श्रम में ‘परि’ उपसर्ग लगाकर परिश्रम हो गया। मेहनत कैसी भी क्यों न हो, मेहनत तो मेहनत है। पता नहीं किसने, क्यों और कैसे मानसिक और शारीरिक श्रम में भेद पैदा कर दिया? श्रम तो दोनों में लगता है, लेकिन मानसिक श्रम को शारीरिक श्रम से ऊंचा और सम्मानजनक सामाजिक पहचान मिल गई।
आज हर शारीरिक श्रम करने वाला व्यक्ति अपनी संतान को पढ़ा-लिखाकर कोई ऐसे काम में लगाना चाहता है, जिसमें कलम या कंप्यूटर का इस्तेमाल हो, कुदाल का नहीं।
शारीरिक श्रम का उचित मोल नहीं मिलता। पारिश्रमिक की बात छोड़ भी दें, तो श्रम को सम्मान नहीं मिलता, यह जानते हुए भी कि मजदूरों के परिश्रम से ही समाज सुंदर बन रहा है। उचित मेहनताना और सम्मान की बात तो दूर, मजदूरों को कार्यस्थलों पर सुरक्षा और आधारभूत सुविधाये भी नहीं मिल पाती हैं। जोखिम भरे क्षेत्रों में भी मजदूरों को उनके भाग्य भरोसे छोड़ा जा रहा है। श्रम को सम्मान देने में समाज और सरकार को विशेष पहल करनी चाहिए। श्रम दिवस मनाते हुए हम सबको यह संकल्प लेना चाहिए कि हम श्रम का सम्मान करेंगे और कोई भी श्रम बड़ा- छोटा नहीं होता है।
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