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बुधवार, 5 जुलाई 2023

उद्योगपति और सरकार

पहले टाटा-बिरलाकरण होता था , अब अम्बानीअदाणीकरण हो रहा है !!!

चुनाव लड़ने के लिए पार्टी फण्ड में पैसा गरीब मजदूर किसान नही देता है , न ही हम और आप देते है । बड़े व्यापारी उद्योगपति ही पार्टियों को करोड़ों रुपये का फंड देते है ।

उद्योगपति फ्री में पैसा नही देता है, मुफ्त दान नही करता है । वह निवेश करता है , और चुनाव के बाद अपने निवेश की फसल काटता है । देश मे यह सिस्टम 1952 से लागू है । राजनीतिक पार्टी का आका बन कर उद्योगपति अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है , अपने फायदे के नियम और नीतियां बनवाता है, टैक्स सिस्टम बनवाता है , सरकारी कम्पनियों को खरीदता है और फिर अपने बिज़नेस में प्रॉफिट बढ़ाता है । 
नेहरू इंदिरा गांधी के समय टाटा बिरला उद्योग जगत में छा गए थे । राजीव गांधी के समय बजाज छा गए ।  क्वात्रोचि ने खूब मलाई काटी । मनमोहन सिंह के समय देश का विजय माल्याकरण हुआ , उनको कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा । कार्तिक चिदंबरम , दामाद जी आदि ने जम के पैसा लूटा । 
पार्टी फण्ड में करोड़ों रुपये ले कर केजरीवाल ने बिज़नेसमैन नारायण गुप्ता , सुशील गुप्ता को राज्यसभा में भेजा , अब ये भी अपने बिजनेस में प्रॉफिट की फसल काटेंगे । 

समाजवादी पार्टी के फिनांसर सहारा ग्रुप के सुब्रतराय , ममता बनर्जी की पार्टी के फिनांसर शारदा ग्रुप के बारे में आपको पता ही है । केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के फिनांसर सोने की स्मगलिंग में शामिल है । 

दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के लोकतंत्र की  यही परंपरा रही है  😥😥😥😥 इसी व्यवस्था से राजनीतिक पार्टियों को फंड मिलता है । अम्बानी अडानी मोदी बीजेपी को कोसने से कुछ नही होगा , पूरी राजनीतिक वित्तीय व्यवस्था ही ऐसी बनी हुई है ।

इससे नुकसान यही है कि देश की अधिकांश पूंजी मात्र कुछ व्यापारियों के हाथ मे इकट्ठा हो जाती है , गरीब जनता और गरीब होती जाती है । देश की नीतियां गरीब मजदूर किसान के हित में नही बल्कि फण्ड देने वाले आका व्यापारी के हित में बनती है । अमीर उद्योगपति और ज्यादा अमीर होता चला जाता है , देश मे आर्थिक असमानता की खाई बढ़ती जाती है। 

इसका एक हल यह है कि चुनाव के समय प्रचार का पूरा खर्च सरकार खुद उठाये (स्टेट फंडिंग) जिससे नेताओ को उद्योगपतियों से पैसे न लेने पड़े । लेकिन इसकी भी हानियां हैं ।

और भी कई समाधान हो सकते हैं , जिसे आपलोग कमेंट में बताएं ।

DrAshok Kumar Tiwari 🙏
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शिक्षक परामर्शदाता

 क्या एक शिक्षक परामर्शदाता भी हो सकता है?


स्कूल और कॉलेज में आपके बीते दिनों को याद करें और अपने प्रिय शिक्षक के बारे में सोचें।  उनको किस बात ने इतना विशेष बनाया ? कुछ ऐसे है जिन्हे आप उनके आकर्षक तरीके से अध्ययन कराने के तरीके के कारण याद करते हैं, पर कुछ ऐसे भी है जो छात्रों के प्रति सहयोगी व्यवहार और सहानुभूति भाव दिखाते हैं और इस कारण आप उन्हे सानुराग याद करते हैं ।  एक श्रेष्ठ शिक्षक अक्सर दोनों का मिश्रण होता है।


जैसा कि हम सभी को मालूम है कि छात्र अपने वयस्क होने की उम्र का आधा समय स्कूल व कॉलेज में बिताते हैं, छात्रों के व्यक्तित्व को आकार देने में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  स्कूल के परामर्शदाता अनेक मुद्दे सुलझाने के लिए प्रशिक्षित होते हैं जैसे कि टूटे-रिश्ते, माँ-बाप के साथ तनावपूर्ण संबंध, आत्म-सम्मान और देह-छवि समस्याएं, व्यसन और आत्महत्या के विचार या सम्भावित पेशा मार्ग, एक शिक्षक जो छात्रों के साथ लगातार संपर्क में रहता है, छात्रों के साथ बात-चीत भी शुरु कर सकता है और उन्हे अपनी समस्याओं को बताने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। यह परामर्शदाता की भूमिका को शैक्षणिक ढाँचे में अनिवार्य बनाता है, और छात्रों के लिए परिसर में सहायता पहुंचाने हेतु शिक्षक एक प्राथमिक स्रोत बन सकता है।


केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) भारत ने इस बात की सिफारिश की है कि विद्यालय परिसर में एक पूर्णकालिक परामर्शदाता को नियुक्त किया जाए, लेकिन यह ज्यादातर कार्यान्वित नहीं हुआ है।  कभी-कभी यह स्कूल-व्यवस्था की अनिच्छा, और अक्सर प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की अनुपलब्धता होने का परिणाम है।  दूसरी चुनौती है कि जब छात्र अपने आप को परेशान स्थितियों में पाता है तो स्कूल के परामर्शदाता से मिलने मे हिचकता है।  इस अंतर को भरने में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। एक शिक्षक जिसपर विश्वास किया जा सके और जो सहानुभूति रखता हो, छात्रों को सहायता पहुंचा सकता है और जब जरूरत हो स्कूल के परामर्शदाता की ओर मार्गदर्शित कर सकता है।  यद्यपि, ऐसा करने के लिए हर शिक्षक के पास एक जैसे गुण नहीं होते।


इस भूमिका को कौन निभा सकता है?


छात्रों के लिए यह आसान नहीं कि वे शिक्षक से अपनी सारी समस्याएं बता दें।  यह शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे उदार-चित्त और सहायता करने के लिए इच्छुक हों।  यदि एक शिक्षक हमराज़ होना चाहता है तो छात्रों के मन में उसके प्रति विश्वास होना आवश्यक है। 


ऐसे कुछ गुण जो छात्रों को शिक्षक से बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं:


दृष्टिकोण में निष्पक्षतावाद: एक शिक्षक द्वरा छात्र को व्यक्तित्व या शैक्षिक रिकार्ड के आधार पर, किसी वैयक्तिक पक्षपात रहित निष्पक्षतावाद के ढंग से देखना चाहिए।पुराने लोग: एक पुराना व्यक्ति जो संस्था के साथ लम्बे समय से जुड़ा है, वातावरण और छात्रों को जानता है, भी परामर्शदाता की भूमिका के लिए एक आदर्श उम्मीदवार है।  एक शिक्षक जो छात्रों को सुलभ से उपलब्ध होता है, परामर्श-सेवा हेतु पहचाना और प्रशिक्षित किया जा सकता है। सक्रिय रूप से सुनने की कौशलता: छात्र जो कह रहे हैं, शिक्षक को उनकी बातों में स्वाभविक रुचि दिखाना जरूरी है। उन्हें स्वयं पर नियंत्रण रखने का अभ्यास होना चाहिए, उनमें धैर्यता होना जरूरी है, उन्हे सिर हिलाकर और छात्रों के संकेतों पर अनुक्रिया देकर सहिष्णुता और सहायता पहुँचाने हेतु शारीरिक हाव-भाव दिखाने की कोशिश करनी चाहिए।उच्च स्तर की सत्यनिष्ठा: यदि छात्र अपनी सबसे बड़े कठिनाई-भरे मुद्दों को बतलाता है तो शिक्षक का विश्वसनीय होना जरूरी है, जो किसी अन्य से ना बताएं या उससे भी बदतर, उसपर गपशप ना करें।  उदाहरण के लिए, यह विश्वास आए बिना कि जिस व्यक्ति से वे बातें कर रहे हैं वह विश्वसनीय है या नहीं, कोई छात्र अपने अशांत परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में बात करना नहीं चाहेगा।सहानुभूतिपूर्ण और गंवेषणात्मक: शिक्षक को सहानुभूति होना चाहिए क्योंकि यह छात्र के परिपेक्ष्य से जुड़े मुद्दे को समझने में मदद करता है।  उसी तरह, उनके पास बातचीत की युक्ति की कौशलता होनी चाहिए जिससे हल निकाले जाने के लिए छात्र के मन की बात अधिक से अधिक जान सकें।

जब एक छात्र उनके पास आएं तो एक शिक्षक को क्या करना चाहिए:


मेल-जोल बढ़ाएं: यह पहला चरण है जो एक शिक्षक-परामर्शदाता को उठाना चाहिए।  छात्र को अपनी उपस्थिति में तब तक सहज महसूस कराएं जब तक कि वह अपनी बातें सहजता से करना शुरु न कर दें ।  याद रखें कि छात्र आपको विश्वसनीयता की कसौटी पर नापने की कोशिश करता है।  इस पड़ाव पर मौखिक तथा हाव-भाव से मिश्रित सम्प्रेषण का उपयोग करना महत्वपूर्ण है।छात्रों को स्वयं से अभिव्यक्ति की अनुमति दें: जब छात्र सामना की जा रही चुनौतियों के बारे में बातें करना शुरु करता है, तो उन्हे गहराई में उतरने दें।  छात्र की बातों को बिना टोके हर वो बात सुनें जो वह कहना चाहता है।  शिक्षक के रूप में भी, आप छात्र के विचारों को पदच्छेद करके सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपने समस्या को सही तरीके से समझ लिया है।  यह उनके विचारों में स्पष्टता प्रदान करेगा।  “मैंने इस तरह से तुम्हारी सारी समस्या को समझ लिया है और मुझे विश्वास है कि तुम इसका समाधान इस तरह से कर सकोगे।  तुम्हें क्या लगता है?” यह एक तरीका हो सकता है।  छात्र को तुरंत समाधान प्रदान करने के बदले में समस्या से पार पाने के विचारों तक पहुंचने में सहायता करें या समस्या का समाधान करें।गैर-निर्णायक रहें: शिक्षक को छात्र के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और संवेदनशील रहना चाहिए।  उदाहरण के लिए, यदि एक छात्र आकर कहता है कि वह एक दिन में 60 सिगरेट पी गया, तो शिक्षक को यह नहीं कहना चाहिए “अरे, यह बुरी बात है!” उन्हे आत्म-संयम से रहना आवश्यक है।भावनाओं में एकरूपता का होना: शिक्षक के रूप में, व्यक्ति को अपने विचारों तथा भावनाओं में स्थिर होना चाहिए।  उन्हें प्रयत्न करना चाहिए कि वे उनकी मनोदशा तथा भावनाओं को उस छात्र पर ना थोपें जो उनके पास सहायता माँगने आता है।  उन्हे अपनी गंभीरता को बनाएँ रखना होगा।पूर्णरूप से गोपनीयता बनाएँ रखें:छात्र को भरोसा दें कि वे जो बातें बताते है वह गोपनीय ही रहेंगी और किसी से नहीं बताई जाएंगी (यदि छात्र द्वारा कही गई बातें स्वयं या किसी और को नुकसानदाई हो सकती हैं, तो यह स्कूल प्रबंधन के ध्यान में लाना जरूरी है)।

इसके साथ में, स्कूल प्रबंधन ऐसे शिक्षकों की पहचान कर सकता है जिनको छात्रों को परामर्श देने हेतु प्रशिक्षित किया जा सकता है।


(इस विषय-वस्तु को जैन विश्वविद्यालय, बेंगलूर की डॉ. उमा वारियर, मुख्य परामर्शदाता के द्वारा व्यक्त विचारों से लिया गया है।)



मंगलवार, 20 जून 2023

योग दिवस

योग के प्रवर्तक ऋषि पतंजलि को माना जाता है , जिनका काल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी है । अर्थात यह बताने का प्रयास किया जाता है कि योग के जनक महर्षी पतंजलि थे , पतंजलि से पूर्व योग दर्शन नही था , अथवा उनसे पहले लोग योग नही जानते थे ।
जबकि पतंजलि से हजारों वर्ष पूर्व भी योग पूर्ण रूप में प्रचलित था , इसके अनेक प्रमाण वेदों में मिलते है -

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥
योग के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता, वे सदसस्पति देव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओं से युक्त करते हैं।[ऋग्वेद 1.18.7]

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे सखाय इन्द्र मूतये
(यजुर्वेद 11/14)

क्व१॒॑ त्री च॒क्रा त्रि॒वृतो॒ रथ॑स्य॒ क्व१॒॑ त्रयो॑ व॒न्धुरो॒ ये सनी॑ळाः । क॒दा योगो॑ वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॒ येन॑ य॒ज्ञं ना॑सत्योपया॒थः ॥ [ऋग्वेद 1.34.9] 

अनेक उपनिषदों में भी योग के समस्त अंगों का विस्तृत वर्णन मिलता है ।

पतंजलि के पूर्व गौतम बुद्ध ने भी योग से यम नियम पद्मासन ध्यान व समाधि को अपनाया और प्रचलित किया। 
महर्षि पतंजलि ने पूर्व प्रचलित योग के 195 सूत्रों को संकलित किया, जो योग दर्शन के स्तंभ माने गए। महर्षि पतंजलि ही पहले और एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को आस्था और धार्मिक कर्मकांड से बाहर निकालकर एक जीवन दर्शन का रूप दिया था।

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की महिमा को बताया, जो स्वस्थ जीवन के लिए महत्वपूर्ण माना गया । 
(सभी फ़ोटो- हड़प्पा कालीन योग मुद्राये ) 
आजकल योग को सिर्फ शारीरिक समस्याओं से छुटकारा दिलाने का साधन मान लिया गया है , जबकि यह अध्यात्मिक उन्नति और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की पद्धति है । 

शरीर मन और आत्मा को जोड़ने का विज्ञान है योग

योग दिवस की शुभकामनाएं !

बुधवार, 17 मई 2023

बहुत जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून

बहुत जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून -

अनियंत्रित गति से बढ़ रही जनसंख्या देश के विकास को बाधित करने के साथ ही हमारे आम जन जीवन को भी दिन-प्रतिदिन प्रभावित कर रही है। विकास की कोई भी परियोजना वर्तमान जनसंख्या दर को ध्यान में रखकर बनायी जाती है, लेकिन अचानक जनसंख्या में इजाफा होने के कारण परियोजना का जमीनी धरातल पर साकार हो पाना मुश्किल हो जाता है। ये साफ तौर पर जाहिर है कि जैसे-जैसे भारत की जनसंख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे गरीबी का रूप भी विकराल होता जायेगा। महंगाई बढ़ती जायेगी और जीवन के अस्तित्व के लिए संघर्ष होना प्रारंभ हो जायेगा।
लोगों में जन-जागृति का अभाव होने के कारण तथा मज़हबी विचारों के कारण दस-बारह बच्चों की फौज खड़ी करने में वे कोई गुरेज नहीं करते है। एक पुत्र की कामना में अनेक पुत्रियां हों इसमें कोई गुरेज नहीं क्योकि ऐसे लोगो की धार्मिक मान्यता है कि वंश पुत्र से ही चलता है । इसलिए सबसे पहले उन्हें जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक करने की महती आवश्यकता है। यह समझने की जरूरत है कि जनसंख्या को बढ़ाकर हम अपने आने वाले कल को ही खतरे में डाल रहे हैं। वस्तुतः बढ़ती जनसंख्या के कारण भारी मात्रा में खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो रहा है। जिसके कारण देश में भुखमरी, पानी व बिजली की समस्या, आवास की समस्या, अशिक्षा का दंश, चिकित्सा की बदइंतजामी व रोजगार के कम होते विकल्प इत्यादि प्रकार की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। 

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या 2024 तक चीन की भारी आबादी को पीछे छोड़कर काफी आगे निकल जायेगी। सन 2100 तक भारत दुनिया का सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बन जायेगा। 

हमें समझना चाहिए कि बेहताशा बढ़ती जनसंख्या न केवल वर्तमान विकास क्रम को प्रभावित करती है, बल्कि अपने साथ भविष्य की कई चुनौतियां भी लेकर आती है। भूखों और नंगों की तादाद खड़ी करके हम खाद्यान्न संकट, पेयजल, आवास और शिक्षा का खतरा मोल ले रहे हैं। लोकतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील कर देश की गरीबी को बढ़ा रहे हैं। सालों पहले प्रतिपादित भूगोलवेत्ता माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत के मुताबिक मानव जनसंख्या ज्यामितीय आधार पर बढ़ती है लेकिन वहीं, भोजन और प्राकृतिक संसाधन अंकगणितीय आधार पर बढ़ते हैं। यही वजह है कि जनसंख्या और संसाधनों के बीच का अंतर उत्पन्न हो जाता है। कुदरत इस अंतर को पाटने के लिए आपदाएं लाती है। कभी सूखा पड़ता है तो कभी बाढ़ इसकी मिसालें हैं। इसी तरह डार्विनवाद के प्रणेता चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत के मुताबिक ''जीवन के लिए संघर्ष' लागू होता स्पष्ट नजर आ रहा है। सीमित जनसंख्या में हम बेहतर और अधिक संसाधनों के साथ आरामदायक जीवन जी सकते हैं, जबकि जनसंख्या वृद्धि के कारण यही आराम संघर्ष में परिवर्तित होकर शांति-सुकून को छीनने का काम करता है। 

आज देश की सभी समस्याओं की जड़ में जनसंख्या-विस्फोट है। विश्व के सबसे अधिक गरीब और भूखे लोग भारत में हैं। कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है। बेरोजगारी से देश के युवा परेशान हैं। युवा शक्ति में निरंतर तनाव बढ़ता जा रहा है जो देश में बढ़ते हुए अपराधों का एक सबसे बड़ा कारण है। बढ़ती हुई जनसंख्या चिंता का विषय है।

सरकार से उम्मीद है कि वह जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाये ।

शनिवार, 13 मई 2023

भारत मे अनुसंधान का स्तर

भारत मे अनुसंधान का स्तर (level of research in India) : 

सन 2005 से 2013 तक हमने पीएचडी थीसिस evaluation का कार्य किया । तब मेरे पास राजस्थान , आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश आदि के अनेक विश्वविद्यालयो की ph.d. thesis चेक होने के किये आती थी । ये थीसिस इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग तथा मैनेजमेंट विषयो की होती थी । साथ मे एक 8 पन्ने का फॉर्म भी, जिसमे विभिन्न जांच बिंदुओं पर थीसिस के बारे में अपने कमेंट लिखना पड़ते थे , अंत मे यह भी लिखना पड़ता कि इनको पीएचडी हेतु अनुशंसित करता हूँ अथवा नही । 
एक पीएचडी थीसिस को चेक करने में 2 घंटे प्रतिदिन के हिसाब से लगभग 5 दिनो का समय लगता है । 
उस वक्त एक थीसिस चेक करने का विश्वविद्यालय द्वारा आनरेरियम मात्र 250 रुपये मिलता था । अब शायद 500 रुपये मिलने लगा है । आर्थिक दृष्टि से कोई लाभ नही था, किंतु विश्वविद्यालयो के अनेक मित्र प्रोफेसरो के अनुरोध पर मैने यह कार्य करना स्वीकार्य किया था ।  
2013 में मैने स्वेच्छा से यह कार्य छोड़ दिया क्योकि 
अनेक थीसिसो का परीक्षण कर मुझे अनुभव हुआ कि भारत मे रिसर्च का स्तर (अन्य विकसित देशों की तुलना में) काफी निम्न कोटि का है । इसके अनेक कारण हो सकते हैं - 
1. शोध छात्रों को शोध के लिए वित्तीय सहायता न मिलना , जिससे उसके अनुसंधान करने के रिसोर्स सीमित होते हैं । poor government funding . Low stipend or no stipend . इसलिए हमारे देश में रिसर्च को कोई अपना कैरियर नही बनाता ।
2. शोध पर्यवेक्षक (पीएचडी गाइड) का निम्न स्तर होना । बिना कोई उल्लेखनीय रिसर्च किये सिर्फ लंबी प्रोफेसरी की नौकरी के आधार पर उनको गाइड बना दिया जाता है । इन्हें अपने विषय के नवीन अनुसंधानों का कुछ भी पता नही ।  ऐसे गाइड, छात्र को कुछ भी गाइड नही कर पाते । 
3. मौलिक रिसर्च करने की बजाए किसी पुरानी रिसर्च को नए प्रारूप में थोड़ा हेरफेर कर के प्रस्तुत करना । यह सिस्टम भारत मे बहुतायत है। 
4. रिसर्च में शार्ट कट पद्धति अपनाना । रिसर्च एक शार्ट टर्म गेन हो गया है जिसका उद्देश्य येन केन प्रकार पीएचडी डिग्री हासिल करना है । चाहे छात्र में रिसर्च क्षमता aptitude हो या न हो । रिसर्च में रुचि हो या न हो , बस उसे पीएचडी करना है । ताकि कॉलेज टीचिंग की नौकरी पक्की हो जाये । 
5. स्कूल के समय से ही हमारी शिक्षा व्यवस्था steriotypical होती है । किताब पढ़ो , परीक्षा दो , पास हो जाओ । इसमें नए विचारों या इनोवेशन के लिए कोई स्थान नही होता । वही छात्र आगे चल कर शोधार्थी बनता है । 
6. छात्रों का रोल मॉडल कोई वैज्ञानिक नही होता जिसने कोई बड़ी खोज की हो । उनके रोल मॉडल फ़िल्म हीरो , क्रिकेटर , नेता या पूंजीपति होते हैं । 
7. विश्वविद्यालय में अच्छी आधुनिक रिसर्च प्रयोगशालाओं का अभाव 
8. विश्वविद्यालय और कार्यकारी कंपनियों में रिसर्च हेतु अनुबंध न होना । 

 मेरे अनुभव में यह भी आया है कि प्राईवेट विश्वविद्यालयो में रिसर्च का स्तर सरकारी विश्वविद्यालयों से निम्न है । 

इक्षा न होते हुए भी एक मित्र कुलपति के विशेष अनुरोध पर लॉक डाउन के दिनों में  पुनः एक थीसिस evaluation कर रहा हूं ।  किंतु थीसिस का स्तर वही है जो ऊपर बताया गया है । ☹️☹️☹️ ।

15-20 पुरानी थीसिसे जो घर पर पड़ी है , आज उनको छांटा । सोच रहा हूँ कि इनको JEC की लाइब्रेरी में डोनेट कर दूं । 

भारत मे अनुसंधान का स्तर निम्न होने के अन्य भी बहुत कारण हो सकते है । कुछ पर आप लोग भी प्रकाश डालें , तभी पता चलेगा कि विश्वगुरु का दावा करने वाले हम भारतीय नागरिक एक भी नोबल पुरस्कार क्यो नही ले पाते ?


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गणतंत्र दिवस पर

गणराज्यों की परंपरा ग्रीस के नगर राज्यों से प्रारंभ नही हुई थी, बल्कि इनसे हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में नौ बार और पौराणिक ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहां यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थो में ही किया गया है। वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। जनतांत्रिक पहचान वाले गण तथा संघ जैसे स्वतंत्र शब्द भारत में आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले ही प्रयोग होने लगे थे।

भारत में वैदिक काल से लेकर लगभग चौथी-पांचवीं शताब्दी तक बडे़ पैमाने पर जनतंत्रीय व्यवस्था रही। 

यह शासन की ऐसी प्रणाली है जिसमें राष्ट्र के मामलों को सार्वजनिक माना जाता है। यह किसी शासक की निजी संपत्ति नहीं होती है। राष्ट्र का मुखिया वंशानुगत नहीं होता है। उसको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित या नियुक्त किया जाता है।
हम अपने वोट के अधिकार को अनदेखा कर देते हैं। हमें अपने कर्त्तव्य याद रखने चाहियें। हमें अधिकार याद रहते हैं किन्तु कर्त्तव्य भूल जाते हैं। हर नागरिक को जागरुक होना पड़ेगा। हर अधिकारी अपना कर्त्तव्य निभाये और जनता के अधिकारों को पूरा करे। इसी तरह जनता यदि अपने कर्त्तव्यों को पहचाने तो ही कुछ हो सकता है। 
आधुनिक अर्थो में गणतंत्र से आशय सरकार के उस रूप से है जहां राष्ट्र का मुखिया राजा नहीं होता है। सिर्फ परिभाषा के हिसाब से हमारा देश गणतंत्र है

यह देश असल में गणतंत्र तभी हो पायेगा जब हर नागरिक अपना कर्त्तव्य निभायेगा और दूसरे के अधिकारों की पूर्ति होगी। और तभी हम सर उठाकर स्वयं को गणतंत्र घोषित कर सकेंगे।

इस अवसर पर राधेश्याम आर्य कवि की कविता -

ऐसा हो गणतंत्र हमारा
जनहित के प्रति रहे समर्पित,
शासन तथा प्रशासन सारा।

खुशियों से हो भरा राष्ट्र यह,
गुंजित हो 'जयहिंद' सुनारा। 
बढ़ें सुपथ पर, मिलकर सारे
राष्ट्र बने प्राणों से प्यारा।
ऐसा हो गणतंत्र हमारा॥

कभी न मानव बने यहाँ का
मानवता का ही हत्यारा।
ऐसा हो गणतंत्र हमारा॥

निर्बलतम जो भारत जन हैं
उनको भी अब मिले सहारा।
ऐसा हो गणतंत्र हमारा॥

पथ प्रशस्त करें वसुधा का
जय ध्वज वाहक भारत न्यारा।
ऐसा हो गणतंत्र हमारा॥ 

(राधेश्याम आर्य विद्यावाचस्पति)


श्रमिकों के लिए गांधी जी बोले थे

गाँधी जी ने कहा था --- 
** मैं श्रम अथवा काम के विभाजन में विश्वास करता हूँ। लेकिन मैं मजदूरी की बराबरी पर ज़ोर देता हूँ। वक़ील, डॉक्टर या अध्यापक को भंगी की अपेक्षा ज़्यादा पैसा लेने का हक़ नहीं है। जब यह होगा तब श्रम के विभाजन से राष्ट्र अथवा विश्व का उत्थान होगा। सच्ची सभ्यता अथवा सुख की प्राप्ति का कोई और आसान रास्ता नहीं है।
** एक निश्चत आयु से ऊपर के सभी स्त्री-पुरुषों को वोट देने का अधिकार तभी मिलेगा जब वे राज्य को कुछ शारीरिक सेवा प्रदान करेंगे।
** मुझे ग़लत न समझिए। मैं बौध्दिक श्रम के महत्व को नकार नहीं रहा, लेकिन आप कितना ही बौध्दिक श्रम करें, वह उस शारीरिक श्रम का स्थान नहीं ले सकता जिसे सबकी भलाई के लिए करने के वास्ते हमने जन्म लिया है। वह शारीरिक श्रम से अत्यधिक श्रेष्ठ माना जा सकता है, प्राय: होता भी है पर वह शारीरिक श्रम का स्थानापन्न कदापि नहीं है, और न हो सकता है। यह इसी प्रकार से है जैसे कि बौध्दिक आहार अन्न के दानों से कितना ही श्रेष्ठ हो, पर वह हमारा पेट नहीं भर सकता। सच्चाई तो यह है कि धरती की पैदावार के अभाव में कोई बौध्दिक कार्य सम्भव नहीं है।
** प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सफ़ाई का काम ख़ुद ही करना चाहिए। जितना आवश्यक भोजन करना है उतना ही मलोत्सर्ग भी है, और सर्वोत्तम यही है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सफ़ाई ख़ुद करे। यदि यह असंभव हो तो प्रत्येक परिवार को तो अपनी सफाई का जिम्मा ख़ुद लेना ही चाहिए।
मैंने वर्षों से यह महसूस किया है कि समाज के एक ख़ास वर्ग को सफाई का जिम्मा देकर  कहीं भारी ग़लती की गई है। इतिहास में उस आदमी का कोई उल्लेख नहीं मिलता जिसने सबसे पहले इस अनिवार्य सफाई-सेवा को निम्नतम दर्जा दिया। वह जो भी रहा हो, उसने हमारे साथ किसी अर्थ में भलाई नहीं की।
बचपन से ही हमारे मन में यह बात बैठा दी जानी चाहिए कि हम सभी सफ़ाई पेशा हैं और इसके सबसे आसान उपाय यह है कि हम सब रोटी कमाने के लिए सफ़ाई का काम हाथ में लें। इस प्रकार यदि सफ़ाई का काम बुध्दिमानी से हाथ में लिया जाए तो इंसान की बराबरी को सच्चे रूप में समझने में बड़ी मदद मिलेगी।
** क्या लोगों के लिए बौध्दिक श्रम के द्वारा अपनी रोटी कमाना उचित नहीं है? नहीं। शरीर की आवश्यकता शरीर द्वारा ही पूरी की जानी चाहिए। “जो सीजर का है, वह सीजर को करने दो” -उक्ति शायद यहाँ भी लागू होती है। बौध्दिक कार्य महत्वपूर्ण है और जीवनक्रम में नि:संदेह इसका स्थान है। लेकिन मैं जिस बात पर बल दे रहा हूँ वह शारीरिक श्रम है। मेरा कहना है कि इस दायित्व से किसी को बरी नहीं किया जाना चाहिए। शारीरिक श्रम से मनुष्य के बौध्दिक कार्य की गुणवत्ता में भी सुधार आएगा। मजदूर कुर्सी पर बैठकर लिख नहीं सकता, लेकिन जिस व्यक्ति ने जीवन भर कुर्सी पर बैठकर काम किया है, वह निश्चित रूप से शारीरिक श्रम करना आरम्भ कर सकता है।

मजदूर दिवस पर

दिनाँक 1 मई, 1886 को पूरे अमेरिका के 11 हज़ार कारख़ानों के लगभग साढ़े तीन लाख श्रमिकों ने हड़ताल कर दी थी । इस हड़ताल का मुख्य केन्द्र शिकागो शहर था। उनकी माँग थी कि काम के घण्टे को अट्ठारह से घटाकर आठ घण्टे किया जाये और वह भी मज़दूरी में बिना किसी कटौती के। इसके साथ ही कार्यस्थल पर साफ़-सफ़ाई, स्वच्छ पानी आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था की जाये। बाद में 4 मई को हे मार्किट स्क्वायर गोलीकांड हुआ जिसमें कई मज़दूर मारे गये। पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल, पिफ़शर आदि मज़दूर नेताओं को फाँसी के फ़न्दे पर लटका दिया गया। तभी से 1 मई को तीन लाख श्रमिकों के संघर्ष और उनकी वाजिब माँगों के समर्थन में विश्व के अधिकांश देशों में मज़दूर दिवस मनाया जाता है।

महाकाव्य महाभारत में एक प्रसंग आता है जब पाण्डवों द्वारा दिये गये एक भोज में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने लिए आगन्तुकों की जूठी पत्तल उठाने का काम चुना। अन्य लोगों द्वारा सबसे निम्न समझे जानेवाले काम को वासुदेव ने श्रेष्ठ काम माना। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने श्रम का सम्मान किया। 

भारत सरकार श्रम मंत्रालय के अनुसार देश-भर में तक़रीबन 40 करोड़ आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है। इसका मतलब यह है कि ये लोग आकस्मिक रोज़गार पर आश्रित रहते हैं। सरकार द्वारा चलाई जा रही किसी श्रमिक कल्याण योजनाओं का लाभ इन्हें नहीं मिल पाता है। साथ ही, ये अपनी आवाज़ भी सरकार तक नहीं पहुँचा पाते हैं। ठेकेदार उनका शोषण करते हैं। एक तो उन्हें पूरी मज़दूरी नहीं मिलती और दूसरे महँगाई को बोझ उनके कन्धों को झुका देता है। निर्धारित आठ घण्टे के काम की बजाय 10-से-12 घण्टे काम कराया जाता है। नियोक्ता वर्ग मज़दूरों से बदसुलूकी भी करते हैं। बात-बात पर गाली देना तो उनका शगल हो जाता है, जबकि प्रत्येक व्यक्ति केवल मानव होने के नाते सम्मान का हक़दार होता है। कार्यस्थल पर शौचालय, स्वच्छ पेयजल, छाँव आदि सुविधाओं से आज ही नहीं बल्कि आदि से उन्हें महरूम रखा गया है। सुरक्षा उपकरणों का अभाव और दुर्घटना होने पर प्राथमिक व द्वितीयक चिकित्सा की समुचित व्यवस्था न होना आदि कुछ प्रमुख चुनौतियाँ हैं। इसके अलावा महिला मज़दूरों को एक ओर तो अधिकतर नियोक्ता पुरूषों के बराबर दिहाड़ी नहीं देते हैं और दूसरी ओर उनका दैहिक व मानसिक रूप से शोषण भी किया जाता है। इसे श्रम का अपमान नहीं तो भला और क्या कहा जायेगा ! बाल मज़दूरी तो भीषणतम् समस्या है। जो वक़्त खेलने-कूदने और पढ़ने में बिताया जाना चाहिए, बाल मज़दूर उसे पेट के लिए संघर्ष करने में बिताते हैं।
हम एक ऐसे देश के निवासी हैं जहाँ श्रम और श्रम शक्ति के देवता विश्वकर्मा की पूजा होती है। सभी तरह का श्रम चाहे वह कुशल हो या अकुशल प्रार्थनातुल्य है। श्रम और श्रमिकों को देवता स्वरुप मानते हुये उनका वाजिब हक़ अवश्य ही मिलना चाहिए। विभिन्न अधिकारों और उन्हें इस्तेमाल करने की तक़नीकों के सन्दर्भ में मज़दूरों को जागरूक करना होगा। साथ ही, प्रशासनिक स्तर पर ऐसी व्यवस्था हो कि मज़दूरों के हितों से जुड़े क़ानूनों का नियोक्ता वर्ग उलंघन न कर सकें। श्रमिक वर्ग की प्रगति होगी तभी हम देश को प्रगतिशील बना सकेँगे।

परिश्रम

श्रम में ‘परि’ उपसर्ग लगाकर परिश्रम हो गया।   मेहनत कैसी भी क्यों न हो, मेहनत तो मेहनत है। पता नहीं किसने, क्यों और कैसे मानसिक और शारीरिक श्रम में भेद पैदा कर दिया? श्रम तो दोनों में लगता है, लेकिन मानसिक श्रम को शारीरिक श्रम से ऊंचा और सम्मानजनक सामाजिक पहचान मिल गई। 
आज हर शारीरिक श्रम करने वाला व्यक्ति अपनी संतान को पढ़ा-लिखाकर कोई ऐसे काम में लगाना चाहता है, जिसमें कलम या कंप्यूटर का इस्तेमाल हो, कुदाल का नहीं। 
शारीरिक श्रम का उचित मोल नहीं मिलता। पारिश्रमिक की बात छोड़ भी दें, तो श्रम को सम्मान नहीं मिलता, यह जानते हुए भी कि मजदूरों के परिश्रम से ही समाज सुंदर बन रहा है। उचित मेहनताना और सम्मान की बात तो दूर, मजदूरों को कार्यस्थलों पर सुरक्षा और आधारभूत सुविधाये  भी नहीं मिल पाती हैं। जोखिम भरे क्षेत्रों में भी मजदूरों को उनके भाग्य भरोसे छोड़ा जा रहा है। श्रम को सम्मान देने में समाज और सरकार को विशेष पहल करनी चाहिए। श्रम दिवस मनाते हुए हम सबको यह संकल्प लेना चाहिए कि हम श्रम का सम्मान करेंगे और कोई भी श्रम बड़ा- छोटा नहीं होता है।

हिंदी है विश्व की सबसे जादा बोली और समझी जाने वाली भाषा

 

चीनी भाषा नहीं बल्कि हिंदी है विश्व की सबसे जादा बोली और समझी जाने वाली भाषा
Apr 21, 2017,

सामान्यतः यह माना जाता है कि चीनी भाषा (मंदारियन) विश्व की सबसे जादा बोली जाने वाली भाषा है जिसे 1 अरब 20 करोड़ लोग बोलते हैं . दूसरे स्थान पर स्पेनिश भाषा आती है जिसे 43 करोड़ लोग बोलते हैं , तीसरे स्थान पर अंग्रेजी है जिसे विश्व में मात्र 42 करोड़ लोग बोलते व समझते हैं . हिंदी भाषा का स्थान चौथा माना जाता है जिसे 38 करोड़ लोग बोलते है . फ्रेंच भाषा का स्थान पांचवे नंबर पर हिंदी के बाद है . इसके बाद अरबी और रुसी भाषा का स्थान आता है . इनमे हिंदी को छोड़ कर अन्य उपरोक्त भाषाओं को  संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यालयीन भाषाओँ का दर्जा मिला हुआ है .



यह आंकड़ों का खेल है कि जहाँ चीन सरकार संयुक्त राष्ट्र को चीनी भाषा के आंकड़े बढ़ा चढ़ा कर पेश करती है वही हमारी सरकार हिंदी भाषा बोलने और समझने वालों की वास्तविक संख्या को कम करके प्रस्तुत करती है .

चीनी कोई एक भाषा नहीं है . यह चीन में बोली जाने वाली लगभग बीस भाषाओँ का समूह है . इस समूह की प्रमुख भाषाए हैं - गुआन (Guan, उत्तरी या मन्दारिन, 北方話/北方 या 官話/) - 85 करोड़ वक्ता , वू (Wu /, जिसमें शंघाईवी शामिल है) - लगभग 9 करोड़ वक्ता , यू (Yue या Cantonese, /) - लगभग 8 करोड़ वक्ता , मीन (Min या Fujianese, जिसमें ताइवानवी शामिल है, /) - लगभग 5 करोड़ वक्ता , शिआंग (Xiang ) - लगभग 3.5 करोड़ वक्ता , हाक्का (Hakka 客家 या ) - लगभग 3.5 करोड़ वक्ता , गान (Gan /) - लगभग 2 करोड़ वक्ता तथा अन्य चीनी भाषाए लगभग 1 करोड़ वक्ता . इस प्रकार चीनी भाषा बोलने वालों की कुल संख्या 1 अरब हो जाती है . अब चीन सरकार द्वारा चीन के बाहर रह रहे चीनी नागरिक तथा ताईवानी और सिंगापुर के चीनी बोलने वाले विदेशी नागरिको को जोड़ कर चीनी भाषा बोलने व समझने वाले लोगों की कुल 1.2 अरब की संख्या प्रस्तुत की जाती है .

हमारी सरकार संयुक्त राष्ट्र में  देश की  जनगणना के आधार पर हिंदी भाषा बोलने वालों के आंकड़े प्रस्तुत करती है . अर्थात सरकार द्वारा 38 करोड़ लोगो को हिंदी बोलने वाला बताया जाता है . इसमें भारत में रहने वाले सिर्फ खड़ी बोली बोलने वाले नागरिक ही शामिल हैं . इस संख्या में हिंदी की विभिन्न शाखाओं जैसे भोजपुरी , मैथिली , उर्दू , राजस्थानी , मारवाड़ी , बघेली , अवधी , बुन्देली , पहाड़ी , कुमायुनी गढ़वाली डोगरी  , ब्रज , हरयाणवी , दक्कनी- हैदराबादी , छत्तीसगढ़ी , झारखंडी आदि भाषायें शामिल नहीं है !!! अब यदि इसमें 4 करोड़ भोजपुरी , 2.5 करोड़ मैथिली , 6 करोड़ उर्दू , 8 करोड़ राजस्थानी , 1.5 करोड़ मारवाड़ी , 80 लाख बघेली , 30 लाख बुन्देली , 2 करोड़ अवधी , 1 करोड़ पहाड़ी – कुमयुनी –डोगरी , 60 लाख ब्रज भाषी , 1.5 करोड़ हरयाणवी , 10 लाख मालवी , 2 करोड़ दक्किनी भाषाओँ के बोलने वालों को जोड़ दिया जाए तो अब हिंदी भाषा बोलने वालों की संख्या 68 करोड़ हो जाती है .  चीन की तरह यदि हम भी लिपि के आधार पर देवनागरी का प्रयोग  करने वाली भषाओं जैसे नेपाली और मराठी को हिंदी की सहायक भाषा मान लें   तो 2 करोड़ नेपाली और 7.5 करोड़ मराठी को जोड़ने से हिंदी बोलने और समझने वालों का आंकड़ा 78 करोड़ पहुँचता है , अभी इसमें केवल भारतीय नेपाली नागरिक ही शामिल हैं .

अब इस संख्या में विदेशों में रहने वाले हिंदी बोलने और समझने वालों (भारतीय मूल के विदेशी नागरिक तथा अप्रवासीय भारतीय ) को जोड़े तथा दक्षिण अफ्रीका , मारीशस , फिजी , सिंगापुर , वेस्ट इंडीज, नेपाल के मधेशिया आदि के हिंदी भाषियों की संख्या जो कि 32 करोड़ है तथा पाकिस्तान में उर्दू बोलने वाले 2 करोड़ (मुजाहिर) जोड़ दिए जाए तो हिंदी बोलने और समझने वालों की कुल संख्या 1 अरब पार कर जाती है .

 

 

 



प्रत्येक पंजाबी , सिन्धी तथा गुजराती हिंदी बोलता और समझता है . इनकी संख्या भी हिंदी बोलने और समझने वालों में जोड़ने से कुल हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या 1 अरब 35 करोड़ हो जाती है !!! . इस प्रकार विश्व में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या सर्वाधिक है . चीनी भाषा नहीं  बल्कि हिंदी है विश्व की सबसे जादा बोली और समझी जाने वाली भाषा .

जरूरत इस बात की है की चीन की तरह भारत सरकार भी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या के सही आंकड़े प्रस्तुत करे और हिंदी भाषा को अन्तराष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए ठोस प्रयास करे .

 

 

दस्तक देता ऊर्जा संकट

 

दस्तक देता ऊर्जा संकट :

क्या भारत एक ऊर्जा सुरक्षित देश है ? दुर्भाग्य से इसका उत्तर ‘नहीं’ में है . हम विश्व के सर्वाधिक ऊर्जा असुरक्षित देशों में हैं .



ऊर्जा सुरक्षा से अभिप्राय है कि देश के प्रत्येक नागरिक को हर समय वाजिब दाम पर निर्बाध ऊर्जा उपलब्ध रहे . अर्थात ऊर्जा के सभी संसाधन जैसे कोयला , डीजल , पेट्रोल , बिजली , गैस आदि सदैव हर व्यक्ति की आसान पहुँच में वहन करने लायक कीमत में 24 घंटे प्रतिदिन मिल सके .  ऊर्जा की आपूर्ति निर्बाध हो , विश्वसनीय हो , प्रतियोगी दरों तथा खरीद सकने योग्य कीमत पर हो , सबकी पहुँच में हो – ये ऊर्जा सुरक्षा के मुख्य अभिलक्षण है . लम्बे समय की ऊर्जा सुरक्षा देश के आर्थिक विकास से जुडी है जबकि कम समय की ऊर्जा सुरक्षा प्रतिदिन की ऊर्जा की मांग और उसकी आपूर्ति से सम्बंधित है .



हमारे देश में हम ऊर्जा संसाधनों के लिए विदेशी स्त्रोतों पर निर्भर हैं – जैसे पेट्रोलियम , प्राकृतिक गैस , यूरेनियम आदि . निर्यात करने वाले देशों में किसी भी तरह की राजनितिक असंतुलन होने पर  या उनसे  सम्बन्ध ख़राब होने पर हमारी ऊर्जा आपूर्ति पर संकट आ जाएगा . इन संसाधनों की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार की दरें तय करती हैं जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं . हमारे देश में आज भी कैरोसीन का प्रयोग प्रकाश के लिए होता है .



हमारे देश के जीवाश्म ईधन जैसे कोयला , लिग्नाईट आदि की उपलब्ध मात्रा घटती जा रही है और हम अपने ताप विद्युत् केंद्र जादा वर्षों तक नहीं चला सकते . पर्यावरणीय कारणों से अब बड़े जल विद्युत् केंद्र बनाना संभव नहीं .

हमारी पिछली सरकारों  ने  ऊर्जा के नवीन  गैर परंपरागत स्त्रोतों (जैसे पवन ऊर्जा , सौर ऊर्जा , भू उष्मीय ऊर्जा ) को बढाने पर ध्यान नहीं दिया , पिछले  दो वर्षों में ही कुछ प्रगति हो सकी है . हमारे देश में कुल बिजली उत्पादन का मात्र 15 प्रतिशत इन स्त्रोतों से उत्पादित होता है , जो कि बहुत कम है.

 

एक तो ऊर्जा संकट , ऊपर से ऊर्जा की बरबादी में भी हम विश्व के देशों में अग्रणी स्थान रखते हैं .

हमारे देश में अधिकतर ऊर्जा अक्षम यंत्रों (NON --ISI) का प्रयोग होता है . इनकी खरीद कीमत कम होती है मगर दक्षता भी कम होती है . फलस्वरूप ये ऊर्जा की हानि करते है . देश में लगभग 2 करोड़  कृषि पम्प सेट हैं , इनमे 14 अरब यूनिट बिजली की खपत होती है . प्रति वर्ष 50 लाख पंप बढ़ जाते हैं . इनमे 80 प्रतिशत पम्प गैर मानक तथा अदक्ष है . इन पम्पों की दक्षता मात्र 30 प्रतिशत होती है अर्थात इनमे 70 प्रतिशत बिजली की बरबादी हो जाती है .

इसी प्रकार लघु व माध्यम उद्योगों में अधिकांश मोटरें , कम्प्रेसर , ड्राइव , बेल्ट कन्वेयर , क्रेशर , फैन , ब्लोअर आदि अदक्ष है और ऊर्जा की बरबादी करते हैं . सरकारें गैर मानक उपकरणों का उत्पादन व विक्रय रोकने में नाकाम साबित हुई है . गैर मानक दिल्ली मेड या चाइना मेड बिजली के यंत्र बाजार में सर्वत्र उपलब्ध है , जिनके डिब्बे पर न तो निर्माता का नाम पता होता है , न कोई बिल , न कोई टैक्स .



हमारी बिजली ट्रांसमिशन व वितरण कम्पनियों में लाइन लॉस बहुत अधिक है . लगभग 30 से 40 प्रतिशत तक बिजली की बरबादी लाइन लॉस के रूप में में हो जाती है .

यहाँ तक कि सरकारी बिजली कम्पनियां भी गैर मानक उपकरण खरीदती है . जैसे  ऊर्जा दक्ष अमोरफस कोर ट्रांसफार्मर का विकल्प बाजार में आसानी से उपलब्ध होते हुए भी अधिक हानि वाले परंपरागत  ट्रांसफार्मर खरीदे जाते हैं .

ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 के अनुसार प्रत्येक उद्योग को ऊर्जा आडिट कराना अनिवार्य है लेकिन कोई उद्योग इसका पालन नहीं कर रहा .  इस अधिनियम के अनुसार प्रत्येक बड़ी कमर्शियल बिल्डिंग ( जैसे शौपिंग माल , हॉस्पिटल , मल्टीप्लेक्स आदि ) का निर्माण NATIONAL ENERGY CONSERVATION BUILDING CODE  (ECBC) के अनुसार किया जाना है लेकिन कोई भी नगर निगम इसका पालन नहीं करवा रहा .   

ऊर्जा सुरक्षा को राष्ट्रीय सुरक्षा , आर्थिक सुरक्षा व पर्यावरणीय सुरक्षा की कुंजी माना जाता है . अर्थात देश की ऊर्जा सुरक्षा पर संकट आने पर  राष्ट्रीय, आर्थिक व पर्यावरणीय सुरक्षा पर भी संकट आ जाएगा .



अगर हमें ऊर्जा सुरक्षित देश बनना है तो निम्नलिखित उपाय अपनाने होंगे :

·         हमें अपने कोयले व जल विद्युत् उत्पादन केन्द्रों पर निर्भरता कम करना होगा तथा सौर , पवन , भू उष्मीय , सामुद्रिक विद्युत् उत्पादन को बढ़ाना होगा .

·         परमाणु बिजली उत्पादन को बढ़ाना होगा

·         देश में ही पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस के स्त्रोतों को खोजना और उनसे उत्पादन बढ़ाना ताकि हम कम से कम उर्जा संसाधनों का आयात करें .

·         विद्युत् चालित वाहनों की संख्या को बढ़ाना , इलेक्ट्रिक बसों व इलेक्ट्रिक कारों के निर्माण व विक्रय को सरकार द्वारा प्रोत्साहन व संरक्षण दिया जाए . विद्युत् चालित वाहनों के चार्जिंग स्टेशनों की जगह जगह स्थापना करना .

·         पॉवर हाउस , ट्रांसमिशन लाइनों व सबस्टेशनों की भौतिक सुरक्षा करना ताकि इन पर आतंकवादी हमले न हो सकें .

·         ऊर्जा हानि करने वाले गैर मानक उपकरणों का उत्पादन व विक्रय रोकने हेतु कठोर नियम बनाना .

·         ECBC का पालन न करने वाले भवनों के निर्माण रोकने व ऊर्जा आडिट न कराने वाले उद्योगों पर कठोर कार्यवाही करना .

·         बिजली ट्रांशमिशन व वितरण कम्पनियों में लाइन लॉस कम करना

·         ऊर्जा संरक्षण हेतु जन चेतना उत्पन्न करना व प्रचारित करना

इन उपायों को अपना कर हम एक ऊर्जा सुरक्षित देश बन सकतें है .