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रविवार, 12 जनवरी 2025

तेलगु रामायण लिखने वाली महान कवियित्री मोल्ला

तेलगु रामायण लिखने वाली महान कवियित्री मोल्ला 

मोल्ला, जिन्हें मोल्ला तुलसी या मोल्ला कवयित्री के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं शताब्दी की एक प्रसिद्ध तेलुगु कवयित्री थीं। उनका जन्म आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के एक छोटे से गांव कवुरु में हुआ था। मोल्ला का जन्म एक साधारण गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ, और उनके पिता का नाम केसनापुन्ना था। वे अपनी असाधारण रचनात्मकता और साधना के लिए जानी जाती हैं, और तेलुगु साहित्य में उनका योगदान अद्वितीय है।
मोल्ला अपनी काव्य रचना "मोल्ला रामायणम्" के लिए प्रसिद्ध हैं, जो वाल्मीकि रामायण का तेलुगु में सुंदर और सरल काव्य अनुवाद है। उनकी शैली विशिष्ट है क्योंकि उन्होंने आम जनता को ध्यान में रखते हुए इसे सरल भाषा में लिखा, ताकि इसे हर वर्ग के लोग समझ सकें। मोल्ला ने अपनी रचना में जटिल अलंकरण और उच्चकोटि के व्याकरण का उपयोग करने से बचते हुए भावपूर्ण और सीधे संवाद प्रस्तुत किए।
मोल्ला की कविताओं में सरलता और सौंदर्य का अद्भुत संगम है। उनकी रचनाओं में गहरी आध्यात्मिकता झलकती है। मोल्ला ने अपनी योग्यता के आधार पर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने अपने समय के शासकों से सम्मान प्राप्त करने के लिए दरबार में जाने से इनकार कर दिया था।
मोल्ला ने समाज के रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करते हुए, अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने अपनी रचनाओं में नारी सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता का भी संदेश दिया।

"जो जन्मा है, वह जाएगा, यह जीवन का सार,
मोह में न पड़ो मानव, यह है संसार।
सत्य और धर्म की राह, बस यही है सच्चा,
राम नाम के सुमिरन से, जीवन हो अच्छा।"
मोल्ला की रचनाएँ आज भी तेलुगु साहित्य में अध्ययन और प्रेरणा का स्रोत हैं। उनके साहित्यिक योगदान ने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चा ज्ञान और कला समाज में सभी सीमाओं को पार कर सकती है।

बुधवार, 27 नवंबर 2024

आचार्य विनोबा भावे

 आचार्य विनोबा भावे का आध्यात्मिक दृष्टिकोण गहराई से गांधीवादी आदर्शों और भारतीय दर्शन से प्रेरित था। वे अहिंसा, सत्य, और आत्मशुद्धि के सिद्धांतों में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि आत्मा की शुद्धता और व्यक्तिगत विकास ही समाज और राष्ट्र की प्रगति का आधार है।


विनोबा का दृष्टिकोण यह था कि आध्यात्मिकता केवल व्यक्तिगत साधना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य संपूर्ण मानवता की भलाई है। उन्होंने भगवद् गीता, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और उनके ज्ञान का उपयोग समाज सुधार के कार्यों, जैसे भूदान आंदोलन, में किया।


उनका मानना था कि सच्ची आध्यात्मिकता वह है जो व्यक्ति को निःस्वार्थ सेवा और करुणा के मार्ग पर ले जाए, जिससे सामाजिक समरसता और शांति की स्थापना हो सके।


विनोबा भावे की पुस्तक The Intimate and the Ultimate उनके गहन विचारों और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का एक संग्रह है। यह पुस्तक मुख्य रूप से उनके भाषणों और लेखों का संकलन है, जिनमें उन्होंने मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, विशेषकर अध्यात्म, सत्य, अहिंसा, और सामाजिक उत्थान के सिद्धांतों पर अपने विचार साझा किए हैं।



इस पुस्तक में विनोबा भावे का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक गहरी आत्मीयता और परम सत्य (ultimate) का अनुभव करने की क्षमता होती है। वे आत्मशुद्धि, करुणा, और अहिंसक व्यवहार के महत्व को रेखांकित करते हैं, ताकि व्यक्ति स्वयं की उच्चतम क्षमता को प्राप्त कर सके और समाज में सकारात्मक योगदान दे सके।


विनोबा भावे ने इसमें जीवन के सरल लेकिन गहन पहलुओं पर प्रकाश डाला है, जैसे आंतरिक शांति, नैतिक मूल्यों का पालन, और दूसरों के प्रति प्रेम और सेवा का भाव। उनके अनुसार, जीवन की सच्ची पूर्ति तभी संभव है जब व्यक्ति आत्मिक विकास और समाज के कल्याण के बीच संतुलन स्थापित कर सके।


The Intimate and the Ultimate पाठकों को एक गहरे आत्मनिरीक्षण और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना के लिए प्रेरित करती है। यह पुस्तक उनके मानवीय और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है।

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

सेठ रामदास जी गुड़वाले

सेठ रामदास जी गुड़वाले - 1857 के महान क्रांतिकारी, दानवीर जिन्हें फांसी पर चढ़ाने से पहले अंग्रेजों ने उनपर शिकारी कुत्ते छोड़े जिन्होंने जीवित ही उनके शरीर को नोच खाया।
सेठ रामदास जी गुड़वाले दिल्ली के अरबपति सेठ और बैंकर थे.  इनका जन्म दिल्ली में एक अग्रवाल परिवार में हुआ था. इनके परिवार ने दिल्ली में पहली कपड़े की मिल की स्थापना की थी।

उनकी अमीरी की एक कहावत थी “रामदास जी गुड़वाले के पास इतना सोना चांदी जवाहरात है कि वे उसकी दीवार बना कर गंगा जी का पानी भी रोक सकते है”

जब 1857 में मेरठ से आरम्भ होकर क्रांति की चिंगारी जब दिल्ली पहुँची तो दिल्ली से अंग्रेजों की हार के बाद अनेक रियासतों की भारतीय सेनाओं ने दिल्ली में डेरा डाल दिया। उनके भोजन और वेतन की समस्या पैदा हो गई । मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की आर्थिक हालत ठीक नही थी । यह देख कर रामदास जी ने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति बादशाह के हवाले कर दी और कह दिया - 

"मातृभूमि की रक्षा प्राथमिकता है ,  धन फिर कमा लिया जायेगा "

रामजीदास ने केवल धन ही नहीं दिया, लाखों सैनिकों को सत्तू, आटा, दाल, चावल,  अनाज,  और उनके बैलों, ऊँटों व घोड़ों के लिए चारे की व्यवस्था तक की।

सेठ जी जिन्होंने अभी तक केवल व्यापार ही किया था, अंग्रेजों के खिलाफ सेना व खुफिया विभाग के संघठन का कार्य भी प्रारंभ कर दिया उनकी संघठन की शक्ति को देखकर अंग्रेज़ सेनापति भी हैरान हो गए ।
सारे उत्तर भारत में उन्होंने जासूसों का जाल बिछा दिया, अनेक सैनिक छावनियों से गुप्त संपर्क किया।

उन्होंने भीतर ही भीतर एक शक्तिशाली सेना व गुप्तचर संघठन का निर्माण किया। देश के कोने कोने में गुप्तचर भेजे व छोटे से छोटे मनसबदार और राजाओं से प्रार्थना की इस संकट काल में सभी सँगठित हो और देश को स्वतंत्र करवाएं।

रामदास जी की इस प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधियों से अंग्रेज़ शासन व अधिकारी बहुत परेशान होने लगे ।

कुछ महीने बाद दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः कब्जा हो गया ।  अंग्रेजों को समझ आ गया की भारत पर शासन करना है तो रामदास जी का अंत बहुत ज़रूरी है । 

सेठ रामदास जी गुड़वाले को धोखे से पकड़ा गया और जिस तरह से मारा गया वो तथाकथित सभ्य अंग्रेजों की क्रूरता की मिसाल है।

पहले उन्हें रस्सियों से खम्बे में बाँधा गया फिर उन पर  शिकारी कुत्ते छुड़वाए गए, जब उनका 90% मांस नोच लिया ,  उसके बाद उन्हें उसी अधमरी अवस्था में दिल्ली के चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फांसी पर लटका दिया गया। 

सेठ रामदास जैसे अनेकों क्रांतिकारी इतिहास के पन्नों से गुम कर दिए गए ।

गुरुवार, 7 सितंबर 2023

कणिक नीति

चाणक्य (कौटिल्य) से 100 गुना आगे थे कणिक : 
(आज के समय मे इनकी नीतियों की जरूरत है) 

जब भी विश्व के प्रसिद्ध राजनीतिक कूटनीतिक ज्ञानी की बात होती है तो भारत के 4थी शताब्दी ईसा पूर्व के चाणक्य और  15 वी शताब्दी ईसवी  में हुए इटली के मेकियावली का नाम लिया जाता है । यद्यपि दोनो अलग अलग समय काल के व्यक्ति है । दोनो में लगभग 1800 वर्षों का अंतर होगा , फिर भी राजनीति व कूटनीति में चाणक्य मेकियावली से 100 गुना आगे थे । 

लेकिन एक व्यक्ति ऐसा भी हुआ है जो कूटनीति में चाणक्य से भी अधिक ऊंचाई पर था । और वे थे ऋषि  कणिक । इनका नाम अधिकांश लोगों ने सुना भी नही । जिनका समय ईसा पूर्व लगभग 3000 होगा । 
कणिक के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है । संभवतः ये महाभारत काल मे थे , क्योकि एक बार धृतराष्ट्र ने इनसे सलाह मांगी थी । महाभारत में सर्वत्र विदुर नीति का जिक्र है , जो कि राजा धृतराष्ट्र के राजनीतिक व कूटनीतिक सलाहकार थे । विभिन्न प्राचीन आख्यानों में कणिक का नाम और उनके कुछ सूत्र इधर उधर बिखरे मिलते हैं । जिससे पता चलता है कि वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक ज्ञानी थे । 

अध्ययन से पता चलता है कि आचार्य कणिक किसी राजा के दरबार मे नही थे । ये राज्य से कोई भी सुविधा वेतन नही लेते थे । नगर से बहुत दूर किसी जंगल मे इनकी कुटिया थी । ये सुकरात की तरह स्वतंत्र चिंतक थे । राजाओं और व्यवस्था को खरी खोटी सुनाते थे । इसलिए राजा लोग इनको महत्व नही देते थे । 

कणिक के कुछ सूत्र इस प्रकार हैं--
-- मूर्ख है वह राजा जो राज मुकुट को शोभा या गर्व की वस्तु मानता है , वास्तव में यह राजा के सर पर दायित्वों का भारी बोझ होता है जिसे वह जीवन भर उठाये रखता है ।  
-- मूर्ख है वह राजा जो कमर में बंधी इस तलवार को अपनी समझता है , वास्तव में यह प्रजा ने राजा को उसकी सुख और संपत्ति की रक्षा के लिए दी हुई है ।

-- जिस प्रकार माली किसी बगीचे का स्वामी नही होता उसी प्रकार राजा भी प्रजा का स्वामी नही होता । बगीचे के फलों पर और फूलों की सुगंध पर माली का कोई अधिकार नही होता । वह सिर्फ इनकी देखभाल के लिए है । 

--- मूर्ख है वह राजा जो राजमुद्रा को अपने अधिकार का चिन्ह मानता है , वास्तव में यह उसके कर्तव्यों का प्रतिबिंब होता है । 

-- यदि राजा को लगता है कि उसके देश पर (यवन शक हूण असुर मलेक्ष्य आदि) विदेशी आक्रमण करेंगे तो उनके आक्रमण की प्रतीक्षा नही करनी चाहिए अपितु स्वयं उनपर आक्रमण कर उनकी शक्ति को यथाशीघ्र समाप्त कर देना चाहिए । 
-- जो बार बार शत्रुता दिखा चुका हो ऐसे राज्य से संधि कर उसे अनुकूल होने का समय देने के स्थान पर उसपर आक्रमण कर नष्ट कर देना चाहिए ।
-- राजा का कर्तव्य है कि वह देखे कि प्रजा में सम्पन्न लोग दरिद्र का अहित ना कर सकें । जिस राज्य में दरिद्र का अहित होता है वह राज्य नष्ट हो जाता है ।
-- जिस राज्य में शिक्षक आचार्य विशारद वैद्य उपाध्याय से अधिक सम्मान व सुविधा राजकर्मी दंडपाल को मिलती है उस राज्य में सदैव अव्यवस्था बनी रहती है एवं समाज पतन की ओर जाता है । 
-- राजा को चाहिए कि सभी नवयुवकों को सेना में प्रशिक्षित कर दे । किंतु उनमें से परीक्षा लेकर योग्य को ही सेना में स्थायी पद दे । अस्त्र शस्त्रों का संचालन राज्य के प्रत्येक युवक को आना चाहिए । ये अपने ग्राम की रक्षा करें । सेना की कमी पड़ने पर इन युवकों को बुलाया जा सकता है । 

-- राजन आपको कंबोज गंधार वल्हिक बल्ख उत्तरकुरु और हरिवर्ष ( अफगानिस्तान ईरान चीन सीमा ) पर अधिक शक्तिशाली सेना रखनी चाहिए क्योंकि यवनों व मलेक्षो के आक्रमण का मार्ग यही है । इन प्रदेशो के क्षत्रप योग्य सेनापति को नियुक्त करें । 

---मन में क्रोध भरा हो, तो भी ऊपर से शांत बने रहे और हंस कर बातचीत करें। क्रोध में किसी का तिरस्कार ना करें। किसी शत्रु पर प्रहार करते समय भी उससे मीठे वचन ही बोले।
-- प्रतिकूल समय में एक राजा को यदि शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पड़े तो उसे ढोना चाहिए, परंतु जब अपना अनुकूल समय आ जाए, तब शत्रु को उसी प्रकार नष्ट कर दें जैसे घड़े को पत्थर पर पटक कर फोड़ दिया जाता है।
-- विदेश से आने वाले लोगो पर राजा विशेष निगरानी रखे । ये लोग निश्चित समय से अधिक राज्य में न रहने पाये । यदि इनको राज्य में बसने की अनुमति दी जाएगी तो एक दिन ये लोग राज्य और प्रजा को नष्ट कर देंगे । 
--राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्र का शत्रु को पता न चले, परंतु वह शत्रु के छिद्र को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रों को छिपाये रखे। ‘राजा बगुले के समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्‍यविषय को चिंतन करे। सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियें की भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रु का धन लूट ले तथा बाण की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े।

मित्र इतिहासकार राजीव रंजन प्रसाद आचार्य कणिक पर शोध कर रहें है । उनको शुभकामनाएं ।

शनिवार, 5 अगस्त 2023

वैज्ञानिक प्रफुल्ल चंद्र राय

आज महान भारतीय वैज्ञानिक प्रफ़ुल चंंद्र राय का जन्मदिन है।
आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। वर्ष 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रसायन वर्ष के रूप में मनाया गया। भारत में इसका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि यह वर्ष एक मनीषी तथा महान भारतीय रसायनविज्ञानी  आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के जन्म का 150वाँ वर्ष भी था। आचार्य राय भारत में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक पुनर्जागरण के स्तम्भ थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आजादी की लड़ाई के साथ साथ देश में ज्ञान-विज्ञान की भी एक नई लहर उठी थी। इस दौरान अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने जन्म लिया। इसमे जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय, श्रीनिवास रामानुजन और चंद्रशेखर वेंकटरामन जैसे महान वैज्ञानिकों का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने पराधीनता के बावजूद अपनी लगन तथा निष्ठा से विज्ञान में उस ऊंचाई को छुआ जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। ये आधुनिक भारत की पहली पीढ़ी के वैज्ञानिक थे जिनके कार्यों और आदर्शों से भारतीय विज्ञान को एक नई दिशा मिली। इन वैज्ञानिकों में आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का नाम गर्व से लिया जाता है। वे वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक महान देशभक्त भी थे। सही मायनों में वे भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतीक थे। इनका जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर जिले के ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांगलादेश में है तथा खुल्ना जिले के नाम से जाना जाता है। 
प्रफुल्ल चंद्र राय को एडिनबरा विश्वविद्यालय में अध्ययन करना था जो विज्ञान की पढ़ाई के लिए मशहूर था। वर्ष 1885 में उन्होंने पी.एच.डी का शोधकार्य पूरा किया। तदनंतर 1887 में "ताम्र और मैग्नीशियम समूह के 'कॉन्जुगेटेड' सल्फेटों" के बारे में किए गए उनके कार्यों को मान्यता देते हुए एडिनबरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस.सी की उपाधि प्रदान की। उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें एक साल की अध्येतावृत्ति मिली तथा एडिनबरा विश्वविद्यालय की रसायन सोसायटी ने उनको अपना उपाध्यक्ष चुना। तदोपरान्त वे छह साल बाद भारत वापस आए। उनका उद्देश्य रसायन विज्ञान में अपना शोधकार्य जारी रखना था। अगस्त 1888 से जून 1889 के बीच लगभग एक साल तक डा. राय को नौकरी नहीं मिली थी। यह समय उन्होंने कलकत्ता में जगदीश चंद्र के घर पर व्यतीत किया। इस दौरान ख़ाली रहने पर उन्होंने रसायन विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन किया और रॉक्सबोर्ग की 'फ्लोरा इंडिका' और हॉकर की 'जेनेरा प्लाण्टेरम' की सहायता से कई पेड़-पौधों की प्रजातियों को पहचाना एवं संग्रहीत किया।
आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक "द ग्रीक एल्केमी" पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलाट के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक "रसेन्द्र सार संग्रह" पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा। बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा "जर्नल डे सावंट" में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।

१९१२ में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक यौगिकों के प्रथम विरचन से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

अनुसंधान
डाक्टर राय ने अपना अनुसंधान कार्य पारद के यौगिकों से प्रारंभ किया तथा पारद नाइट्राइट नामक यौगिक, संसार में सर्वप्रथम सन् 1896 में, आपने ही तैयार किया, जिससे आपकी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्रारंभ हुई। बाद में आपने इस यौगिक की सहायता से 80 नए यौगिक तैयार किए और कई महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्याओं को सुलझाया। आपने ऐमोनियम, जिंक, कैडमियम, कैल्सियम, स्ट्रांशियम, वैरियम, मैग्नीशियम इत्यादि के नाइट्राइटों के संबंध में भी महत्वपूर्ण गवेषणाएँ कीं तथा ऐमाइन नाइट्राइटों को विशुद्ध रूप में तैयार कर, उनके भौतिक और रासायनिक गुणों का पूरा विवरण दिया। आपने ऑर्गेनोमेटालिक (organo-metallic) यौगिकों का भी विशेष रूप से अध्ययन कर कई उपयोगी तथ्यों का पता लगाया तथा पारद, गंधक और आयोडीन का एक नवीन यौगिक, (I2Hg2S2), तैयार किया तथा दिखाया कि प्रकाश में रखने पर इसके क्रिस्टलों का वर्ण बदल जाता है और अँधेरे में रखने पर पुन: मूल रंग वापस आ जाता है। सन् 1904 में बंगाल सरकार ने आपको यूरोप की विभिन्न रसायनशालाओं के निरीक्षण के लिये भेजा। इस अवसर पर विदेश के विद्धानों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मानपूर्वक आपका स्वागत किया।

अन्य कार्य
विज्ञान के क्षेत्र में जो सबसे बड़ा कार्य डाक्टर राय ने किया, वह रसायन के सैकड़ों उत्कृष्ट विद्वान् तैयार करना था, जिन्होंने अपने अनुसंधानों से ख्याति प्राप्त की तथा देश को लाभ पहुँचाया। सच्चे भारतीय आचार्य की भाँति डॉ॰ राय अपने शिष्यों को पुत्रवत् समझते थे। वे जीवन भर अविवाहित रहे और अपनी आय का अत्यल्प भाग अपने ऊपर खर्च करने के पश्चात् शेष अपने शिष्यों तथा अन्य उपयुक्त मनुष्यों में बाँट देते थे। आचार्य राय की रहन सहन, वेशभूषा इत्यादि अत्यंत सादी थी और उनका समस्त जीवन त्याग तथा देश और जनसेवा से पूर्ण था।

सन् 1920 में आप इंडियन सायंस कांग्रेस के सभापति निर्वाचित किए गए थे। सन् 1924 में आपने इंडियन केमिकल सोसाइटी की स्थापना की तथा धन से भी उसकी सहायता की। सन् 1911 में ही अंग्रेज सरकार ने आपको सी. आई. ई. की उपाधि दी थी तथा कुछ वर्ष बाद "नाइट" बनाकर "सर" का खिताब दिया। इस तरह विदेशी सरकार ने अपनी पूर्व उपेक्षा का प्रायश्चित किया। अनेक देशी तथा विदेशी विश्वविद्यालयों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने उपाधियों तथा अन्य सम्मानों से आपको अलंकृत किया था।

प्रफुल्ल चंद्र राय को जुलाई 1889 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में 250 रुपये मासिक वेतन पर रसायनविज्ञान के सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया। यहीं से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन् 1911 में वे प्रोफेसर बने। उसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1916 में वे प्रेसिडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत हुए। फिर 1916 से 1936 तक उसी जगह एमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत रहे। सन् 1933 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय ने आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय को डी.एस-सी की मानद उपाधि से विभूषित किया। वे देश विदेश के अनेक विज्ञान संगठनों के सदस्य रहे।

अमोनियम नाइट्राइट का संश्लेषण

एक दिन आचार्य राय अपनी प्रयोगशाला में पारे और तेजाब से प्रयोग कर रहे थे। इससे मर्क्यूरस नाइट्रेट नामक पदार्थ बनता है। इस प्रयोग के समय डा. राय को कुछ पीले-पीले क्रिस्टल दिखाई दिए। वह पदार्थ लवण भी था तथा नाइट्रेट भी। यह खोज बड़े महत्त्व की थी। वैज्ञानिकों को तब इस पदार्थ तथा उसके गुणधर्मों के बारे में पता नहीं था। उनकी खोज प्रकाशित हुई तो दुनिया भर में डा. राय को ख्याति मिली। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया था। वह था अमोनियम नाइट्राइट का उसके विशुद्ध रूप में संश्लेषण। इसके पहले माना जाता था कि अमोनियम नाइट्राइट का तेजी से तापीय विघटन होता है तथा यह अस्थायी होता है। राय ने अपने इन निष्कर्षों को फिर से लंदन की केमिकल सोसायटी की बैठक में प्रस्तुत किया।

स्वदेशी उद्योग की नींव
उस समय भारत का कच्चा माल सस्ती दरों पर इंग्लैंड जाता था। वहाँ से तैयार वस्तुएं हमारे देश में आती थीं और ऊँचे दामों पर बेची जाती थीं। इस समस्या के निराकरण के उद्देश्य से आचार्य राय ने स्वदेशी उद्योग की नींव डाली। उन्होंने 1892 में अपने घर में ही एक छोटा-सा कारखाना निर्मित किया। उनका मानना था कि इससे बेरोज़गार युवकों को मदद मिलेगी। इसके लिए उन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ा। वे हर दिन कॉलेज से शाम तक लौटते, फिर कारखाने के काम में लग जाते। यह सुनिश्चित करते कि पहले के आर्डर पूरे हुए कि नहीं। डॉ. राय को इस कार्य में थकान के बावजूद आनंद आता था। उन्होंने एक लघु उद्योग के रूप में देसी सामग्री की मदद से औषधियों का निर्माण शुरू किया। बाद में इसने एक बड़े कारखाने का स्वरूप ग्रहण किया जो आज "बंगाल केमिकल्स ऐण्ड फार्मास्यूटिकल वर्क्स" के नाम से सुप्रसिद्ध है। उनके द्वारा स्थापित स्वदेसी उद्योगों में सौदेपुर में गंधक से तेजाब बनाने का कारखाना, कलकत्ता पॉटरी वर्क्स, बंगाल एनामेल वर्क्स, तथा स्टीम नेविगेशन, प्रमुख हैं।

बुधवार, 19 जुलाई 2023

क्रांतिकारी वीर हलधर बाजपेई


क्रांतिकारी वीर योद्धा पंडित हलधर बाजपेई
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हलधर बाजपेई चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह के साथी व हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सक्रिय सदस्य थे |
कानपुर देहरादून षड्यंत्र केस के संदर्भ में 12 अगस्त 1932 की रात कानपुर में पुलिस ने शहर में लगभग 30 - 32 घरों में एक साथ छापा मारा उसमें से परमट , कुरसवां और कछियाना मोहाल प्रमुख थे | कानपुर इलेक्ट्रिसिटी दफ्तर मे काम करने वाला युवक हलधर फूलबाग के सामने कुरसवां की सकरी गली में बड़ी तेजी से घुसा और अपने मकान में ऊपर के कमरे में पहुंचकर पिस्तौल छोटे-मोटे घातक औजार व क्रांतिकारी साहित्य को इकट्ठा करके हटाने की योजना बना ही रहा था की पुलिस पार्टी मकान में दाखिल हुई | पुलिस पार्टी को जीने का दरवाजा खुला मिला तो वह  धड़धड़ाते हुए हुए ऊपर चढ़ने लगी | हलधर बाजपेई छत पर अपने कमरे में सामान इकट्ठा कर ही रहे थे कि उन्होंने सीढ़ियों पर पुलिस पार्टी के आमद की आहट से सशंकित हो उठे थे और  जीने से छत पर आने वाला दरवाजा को तुरन्त बंद किया और पिस्तौल व गोलियां लेकर ऊपर चढ़ गए पुलिस ने दरवाजा तोड़ा तो हलधर बाजपेई पिस्तौल ताने दरवाजे पर ताक लगाए वीरासन मुद्रा में बैठे दिखे जरा सा भी दरवाजा खुलता तो हलधर बाजपेई तुरंत पिस्तौल दाग देते और दरवाजा बंद हो जाता | पुलिस की भी बंदूके  गरज उठती  वहां निशाना साधने को ताब कहां थी ? रात भर हलधर बाजपेई जी और पुलिस दोनों तरफ से गोलियां चलती है छत वाले कमरे की एक दीवार का एक भाग और दरवाजे के ऊपर अगल-बगल की दीवाले गोली चलने से छलनी हो गई |  इस बीच पुलिस ने आंगन का दरवाजा भी खोल डाला और आंगन से भी गोलियां चलाने लगी पुलिस की टुकड़ी से घर के आस-पास  गोलियों के चलने से वातावरण गूंज उठा | उधर हलधर की पत्नी भी मौका देख अपने पति के कमरे में दाखिल होकर मोर्चे पर आ डर्टी वह पिस्तौल भर भरकर हलधर को देती जाती और  हलधर दोनों तरफ ताक लगाए रहते जैसे ही किसी को झांकते देखते या फिर सिर देखते तो फायर ठोक देते | रात के सन्नाटे मे  हलधर और पुलिस वालों की आवाज भी रह रहकर सुनाई देती ? कोई छत पर मत आना ,सब लोग घरों के अंदर रहे " सवेरा होते होते पुलिस टीम बढ़ती  चली गई | पुलिस वाले कहीं से हलधर बाजपेई के पिता मुरलीधर बाजपेई जी को पकड़ लाए और पुलिस का दरोगा असगर अली मुरलीधर जी को आगे करके आंगन में निकल आया और हलघर बाजपेई पर गोलियां चलाने लगा | लेकिन हां जरा सा मौका मिला तो हलधर ने ऐसा निशाना साधा की गोली सीधे असगर अली के पेट में जा लगी और वह पेट पकड़कर वही लेट गया |  सुबह हुई पुलिस कप्तान  मार्श स्मिथ भी हलधर के पिता मुरलीधर जी की ओट लेकर आंगन में आ गया हलधर ने फिर गोली चलाई जो मार्स स्मिथ के कंधे पर जा लगी  | हलधर के पिता ने अपील की कि बेटा-  अब बहुत हो चुका तुम्हें अब गिरफ्तार होना ही पड़ेगा |  इसके बाद पिता के कहने पर  हलधर बाजपेई ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया | लेकिन हलधर बाजपेई हंस रहे थे और मार्स स्मिथ भी हलधर की वीरता और साहस को देखकर दंग था | पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जिसमें उन्हें 6 वर्ष की कड़ी कैद की सजा दी गई |

1950 में आसाम में भूकंप पीड़ितों की सहायता करते हुए मुंबई कांग्रेस के जत्थे के साथ गए जहां पर 18 अक्टूबर 1950 को मलवा साफ करने के दौरान अचानक एक दीवार गिरने से भारत माता का यह सपूत हलधर बाजपेई समाज सेवा करते करते शहीद हो गया |

           ( ✍️ अनूप कुमार शुक्ल
 महासचिव कानपुर इतिहास समिति कानपुर)

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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

रमा खंडवाला:


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रमा खंडवाला: 

सिर्फ एक टूर गाइड नहीं, वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज में सेकंड लेफ्टिनेंट भी थी
अगर अपने शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा अभिनीत "जब हैरी मेट सेजल" देखी होगी तो उसमें एक टूर गाइड की भूमिका में एक वृद्धा को एक छोटे से,  मगर यादगार रोल में भी देखा होगा. 

यह 94-वर्षीय रमा खंडवाला हैं।  वह मुंबई की  नियमित टूरिस्ट गाइड रही हैं. यह काम उन्होंने अब से लगभग पचास वर्ष पूर्व नेताजी सुभास चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज से क्रियाशीलता खत्म होने के बाद आजीविका के लिए करना शुरू किया था. क्योकि सरकार द्वारा आजाद हिंद फौज के सैनिकों को युद्ध अपराधी मानते हुए पेंशन नही दी गयी । वह १७-वर्ष की आयु में नेताजी की सेना की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन में एक सिपाही के रूप में भर्ती हुई थीं और अपनी निष्ठा, समर्पण और जूनून से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद तक जा पहुंची. 
अभी मुंबई के गिरगांव क्षेत्र में अपने एक कमरे के छोटे से फ्लैट में रहने वाली रमा का जन्म रंगून के एक सम्पन्न मेहता परिवार में हुआ था. रमा को इस भर्ती के लिए किसी और ने नहीं उसकी अपनी माँ ने प्रेरित किया था जो स्वयं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन की भर्ती इंचार्ज थी। उनका मानना था कि अंग्रेजों को भारत  से भगाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस से बेहतर कोई विकल्प नहीं था.

रमा का नेताजी से पहला सामना अचानक तब हुआ जब वह प्रशिक्षण केंद्र के इलाके की देखरेख करते हुए एक खाई  में गिरकर घायल हो गई. यहाँ शत्रु पक्ष की सेना ने भयंकर गोलाबारी की थी. आनन-फानन में उसे अस्पताल ले जाया गया. वहां घायलो को देखने सुभाष चंद्र बोस आये थे . वह यह देखकर विस्मित हो गए कि एक कम उम्र की लड़की जिसके पैरों से कई जगह से लगातार खून बह रहा था, वह सामान्य रूप से अपनी मरहम-पट्टी कराए जाने का इंतजार कर रही थी. उसकी आंखों में कोई आँसू  नहीं थे. उन्होंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 
“यह  तो एक शुरुआत भर है. ..एक छोटी-सी दुर्घटना थी. अभी बहुत बड़ी लड़ाइयों के लिए कमर कसनी है. देश की आजादी के जूनून में रहना है तो हिम्मत बनाये रखो. तुम जैसी लड़कियों के जूनून से ही हम,हमारा भारत देश आजाद हो कर रहेगा.”

रमा की आँखों में हिम्मत और ख़ुशी के आँसू निकल आए. वह जल्दी ही स्वस्थ होकर फिर से अपनी बटालियन के कामों में जुट गई. उसने जल्दी ही निशानेबाजी, घुड़सवारी और सैन्य बल में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने वाले सब गुणों को सीख लिया था. उसका जूनून उसे किसी काम में आगे बढ़ने के लिए मदद करता. उसकी लगन के कारण ही रमा को जल्दी ही सिपाही से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया. 

रमा का कहना है कि अभी भी जब वह किसी असहज स्थिति में फंस जाती है तो नेताजी के शब्द “आगे बढ़!” उसके कानों में इस तरह से गूँज जाते हैं कि वह अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाती है. 

रमा बताती हैं कि, 

“युवा अवस्था में जीवन के वैभव और सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर संघर्ष का पथ चुनना बहुत कठिन फैसला होता है. मैं भी आरंभिक दिनों में इतनी परेशान रहती थी कि अकेले में दहाड़ मार कर रोया करती. पर धीरे-धीरे समझ में आ गया. फिर, जब नेताजी से स्वयं मुलाकात हुई तो उसके बाद तो फिर कभी पीछे मुड़कर देखा ही नहीं. आरम्भिक दो महीनों मुझे जमीन पर सोना पड़ा. सादा भोजन मिलता था और अनथक काम वो भी बिना किसी आराम के करना बहुत कष्टकर था. मैंने मित्र भी बना लिए थे. जब बड़े उद्देश्य के विषय में समझ आया तो कुछ भी असहज नहीं रहा.”

रमा की तैनाती एक नर्स के रूप में हुई जिस जिम्मेदारी को भी उसने बखूबी निभाया.  उसके लिए अनुशासन, समय का महत्त्व, काम के प्रति निष्ठा और जूनून-- बस इन्हीं शब्दों की जगह रह गई थी. पहले उसे प्लाटून कमांडर बनाया गया और फिर सेकंड लेफ्टिनेंट. 
जब आजाद हिन्द फ़ौज को ब्रिटिश सेना ने कब्जे में ले लिया तो रमा भी गिरफ्तार हुई. उसे बर्मा में ही नजरबंद कर दिया गया. सौभाग्य से जल्दी ही देश आजाद हो गया. तब वह मुंबई चली आई. उसका विवाह हो गया था. आजीविका के लिए पति का साथ देने का निश्चय किया. पहले एक निजी कंपनी में सेक्रेटरी का काम किया, फिर टूर गाइड बनी. 

तब से अब तक वह सैलानियों को पर्यटन के रास्ते दिखाती रही है और तमाम किस्से सुनाया करती है. एक बार सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उन्हें राजनीतिक धारा में भाग लेने का आमन्त्रण भी दिया था, पर तब वह हवाई दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु के समाचार से इतनी विचलित हो गई थी कि उसने राजनीति से दूर रहना ही उचित समझा. 

बमुश्किल दो साल पहले ही उसने टूर गाइड के काम को विदा कहा है, पर अभी भी वह पूरी तरह स्वस्थ और मजाकिया है. कहती हैं, 

“उम्र के कारण नहीं छोड़ा,  इसलिए छोड़ा है कि नई पीढी के लोगों को रास्ते मिलें. मेरी पारी तो खत्म हुई.”

उनके एक बेटी है. पति की मृत्यु सन १९८२ में हो गई थी. सन २०१७ में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उनको बेस्ट टूरिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया था. उनके जीवन पर एक वृत्त फिल्म भी बनी है, और एक किताब ‘जय हिन्द’ भी प्रकाशित हुई है. 

सादर शत शत नमन आपको 🙏🙏🙏

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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक


लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

कई क्रांतिकारियों ने पत्रकारिता के माध्यम से स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वाधीनता के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने का कार्य किया। जिनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक प्रमुख व्यक्ति थे।

यह तिलक ही थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष को ‘स्वराज्य’ का नारा देकर जन-जन से जोड़ दिया। उनके ‘स्वराज्य’ के नारे को ही आधार बनाकर वर्षों बाद महात्मा गाँधी ने स्वदेशी आंदोलन का आगाज़ किया था। 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में जन्में बाल गंगाधर तिलक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। वे उस दौर की पहली पीढ़ी थे, जिन्होंने कॉलेज में जाकर आधुनिक शिक्षा की पढ़ाई की।

वे भारतीयों को एकत्र कर, उन्हें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़ा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नारा दिया,

“स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा।”
उनका यह नारा धीरे-धीरे लगभग पूरे भारत की सोच बन गया। तिलक की क्रांति में उनके द्वारा शुरू किये गये समाचार-पत्रों का भी ख़ास योगदान रहा। उन्होंने दो समाचार पत्र, ‘मराठा‘ एवं ‘केसरी‘ की शुरुआत की। इन पत्रों को छापने के लिए एक प्रेस खरीदा गया, जिसका नाम ‘आर्य भूषण प्रेस‘ रखा गया। साल 1881 में ‘केसरी’ अख़बार का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इन अख़बारों में तिलक के लेख ब्रिटिश शासन की क्रूर नीतियों और अत्याचारों का खुलकर विरोध करते थे।धीरे-धीरे वे आम जनता की आवाज़ बन गये और इसकी वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ‘मराठा’ और ‘केसरी’ की प्रतियाँ भी वे खुद घर-घर जाकर बांटते। उन्होंने कभी भी अपने अख़बारों को पैसा कमाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया। उनके समाचार पत्रों में विदेशी-बहिष्कार, स्वदेशी का उपयोग, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आधार बनाया गया। अपने इन्हीं स्पष्ट और विद्रोही लेखों के कारण वे कई बार जेल भी गये। इसके बावजूद, तिलक पत्रकारिता के लिए पूर्णतः समर्पित थे और हमेशा अपने विचारों और उसूलों पर अडिग रहे।अपने इसी निडर और दृढ़ व्यक्तित्व के कारण उन्हें आम लोगों से ‘लोकमान्य’ की उपाधि मिली। इतना ही नहीं, उनके लेख युवा क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें। उनका लेखन एवं मार्गदर्शन क्रांतिकारियों को ऊर्जा प्रदान करता था। इसलिए अंग्रेज़ी सरकार हमेशा ही तिलक और उनके अख़बारों से परेशान रहती थी। मांडले (म्यांमार) की जेल में उन्होंने ' गीता रहस्य' पुस्तक लिखी । जो कि हिन्दू धर्म और दर्शन का महान ग्रंथ है । 

जहाँ एक तरफ वे अंग्रेज़ों के लिए “भारतीय अशान्ति के जनक” थे, तो दूसरी तरफ़ लोग उन्हें अपना ‘नायक’ मान चुके थे। पर भारत का यह ‘लोकमान्य नायक’ स्वाधीनता का सूर्योदय होने से पहले ही दुनिया को अलविदा कह गया। 1 अगस्त 1920 को तिलक का निधन हुआ।

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बुधवार, 5 जुलाई 2023

छत्रपति शिवाजी

शिवाजी महाराज ने भारत की प्राचीन राज्यव्यवस्था का और राजधर्म का बड़ी गहराई से अवलोकन किया था । उन्होंने अपने यौवन का सदुपयोग जहां बड़ी बड़ी जीतों को प्राप्त करने में किया , वहीं उन्होंने भारतीय राजधर्म की शिक्षा लेने के लिए भी अपना मूल्यवान समय लगाया । यही कारण रहा कि वह भारत के राजधर्म की गहराई को समझ गए थे। शिवाजी ने अपने समकालीन शासकों को देखा था कि उनका शासन पूर्णतया अनुत्तरदायी था और वे निरंकुशता में विश्वास रखते थे। स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश होकर ये शासक अपनी प्रजा पर शासन करते थे , जबकि शिवाजी एक पूर्ण उत्तरदायी शासन की व्यवस्था देने के पक्षधर थे।
एक जनहितकारी शासक और शासन के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें मर्यादा , जनता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध हर पग पर होता है । शिवाजी इसी प्रकार के शासन के पक्षधर थे। यही कारण है कि उनके साम्राज्य में शासन की नीतियों में प्रजावत्सलता , अनुशासन, मर्यादा और उत्तरदायित्व का बोध स्पष्टत: झलकता था । शिवाजी महाराज की प्रबंधन नीतियाँ आधुनिक काल की निगम-नीतियों से कई गुणा अधिक परिपूर्ण थीं ,क्योंकि वह लोगों के लिए हितकारी होने के साथ-साथ बहुत ही व्यवहारिक एवं पारदर्शी भी थीं ।

आधुनिक प्रबंधन की परिभाषा में कुशल नेतृत्व वह है जो जनता को सारे मौलिक अधिकारों को प्रदान करे , और उसके कल्याण के लिए अच्छी से अच्छी योजनाएं लागू करने में विश्वास रखता हो । साथ ही सामाजिक ,आर्थिक , एवं राजनीतिक न्याय प्रदान करते समय जनता के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव न करता हो । ऐसे शासक की दृष्टि और दृष्टिकोण में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं होती । वह विशालहृदयता के साथ और उदारमना होकर अपने लोगों के कल्याण में रत रहता है । 

नेतृत्व केवल सपने ही नहीं देखता है ,अपितु सपनों को साकार रूप देकर उन्हें यथार्थ के धरातल पर लागू भी करता है और जब वह सपने सही अर्थों , संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में लागू हो जाते हैं या व्यावहारिक स्वरूप ले लेते हैं , तभी किसी शासक के नेतृत्व और उसके प्रबंधन के गुणों की सही परख हो पाती है । इस प्रकार नेतृत्व और प्रबंधन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । नेतृत्व के लिए आवश्यक है कि उसकी नीतियों में उसकी प्रजा के लोग स्वाभाविक रूप से न केवल रुचि रखते हों , अपितु उसे अपना समर्थन भी व्यक्त करते हों । साथ ही प्रबंधन की उसकी नीतियों को स्वीकार करते हुए उसके पूरे तंत्र के साथ स्वाभाविक रूप से अपना समर्थन व्यक्त करते हों और उसके साथ समन्वय स्थापित कर उसी दिशा में जोर लगाते हों ,जिस दिशा में प्रबंधन तंत्र स्वयं बल लगा रहा हो । जब ऐसी स्थिति किसी राज्य में स्थापित हो जाती है तो तब समझना चाहिए कि राजा और प्रजा के बीच बहुत ही सुंदर समन्वय है । शिवाजी के समकालीन शासक अर्थात मुगल लोग अपने प्रजाजनों के साथ ऐसा संबंध में कभी भी स्थापित नहीं कर पाए । यही कारण रहा कि उनके विरुद्ध जनांदोलन होते रहे और विद्रोह की स्थिति में रहने वाले प्रजाजन सदैव ही अशांत और असंतुष्ट रहे । शिवाजी ने ऐसा अवसर अपने लोगों को नहीं दिया और यही उनकी महानता का एक बड़ा कारण था ।

शिवाजी महाराज ने देशहित में और भारतीय संस्कृति की रक्षार्थ जिस राज्य की नींव रखी , वह अधिक देर तक इसीलिए स्थापित रहा कि उसकी स्थापना करने में शिवाजी जनहित को साधना था । वह चाहते थे कि भारत में वास्तविक जनतंत्र की स्थापना हो और राजा अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्यभाव से भरा हो । विद्वानों का निष्कर्ष है कि शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की पक्की नींव सामरिक, नैतिक तथा शिष्ट व्यावहारिक परंपराओं पर रखी । जहाँ मुग़ल एवं क्षेत्रीय सल्तनतों के लगातार के आक्रमणों से थककर या डरकर कोई और राजा अपनी पराजय स्वीकार कर लेता वहीँ शिवाजी महाराज वीरता और आक्रमकता से डटकर उनका सामना करते रहे । युद्ध के समय में नियोजन कुशलता, किसी भी व्यक्ति की सही परख, समय का सम्मान और अनुशासन जैसे गुण उनके कुशल नेतृत्व के साक्षी हैं । इसी नेतृत्व में मुट्ठी भर सैनिक हजारों की सेना से लड़ते हुए विजयश्री प्राप्त कर लेते थे । एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण करने का उनका सपना और दृढ़ संकल्प ही वास्तव में उनकी सफलता का आधार था । उनके अनुयायियों में उनके लिए प्रगाढ़ श्रद्धा, सम्मान और निष्ठा का कारण उनका महान नेतृत्व कौशल तथा उच्च नैतिक चरित्र है । आज भी शिवाजी महाराज को एक न्यायसंगत एवं कल्याणकारी राजा और नायक के रूप में ही स्मरण किया जाता है ।

indian history in hindi, भारतीय इतिहास

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मंगलवार, 27 जून 2023

डॉ हरगोविंद खुराना

9 फरवरी 1922 को जिला मुल्तान, पंजाब में जन्मे महान वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना के पिता एक पटवारी थे। अपने माता-पिता के चार पुत्रों में हरगोविंद सबसे छोटे थे। वे जब मात्र 12 साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और ऐसी परिस्थिति में उनके बड़े भाई नंदलाल ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में ही हुई। उन्होंने मुल्तान के डी.ए.वी. हाई स्कूल में भी अध्यन किया। वे बचपन से ही एक प्रतिभावान् विद्यार्थी थे जिसके कारण इन्हें बराबर छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।
        उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी.एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम.एस-सी. (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की। इसके पश्चात भारत सरकार की छात्रवृत्ति पाकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रॉजर जे.एस. बियर के देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरैट की उपाधि अर्जित की। इसके उपरान्त इन्हें एक बार फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं जिसके बाद वे जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए। 1948 से 1952 के दौरान उन्होंने दिल्ली बंगलौर सहित कई प्रयोगशालों में नौकरी के लिए आवेदन किया , मगर उन्हें देश में नौकरी नहीं मिल सकी l 1952 में उन्हें कनाडा कि वेनकोवर यूनिवर्सिटी से बुलावा आया और वह वे जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष बना दिए गए l  सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया। इसके पश्चात सन् 1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली।

       खुराना जी जीवकोशिकाओं के नाभिकों की रासायनिक संरचना के अध्ययन में लगे रहे। नाभिकों के नाभिकीय अम्लों के संबंध में खोज दीर्घकाल से हो रही है, पर डाक्टर खुराना की विशेष पद्धतियों से वह संभव हुआ। इनके अध्ययन का विषय न्यूक्लिऔटिड नामक उपसमुच्चर्यों की अतयंत जटिल, मूल, रासायनिक संरचनाएँ हैं। डाक्टर खुराना इन समुच्चयों का योग कर महत्व के दो वर्गों के न्यूक्लिप्रोटिड इन्जाइम नामक यौगिकों को बनाने में सफल हुये।

        नाभिकीय अम्ल सहस्रों एकल न्यूक्लिऔटिडों से बनते हैं। जैव कोशिकओं के आनुवंशिकीय गुण इन्हीं जटिल बहु न्यूक्लिऔटिडों की संरचना पर निर्भर रहते हैं। डॉ॰ खुराना ग्यारह न्यूक्लिऔटिडों का योग करने में सफल हो गए थे तथा वे  ज्ञात शृंखलाबद्ध न्यूक्लिऔटिडोंवाले न्यूक्लीक अम्ल का प्रयोगशाला में संश्लेषण करने में सफल हुये। इस सफलता से ऐमिनो अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय ढूँढने में चिकित्सक सफल हो सकेl
डॉ खुराना ने खोज के दौरान यह पाया गया कि जीन्स डी.एन.ए. और आर.एन.ए. के संयोग से बनते हैं। अतः इन्हें जीवन की मूल इकाई माना जाता है। इन अम्लों में आनुवंशिकता का मूल रहस्य छिपा हुआ है। खुराना के व्दारा किए गए कृत्रिम जिन्स के अनुसंधान से यह पता चला कि जीन्स मनुष्य की शारीरिक रचना, रंग-रूप और गुण स्वभाव से जुड़े हुए हैं।

       1960 के दशक में डॉ खुराना ने नीरबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि डी.एन.ए. अणु के घुमावदार 'सोपान' पर चार विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिओटाइड्स के विन्यास का तरीका नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य को निर्धारित करता है। डी.एन.ए. के एक तंतु पर इच्छित अमीनोअम्ल उत्पादित करने के लिए न्यूक्लिओटाइड्स के 64 संभावित संयोजन पढ़े गए हैं, जो प्रोटीन के निर्माण के खंड हैं। खुराना जी  ने इस बारे में आगे जानकारी दी कि न्यूक्लिओटाइड्स का कौन सा क्रमिक संयोजन किस विशेष अमीनो अम्ल को बनाता है। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि न्यूक्लिओटाइड्स कूट कोशिका को हमेशा तीन के समूह में प्रेषित किया जाता है, जिन्हें प्रकूट (कोडोन) कहा जाता है। उन्होंने यह भी पता लगाया कि कुछ प्रकूट कोशिका को प्रोटीन का निर्माण शुरू या बंद करने के लिए प्रेरित करते हैं। 

आनुवांशिक कोड (डीएनए) की व्याख्या करने वाले भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक डॉ. हरगोबिंद खुराना को चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए 1968  में नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Physiology or Medicine) से सम्मानित किया गया। खुराना ने मार्शल, निरेनबर्ग और रोबेर्ट होल्ले के साथ मिलकर चिकित्सा के क्षेत्र में काम किया। 

डॉ खुराना ने 1970 में आनुवंशिकी में एक और योगदान दिया, जब वह और उनका अनुसंधान दल एक खमीर जीन की पहली कृत्रिम प्रतिलिपि संश्लेषित करने में सफल रहे। डॉक्टर खुराना अंतिम समय में जीव विज्ञान एवं रसायनशास्त्र के एल्फ़्रेड पी. स्लोन प्राध्यापक और लिवरपूल यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे। हरगोबिन्द खुराना जी का निधन 9 नवंबर, 2011 को हुआ था।

शुक्रवार, 16 जून 2023

नज़ीर अकबराबादी

महान शायर नज़ीर अकबराबादी की पुण्यतिथि है आज ।

आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है,
मुल्ला कहो, दबीर (लेखक) कहो, आगरे का है
मुफ़लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है.’
होली को राष्ट्रीय त्यौहार मानने वाले नज़ीर ने इस पर्व पर 20 से अधिक कविताएं लिखी हैं. आगरा शहर की हर गली में होली किस तरह से खेली जाती है इसका वर्णन उन्होंने किया है. इसके अलावा, दिवाली, राखी, बसंत, कंस का मेला, लाल जगधर का मेला जैसे पर्वों पर भी उन्होंने जमकर लिखा. दुर्गा की आरती, हरी का स्मरण, भैरों और भगवान् के अवतारों का जगह-जगह बयान है उनकी नज़्मों में । गुरु नानक देव पर उनकी नज्म प्रसिद्ध है । पर जब नज़ीर अकबराबादी कृष्ण की तारीफ़ में लिखते हैं तो उन्हें सबका ख़ुदा बताते हैं:-

‘तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी

हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी

तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा

तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी.’

एक कविता में नज़ीर कृष्ण पर लिखते हैं:

‘यह लीला है उस नंदललन की, मनमोहन जसुमत छैया की ...

आज के जमाने मे वे ऐसी शायरी लिखते तो मुल्ला मौलवी उन पर फतवा जारी कर देते ।
आज के शायरों की तरह वे "बंदर वन्दर जितनी ईंटे उतने सिर" या "किसी के बाप का हिंदुस्तान" जैसी छुद्रता पर नही उतरे । 

धार्मिक एकता और सद्भावना की सही  मिसाल थे नज़ीर अकबराबादी ।
महान शायर को नमन 🙏🙏🙏

गुरू गोविंद सिंह जी

गुरू गोविंद सिंह जी जिनकी आज जयंती है - 
22 दिसम्बर
गुरू गोविंद सिंह जी वीरता बुधिमत्ता और साहस के प्रतिमूर्ति थे। आपका जन्म २२ दिसंबर १६६६ को पटना में हुआ था . औरंगजेब द्वारा पिता तेगबहादुर की हत्या किये जाने के बाद नौ वर्ष की आयु में ही गोविंद सिंह जी को गुरू की गद्दी पर बैठा गया। बचपन में इन्हें सभी प्यार से ‘बाला प्रीतम’ कह कर पुकारते थे। लेकिन इनके मामा इन्हें गोविंद की कृपा से प्राप्त मानकर गोविंद नाम से पुकारते थे। यही नाम बाद में विख्यात हुआ और बाला प्रीतम गुरू गोविंद सिंह कहलाये।

गुरू पद की गरिमा बनाए रखने के लिए गोविंद सिंह जी ने युद्ध कला में प्रशिक्षण प्राप्त करने के साथ ही अनेक भाषाओं की भी शिक्षा प्राप्त की। कुशाग्र बुद्धि और लगन से गोविंद सिंह जी ने कम समय में ही युद्ध कला में महारथ हासिल कर ली और उच्च कोटि के विद्वान बन गये। इन्होंने संस्कृत, पारसी, अरबी और अपनी मातृभाषा पंजाबी को ज्ञान प्राप्त किया। वेद, पुराण, उपनिषद् एवं कुरान का भी इन्होंने अध्ययन किया।

आपने हिन्दुओं से खालसा (शुद्ध ) पंथ की स्थापना की . खालसा की स्थापना करने के बाद गुरू गोविंद सिंह जी ने बड़ा सा कड़ाह मंगवाया। इसमे स्वच्छ जल भरा गया। गोविंद सिंह जी की पत्नी माता सुंदरी ने इसमे बताशे डाले। ‘पंच प्यारों’ ने कड़ाह में दूध डाला और गुरुजी ने गुरुवाणी का पाठ करते हुए उसमे खंडा चलाया। इसके बाद गुरुजी ने कड़ाहे से शरबत निकालकर पांचो शिष्यों को अमृत रूप में दिया और कहा, “तुम सब आज से ‘सिंह’ कहलाओगे और अपने केश तथा दाढी बढाओगे। गुरू जी ने कहा कि केशों को संवारने के लिए तुम्हे एक कंघा रखना होगा। आत्मरक्षा के लिए एक कृपाण लेनी होगी। 
सैनिको की तरह तुम्हे कच्छा धारण करना पड़ेगा और अपनी पहचान के लिए हाथों में कड़ा धारण करना होगा। इसके बाद गुरू जी ने सख्त हिदायत दी कि कभी किसी निर्बल व्यक्ति पर हाथ मत उठाना। इसके बाद से सभी सिख खालसा पंथ के प्रतीक के रूप में केश, कंघा, कृपाण, कच्छा और कड़ा ये पांचों चिन्ह धारण करने लगे। नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। इस घटना के बाद से ही गुरू गोविंद राय गोविंद सिंह कहलाने लगे। 
गुरु गोविंद सिंह जी ने औरंगजेब की क्रूर नीतियों से धर्म की रक्षा के लिए हिन्दुओं को संगठित किया और सिख कानून को सूत्रबद्ध किया। इन्होंने कई काव्य की रचना की। इनकी मृत्यु के बाद इन काव्यों को एक ग्रंथ के रूप में संग्रहित किया जो दसम ग्रंथ के नाम से जाना जाता है। यह पवित्र ग्रंथ गुरू गोविंद सिंह जी का हुक्म माना जाता है। गुरु गोविन्द सिंह का बलिदान सर्वोपरि और अद्वितीय है. क्योंकि गुरूजी ने धर्म के लिए अपने पिता गुरु तेगबहादुर और अपने चार पुत्र अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतह सिंह को बलिदान कर दिया था. एक दिन उन्होंने सिख संगत को बुलाकर कहा, "अब मेरा अंतिम समय आ गया है। मेरे मरने के साथ ही सिख सम्प्रदाय में गुरु परंपरा समाप्त हो जायेगी। भविष्य में सम्पूर्ण खालसा ही गुरु होगा । आप लोग 'ग्रन्थ साहिब' को ही अपना गुरु मानें।"  ७ अक्टूबर, १७०८ को गुरु गोविन्द सिंह का देहांत हो गया । 

गुरु गोविंद सिंह जी को शत शत नमन

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श्री गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस

24 नवंबर 1675 
श्री गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस 

आध्यात्मिक चिंतक व धर्म साधक गुरु तेगबहादुर का जन्म वैशाख की कृष्ण पक्ष-पंचमी को छठे गुरु हरगोबिंद साहिब और माता बीबी नानकी के घर हुआ। बचपन से ही अध्यात्म के प्रति उनका गहरा लगाव था। वे त्याग और वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे। उनका नाम भी पहले ‘त्याग मल’ था। उनमें योद्धा के भी गुण मौजूद थे। 

मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने करतारपुर के युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई। उनकी तेग (तलवार) की बहादुरी से प्रसन्न होकर पिता ने उनका नाम त्यागमल से ‘तेग बहादुर’ कर दिया। सांसारिकता से दूर रहकर गुरु जी आत्मिक साधना में 21 वर्ष तक लीन रहे  थे। गुरु तेगबहादुर के 57 शबद और 59 श्लोक श्री गुरुग्रंथ साहब में दर्ज हैं। श्री गुरु तेग बहादुर जी की वाणी में समायी है राम नाम की महिमा - रे मन राम सिंओ कर प्रीति ।
सखनी गोविन्द गुण सुनो और गावहो रसना गीति।। , 
राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥ 
रट नाम राम बिन मिथ्या मानो, सगरो इह संसारा ।।
उन्होंने अपनी वाणी में जीवन जीने की एक अत्यंत सहज- स्वाभाविक पद्धति प्रस्तुत की है, जिसे अपनाकर मनुष्य सभी तरह के कष्टों से सुगमता से छुटकारा पा सकता है। 
गुरु जी का कथन है कि चिंता उसकी करो, जो अनहोनी हो-‘चिंता ताकी कीजिये जो अनहोनी होय’। इस संसार में तो कुछ भी स्थिर नहीं है। गुरु तेग बहादुर के अनुसार,समरसता सहज जीवन जीने का सबसे सशक्त आधार है।
 आशा-तृष्णाकाम-क्रोध आदि को त्यागकर मनुष्य को ऐसा जीवन जीना चाहिए, जिसमें मान-अपमान, निंदा-स्तुति, हर्ष-शोक, मित्रता-शत्रुता समस्त भावों को एक समान रूप से स्वीकार करने का भाव उपस्थित हो - ‘नह निंदिआ नहिं उसतति जाकै लोभ मोह अभिमाना। हरख सोग ते रहै निआरऊ नाहि मान अपमाना’। गुरु जी का कहना है कि वैराग्यपूर्ण दृष्टि से संसार में रहते हुए सभी सकारात्मक - नकारात्मक भावों से निर्लिप्त होकर ही सुखी और सहज जीवन जिया जा सकता है।
उन्होंने कश्मीरी हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों ‘तिलक’ और ‘जनेऊ’ की रक्षा के लिए दिल्ली के चांदनी चौक (अब शीशगंज) में अपना शीश कटाकर प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। नौवें गुरु की इस बेमिसाल कुर्बानी पर गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा- ‘तिलक जंझू राखा प्रभता का। कीनो बड़ो कलू महि साका।।’ इस अभूतपूर्व बलिदान के कारण ही उन्हें ‘हिंद की चादर - गुरु तेग बहादुर’ कहकर सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।


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शहादत का सप्ताह

तेग साचो, देग साचो, सूरमा सरन साचो, 
साचो पातिसाहु गुरु गोबिंद सिंह कहायो है।

माता गुजरी तथा साहिबजादों 
अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह
के शहादत का सप्ताह है दिसंबर का आखिरी सप्ताह ।

चमकौर के भयानक युद्ध में गुरुजी के दो बड़े साहिबजादे सवा लाख मुगल फौज को धूल चटाते हुए शहीद हो गए। जिनमें बड़े साहिबजादे अजीत सिंह की उम्र महज 17 वर्ष, साहिबजादा जुझार सिंह की उम्र 15 वर्ष थी। गुरुजी ने अपने हाथों से उन्हें शस्त्र सजाकर मैदाने जंग में भेजा था। इस भयानक युद्ध में दोनो बड़े साहिबजादे शहीद हो गए। 

उधर माता गुजरीजी, छोटे साहिबजादे जोरावर सिंघ जी उम्र 7 वर्ष, और साहिबजादा फतेह सिंह जी उम्र 5 वर्ष को गिरफ्तार कर सरहंद के नवाब वजीर खां के सामने पेश किया गया। जहां उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा गया, लेकिन साहिबजादों ने कहा कि हर मनुष्य को अपना धर्म मानने की पूरी आजादी हो। जिससे नाराज वजीर खां ने उन्हें दीवारों में चुनवा दिया। मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए दोनो गुरु पुत्रों ने बलिदान दिया।
साहिबजादों की शहादत के बाद गुरु माता ने वाहेगुरु का शुक्रिया अदा कर अपने प्राण त्याग दिए। तारीख 26 दिसंबर गुरु गोबिन्द सिंह जी के संपूर्ण परिवार के बलिदान के कारण सुनहरी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई। गुरु जी ने कहा था कि चार पुत्र और परिवार नहीं रहा तो क्या हुआ? मुझे खुशी है, ये हजारों सिख जीवित हैं, जो मेरे लिए मेरे पुत्रों से बढ़कर हैं।


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गुरु अर्जुन देव जी महाराज

आज गुरु अर्जुन देव जी महाराज का प्रकाश दिवस है (15 अप्रैल 1563)

गुरू अर्जुन देव 5वे गुरू महाराज थे। गुरु अर्जुन देव जी ईश्वरीय शक्ति एवं शान्तिपुंज हैं। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है।
ग्रंथ साहिबजी का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में किया। ग्रंथ साहिब की संपादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रंथ साहिब में 36 महान वाणीकारोंकी वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई।

जहांगीर ने अर्जुन देव को बंदी बना लिया और मुस्लिम धर्म स्वीकार न करने पर इन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। गुरु महाराज को तीन दिनों तक भयंकर यातनाएं दी गयी लेकिन अर्जुन देव अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे और अंततः 30 मई 1606 को धर्म की खातिर अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।

गुरु जी ने अपने पूरे जीवनकाल में शांत रहना सीखा और लोगों को भी हमेशा नम्रता से पेश आने का पाठ पढ़ाया। यही कारण है की गर्म तवे और गर्म रेत के तसीहें सहते हुए भी उन्होंने केवल उस परमात्मा का शुक्रिया किया और कहा की तेरी हर मर्जी में तेरी रजा है और तेरी इस मर्जी में मिठास भी है। गुरु जी के आख़िरी वचन थे- तेरा कीया मीठा लागै॥


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बिन्देश्वर पाठक

पंडित बिंदेश्वर पाठक वो शख्सियत हैं जिनकी स्वच्छता की सोच ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में एक मिसाल कायम कर दी। करीब पांच दशक पहले उन्होंने एक ऐसा अभियान शुरू किया जो एक विशाल आंदोलन बन गया। स्वच्छ भारत अभियान के करीब तीन दशक पहले उन्होंने खुले में शौच, दूसरों से शौचालय साफ करवाने और प्रदूषण जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों या और कमियों पर रोक लगाने का जनांदोलन खड़ा कर पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया। समाज में सुधार आया और उनकी संस्था सुलभ इंटरनैशनल ने साफ-सफाई का एक मॉडल बनाया जिसने न सिर्फ स्वच्छता के क्षेत्र में, बल्कि रोजगार और आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में भी कामयाबी के झंडे गाड़े।
 डॉ बिंदेश्वर पाठक ने वर्ष 1974 में 'पे एंड यूज' टॉयलेट की शुरुआत की। जल्दी ही उनका ये कॉन्सेप्ट पूरे देश और कई पड़ोसी देशों में लोकप्रिय हो गया। उन्होंने अपनी संस्था का नाम रखा 'सुलभ इंटरनैशनल'। सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करके उन्होंने सफाई के क्षेत्र में जुटे दलितों के सम्मान के लिए कार्य किया। इससे उनके  व्यक्तित्व में बड़ा बदलाव आया। 1980 में जब उन्होंने  सुलभ इंटरनेशनल का नाम सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन किया तो इसका नाम पूरी दुनिया में पहुंच गया। 
स्वच्छता के साथ पद्मभूषण विदेश्वर पाठक ने दलित बच्चों की शिक्षा के लिए पटना, दिल्ली और दूसरी कई जगहों पर स्कूल खोले जिससे स्कैवेंजिंग और निरक्षरता के उन्मूलन में सहायता मिली। समाज के निचले पायदान को लाभान्वित करने के मकसद से उन्होंने महिलाओं और बच्चों को आर्थिक अवसर प्रदान करने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्रों की स्थापना की है। सुलभ को अन्तर्राष्ट्रीय गौरव उस समय प्राप्त हुआ जब संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा सुलभ इंटरनेशनल को विशेष सलाहकार का दर्जा प्रदान किया गया। 
डॉ. बिंदेश्वर पाठक भारत में मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ देश में स्वच्छता अभियान में अहम भूमिका निभा रहे हैं। उनका मानमा है कि सरकार ने देश में 2019 तक खुले में शौच की परंपरा खत्म करने का जो डेड लाइन रखा था उसमें काफी हद तक सफलता मिली है लेकिन  चुनौतियां अब भी मौजूद हैं। महज  राज्य और कॉर्पोरेट घरानों के तालमेल से यह मुमकिन नहीं होगा। जैसा कि प्रधानमंत्री ने संकेत दिये हैं, इसमें सक्रिय लोगों की भागीदारी और सुनियोजित योजनाओं की जरूरत है। उनका कहना है कि स्वच्छता को राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ आगे जारी रखने  की जररूत है। 

बिंदेश्वर पाठक ने एक सामाजिक कुप्रथा में बदलाव लाकर इसे विकास का जरिया बना दिया। उन्होंने सुलभ शौचालयों से बिना दुर्गंध वाली बायोगैस की खोज की। इस तकनीक का इस्तेमाल  भारत समेत अनेक विकासशील राष्ट्रों में धड़ल्ले से हो रहा है। सुलभ शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट का खाद के रूप में इस्तेमाल के लिए उन्होंने प्रोत्साहित किया।  उनको एनर्जी ग्लोब, इंदिरा गांधी, स्टॉकहोम वॉटर जैसे तमाम पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। 2009 में इंटरनेशनल अक्षय ऊर्जा संगठन (आईआरईओ) का अक्षय उर्जा पुरस्कार भी मिला है। ( courtesy फेम इंडिया )

आज (4 march 2019 )दिल्ली में सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक पद्मभूषण आदरणीय श्री बिंदेश्वर पाठक जी से मिलने एवं वार्तालाप का सुअवसर प्राप्त हुआ । पाठक जी ने अपने अनुभवों को बताया एवं अनेक प्रेरणा दायक बातें बताई। ऐसे महान व्यक्तित्व के चरणों मे शत शत नमन ।


शांतिबाई गोंड

माताजी शांतिबाई गोंड बड़ी आध्यात्मिक महिला है। औपचारिक शिक्षा ना होते हुए भी इनको रामायण महाभारत पौराणिक कथाओं का बड़ा ज्ञान है। वे अपना पूरा समय मंडला जिले के काला पहाड़ पर स्थित एक छोटी झोंपड़ी में एकाकी बिताती हैं जिसमे एक ही कमरा है और वह आदिदेवों का मंदिर भी है ।
अर्धमिश्रित गोंडी व हिंदी भाषा मे उन्होंने समझाया कि - पेन का मतलब देव । जैसे बड़ा पेन, बूढ़ा पेन, परसा पेन । ये सब प्रकृति की देव शक्तियां है जो किसी समाज के पहले पूर्वज के रूप में होती है और हमेशा उस परिवार के साथ रहती हैं व रक्षा करती हैं ।
झोपड़ी के अंदर ईश्वर के स्थान पर ज्योति जल रही थी व अनेक चिमटे गड़े थे , उन्होंने एक चिमटे से मेरे सर पर स्पर्श किया और बोली (जिसका अर्थ है) -
हे परसा पेन तू सल्लां और गांगरा शक्ति है ,
तू सभी जीव जगत की पालन शक्ति है ,
तू हमारे कर्म , कर्तव्य और कार्य की शक्ति है ,
तू हमारी शारीरिक , मानसिक और बौद्धिक शक्ति है ,
तू धन और ऋण शक्ति है ,
तू दाऊ और दाई शक्ति है ,
तू हमारी मनन , चिंतन , श्रवण तथा निगाह शक्ति है .
तू इस पोकराल (ब्रम्हाण्ड) की सर्वोच्च शक्ति है .
नाम बोलो - 
हमने कहा - अशोक 
वे बोली- परसापेन अशोक को स्वस्थ रखे , रक्षा करे , सारी परेशानियां दूर हों । लोगो की भलाई करो । जय नर्मदा माई , जय भोलेनाथ और इन्होंने हमको भभूत दी । हमने माताजी के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया । (कुछ पैसा चढ़ाना चाहा मगर उन्होंने नही लिया ) ll जय सेवा ।l

सोमवार, 15 मई 2023

अशफ़ाक़ उल्ला खान

भारत माँ के वीर सपूत , अमर बलिदानी , शहीदे आजम अशफ़ाक़ उल्ला खान की जयंती पर शत शत नमन । फांसी के समय उनकी उम्र मात्र 27 साल थी । 

अशफ़ाक़ उल्ला खान एक महान क्रांतिकारी होने के साथ उच्चकोटि के शायर भी थे । उनकी गजले देशभक्ति की भावना से भरी हुई हैं । 
उस वक़्त भी अनेक लिबरल हिंदुस्तानी थे जो अंग्रेजी राज्य को अच्छा मानते थे और उनके सपोर्टर थे । आज भी देश को ऐसे ही  आस्तीन के सापों से ज्यादा खतरा है जो विदेशी टुकड़ों पर पल रहें हैं । इन लोगो के लिये अशफ़ाक़ जी लिखते हैं -

न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई तुर्की,
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी जो आज हमको मिटा रहे हैं ।

चलो-चलो यारो रिंग थिएटर दिखाएँ तुमको वहाँ पे लिबरल,
जो चन्द टुकडों पे सीमोज़र के नया तमाशा दिखा रहे हैं।

उनकी अंतिम इक्षा थी -

ख़ुदा अगर मिल गया कहीं 
अपनी झोली फैला दूंगा 
और जन्नत के बदले उससे 
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा 
फिर आकर ऐ भारत माता 
तुझको आज़ाद कराऊंगा ।

22 october 2020


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यतीन्द्रनाथ दास

श्री यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये।
लाहौर षड्यंत्र अभियोग में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिकारियों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र,जबकि कांग्रेसी सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से मारपीट किया करते थे और उनको अमानवीय यातनाये ढ़ी जाती थी । इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी। जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने यतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है, ‘विजय या मृत्यु।'

यतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था।  यतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।

अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन खाद्य-पदार्थों को  छूना तो दूर देखते तक न थे।

जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। यतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज यतीन्द्र के चेहरे पर विशेष मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने यतीन्द्र का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे' और फिर ‘वन्दे मातरम्' गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी यतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया। देश के लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया । आज उनकी जयंती पर शत शत नमन ।

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दादाजी भोलानाथ तिवारी

दादाजी भोलानाथ तिवारी 

पिताजी के चाचा डॉ भोलानाथ तिवारी को विश्व का सबसे महान भाषा विज्ञानी कहना अनुचित न होगा । उनको विश्व की 5000 भाषाओं का ज्ञान था । उन्होंने भाषा विज्ञान (language and linguistics) पर 88 पुस्तकें लिखी । वे 12 भारतीय भाषाएं , 10 यूरोपीय भाषाएं और 8 एशियाटिक भाषाएं फर्राटे से बोलते थे । आज जब भी भाषाविज्ञान की कही रेफेरेंस देने की बात आती है तो उन्हीं का नाम लिया जाता है । किशोरावस्था में मुझे ऐसे महान व्यक्ति का सानिध्य प्राप्त हुआ ।  
संस्कृत भाषा की दो शाखाओं - शतम व कंटम के बारे में उनका यह सूत्र विश्वप्रसिद्ध है :-

ईरानी भारती चैव, बाल्टी सुस्लाविकी तथा ।
आर्मीनी अल्बानी चेता:, शतम वर्गे समाश्रिताः ।।
इटालिकीयूनानी च , जर्मनिक केल्टीकी तथा ।
हित्ती तोखारिकी चेता:, कण्टुम वर्गे प्रकीर्तिताः ।।