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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

मैकाले की टूल किट

मैकाले की टूल किट 

मैकाले की सोच -- हमे एक ऐसी कौम बनानी है जो देखने मे हिंदुस्तानी हो मगर दिलोदिमाग से अंग्रेजों की गुलाम हो । 1857 का संग्राम हम देख चुके है ।  एक दिन हम अंग्रेजो को भारत से जाना ही होगा लेकिन जाने से पहले हम इन हिंदुस्तानी लोगों को अपनी मानसिक गुलाम कौम बना देंगे । और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा ।

(कल्पना करिए कि उस वक़्त क्या बातचीत हुई होगी)



 
फिर मैकाले अपने शिष्य कर्जन और डलहौजी से बोले - हमे ये करना है जिससे कि -

- ये लोग अपने धर्म और संस्कृति पर ग्लानि व शर्म महसूस करें व उसका मखौल उड़ाए  किंतु दूसरे धर्म को अच्छा समझे 
-ये लोग अपने सभी साधु संतों को पाखंडी समझे और पोप पादरी बाइबिल को महान समझे
-ये लोग अपने प्राचीन विज्ञान को पाखंड और झूठ माने और विदेशी विज्ञान को श्रेष्ठतम माने 
- ये लोग अपनी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेदिक और यूनानी को बकवास और अवैज्ञानिक माने और अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति को श्रेष्ठ मानें
-ये लोग अपनी भाषा में पढ़ने लिखने बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखे और अंग्रेजी पढ़ने लिखने बोलने वालों को उच्च मानें । अंग्रेजी पढ़ने वालों की भारतीय समाज मे बड़ी इज्जत हो , उनको ही बड़ी नौकरियां मिलें ।
-इनके लाखो गुरुकुल जो मंदिरों में चलते है वे बंद करवाओ , इनकी शिक्षा व्यवस्था तबाह कर दो और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लागू करो ।  स्कूलों में इनके बच्चों को वही पढवाओ जो हम चाहते हैं । शिक्षा को सिर्फ नौकरी पाने का जरिया बना दो । 
-इनकी किताबे बदल दो और अंग्रेजी किताबे चला दो । हमे ऐसा करना है कि आगे 50 सालों में भारत मे संस्कृत और फ़ारसी पढ़ने और समझने वालों की संख्या 1% से भी कम हो जाये। 
-ये लोग ऐसा साहित्य पढ़े (और ऐसी फिल्में देखे) जिसमे क्षत्रिय को अय्याश अत्याचारी राजा या जमीन्दार , ब्राह्मण को धूर्त पाखंडी , वैश्य को सूदखोर लालची व शूद्र को इनके जुल्म सहने वाला बताया हो 
- ये लोग अपनी परंपराओं को ब्राह्मणवाद कह के मजाक उड़ाए और विरोध करें 
-इनको बताओ कि तुम्हारे पास कुछ भी श्रेष्ठ नही था , जो भी श्रेष्ठ है वो हम यूरोपीय लोगो ने तुमको दिया है 
- इनको बताओ कि तुम लोग भी हमारी तरह  बाहरी हो और तुम्हारे पूर्वज यूरोप से आये थे , तुम्हारी भाषा भी यूरोपीय लोगो की देन है 
- इनको झूठी आर्य आक्रमण थ्योरी पढ़ा कर द्रविड़ों से लड़वाओ , शूद्रों को ब्राह्मणों से लड़वाओ , हिंदी और तमिल को लड़वाओ 
- इनके देशज वस्त्र जो इनके देश के मौसम के अनुसार कम्फ़र्टेबल होते है -जैसे धोती कुर्ता गमछा उत्तरीय आदि को पहनने में इनको शर्म आये और ये इंग्लैंड के ठंडे मौसम के अंग्रेजी वस्त्रों जैसे शर्ट सूट पैंट टाई कोट को पहनने में गर्व अनुभव करें 
- ये लोग अपने नायकों का मजाक उड़ाए और विदेशी आक्रमणकारियों की तारीफ करें 
- इनको बताओ कि तुम लोग कभी एक देश नही थे । हम अंग्रेजो ने तुमको एक देश बनाया । 

डलहौजी ने पूछा सर कैसे किया जाएगा यह सब -

मैकॉले बोला - एक झूठ को यदि 100 बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है । पहले यह काम जर्मन और अंग्रेज विद्वान करेंगे फिर गुलाम भारतीय खुद ही करेंगे । हम मैक्स मूलर , स्पीयर, मेटकाफ जैसे लोगो को तनख्वाह देंगे यह काम करने के लिए । समझे डलहौज़ी , तुम मेरा बनाया हुआ इंडियन एडुकेशन एक्ट तुरंत लागू करो  । इनको धर्म जाति भाषा क्षेत्र के आधार पर बांटते जाओ और लड़वाते जाओ। 

देखना डलहौज़ी भारत की आजादी के बाद एक दिन ऐसा आएगा कि जो भारत के टुकड़े होने की बात करेगा , जो आतंकवादी नक्सली का समर्थन करेगा उसका साथ देने के लिए हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । जो भगवा पहनेगा या संस्कृत आयुर्वेद गीता पढ़ने की बात करेगा उसका विरोध करने हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । भारत में भारत माता की जय बोलने वालों को मूर्ख समझा जाएगा । 
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मैकाले की टूल किट सफल हुई । आज भी हमारे बीच मे बहुत से लोग इसी टूलकिट के अनुसार दिलोदिमाग से अंग्रेजो के गुलाम बन हुए हैं ।

ऐसे लोगो को  देश और समाज के हित में अपने दिमाग को अब decolonized कर लेना चाहिए ।

शनिवार, 26 अगस्त 2023

जौहर

आज 26 अगस्त 1303 को जौहर_दिवस पर महाराणी माता पद्मिनी एवं साथ मे जौहर करने वाली सोलह हजार क्षत्राणियों को नमन 👏👏

करीब 700 वर्ष पूर्व सन 1303 को चितौड़ की महारानी मां पद्मनी ने सतीत्व की रक्षा के लिये 16000 राजपूतानियों व अन्य स्त्रियों तथा बालिकाओं के साथ जौहर किया था!


जौहर' एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर हमारी 'रुह कांप' जाती है, परन्तु उसके साथ ही साथ यह शब्द हिन्दू नारियों के अभूतपूर्व 'बलिदान' का स्मरण कराता हैँ! जो जौहर शब्द के अर्थ से अनभिज्ञ हैँ! उन्हेँ मेँ बताना चाहुँगा....॥ जब किसी हिंदू राजा के राज्य पर विधर्मी आक्रमणकारीयोँ का आक्रमण होता तो युध्द मेँ जीत की कोई संम्भावना ना देखकर क्षत्रिय और क्षत्राणी आत्म समर्पण करने के बजाय लड़कर मरना अपना धर्म समझते थे! क्योकिँ कहा जाता है ना "वीर अपनी मृत्यु स्वयं चुनते है!" इसिलिए भारतीय वीर और वीरांगनाए भी आत्मसमर्पण के बजाय साका +जौहर का मार्ग अपनाते थे! पुरुष 'केसरिया' वस्त्र धारण कर प्राणोँ का उत्सर्ग करने हेतु 'रण भूमि' मेँ उतर जाते थे! और राजमहल की समस्त महिलाएँ अपनी 'सतीत्व की रक्षा' हेतु अपनी जीवन लीला समाप्त करने हेतु जौहर कर लेती थी! महिलाँए ऐसा इसलिए करती थी क्योँकि मलेक्ष् आक्रमणकारी युध्द मेँ विजय के पश्चात महिलाओँ के साथ बलात्कार व नेक्रोफिलिया करते थे! और उन्हें सुल्तान के हरम में भेज देते थे ।  अत: हिन्दू स्त्रियां व बालिकाएं अपनी अस्मिता व गौरव की रक्षा हेतु जौहर का मार्ग अपनाती थी! जिसमेँ वे जौहर कुण्ड मेँ अग्नि प्रज्जवलित कर धधकती अग्नि कुण्ड मेँ कुद कर अपने प्रणोँ की आहुती दे देती थी!! जौहर के मार्ग को एक क्षत्राणी अपना गौरव व अपना अधिकार मानती थी! और यह मार्ग उनके लिए स्वाधिनता व आत्मसम्मान का प्रतिक था! ये जौहर कुण्ड ऐसी ही हजारोँ वीरांगनाओ के बलिदान का साक्ष्य हैँ! नमन है ऐसी  वीरांगनाओँ को...और गर्व है हमे हमारे गौरवपूर्ण इतिहास पर......


शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

भारतीय इतिहास में नक्शो का फर्जीवाड़ा

इतिहास की किताबों में नक्शो का फर्जीवाड़ा 

इतिहास की किताबों में सुल्तानों बादशाहों के राज्य के नक्शे दिखाए जाते हैं । जिससे पता चलता है कि उनके राज्य की सीमा कितनी थी , कितने भू भाग में उनका शासन था ।

लेकिन हमारे देश के इतिहासकार इसमें भी फर्जीवाड़ा करने से बाज नही आये । भाटों और चाटुकारों की तरह उन्होंने ऐसे नक्शे बनवाये जिसमे सुल्तानों का साम्राज्य बड़ा विशाल दिखाई दे । जबकि सत्यता कुछ और ही है। 
दो उदाहरण काफी है इस कपट को समझने के लिए l उत्तराखंड या गढ़वाल राज्य जिसे पुराणों में केदारखंड या हिमावत कहा गया है , अतिप्राचीन काल से सन 1816 तक हिन्दू राजाओं के आधिपत्य में रहा । यहां सन 822 से 1803 तक (1000 वर्ष तक लगातार ) पाल वंशीय क्षत्रियों का राज्य था और 1803 से गोरखों का राज्य हुआ । 1816 की एक संधि में यह राज्य अंग्रेजो के पास चला गया ।
सन 1200 से 1700 तक गढ़वाल राज्य पर अनेकानेक मु"स्लिम आक्रमण हुए । प्रत्येक बार आक्रमणकारियों की पराजय हुई । रानी कर्णावती को नाक काटने वाली रानी की संज्ञा दी जाती है । यह राज्य हमेशा स्वतंत्र रहा । फिर भी इतिहास लेखन फर्जीवाड़े के तहत इस क्षेत्र को नक्शों में खिलजी साम्राज्य और मुगल साम्राज्य का भू भाग दिखाया जाता है । 
गढ़वाल की तरह अन्य राज्य भी ऐसे थे जिनको भी इतिहासकारों ने इसी तरह नक्शो में जबरन घुसा दिया । 
इसी तरह तुगलक साम्राज्य का नक्शा देखे । जिसमे पूरे राजस्थान को साम्राज्य का हिस्सा दिखाया गया है । एक बार मोहम्मद बिन तुगलक ने राजस्थान पर आक्रमण करने की जुर्रत की थी । मगर मेवाड़ के राणा हम्मीर सिंह ने न केवल उसे पराजित किया बल्कि मेवाड़ की जेल में महान तुगलक सुल्तान को तीन महीने कैद कर के रखा । फिर राणा साहब ने दरियादिली दिखाते हुए जुर्माना ले कर सुल्तान को छोड़ दिया । फिर भी कपटी इतिहासकारो ने नक्शे में पूरे  राजस्थान को तुगलक साम्राज्य का हिस्सा दिखा दिया । 
बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि इन नक्शो में दिखाए गए तथाकथित विशाल साम्राज्य के दर्शाए गए क्षेत्र वास्तविकता में आधे भी इनके अधीन शासन में नहीं थे । 
हालांकि कुछ इतिहासकारों की पुस्तकों में सही नक्शे मिलते है , लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है । 
इतिहास के नक्शों का फर्जीवाड़ा हमारे बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में भी है और प्रतियोगिता परीक्षाओं की किताबो में भी हैं ।

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सोमवार, 26 जून 2023

कोलम्बस

कोलंबस की भारत खोज के पीछे असली  मकसद क्या था ?
हमे यही बताया गया कि नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस भारत खोजने निकला था .
भारत की समृद्धि के किस्से तब दूर-दूर तक पसरे हुए थे. यहां के मसालों का यश दुनियाभर में फैला था. भारत में मौजूद सोने की भी बड़ी चर्चा थी. कोलंबस को भारत पहुंचने का समुद्री मार्ग खोजना था.
स्पेन के राजा फर्डिनेंड और रानी इसाबेला कोलंबस की यात्रा को स्पॉन्सर करने के लिए राजी हो गए. उन्हें लगा कि अगर कोलंबस ने ऐसा कर दिखाया, तो एशिया के साथ मसालों के कारोबार का नया मार्ग शुरू हो जाएगा. ये उपनिवेशवाद का दौर था. दुनिया के ये चंद यूरोपियन देश अपने पांव पसारना चाहते थे. नए बाजारों के लिए. कच्चे माल के लिए. अपने फायदे के लिए. हर देश अपने लिए कारोबार के नए मार्ग खोलना चाहता था. किंग और क्वीन ने कोलंबस से वादा किया. अगर कोई नई जगह मिलती है, तो उन्हें वहां का गर्वनर बना देंगे. जो भी दौलत वो स्पेन लाएंगे, उसका 10 फीसद हिस्सा भी उन्हें दे दिया जाएगा. 
उपरोक्त हमे इतिहास की किताबो में पढ़ाया गया है . लेकिन कोलम्बस की भारत यात्रा की असलियत कुछ और है , जो हमे उसकी लिखी डायरी से मिलती है । पोस्ट के साथ संलग्न है । कोलम्बस का प्रथम और वास्तविक उद्देश्य भारत को ईसाई देश बनाना और यहां के निवासियों को ईसाई धर्म मे कन्वर्ट करना था । 

क्या कारण है कि कोलंबस , वास्कोडिगामा , कैप्टन कुक जैसे लोगो की यात्राओं के असली मकसद इतिहास की किताब में छुपाए गए ?

स्त्रोत : the world is flat by thomas L. Friedman , page 3 .

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शुक्रवार, 16 जून 2023

इंग्लैंड की रामायण

इंग्लैंड की रामायण -
हरि अनंत हरि कथा अनंता

फादर कामिल बुलके ने आपने शोध प्रबंध हेतु  300 रामायणों का संग्रह व अध्ययन किया था । भारत के अतिरिक्त जापान , इंडोनेशिया, श्रीलंका, कंबोडिया, ईरान, लाओस,थाईलैंड, रूस, तुर्कमेनिस्तान आदि में भी प्राचीन रामायण पाई जाती हैं । ग्रीक एवं रोमन पुराण कथाओं में रामकथा से मिलते जुलते आख्यान पाए जाते हैं । इंग्लैंड में भी प्राचीन रामायण पाई जाती है ।
इंग्लैंड में रोमन शासन 43 AD से पूर्व का इतिहास सही तरह से ज्ञात नही है । किंतु प्राचीन druid (द्रविड़) लोग वहां के मूल निवासी है । पुराणों में अंगुलदेश का वर्णन है जो कि बंद मुट्ठी अंगूठे के आकार का द्वीप है और वहां सर्वप्रथम स्कन्दनाभीय (scandavian) क्षत्रियो (scot) ने राज्य स्थापित किया । जिन्होंने शैलपुरी (salisbury) में सूर्य भगवान को समर्पित stonehenge का मंदिर बनवाया । आज भी उस प्राचीन druid धर्म के अनुयायी हज़ारो की संख्या में वहां रहते हैं । अंग्रेजी भाषा के शब्दों का संस्कृत मूल , प्राचीन 
इंग्लैंड में hadrian दीवाल के किलों में हाथी मोर के चित्र पाए जाना, उत्खनन में शिवलिंग और गणेश की प्रतिमा मिलना, वेस्टमिनिस्टर एब्बे की शिला आदि संकेत देती है कि इंग्लैंड में रोमन राज्य से पूर्व वैदिक संस्कृति थी । आज भी इंग्लैंड में भगवान राम के नाम पर अनेक शहर है जैसे  Ramsgate (राम घाट) , Ramsden (राम देन) , Ramford (राम किला) आदि । कई अंग्रेजों के नाम Ramsay (राम सहाय) होता है। 
इंग्लैंड के एक प्राचीन काव्य Celtic Psalter में प्राचीन किंग रिचर्ड की कहानी लैटिन भाषा मे मिलती है । हालांकि बाद में 12 शताब्दी में इंग्लैंड के अन्य राजाओं का नाम भी रिचर्ड हुआ और उन पर भी किताबे लिखी गयी । बाद की कहानियों में प्राचीन किंग रिचर्ड और 12 वी शताब्दी के किंग रिचर्ड the lion hearted की कहानियों को आपस में मिला दिया गया । फिर शेक्सपियर ने king richard पर प्ले लिखा जिसमे रिचर्ड तृतीय और रोबिन हुड की कहानियों को आपस में मिला दिया गया । 
मूल प्राचीन पुस्तक में काव्यात्मक वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है -
इंग्लैंड के महाप्रतापी राजा थे किंग रिचर्ड (किंग = सिंह, रिचर्ड = राम चन्द्र) जो कि सूर्यदेव के पुत्र अपोलो के वंशज और महान धनुर्धर थे । इनकी पत्नी का नाम रानी Jancy (=जानकी) था । ये अपने पिता की आज्ञा से  वनों में गए ,  जहाँ  Lancashire (लंकेश्वर) के क्रूर राजा, जो एक demon था ,  ने Jancy का अपहरण कर लिया और इटली के नजदीक एक  भूमध्यसागरीय द्वीप में ले गया । 
किंग रिचर्ड ने Germanic tribes के सेनापति कपि Hahnemann की सहायता से जल सेना बनाई और उस द्वीप पर troop of monkey की सेना से  आक्रमण किया । और demon को मार के अपनी पत्नी को मुक्त कराया । 

(विस्तृत अध्ययन हेतु - peter ackroyd की पुस्तक foundation the history of england देखिए)

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सप्तमातृका

सप्तमातृका

‘मातृका’ का मूल शब्द ‘मातृ’ है जिसका अर्थ है ‘माँ’। यह माना जाता है कि उनमें वह शक्ति है जो मातृ गुणों का प्रतीक है और इस ब्रह्मांड की सभी शक्तियों की रक्षक, प्रदाता और पालनकर्ता भी है। जैसे पृथ्वी की हर चीज सूर्य से अपनी स्रोत ऊर्जा प्राप्त करती है, वैसे ही ब्रह्माण्ड की सभी ऊर्जाएं अपनी शक्ति मातृकाओं से प्राप्त करती हैं। मातृकाओं की तंत्र-विद्या में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि उनमें जन्मजात क्षमता है, जिस के फलस्वरूप वह स्वयं का प्रतिरूप बना सकती है और उनके प्रतिरूप भी अन्य शक्तियों और रूपों को जन्म दे सकते हैं। वह अपने सूक्ष्म रूप में हर जगह और हर चीज में है लेकिन यह मान्यता है कि वे अपने प्रकट रूप में ब्रह्मांड में उपस्थित है और आठ दिशाओं पर शासन करती है जो अनंत का भी प्रतीक है।

मार्कण्डेय पुराण में वर्णन मिलता है कि सप्तमातृकाओं की सहायता से चण्डिका देवी ने रक्तबीज का वध किया था। ये सात देवियां अपने पतियों के वाहन तथा आयुध के साथ यहां उपस्थित होती है ‘यस्य देवस्य यत्रूपं यथाभूषण वाहनम्’। ये सात देवियां ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारीय, वाराही और नरसिंही है।

भारत में सप्तमातृकाओं की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी जाती हैं-

1. स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा,
2. आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं,
3. नृत्यरत प्रतिमा।

वराह पुराण में कहा गया है कि मातृकायें आत्म ज्ञान हैं, जो अज्ञानता रूपी अंधकासुर के विरूद्ध युद्ध करती हैं। पुराणों में यह भी कहा गया है कि मातृकायें शरीर के मूल जीवंत अस्तित्व पर शासन करती हैं।

• ऋग्वेद में सात नदियों एवं सात स्वरों को माता कहा गया है। साथ ही वहाँ सप्त माताओं का उल्लेख भी है और कहा गया है कि उनकी देखरेख में सोम की तैयारी होती थी।
• मार्कण्डेय पुराण में वर्णन मिलता है कि युद्ध में चण्डिका की सहायता के लिए सप्तमातृकाएं उत्पन्न हुईं थीं। इन्हीं सप्तमातृकाओं की सहायता से देवी ने रक्तबीज का वध किया था।
• ईसा की पहली शताब्दी से मातृका पूजन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वराहमिहिर के बृहत्संहिता मे एवं शूद्रक के मृच्छकटिकम् में मातृका पूजन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
• स्कंदगुप्त के बिहार स्तंभलेख में मातृका पूजन उल्लेखित है।
• गुप्त शिलालेख के अनुसार ४२३ ई. में मालवा के विश्वकर्मन राजा के अमात्य मयूराक्ष ने मातृकाओं का एक मंदिर बनवाया था ।
• पांचवी सदी के गुप्तसम्राट प्रथम कुमारगुप्त के गंगाधर लेख में मातृका के मंदिर का उल्लेख मिलता है।
• चालुक्य एवं कदंब राजवंश सप्तमातृकाओं के उपासक थे।

चित्र - सरस्वती नदी कालीन (तथाकथित सिंधु घाटी सभ्यता ) सील , जिसमे पीपल के पत्ते पर श्रीकृष्ण , श्रीकृष्ण का श्रृंगी रूप तथा नीचे सप्त मातृकाएं
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सोमवार, 15 मई 2023

जालियाँवाला बाग

नमन कर रहा हूँ उनको जिनका तन-मन भारत माँ को अर्पित है.
भारत माँ अपने बेटों की कुर्बानी पर गर्वित है.
जिन लोगो का लहू बह गया जलिया वाले बाग में,
उनके चरणों में शब्दों का श्रद्धा सुमन समर्पित है.
जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) हुआ था। रौलेट एक्ट और किचलू और डॉ॰ सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी !! रॉलेट ऐक्ट मार्च 1919 में भारत की ब्रिटनी सरकार द्वारा भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से निर्मित कानून था। यह कानून “सर सिडनी रौलेट” की अध्यक्षता वाली समिति की शिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। इसके अनुसार ब्रिटनी सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना दंड दिए उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था l इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जूलूस और प्रदर्शन होने लगे। गाँधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे,  जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद  लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा।
सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। 10  मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहां तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया।! 
मुख्यालय वापस पहुँच कर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फ़ौज ने हमला किया था जिससे बचने के  लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ी !!
एक अनुमान के मुताबिक़ जलियांवाला बाग़ हत्याकांड में कम से कम 1300 लोगों की जानें गयी थी जबकि जलियावाला बाग़ में लगी पट्टिका पर मात्र 120 लोगों की मरने की सूचना दी गयी है !!
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकाण्ड के विरोध-स्वरूप अपनी नाइटहुड को वापस कर दिया ! पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था परंतु इस घटना से  पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ कियाथा !! भगतसिंह जलियावाला बाग़ की वो मिट्टी को (जिस पर निर्दोष भारतीयों का खून गिरा था)  एक छोटी सी शीशी में भरकर लाये थे ! और हर वक़्त वो उस शीशी को अपने साथ ही रखते थे !!
जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह इसका बदला लेंगे।  13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल डायर को गोली चला के मार डाला ! ऊधमसिंह को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की कड़े शब्दों में निंदा की थी !!

हर दमन चक्र की तिमिर निशा में
अविरल जलता चिराग हूं ,
क्रांति क्षेत्र, शोणित सिंचित ,
मैं जलियांवाला बाग हूं ।

अश्रुपूर्ण 103 वर्ष 13 april 1919

कहाँ गए सुभाष

जीवन अपना दांव लगाकर
दुश्मन सारे खूब छकाकर
कहां गया वो, कहां गया वो
जीवन-संगी सब बिसराकर?

तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
मैं तुमको आजादी दूंगा
लेकिन उसका मोल भी लूंगा
खूं बदले आजादी दूंगा
बोलो सब तैयार हो क्या?
 
गरजा सुभाष, बरसा सुभाष
वो था सुभाष, अपना सुभाष
नेता सुभाष, बाबू सुभाष
तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
अपना सुभाष, अपना सुभाष। 
***********************
वे कहां गए, वे कहां रहे, ये धूमिल अभी कहानी है, 
हमने तो उसकी नयी कथा, आज़ाद फ़ौज से जानी है।
आखिर कहाँ गए नेताजी सुभाष चंद्र बोस : 
यह संभव है कि 1945 मेँ नेताजी ने विमान दुर्घटना और अपनी मौत की खबर स्वयं फैलाई हो ताकि अंग्रेजो को चकमा दिया जा सके । विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी रूस जाना चाहते थे । यह बात उन्होंने अपने करीबियों को बताई थी और जापानियों से अपने मंचूरिया जाने का प्रबंध करने को कहा था । संभवतः नेताजी उस विमान में बैठे ही नहीं जिसकी दुर्घटना की बात कही जाती है , और ऐसी कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं । नेताजी की मृत्यु पर बने सभी सरकारी जांच आयोगों ने सही तरह से जांच किये बगैर वही निष्कर्ष दे दिया जो सरकार चाहती थी । सरकारी ढोल बजाने वाले इन जांच आयोगों ने देश की जनता से विश्वासघात किया ।
संभवतः अपनी मौत की खबर फैला कर ताईपेह से नेताजी मंचूरिया गए । अभी मंचूरिया चीन का प्रान्त है मगर उन दिनों यह रूस का अंग था । नेताजी को भरोसा था कि रूस की साम्यवादी   सरकार उनको साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए सहायता देगी । कुछ लोग मानते हैं कि मंचूरिया पहुचकर नेताजी मास्को गए वहां स्टालिन ने विश्वासघात किया और  नेहरू के कहने पर नेताजी को गिरफ्तार कर साइबेरिया की जेल में रखा । 
यह भी कहा जाता है कि 1952 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रूस में भारत के राजदूत थे । उनको किसी रूसी अखिकारी ने बताया कि आपके नेताजी हमारी जेल में है । नेताजी को किसी अन्य नाम से जेल में रखा गया था । राधाकृष्णन को इस बात पर भरोसा नहीं हुआ उन्होंने स्वयं नेताजी को देखने की इक्षा व्यक्त की । राधाकृष्णन साइबेरिया गए । वहां उन्होंने दूर से नेताजी को देखा । डॉ राधाकृष्णन ने रूसी अधिकारियो से बात कर उनके प्रथक सेल में रखने और दो सहायक  तथा अन्य सुविधाये दिए जाने की व्यवस्था की । मास्को आकर डॉ राधाकृष्णन ने नेताजी की रिहाई हेतु नेहरूजी से बात की । नेहरूजी ने डॉ राधाकृष्णन को चुप रहने को कहा और उनको  भारत बुला कर उपराष्ट्रपति ( बाद में राष्ट्रपति) बनवा दिया,  ऐसा कुछ लोग मानते हैं ।

यह भी कहा जाता है कि लालबहादुर शास्री जब  विदेश मंत्री और बाद में प्रधान मंत्री बने तब गोपनीय फाइलों द्वारा उनको नेताजी के रूस में होने का पता चला । 1968 में ताशकंद रूस में लालबहादुर शास्री नेताजी की रिहाई कराने का प्रयास कर रहे थे तभी उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी और नेहरू की बेटी प्रधानमंत्री बन गयी । इसके बदले KGB को भारत में कार्य करने की अनुमति और रूस को अयस्क निकलने की अनुमति और सोवियत विचारधारा के प्रचार तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को फंडिंग की अनुमति आदि मिली ।  माना जाता है कि शास्री जी की मौत का  सुभाष चंद्र बोस की रिहाई से गहरा सम्बन्ध है ।

अगर नेताजी भारत आ जाते तो उन्हें छुप कर रहने की जरूरत न पड़ती , पूरा देश उनका साथ देता और द्वितीय विश्वयुद्ध के अपराधियों को पकड़ कर इंग्लैंड के सुपुर्द करने की संधि किसी काम न आती । इसलिए उनके फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा बन कर रहने वाली बात सही हो सकती है या नही , इस पर भी कोई ठोस सरकारी इन्वेस्टिगेशन नही हुआ ।
मेरे गुरु डॉ एम् पी चौरसिया अनेक वर्षों तक रूस में रहे , 1958 में जब वे मास्को पावर इंस्टिट्यूट में कार्यरत थे तब उन्हें एक रूसी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर ने बताया कि वह साइबेरिया ट्रांसमिशन लाइन में कार्यरत था । उसने डॉ चौरसिया को बताया कि वहां कोई भारतीय रहता है जिसे एक कोठी , घोड़े तथा नौकर मिले हुए है । उस भारतीय को साइबेरिया के उस गाँव से बाहर जाने की अनुमति नहीं है । इसकी निगरानी वहां की पुलिस करती है । डॉ चौरसिया का मानना था कि वह भारतीय सुभाष चंद्र बोस ही है । यह डॉ चौरसिया ने मुझे 1984 में बताया था । 

सत्य जो भी हो हर देशवासी को पूरा अधिकार है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जानने का और उन ग़द्दारों के बारे में भी जानने का जिनकी वजह से नेताजी आजादी के बाद भी अपने देश नहीं आ सके ।



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मैकाले की टूल किट

मैकाले की टूल किट 

मैकाले की सोच -- हमे एक ऐसी कौम बनानी है जो देखने मे हिंदुस्तानी हो मगर दिलोदिमाग से अंग्रेजों की गुलाम हो । 1857 का संग्राम हम देख चुके है ।  एक दिन हम अंग्रेजो को भारत से जाना ही होगा लेकिन जाने से पहले हम इन हिंदुस्तानी लोगों को अपनी मानसिक गुलाम कौम बना देंगे । और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा ।
(कल्पना करिए कि उस वक़्त क्या बातचीत हुई होगी)

 फिर मैकाले अपने शिष्य कर्जन और डलहौजी से बोले - हमे ये करना है जिससे कि -

- ये लोग अपने धर्म और संस्कृति पर ग्लानि व शर्म महसूस करें व उसका मखौल उड़ाए  किंतु दूसरे धर्म को अच्छा समझे 
-ये लोग अपने सभी साधु संतों को पाखंडी समझे और पोप पादरी बाइबिल को महान समझे
-ये लोग अपने प्राचीन विज्ञान को पाखंड और झूठ माने और विदेशी विज्ञान को श्रेष्ठतम माने 
- ये लोग अपनी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेदिक और यूनानी को बकवास और अवैज्ञानिक माने और अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति को श्रेष्ठ मानें
-ये लोग अपनी भाषा में पढ़ने लिखने बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखे और अंग्रेजी पढ़ने लिखने बोलने वालों को उच्च मानें । अंग्रेजी पढ़ने वालों की भारतीय समाज मे बड़ी इज्जत हो , उनको ही बड़ी नौकरियां मिलें ।
-इनके लाखो गुरुकुल जो मंदिरों में चलते है वे बंद करवाओ , इनकी शिक्षा व्यवस्था तबाह कर दो और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लागू करो ।  स्कूलों में इनके बच्चों को वही पढवाओ जो हम चाहते हैं । शिक्षा को सिर्फ नौकरी पाने का जरिया बना दो । 
-इनकी किताबे बदल दो और अंग्रेजी किताबे चला दो । हमे ऐसा करना है कि आगे 50 सालों में भारत मे संस्कृत और फ़ारसी पढ़ने और समझने वालों की संख्या 1% से भी कम हो जाये। 
-ये लोग ऐसा साहित्य पढ़े (और ऐसी फिल्में देखे) जिसमे क्षत्रिय को अय्याश अत्याचारी राजा या जमीन्दार , ब्राह्मण को धूर्त पाखंडी , वैश्य को सूदखोर लालची व शूद्र को इनके जुल्म सहने वाला बताया हो 
- ये लोग अपनी परंपराओं को ब्राह्मणवाद कह के मजाक उड़ाए और विरोध करें 
-इनको बताओ कि तुम्हारे पास कुछ भी श्रेष्ठ नही था , जो भी श्रेष्ठ है वो हम यूरोपीय लोगो ने तुमको दिया है 
- इनको बताओ कि तुम लोग भी हमारी तरह  बाहरी हो और तुम्हारे पूर्वज यूरोप से आये थे , तुम्हारी भाषा भी यूरोपीय लोगो की देन है 
- इनके देशज वस्त्र जो इनके देश के मौसम के अनुसार कम्फ़र्टेबल होते है -जैसे धोती कुर्ता गमछा उत्तरीय आदि को पहनने में इनको शर्म आये और ये इंग्लैंड के ठंडे मौसम के अंग्रेजी वस्त्रों जैसे शर्ट सूट पैंट टाई कोट को पहनने में गर्व अनुभव करें 
- ये लोग अपने नायकों का मजाक उड़ाए और विदेशी आक्रमणकारियों की तारीफ करें 
- इनको बताओ कि तुम लोग कभी एक देश नही थे । हम अंग्रेजो ने तुमको एक देश बनाया । 

डलहौजी ने पूछा सर कैसे किया जाएगा यह सब -

मैकॉले बोला - एक झूठ को यदि 100 बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है । पहले यह काम जर्मन और अंग्रेज विद्वान करेंगे फिर गुलाम भारतीय खुद ही करेंगे । हम मैक्स मूलर , स्पीयर, मेटकाफ जैसे लोगो को तनख्वाह देंगे यह काम करने के लिए । समझे डलहौज़ी , तुम मेरा बनाया हुआ इंडियन एडुकेशन एक्ट तुरंत लागू करो  । इनको धर्म जाति भाषा क्षेत्र के आधार पर बांटते जाओ और लड़वाते जाओ। 

देखना डलहौज़ी भारत की आजादी के बाद एक दिन ऐसा आएगा कि जो भारत के टुकड़े होने की बात करेगा , जो आतंकवादी नक्सली का समर्थन करेगा उसका साथ देने के लिए हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । जो भगवा पहनेगा या संस्कृत आयुर्वेद गीता पढ़ने की बात करेगा उसका विरोध करने हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । भारत में भारत माता की जय बोलने वालों को मूर्ख समझा जाएगा । 
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मैकाले की टूल किट सफल हुई । आज भी हमारे बीच मे बहुत से लोग इसी टूलकिट के अनुसार दिलोदिमाग से अंग्रेजो के गुलाम बन हुए हैं ।

ऐसे लोगो को  देश और समाज के हित में अपने दिमाग को अब decolonized कर लेना चाहिए ।

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शनिवार, 13 मई 2023

भारतीय इतिहास का घोड़ा घोटाला

भारतीय इतिहास का घोड़ा घोटाला :

भारत में घोड़े को  पालतू बनाने और शिकार के लिए घोड़े पर जाने का सर्वप्रथम प्रमाण मध्य प्रदेश के भीम बेटका की गुफाओं के चित्रों में मिलता है l आज से 10000 साल पहले भारत में रहने वाले वनवासी भी घोड़ो का उपयोग भलीभाती करते थे l ये हमारे देश के मूल नस्ल के घोड़ा  ( indigenous Indian horse- equus ferus caballus) है l 
(चित्र भीम बेटका) 
(चित्र भीम बेटका)

1989 में मध्य प्रदेश के  सीधी जिले के  बघोर गाव में 4500 BCE में घोड़ो को घरों में पालने के प्रमाण मिले हैं l कर्नाटक के कोडेकाल  में 2460 BCE में घोड़ो के डोमेस्टिक करने के प्रमाण मिलते हैं l 
( पुरातत्व रिपोर्ट) 

सिन्धु घाटी की सभ्यता के बारे में में 2005 प्रकाशित Archaeological society of India की रिपोर्ट पेज 22  में कहा गया है कि " हडप्पन साईटो में सुरकोतड़ा, लोथल ,मालवण , कालीबंगा , रोपड़ ,हड़प्पा, मोहनजोदारो, राणा घुँदाई, नौशारो , राखीगढ़ी आदि में घोड़ो के प्रमाण मिले है l (रिपोर्ट की लिंक कमेंट में ) l 
(चित्र - लोथल घोड़ा , सिन्धुघाटी)
ये प्रमाण घोड़ो के खिलौनों और सैकड़ों मृत घोड़े के अवशेषों के रूप में मिले हैं l जिससे पता चलता है कि तथाकथित सिन्धु घाटी की सभ्यता में घोड़े का उपयोग बहुत आम था l 

अभी हाल में ही पायी गयी सिनौली में तथाकथित सिन्धु घाटी सभ्यता की समकालीन सभ्यता में भी घोड़ो से चलने वाले रथ प्राप्त हुए हैं l 

गपोड़ी इतिहासकार रोमिला थापर , गप्पबाज आर एस शर्मा आदि लिखते आये है - "भारत में घोडा बहुत देर से आया  क्योकि घोडा भारतीय मूल का नहीं है l यह विदेशी जानवर है l सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग घोडा नहीं जानते थे l घोड़े को भारत में पहली बार इरान की सीमा से आर्य आक्रमणकारी ले कर आये l  तब पहली बार यहाँ के लोगो को घोडा और रथ के बारे में पता चला l  वगैरह ............"
[ ROMILA THAPAR The Penguin History of Early India FROM THE ORIGINS TO AD 1300, पेज 85-89 ] इसी तरह की सैकड़ो  गप्पबाजी  इन लोगो ने NCERT की इतिहास की किताबों में भर रखी है l 
इस गप्पबाजी का उद्देश्य इतिहास को दूषित कर अंग्रेजो की औपनिवेशिक  मान्यता को स्थापित करना है l 

यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा घोडा घोटाला है l

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भारत की यात्रा करने वाले 56 कोरियाई यात्री

इतिहास को जानने का एक स्त्रोत विदेशी यात्रियों द्वारा लिखा गया यात्रा वृतांत है जो उस काल मे भारत आये थे ।
इन यात्रियों में मेगस्थनीज, टॉलमी, ह्वेनसांग , फाह्यान, इतसिंग , अलमसूदी, अल बरुनी, मार्कोपोलो .... आदि का जिक्र इतिहास की किताबो में किया जाता है ।

यह आश्चर्यजनक है कि हमारे इतिहास में प्राचीन काल मे भारत की यात्रा करने वाले उन 56 कोरियाई यात्रियों का जिक्र तक नही है , जिन्होंने 4थी शताब्दी से 8वी शताब्दी में भारत की यात्रा की और अपने यात्रा वृतांत भी लिखे । 
इन कोरियाई यात्रियों में एक थे Hyecho , जिन्होंने सन 723 में भारत की यात्रा की , नालंदा विश्वविद्यालय में में बौद्ध धर्म की पढ़ाई की,  अनेक वर्षों तक भारत मे रहे और भारत के 5 राज्यो की धार्मिक , सामाजिक , राजनीतिक व्यवस्था पर ग्रंथ लिखा । इन्होंने लिखा है कि भारत मे कहीं भी दास प्रथा नही है , किसी को दास बनाने या दास खरीदने बेचने पर मृत्युदंड दिया जाता है ।
 गुरुकुलों में सभी वर्ण के शिष्य एक साथ पढ़ते हैं । सभी लोगो को एक समान न्याय व्यवस्था के अंतर्गत रखा जाता है । सभी राजा मंदिरों, जिनालयों, मठो विहारों को समान रूप से दान व संरक्षण देते है ,  आदि आदि .. Hyecho द्वारा लिखे गए विशद भारत यात्रा ग्रंथ की मूल पांडुलिपि फ्रांस की नैशनल लाइब्रेरी में सुरक्षित है ।
Hyecho एवं अन्य कोरियाई यात्रियों के लेखों को जानबूझकर इतिहास में नही रखा गया क्योकि इससे अंग्रेजों और मार्क्सवादी इतिहासकारों के झूठे एजेंडा का खंडन होता है - जैसे शुंगों कण्वो गुप्तो आदि ने बौद्ध धर्म को नष्ट कर दिया था , शूद्रों पर अत्याचार होता था , शैव और वैष्णवो में लड़ाई होती थी , भारत मे बलि प्रथा सती प्रथा बाल विवाह आदि व्यापक था ।

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वैज्ञानिक न्यूटन को लिखना पड़ी इतिहास की किताब :

जब न्यूटन को लिखना पड़ी इतिहास की किताब :

सर आइजक न्यूटन को हम एक महान गणितज्ञ व भौतिक वैज्ञानिक के रूप में ही जानते है । बहुत कम लोगो को पता होगा कि वे इतिहासकार भी थे और उन्होंने प्राचीन विश्व इतिहास की पुस्तक भी लिखी थी । 

सर न्यूटन दिन रात विज्ञान की खोजो में लगे रहते थे । उनकी पुस्तके प्रिन्सपिया, ऑप्टिक्स, कैल्कुलस आदि पूरे यूरोप में प्रसिद्ध थी । वे उस वक़्त के विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक माने जाते थे । 
एक बार कैम्ब्रिज में उनका पाला इतिहास के प्रोफेसरों से पड़ा । उस वक़्त अंग्रेजों द्वारा जो इतिहास पढ़ाया जाता था उसे सर न्यूटन एक बार ही देख कर वे समझ गए कि ये पूरा झूठ का पुलिंदा है । उन्होंने अपने मित्र Fatio de Duillier से कहा कि अंग्रेज कभी सही इतिहास नही लिख सकते । एक तो इसका कारण यह है कि अपनी संस्कृति को सुप्रीम मानना और अन्य संस्कृतियो को पिछड़ा और ट्राइबल मानना । इसलिए वे जीत को हार और हार को जीत लिखने से बाज नही आते । दूसरा यह कि इनकी मानसिकता मिशनरी प्रभावित होती है । बाइबिल में आदम से ईसा तक की वंशावली उपलब्ध है , जिससे पता चलता है कि लगभग 5000 BC में आदम हुए और उनसे 6 दिन पहले दुनिया बनाई गई। अर्थात मानव जाति 5000 BC से पहले नही थी और किसी भी  नगरीय या ग्राम्य सभ्यता मूसा के काल 1500 BC से पहले की नही हो सकती । जबकि न्यूटन का मानना था कि मानव लाखों वर्षो से धरती पर है और इतना ही पुराना मानव सभ्यता का इतिहास है । 
उन दिनों अंग्रेज इतिहासकार इजिप्ट , पारसी, बेबीलोन और ग्रीक सभ्यता को 1500 BC  से अधिक प्राचीन नही मानते थे । न्यूटन ने इसका अध्ययन कर निष्कर्ष दिया कि इन सभ्यताओं की वास्तविक तिथि आदम से कम से कम 2000 वर्ष पहले की है । इजिप्ट के पिरामिड तथाकथित आदम हव्वा की तारीख से हज़ारों साल पहले बन चुके थे । न्यूटन ने यह भी देखा कि अंग्रेज इतिहासकार किसी देश में ईसाइयत आने से पहले के इतिहास को महत्वपूर्ण नही मानते थे । 

सन 1728 में सर न्यूटन की पुस्तक Revised History of Ancient Kingdoms: A Complete Chronology , ( the chronology of ancient kingdom amended) प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में प्राचीन ग्रीक , मिश्र, असीरिया, बेबिलोनिया, पारसी सभ्यताओं और राज्यो की सही तिथियां और घटनाएं प्रमाण के साथ दी गयी । न्यूटन ने इतिहास को विज्ञान की प्रामाणिकता से जोड़ा । 

इस किताब के पहले पृष्ठ पर ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य John Conduitt का महारानी को लिखा पत्र है , जिसमे न्यूटन द्वारा इस किताब को लिखने का कारण और इतिहास में सुधार करने का औचित्य बताया है ।
इसका विरोध करने का साहस किसी इतिहासकार में नही था क्योकि सर न्यूटन उस वक़्त रॉयल सोसाइटी के अध्यक्ष और 'आर्डर ऑफ द मिंट' थे । उनका पद इंग्लैंड के सम्राट के कैबिनेट मंत्री के तुल्य था । 
अंग्रेज इतिहासकारो ने अपनी किताबे सुधार ली और सही तिथियों को दर्ज किया । अब Cambridge और इंग्लैंड में इतिहास को 4500 वर्ष और पीछे से पढ़ाया जाने लगा । 

उनकी तो सुधर गयी हमारी किताबे कब सुधरेंगी ?

( Reference :1 Never at Rest: A Biography of Isaac Newton by Richard S. Westfall 2 A Portrait of Isaac Newton by Frank E. Manuel
3 Newton and the Origins of Civilization by Jed Z. Buchwald & Mordechai Feingold 4 Priest of Nature: The Religious Worlds of Isaac Newton by Rob Iliffe 5 Isaac Newton and Natural Philosophy by Niccolò Guicciardini)

75000 साल पहले भारतीयों का सफर

75000 साल पहले भारतीयों का सफर :
(ज्वालापुरम से ढाबा 1300 किलोमीटर )

इंडोनेशिया के सुमात्रा में एक ज्वालामुखी है -टोबा । इस ज्वालामुखी में आज से 75000 साल पहले बड़ा भयंकर विस्फोट हुआ । विस्फोट इतना भयंकर था कि इसकी राख और लावा भारत तक आ गया था । और इस विस्फोट ने पूरे दक्षिण भारत को अपनी चपेट में ले लिया था ।

आंध्र प्रदेश के करनूल जिले में एक कस्बा है - ज्वालापुरम । यहाँ वैज्ञानिक व पुरातात्विक परीक्षण से पता चला कि 75000 साल पहले टोबा ज्वालामुखी विस्फोट की राख से यह इलाका दब गया था । राख की परत के नीचे जो साक्ष्य मिले उनसे पता चलता है कि ज्वालामुखी घटना होने के पहले से यहां एक सभ्यता निवास करती थी जो कि खेती करती थी  । अर्थात भारत मे खेती करने का प्रमाण 75000 साल पूर्व का उपलब्ध होता है ।

ज्वालापुरम के निवासी टोबा विस्फ़ोट के बाद उत्तर की तरफ चले गए । क्योकि पूरे दक्षिण भारत मे 6 मीटर राख की परतें जम चुकी थी और सभी पेड़ पौधे व छोटे जानवर समाप्त हो गए थे । दक्षिण भारत के निवासी नर्मदा नदी पार करते हुए मध्यप्रदेश के सीधी जिले के ढाबा गांव में सोन नदी के किनारे पहुचे । यहाँ पर ऑक्सफ़ोर्ड व क़वीन्सलैंड यूनिवर्सिटी के द्वारा हुए पुरातात्विक अध्ययन से पता चलता है कि टोबा विस्फोट के कुछ साल बाद यहां पर दक्षिण से आये हुए लोगो की बसाहट हुई थी और यहां भी खेती करने के प्रमाण मिले हैं । आस पास के गांवों जैसे सिहावल, पटपरा, नकझर , बम्बूरी में भी 75000 वर्ष पुरानी कृषि व घर वाली मानव सभ्यता के अवशेष मिले हैं । 

जरा सोचिए कि आज से 75000 साल पहले हजारों इंसानों का दक्षिण भारत से उत्तर भारत के लिए प्रवजन कैसे हुआ होगा ? (हो सकता है ये लोग जबलपुर से भी गुजरे हों )

क्या ये वही लोग थे जिन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के लहुरादेव (जिला बस्ती) में 14000 साल पहले यंत्र सहित उन्नत खेती की शुरुआत की होगी ?
लेकिन हमें तो मैकाले के मानस पुत्रों ने यही पढ़ाया है कि आज से 5000 साल पहले सिंधुघाटी से पूर्व भारत मे कोई भी विकसित सभ्यता नही थी । भारतीय लोग पहले सिंधुघाटी में बसे - फिर गंगा के किनारे - फिर उत्तर भारत से दक्षिण भारत मे बसे । टोबा विस्फोट , ज्वालापुरम, ढाबा, लहुरादेव आदि का नाम मैकाले पुत्रों ने इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से गायब ही कर दिया ।

एक श्रृंगी

महाभारत शांतिपर्व 92-93
भगवान श्रीकृष्ण कहते है -
"एक सींग वाले नन्दी वराह रूप में डूबी हुई भूमि का उद्धार करने के कारण मेरा नाम "एक श्रृंगी" हुआ ।।
यह कार्य करने हेतु मैने तीन ककुद वाले वाराह का रूप लिया , शरीर के इस मापन के कारण मैं  "त्रिककुत" नाम से विख्यात हुआ  ।।"
भगवान श्रीकृष्ण के एकशृंगी व त्रिकुट रूप को प्रणाम ।। 
🙏🙏🙏

ईसा मसीह की जन्म तारीख

25 दिसंबर को नही 28 मार्च को जन्मे थे ईसा मसीह !!

वैज्ञानिकों एवं बाइबिल विश्लेषकों के अनुसार ईसा मसीह के जन्म की सही तारीख 28 मार्च है न कि 25 दिसम्बर ।

बाइबिल में दिए गए अनेक प्रमाणों से यह बात सिद्ध होती है । लुका 2-5,7 के अनुसार ईसा के जन्म के दिनों में गरड़िये भेड़ चरा रहे थे और खेतों में पक्षी थे । इसराइल में ऐसा होना मार्च के महीने में ही संभव है , दिसम्बर में नही ।  लुका 2-1,4 के अनुसार रोमन जनगणना हेतु ईसा के माता पिता बेलथेहम आये थे जहाँ ईसा का जन्म हुआ । रोमन राज्य में मार्च ही जनगणना का महीना होता था । लुका 1-24, 26-36 के अनुसार जॉन का जन्म ईसा से 6 माह पूर्व हुआ जब जेरुसलम मंदिर में अबीजाह त्योहार मनाया जा रहा था  , जॉन के पिता जकर्याह और माता एलिजाबेथ मंदिर आये हुए थे । उक्त त्योहार सितंबर में पड़ता है । इस तरह से भी ईसा मसीह के जन्म मार्च में होना ज्ञात होता है ।
उत्तरी अफ्रीका  248 AD में प्राप्त एक रोमन शिलालेख में ईसा मसीह के जन्मदिन की तारीख गुरुवार 28 मार्च निकली गयी है । जो बाइबिल की घटनाओं से मेल खाता है ।

बेलथेहम का तारा या पूर्व का तारा , जन्म के पूर्व चंद्रग्रहण , यहूदियों के पर्व Feast of Tabernacles का एस्ट्रोनॉमिकल अध्ययन से भी ईसा मसीह का जन्म मार्च में सिद्ध होता है। 

फिर उनका जन्मदिन 25 दिसम्बर को क्यो मानते है ? हुआ ये था कि रोम में ईसाई धर्म आने से पूर्व रोमन लोग 25 दिसम्बर को सूर्य भगवान का जन्मदिन मानते थे । 440 AD  में रोमन चर्च ने इस त्योहार को ईसा मसीह के जन्म दिन के रूप में मनाने की घोषणा कर दी । यह परंपरा आज तक चली आ रही है। 

(see --Jeffery Sheler, U.S. News & World Report, “In Search of Christmas,” Dec. 23, 1996, p. 58).

सप्त मातृका

सप्त मातृका

‘मातृका’ का मूल शब्द ‘मातृ’ है जिसका अर्थ है ‘माँ’। यह माना जाता है कि उनमें वह शक्ति है जो मातृ गुणों का प्रतीक है और इस ब्रह्मांड की सभी शक्तियों की रक्षक, प्रदाता और पालनकर्ता भी है। जैसे पृथ्वी की हर चीज सूर्य से अपनी स्रोत ऊर्जा प्राप्त करती है, वैसे ही ब्रह्माण्ड की सभी ऊर्जाएं अपनी शक्ति मातृकाओं से प्राप्त करती हैं। मातृकाओं की तंत्र-विद्या में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि उनमें जन्मजात क्षमता है, जिस के फलस्वरूप वह स्वयं का प्रतिरूप बना सकती है और उनके प्रतिरूप भी अन्य शक्तियों और रूपों को जन्म दे सकते हैं। वह अपने सूक्ष्म रूप में हर जगह और हर चीज में है लेकिन यह मान्यता है कि वे अपने प्रकट रूप में ब्रह्मांड में उपस्थित है और आठ दिशाओं पर शासन करती है जो अनंत का भी प्रतीक है।

मार्कण्डेय पुराण में वर्णन मिलता है कि सप्तमातृकाओं की सहायता से चण्डिका देवी ने रक्तबीज का वध किया था। ये सात देवियां अपने पतियों के वाहन तथा आयुध के साथ यहां उपस्थित होती है ‘यस्य देवस्य यत्रूपं यथाभूषण वाहनम्’। ये सात देवियां ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारीय, वाराही और नरसिंही है।

भारत में सप्तमातृकाओं की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी जाती हैं-

1. स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा,
2. आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं,
3. नृत्यरत प्रतिमा।

वराह पुराण में कहा गया है कि मातृकायें आत्म ज्ञान हैं, जो अज्ञानता रूपी अंधकासुर के विरूद्ध युद्ध करती हैं। पुराणों में यह भी कहा गया है कि मातृकायें शरीर के मूल जीवंत अस्तित्व पर शासन करती हैं।
चित्र - सरस्वती नदी कालीन (तथाकथित सिंधु घाटी सभ्यता ) सील , जिसमे पीपल के पत्ते पर श्रीकृष्ण , श्रीकृष्ण का श्रृंगी रूप तथा नीचे सप्त मातृकाएं
DrAshok Kumar Tiwari

इंग्लैंड की रामायण

इंग्लैंड की रामायण -
हरि अनंत हरि कथा अनंता

फादर कामिल बुलके ने आपने शोध प्रबंध हेतु  300 रामायणों का संग्रह व अध्ययन किया था । भारत के अतिरिक्त जापान , इंडोनेशिया, श्रीलंका, कंबोडिया, ईरान, लाओस,थाईलैंड, रूस, तुर्कमेनिस्तान आदि में भी प्राचीन रामायण पाई जाती हैं । ग्रीक एवं रोमन पुराण कथाओं में रामकथा से मिलते जुलते आख्यान पाए जाते हैं । इंग्लैंड में भी प्राचीन रामायण पाई जाती है ।
इंग्लैंड में रोमन शासन 43 AD से पूर्व का इतिहास सही तरह से ज्ञात नही है । किंतु प्राचीन druid (द्रविड़) लोग वहां के मूल निवासी है । पुराणों में अंगुलदेश का वर्णन है जो कि बंद मुट्ठी अंगूठे के आकार का द्वीप है और वहां सर्वप्रथम स्कन्दनाभीय (scandavian) क्षत्रियो (scot) ने राज्य स्थापित किया । जिन्होंने शैलपुरी (salisbury) में सूर्य भगवान को समर्पित stonehenge का मंदिर बनवाया । आज भी उस प्राचीन druid धर्म के अनुयायी हज़ारो की संख्या में वहां रहते हैं । अंग्रेजी भाषा के शब्दों का संस्कृत मूल , प्राचीन 
इंग्लैंड में hadrian दीवाल के किलों में हाथी मोर के चित्र पाए जाना, उत्खनन में शिवलिंग और गणेश की प्रतिमा मिलना, वेस्टमिनिस्टर एब्बे की शिला आदि संकेत देती है कि इंग्लैंड में रोमन राज्य से पूर्व वैदिक संस्कृति थी । आज भी इंग्लैंड में भगवान राम के नाम पर अनेक शहर है जैसे  Ramsgate (राम घाट) , Ramsden (राम देन) , Ramford (राम किला) आदि । कई अंग्रेजों के नाम Ramsay (राम सहाय) होता है। 
इंग्लैंड के एक प्राचीन काव्य Celtic Psalter में प्राचीन किंग रिचर्ड की कहानी लैटिन भाषा मे मिलती है । हालांकि बाद में 12 शताब्दी में इंग्लैंड के अन्य राजाओं का नाम भी रिचर्ड हुआ और उन पर भी किताबे लिखी गयी । बाद की कहानियों में प्राचीन किंग रिचर्ड और 12 वी शताब्दी के किंग रिचर्ड the lion hearted की कहानियों को आपस में मिला दिया गया । फिर शेक्सपियर ने king richard पर प्ले लिखा जिसमे रिचर्ड तृतीय और रोबिन हुड की कहानियों को आपस में मिला दिया गया । 
मूल प्राचीन पुस्तक में काव्यात्मक वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है -
इंग्लैंड के महाप्रतापी राजा थे किंग रिचर्ड (किंग = सिंह, रिचर्ड = राम चन्द्र) जो कि सूर्यदेव के पुत्र अपोलो के वंशज और महान धनुर्धर थे । इनकी पत्नी का नाम रानी Jancy (=जानकी) था । ये अपने पिता की आज्ञा से  वनों में गए ,  जहाँ  Lancashire (लंकेश्वर) के क्रूर राजा, जो एक demon था ,  ने Jancy का अपहरण कर लिया और इटली के नजदीक एक  भूमध्यसागरीय द्वीप में ले गया । 
किंग रिचर्ड ने Germanic tribes के सेनापति कपि Hahnemann की सहायता से जल सेना बनाई और उस द्वीप पर troop of monkey की सेना से  आक्रमण किया । और demon को मार के अपनी पत्नी को मुक्त कराया । 

(विस्तृत अध्ययन हेतु - peter ackroyd की पुस्तक foundation the history of england देखिए)

दुर्गा सप्तशती वर्णित असुरों का मूल

 दुर्गा सप्तशती वर्णित असुरों का मूल-

असुरों का मूल केन्द्र मध्य-युग में असीरिया कहा जाता था, जो आजकल सीरिया तथा इराक हैं। इस सभ्यता की प्राचीनता 10000 BC तक जाती है । 2500 BC में इसकी राजधानी असुर ASSUR थी, जो वर्तमान इराक का प्राचीनतम नगर है।
महिषासुर के बारे में प्राचीन ग्रंथों में भी स्पष्ट लिखा है कि वह पाताल (भारत के विपरीत क्षेत्र दक्षिण अमेरिका ) का था। उसे चेतावनी भी दी गयी थी कि यदि जीवित रहना चाहते हो तो पाताल लौट जाओ-
यूयं प्रयात पाताल यदि जीवितुमिच्छथ (दुर्गा सप्तशती 8/26)। इसी अध्याय में (श्लोक 4-6) असुरों के क्षेत्र तथा भारत के सीमावर्त्ती क्षेत्र कहे गये हैं जहां असुरों का आक्रमण हुआ था-कम्बू-आजकल कम्बुज कहते हैं जिसे अंग्रेज कम्बोडिया कहते हैं। कोटि-वीर्य = अरब देश। कोटि = करोड़ का वीर्य (बल) 100 कोटि = अर्व तक है अतः इसे अरब कहते हैं। धौम्र (धुआं जैसा) को शाम (सन्ध्या = गोधूलि) कहते थे जो एशिया की पश्चिमी सीमा पर सीरिया का पुराना नाम है। शाम को सूर्य पश्चिम में अस्त होता है अतः एशिया का पश्चिमी सीमा शाम (सीरिया) है।


इसी प्रकार भारत की पश्चिमी सीमा के नगर सूर्यास्त (सूरत) रत्नागिरि (अस्ताचल = रत्नाचल) हैं। कालक = कालकेयों का निवास काकेशस (कज्जाकिस्तान,उसके पश्चिम काकेशस पर्वतमाला), दौर्हृद (ह्रद = छोटे समुद्र, दो समुद्र भूमध्य तथा कृष्ण सागरों को मिलानेवाला पतला समुद्री मार्ग) = डार्डेनल (टर्की तथा इस्ताम्बुल के बीच का समुद्री मार्ग)।
इसे बाद में हेलेसपौण्ट (ग्रीक में सूर्य क्षेत्र) भी कहते थे, क्योंकि यह उज्जैन से ठीक 7 दण्ड = 42 अंश पश्चिम था। प्राचीन काल में लंका तथा उज्जैन से गुजरने वाली देशान्तर रेखा को शून्य देशान्तर रेखा मानते थे तथा उससे 1-1 दण्ड अन्तर पर विश्व में 60 क्षेत्र थे जिनके समय मान लिये जाते थे। ये सूर्य क्षेत्र थे क्योंकि सूर्य छाया देखकर अक्षांश-देशान्तर ज्ञात होते हैं। आजकल 48 समय-भाग हैं। मौर्य = मुर असुरों का क्षेत्र। मोरक्को के निवासियों को आज भी मुर कहते हैं। मुर का अर्थ लोहा है, मौर्य (मोरचा) के दो अर्थ हैं, लोहे की सतह पर विकार या युद्ध-क्षेत्र (लोहे के हथियारों से युद्ध होते हैं)।
जंग शब्द के भी यही 2 अर्थ हैं। कालकेय = कालक असुरों की शाखा। मूल कालक क्केशस के थे, उनकी शाखा कज्जाक हैं। इसके पूर्व साइबेरिया (शिविर) के निवासी शिविर (टेण्ट) में रहते थे तथा ठण्ढी हवा से बचने के लिये खोल पहनते थे, अतः उनको निवात-कवच कहते थे। अर्जुन ने उत्तर दिशा के दिग्विजय में कालकेयों तथा निवातकवचों को पराजित किया था (3145 ई.पू) जब आणविक अस्त्र का प्रयोग हुआ था जिसका प्रभाव अभी भी है।
यहां देवी को देवताओं की सम्मिलित शक्ति कहा गया है (अध्याय 2, श्लोक 9-31)। आज भी सेना, वाहिनी आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं। उनके अनुकरण से अंग्रेजी का पुलिस शब्द भी स्त्रीलिंग है।
दुर्गा सप्तशती अध्याय 11 में बाद की घटनायें भी दी गयी हैं। श्लोक 42-नन्द के घर बालिका रूप में जन्म (3228 ई.पू.) जो अभी विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी देवी हैं। विप्रचित्ति वंशज दानव (श्लोक 43-44)-असुरों की दैत्य जाति पश्चिम यूरोप में थी, जो दैत्य = डच, ड्यूट्श (नीदरलैण्ड, जर्मनी) आदि कहते हैं। पूर्वी भाग डैन्यूब नदी का दानव क्षेत्र था।
दानवों ने मध्य एशिया पर अधिकार कर भगवान् कृष्ण के समय कालयवन के नेतृत्व में आक्रमण किया था। इसके बाद (श्लोक 46) 100 वर्ष तक पश्चिमोत्तर भारत में अनावृष्टि हुयी थी (2800-2700 ई.पू.) जिसमें सरस्वती नदी सूख गयी तथा उससे पूर्व अतिवृष्टि के कारण गंगा की बाढ़ में पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर पूरी तरह नष्ट हो गयी जिसके कारण युधिष्ठिर की 8वीं पीढ़ी के राजा निचक्षु को कौसाम्बी जाना पड़ा। उस समय शताक्षी अवतार के कारण पश्चिमी भाग में भी अन्न की आपूर्त्ति हुयी तथा असुरों को आक्रमण का अवसर नहीं मिला।
उसके बाद नबोनासिर (लवणासुर) आदि के नेतृत्व में असुर राज्य का पुनः उदय हुआ (प्रायः 1000 ई.पू.) जिनको दुर्गम असुर (श्लोक 49) कहा गया है। उनके कई आक्रमण निष्फल होने पर उनकी रानी सेमिरामी ने सभी क्षेत्रों के सहयोग से 35 लाख सेना एकत्र की तथा प्रायः 10000 नकली हाथी तैयार किये (ऊंटों पर खोल चढ़ा कर)। इस आक्रमण के मुकाबले के लिये आबू पर्वत पर पश्चिमोत्तर के 4 प्रमुख राजाओं का संघ बना-इसके अध्यक्ष शूद्रक ने उस अवसर पर 756 ई.पू. में शूद्रक शक चलाया।
ये 4 राजा देशरक्षा में अग्री (अग्रणी) होने के कारण अग्निवंशी कहे गये-परमार, प्रतिहार, चाहमान, चालुक्य। यह मालव-गण था जो श्रीहर्ष काल (456 ई.पू.) तक 300 वर्ष चला। इसे मेगास्थनीज ने 300 वर्ष गणतन्त्र काल कहा है।
इस काल में एक और आक्रमण में (824 ई.पू.) में असुर मथुरा तक पहुंच गये जिनको कलिंग राजा खारावेल की गज सेना ने पराजित किया (खारवेल प्रशस्ति के अनुसार उसका राज्य नन्द शक 1634 ई.पू. के 799 वर्ष बाद आरम्भ हुआ और राज्य के 11 वर्ष बाद मथुरा में असुरों को पराजित किया)।
10000 ई.पू. के जल प्रलय के पूर्व खनिज निकालने के लिये देवों और असुरों का सहयोग हुआ था जिसे समुद्र-मन्थन कहते हैं। इसके बाद कार्त्तिकेय का काल 15800 ई.पू. था जब उन्होंने क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण किया। भारत में समुद्र-मन्थन वर्तमान झारखण्ड से छत्तीसगढ़ तक हुआ। आज भी मथानी का आकार का गंगा तट तक का मन्दार पर्वत है जहा वासुकिनाथ तीर्थ है। वासुकि को ही मथानी कहा गया है-
यह संयोजक थे। मेगास्थनीज ने कार्त्तिकेय के आक्रमण का उल्लेख किया है कि 15000 वर्षों से भारत ने किसी भी दूसरे देश पर अधिकार नहीं किया क्योंकि यह सभी चीजों में स्वावलम्बी था और किसी को लूटने की जरूरत नहीं थी। (यह आक्रमण सिकन्दर से प्रायः 15500 वर्ष पूर्व था)। वही यह भी लिखा है कि भारत एकमात्र देश हैं जहा बाहर से कोई नहीं बसा है। बाद में डायोनिसस या बाकस ने ६७७७ ई.पू. में आक्रमण किया (मेगास्थनीज) जिसमें सूर्यवंशी राजा बाहु मारा गया।
उसके 15 वर्ष बाद उसके पुत्र सगर ने असुरों को भगा दिया। वे अरब क्षेत्र से भाग कर ग्रीस में बसे जब उसका नाम इयोनिआ (हेरोडोटस) = यूनान पड़ा। अतः आज भी झारखण्ड में खनिज निकालने के लिये 15800 ई.पू. में आये असुरों के नाम वही हैं जो ग्रीक भाषा में उन खनिजों के होते हैं-मुण्डा (लोहा, इस क्षेत्र की वेद शाखा मुण्डक, पश्चिम ओड़िशा के मुण्ड ब्राह्मण), खालको (ताम्बे का अयस्क खालको-पाइराइट), ओराम (ग्रीक में सोना =औरम), टोप्पो (टोपाज), सिंकू (टिन का अयस्क स्टैनिक), किस्कू (लोहे के लिये धमन भट्टी) आदि
( Research by Gajraj Soni , S N Mishra etc)
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