके नौ प्रकार और उनके प्रकार की ही काल और समय में नौ ऊर्जाएं हैं। ऊर्जाएं भी नौ ही हैं क्योंकि यह उनका ही विकार है।  इन भौतिक ऊर्जाओं के आधार पर सृष्टि की जो आकृति बनती है, वह भी नौ प्रकार की ही है। पहला है, प्लाज्मा, दूसरा है क्वार्क, तीसरा है एंटीक्वार्क, चौथा है पार्टिकल, पाँचवां है एंटी पार्टिकल, छठा है एटम, सातवाँ है मालुक्यूल्स, आठवाँ है मास और उनसे नौवें प्रकार में नाना प्रकार के ग्रह-नक्षत्र। यदि हम जैविक सृष्टि की बात करें तो वहाँ भी नौ प्रकार ही हैं। छह प्रकार के उद्भिज हैं – औषधि, वनस्पति, लता, त्वक्सार, विरुद् और द्रमुक, सातवाँ स्वेदज, आठवाँ अंडज और नौवां जरायुज जिससे मानव पैदा होते हैं। ये नौ प्रकार की सृष्टि होती है।

पृथिवी का स्वरूप भी नौ प्रकार का ही है। वैशेषिक मतानुसार पहले यह जल रूप में थी, फिर फेन बनी, फिर कीचड़ (मृद) बना। और सूखने पर शुष्क बनी। फिर पयुष यानी ऊसर बनी। फिर सिक्ता यानी रेत बनी, फिर शर्करा यानी कंकड़ बनी, फिर अश्मा यानी पत्थर बनी और फिर लौह आदि धातु बने। फिर नौवें स्तर पर वनस्पति बनी। इसी प्रकार ऊर्जा की अवस्थाएं, उनके स्वभाव, उसके गुण, सभी कुछ नौ ही हैं।
इसी प्रकार सभी महत्वपूर्ण संख्याएं भी नौ या उसके गुणक ही हैं। पूर्ण वृत्त 360 अंश और अर्धवृत्त 180 अंश का होता है। नक्षत्र 27 हैं, हरेक के चार चरण हैं, तो कुल चरण 108 होते हैं। कलियुग 432000 वर्ष, इसी क्रम में द्वापर, त्रेता और सत्युग हैं। ये सभी नौ के ही गुणक हैं। चतुर्युगी, कल्प और ब्रह्मा की आयु भी नौ का ही गुणक है। सृष्टि का पूरा काल भी नौ का ही गुणक है। मानव मन में भाव नौ हैं, रस नौ हैं, भक्ति भी नवधा है, रत्न भी नौ हैं, धान्य भी नौ हैं, रंग भी नौ हैं, निधियां भी नौ हैं। इसप्रकार नौ की संख्या का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व है। इसलिए नौ दिनों के नवरात्र मनाने और नौ दुर्गाओं की उपासना की परंपरा हमारे पूर्वज ऋषियों ने बनायी।

विलक्षण गुण-संपन्न राहुल बनर्जी

A Student time Prodigy 
छात्र जीवन से ही विलक्षण गुण-संपन्न
राहुल बनर्जी
Rahul Banerjee  

जनवरी 1980 में दो विदेशी वैज्ञानिक ( एक जर्मन व एक ब्रिटिश) कुछ उपकरणों को लादे हुए रीवा इंजीनियरिंग कालेज में आये और पूछ रहे थे कि हमे प्रोफेसर राहुल बनर्जी से मिलना है । प्रिंसिपल साहब बोले इस नाम का कोई प्रोफेसर हमारे कालेज में नही है । उन वैज्ञानिकों ने राहुल बनर्जी के पेपर्स दिखाए जिसमे उनका पता गवर्नमेंट इंजिनीयरिंग कालेज रीवा लिखा था । प्रिंसिपल साहब ने खोज बीन की तो पता चला कि ये  B.E. इलेक्ट्रिकल के स्टूडेंट है । होस्टल में रहते तो हैं लेकिन अधिकतर समय किसी पेड़ के नीचे बैठे या लाइब्रेरी में लिखते पाए जाते है । टीचर्स की निगाह में ये क्लास अटेंड न करने वाले 'बेकार' स्टूडेंट हैं । प्रिंसिपल साहब ने राहुल बनर्जी को खोजवाया और तब पता चला कि ये कोई साधारण छात्र नही बल्कि विश्व स्तर के वैज्ञानिक हैं । अंग्रेज व जर्मनी के वैज्ञानिक इनके लिए वे उपकरण लाये थे, जिनके साथ इनको 16 फरवरी 1980 पूर्ण सूर्य ग्रहण के दिन दक्षिण भारत मे जा कर प्रयोग करने थे । 

फ़्लैश बैक --
अस्सी के दशक में हम लोग पन्ना के सरकारी स्कूल में पढ़ते थे । हमसे सीनियर छात्र थे राहुल भैया उर्फ आज के Dr. Rahul Banerjee .

राहुल भैया का सिलेक्शन इंजीनियरिंग कालेज रीवा में हो गया । ये रीवा चले गए , इसके कुछ साल बाद हम जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज आ गए । कालेज की छुट्टियों में जब हम पन्ना आते तब टिकुरिया मोहल्ला में इनके घर पर राहुल भैया से मिलना होता । इनसे विज्ञान की तमाम बाते जैसे क्वासर पल्सर क्वार्क प्लाज्मा आदि  सुन कर हम अचंभित हो जाते थे । इनके पिताजी सरकारी स्कूल में इंग्लिश के टीचर थे । 

छात्र जीवन मे राहुल बनर्जी ने physics में अनेक सैद्धांतिक खोजे की थी । इन्होंने मुझे अपनी शोध कॉपी (researches in brain)  दिखाई थी , जिसमे हाथ से बने रंग बिरंगे अनेक चित्र व गणित की लंबी लंबी डेरिवेशन थी । सब कुछ हमारे दिमाग से ऊपर का मैटर था । थोड़ा थोड़ा यह समझ आया कि राहुल भैया ने ओपेनलूप और क्लोजलूप रेडियो एक्टिविटी की खोज की है । और सबसे महत्वपूर्ण यह कि इन्होंने आइंस्टीन के फार्मूले E=MC^2 में अपेक्षित सुधार किया , कि किसी विशेष परिस्थिति में यह आप्लिकेबल नही होगा तब इसमे एक कांस्टेन्ट जोड़ा जाना चाहिए जिसे राहुल बनर्जी ने positronium constant नाम दिया । छात्र जीवन में इनकी अनेकानेक theoretical रिसर्च work / research memos/ research articles को देश और विदेश के अनेक संस्थानों से मान्यता मिली जैसे - TIFR, UoR, LCS-MIT, SRI आदि

 उनकी दो पुस्तके प्रकाशित हुई थी - 
1 Architectural design of Unix Systems by khanna publisher 
2 Internetworking technologies by prientice hall of india 

राहुल भैया थोड़ा मुश्किल से  B.E. पास हुए क्योकि ये अपनी रिसर्च व अध्ययन में इतने डूबे रहते कि कोर्स पढ़ने में टाइम नही दे पाते थे । इनके पास विश्व के अनेक देशों से वैज्ञानिक के पद पर कार्य करने के आफर थे , लेकिन उनकी बात आज भी मुझे याद आती है, जो 1987 में पन्ना से भोपाल साथ मे की गई बस यात्रा में उन्होंने कही थी  - अशोक मैं नौकरी सिर्फ भारत मे ही करूंगा , चाहे मुझे यहां कोई सुविधा न मिले, क्योकि देश को मेरी जरूरत है । सुविधाओं की खातिर मैं विदेश में कभी नौकरी नही करूंगा । 

देशभक्त राहुल भैया आज 35 साल बाद भी विदेश में सैटल नही हुए जबकि अनेकानेक देशों से जॉब आफर उनको लगातार मिलते रहे । हालांकि अनेक विदेशी विश्विद्यालयो और संस्थानों में  लेक्चर देने जाते रहे । 90 के दशक की शुरुआत में जब कंप्यूटर साइंस नए विषय के रूप में देश मे पढ़ाया जाने लगा उन्होंने artificial intelligence को रिसर्च के लिए चुना और M.Tech , PhD कर के BITS पिलानी में सहायक प्रोफेसर नियुक्त हुए । और कुछ वर्षों बाद कंप्यूटर साइंस विभाग के प्रोफेसर , HOD और फिर BITS पिलानी के डीन हुए । 

डॉ राहुल बनर्जी की रिसर्च का मुख्य क्षेत्र Computer Science & Engineering है जिसके अंतर्गत वे AI / Intelligent Systems, HCI, Vehicular Networks, Intelligent Operating Systems, Wearable Computing, ITS, Hybrid Networks आदि क्षेत्रों में शोधकर्ताओं को मार्गदर्शन देते हैं । 

वर्तमान में पन्ना के राहुल बैनर्जी जयपुर के LNM institute of information technology के Director पद को सुशोभित कर रहे है । 'Genius' शब्द भी इनकी प्रतिभा के आगे छोटा है ।
मेरे छात्र जीवन के प्रेरणा स्त्रोत , अत्यंत सरल स्वभाव , सादगी , अभिमान रहित , सदैव खुशमिजाज , चॉकलेट प्रेमी,  स्वप्रचार से दूर, किंतु ज्ञान के महासागर आदरणीय राहुल भैया को प्रणाम ।। 🙏🙏🙏