मंगलवार, 17 अक्टूबर 2023

महा पराशक्ति

महा पराशक्ति 

शाक्त परंपराओं के अनुसार, त्रिपुर सुंदरी आदि देवियां महापराशक्ति की भौतिक अवतार हैं। वह आसुर को नष्ट करने के लिए इस ब्रह्माण्ड के ऊपर अन्य ब्रह्माण्ड मणिद्वीप से आईं, बाद में कामाक्षी पराभट्टारिका के रूप में कामकोटि पीठ में निवास करने लगीं। उनके निवास को चित्रात्मक रूप से श्री चक्र के रूप में दर्शाया गया है।

 इस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, शिव उसके अधीनस्थ हैं और उनकी शक्ति के बिना कार्य नहीं कर सकते। इस प्रकार, शक्तिवाद में महा पराशक्ति को  सर्वोच्च देवी और प्राथमिक देवता माना जाता है क्योंकि वह आदि पराशक्ति की निकटतम प्रतिनिधि हैं जो आगे चलकर पार्वती के रूप में अवतरित हुईं। इस मत के अनुसार कोई व्यक्ति जिस भी देवता की पूजा कर रहा है, अंततः, वे आदि पराशक्ति की पूजा कर रहे हैं।

उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए समय-समय पर विभिन्न अवतार लिए। उच्चतम क्रम के योगियों के अनुसार, महा पराशक्ति वह शक्ति है जो अंबा के रूप में कुंडलिनी में निवास करती है, वह आकार में 3+1/2 कुंडल है और जब कुंडलिनी को हर इंसान की त्रिकास्थि हड्डी से एक उच्च एहसास द्वारा उठाया जाता है जिस आत्मा की कुंडलिनी भी जागृत होती है, वह मानव की रीढ़ की हड्डी के माध्यम से सभी चक्रों मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और अंत में सहस्रार चक्रों से ऊपर उठती है और आत्मा को सर्वव्यापी शक्ति (या सामूहिक चेतना) से जोड़ती है। दिव्य तीन नाड़ियों, इड़ा (बाएं चैनल- तमो गुण), पिंगला (दायां चैनल-रजो गुण) और सुषुम्ना (केंद्रीय चैनल-सत्व गुण) पर, कुंडलिनी सभी बाएं और दाएं चैनल को संतुलित करते हुए केंद्रीय चैनल से गुजरती है। इस प्रकार इड़ा पिंगला और सुषुम्ना भी महा पराशक्ति की ही ऊर्जाएं हैं । 

काली देवी आदि पराशक्ति का तीसरा अंश हैं। वह शक्ति, आध्यात्मिक पूर्ति, समय की देवी हैं, साथ ही ब्रह्मांड के विनाश की अध्यक्षता भी करती हैं। वह मानव जाति को मोक्ष प्रदान करती है। वह पार्वती का अवतार और शिव के अवतार महाकाल की पत्नी भवानी दुर्गा हैं। उन्होंने महामाया के रूप में भगवान महा विष्णु को मधु और कैटभ नामक राक्षसों का वध करने में मदद की। उन्होंने ही कौशिकी के रूप में शुंभ और निशुंभ का भी वध किया था, जो अज्ञानता के प्रतीक हैं। इन्हें योगमाया के नाम से भी जाना जाता है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार उन्हें तामसी देवी और चंडी देवी भी कहा जाता है। वह लाल या काला वस्त्र पहनती है और तमस गुण की स्वामी है।

फोटो- महा पराशक्ति देवी , मलेशिया 
श्री महापराशक्ति Pachai Amman Temple, Malaysia (90 फ़ीट विग्रह)

गुरुवार, 7 सितंबर 2023

कणिक नीति

चाणक्य (कौटिल्य) से 100 गुना आगे थे कणिक : 
(आज के समय मे इनकी नीतियों की जरूरत है) 

जब भी विश्व के प्रसिद्ध राजनीतिक कूटनीतिक ज्ञानी की बात होती है तो भारत के 4थी शताब्दी ईसा पूर्व के चाणक्य और  15 वी शताब्दी ईसवी  में हुए इटली के मेकियावली का नाम लिया जाता है । यद्यपि दोनो अलग अलग समय काल के व्यक्ति है । दोनो में लगभग 1800 वर्षों का अंतर होगा , फिर भी राजनीति व कूटनीति में चाणक्य मेकियावली से 100 गुना आगे थे । 

लेकिन एक व्यक्ति ऐसा भी हुआ है जो कूटनीति में चाणक्य से भी अधिक ऊंचाई पर था । और वे थे ऋषि  कणिक । इनका नाम अधिकांश लोगों ने सुना भी नही । जिनका समय ईसा पूर्व लगभग 3000 होगा । 
कणिक के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है । संभवतः ये महाभारत काल मे थे , क्योकि एक बार धृतराष्ट्र ने इनसे सलाह मांगी थी । महाभारत में सर्वत्र विदुर नीति का जिक्र है , जो कि राजा धृतराष्ट्र के राजनीतिक व कूटनीतिक सलाहकार थे । विभिन्न प्राचीन आख्यानों में कणिक का नाम और उनके कुछ सूत्र इधर उधर बिखरे मिलते हैं । जिससे पता चलता है कि वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक ज्ञानी थे । 

अध्ययन से पता चलता है कि आचार्य कणिक किसी राजा के दरबार मे नही थे । ये राज्य से कोई भी सुविधा वेतन नही लेते थे । नगर से बहुत दूर किसी जंगल मे इनकी कुटिया थी । ये सुकरात की तरह स्वतंत्र चिंतक थे । राजाओं और व्यवस्था को खरी खोटी सुनाते थे । इसलिए राजा लोग इनको महत्व नही देते थे । 

कणिक के कुछ सूत्र इस प्रकार हैं--
-- मूर्ख है वह राजा जो राज मुकुट को शोभा या गर्व की वस्तु मानता है , वास्तव में यह राजा के सर पर दायित्वों का भारी बोझ होता है जिसे वह जीवन भर उठाये रखता है ।  
-- मूर्ख है वह राजा जो कमर में बंधी इस तलवार को अपनी समझता है , वास्तव में यह प्रजा ने राजा को उसकी सुख और संपत्ति की रक्षा के लिए दी हुई है ।

-- जिस प्रकार माली किसी बगीचे का स्वामी नही होता उसी प्रकार राजा भी प्रजा का स्वामी नही होता । बगीचे के फलों पर और फूलों की सुगंध पर माली का कोई अधिकार नही होता । वह सिर्फ इनकी देखभाल के लिए है । 

--- मूर्ख है वह राजा जो राजमुद्रा को अपने अधिकार का चिन्ह मानता है , वास्तव में यह उसके कर्तव्यों का प्रतिबिंब होता है । 

-- यदि राजा को लगता है कि उसके देश पर (यवन शक हूण असुर मलेक्ष्य आदि) विदेशी आक्रमण करेंगे तो उनके आक्रमण की प्रतीक्षा नही करनी चाहिए अपितु स्वयं उनपर आक्रमण कर उनकी शक्ति को यथाशीघ्र समाप्त कर देना चाहिए । 
-- जो बार बार शत्रुता दिखा चुका हो ऐसे राज्य से संधि कर उसे अनुकूल होने का समय देने के स्थान पर उसपर आक्रमण कर नष्ट कर देना चाहिए ।
-- राजा का कर्तव्य है कि वह देखे कि प्रजा में सम्पन्न लोग दरिद्र का अहित ना कर सकें । जिस राज्य में दरिद्र का अहित होता है वह राज्य नष्ट हो जाता है ।
-- जिस राज्य में शिक्षक आचार्य विशारद वैद्य उपाध्याय से अधिक सम्मान व सुविधा राजकर्मी दंडपाल को मिलती है उस राज्य में सदैव अव्यवस्था बनी रहती है एवं समाज पतन की ओर जाता है । 
-- राजा को चाहिए कि सभी नवयुवकों को सेना में प्रशिक्षित कर दे । किंतु उनमें से परीक्षा लेकर योग्य को ही सेना में स्थायी पद दे । अस्त्र शस्त्रों का संचालन राज्य के प्रत्येक युवक को आना चाहिए । ये अपने ग्राम की रक्षा करें । सेना की कमी पड़ने पर इन युवकों को बुलाया जा सकता है । 

-- राजन आपको कंबोज गंधार वल्हिक बल्ख उत्तरकुरु और हरिवर्ष ( अफगानिस्तान ईरान चीन सीमा ) पर अधिक शक्तिशाली सेना रखनी चाहिए क्योंकि यवनों व मलेक्षो के आक्रमण का मार्ग यही है । इन प्रदेशो के क्षत्रप योग्य सेनापति को नियुक्त करें । 

---मन में क्रोध भरा हो, तो भी ऊपर से शांत बने रहे और हंस कर बातचीत करें। क्रोध में किसी का तिरस्कार ना करें। किसी शत्रु पर प्रहार करते समय भी उससे मीठे वचन ही बोले।
-- प्रतिकूल समय में एक राजा को यदि शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पड़े तो उसे ढोना चाहिए, परंतु जब अपना अनुकूल समय आ जाए, तब शत्रु को उसी प्रकार नष्ट कर दें जैसे घड़े को पत्थर पर पटक कर फोड़ दिया जाता है।
-- विदेश से आने वाले लोगो पर राजा विशेष निगरानी रखे । ये लोग निश्चित समय से अधिक राज्य में न रहने पाये । यदि इनको राज्य में बसने की अनुमति दी जाएगी तो एक दिन ये लोग राज्य और प्रजा को नष्ट कर देंगे । 
--राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्र का शत्रु को पता न चले, परंतु वह शत्रु के छिद्र को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रों को छिपाये रखे। ‘राजा बगुले के समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्‍यविषय को चिंतन करे। सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियें की भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रु का धन लूट ले तथा बाण की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े।

मित्र इतिहासकार राजीव रंजन प्रसाद आचार्य कणिक पर शोध कर रहें है । उनको शुभकामनाएं ।

भारतवर्ष

"भारतवर्ष" 

भारत में भा का अर्थ ज्ञान रूपी प्रकाश और रत का अर्थ जुटा हुआ, खोजी या लीन। इस तरह भारत का अर्थ होता है जो लोग इस भूमि पर ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। दूसरा अर्थ है जो भरत के वंशज हैं। इसमें वर्ष का अर्थ है एक वर्षा ऋतु से दूसरी वर्षा ऋतु के बीच का समय या साल। भिन्न भिन्न प्रकृति या वर्षा क्षेत्र को वर्ष कहा जाता है। चूंकि भारत में सभी तरह की प्रकृति, 4 ऋतुएं और वर्षा क्षेत्र हैं तो एकमात्र यही देश है जिसके नाम के आगे वर्ष लगाया जाता है। अन्य कई देशों में 2 ऋतुएं ही होती हैं तो वर्ष का कोई अर्थ नहीं।
 
उल्लेखनीय है कि भरत शब्द (भारत नहीं) का अर्थ भारण पोषण करने वाला। प्रजा को पालने वाला होता है।

हिमाद्रेर्दक्षिण वर्षं भरतस्य न्यवेदयत्।
तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधा:।
- लिंग पुराण (47-21-24).

अर्थात : अर्थात इंद्रिय रूपी सांपों पर विजय पाकर ऋषभ ने हिमालय के दक्षिण में जो राज्य भरत को दिया तो इस देश का नाम तब से भारतवर्ष पड़ गया।....इसी बात को प्रकारान्तर से वायु और ब्रह्मांड पुराण में भी कहा गया है। भरत का क्षेत्र होने के कारण यह भारत कहा गया।

ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते
भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रातिष्ठता वनम्

अर्थात-पिता ऋषभदेव ने वन जाते समय अपना राज्य भरतजी को दे दिया था. तब से यह इस लोक में भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
(विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय प्रथम श्लोक ३२)

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।।

अर्थात-समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है, उसे भारत कहते हैं और इस भूभाग में रहने वाले लोग इस देश की संतान भारती हैं.
(विष्णु पुराण द्वितीय खंड तृतीय अध्याय प्रथम श्लोक)

गायन्ति देवा: किल गीतकानि, धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरूषा सुरत्वात्

अर्थात- देवता निरंतर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के बीच में बसे भारत में जन्म लिया है, वो पुरुष हम देवताओं से भी ज्यादा धन्य हैं.
(विष्णु पुराण द्वितीय खंड तृतीय अध्याय २४ वां श्लोक)
शकुन्तलायां दुष्यन्ताद् भरतश्चापि जज्ञिवान
यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्

अर्थात-परम तपस्वी महर्षि कण्व के आश्रम में दुष्यंत के द्वारा शकुंतला के गर्भ से भरत का जन्म हुआ. उन्हीं महात्मा भरत के नाम से यह भरतवंश भारत नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ, 
(महाभारत आदिपर्व द्वितीय अध्याय श्लोक ९६)

सोभिचिन्तयाथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सल:
ज्ञानवैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रिय महोरगान्।
हिमाद्रेर्दक्षिण वर्षं भरतस्य न्यवेदयत्।
तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधा:।

अर्थात-अपने इन्द्रिय रूपी सांपों पर विजय पाकर ऋषभ ने हिमालय के दक्षिण में जो राज्य भरत को दिया तो इस देश का नाम तब से भारतवर्ष पड़ा. 
(लिंगपुराण)

भारते तु स्त्रियः पुंसो नानावर्णाः प्रकीर्तिताः।
नानादेवार्चने युक्ता नानाकर्माणि कुर्वते॥

अर्थात-भारत के स्त्री और पुरुष अनेक वर्ण के बताए गए हैं. ये विविध प्रकार के देवताओं की आराधना में लगे रहते हैं और अनेक कर्मों को करते हैं.
(कूर्मपुराण पूर्वभाग अध्याय ४७ श्लोक २१वां)

अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्षम् भारत भारतम्। प्रियं इन्द्रस्य देवस्य मनो: वैवस्वतस्य च।
पृथोश्च राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाको: महात्मन:। ययाते: अम्बरीषस्य मान्धातु: नहुषस्य च।
तथैव मुचुकुन्दस्य शिबे: औशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा।
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥

अर्थात -(हे महाराज धृतराष्ट्र,) अब मैं आपको बताऊंगा कि यह भारत देश सभी राजाओं को बहुत ही प्रिय रहा है। इन्द्र इस देश को अत्यंत प्रेम करते थे तो विवस्वान् के पुत्र मनु भी इस देश से अत्यंत स्नेह करते थे। ययाति हों या अम्बरीष, मन्धाता रहे हो या नहुष, मुचुकुन्द, शिबि, ऋषभ या महाराज नृग रहे हों, इन सभी राजाओं को तथा इनके अलावा जितने भी महान और बलवान राजा इस देश में हुए, उन सबको भारत देश बहुत प्रिय रहा है।
(महाभारत)

नारद ने कहा : हे अर्जुन, मैं तुम्हें बर्बरी तीर्थ की महिमा का वर्णन करूंगा , कि कैसे राजकुमारी शतशंगा, जो कुमारिका के नाम से प्रसिद्ध थी, बर्बरिका बन गई । उनके नाम पर ही इस खंड को कौमारिका-खंड कहा जाता है । उन्हीं के द्वारा पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के गाँवों का निर्माण हुआ। उन्हीं के द्वारा इस भरत खण्ड को सुव्यवस्थित एवं स्थापित किया गया।

धनंजय (अर्जुन) ने कहा :
हे ऋषि, यह अत्यंत चमत्कारी कथा मुझे अवश्य सुननी चाहिए। मुझे कुमारी की कथा विस्तारपूर्वक सुनाओ। कर्मण (कर्म) और जाति (जन्म और पितृत्व) के माध्यम से यह ब्रह्मांड कैसे विकसित हुआ ? भारत का उपमहाद्वीप कैसा (सुव्यवस्थित) था? यह सुनने की मेरी सदैव इच्छा रही है।
(भुवनकोश 'स्कंदपुराण')

येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्‍ठगुण आसीद् यनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति।
- भागवत पुराण (स्कन्द 5, अध्याय 4)

वैदिक काल में भरत नाम से एक प्रसिद्ध राजा हुआ करते थी जो सरस्वती और सिंधु नदी के क्षेत्र में राज करते थे । उनके वंशजो का का इतिहास में प्रसिद्ध दस राजाओं से युद्ध हुआ था। जिसे दासराज्ञ का युद्ध कहा जाता है। विजयी होने पर उनका राज्य क्षेत्र पूर्व और दक्षिण तक विस्तृत हो गया , जिसे भारतवर्ष कहा जाने लगा । 

संकल्प का श्लोक

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये पर्राधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतर्वषे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते.....

हाथीगुम्फा शिलालेख में उल्लेख है कि: 

"भारत" के पूर्वी तट पर उदयगिरि गुफाओं में रानी गुम्फा या "रानी की गुफा" से जूते और चिटोन के साथ एक यवन / इंडो-ग्रीक योद्धा की संभावित मूर्ति (प्राप्त हुई है), यह वही स्थान है जहां हाथीगुम्फा शिलालेख प्राप्त हुआ था। दूसरी या पहली शताब्दी ईसा पूर्व। 

वेदों, पुराणों, अभिलेखों आदि में सहज उपलब्ध प्रमाणों में से ये प्रमाण मात्र 1% हैं। पर इतने ही ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त करने के उपरांत भी  'इंडिया दैट इज भारत' जैसा धूर्त प्रयास अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन की अधीनता का ही प्रतीक था जिसे भारत सरकार को वर्तमान परिस्थितियों के प्रकाश में तत्काल प्रभाव से संशोधित किया है। 

बाकी हम सरस्वती विद्या मंदिर के विद्यार्थियों के लिए तो हमारी मातृभूमि का नाम सदैव से 'भारतवर्ष' ही रहा है। अपनी पुरानी पोस्ट्स पर भी दृष्टि डालता हूँ तो पाता हूँ कि कभी अचेतन मन से भी राष्ट्र के लिए भारत के अतिरिक्त इंडिया जैसे किसी अवांछित नाम का प्रयोग नहीं किया है।

जयतु भारत। 

जन्माष्टमी पर

विष्णोर्नु कं॑ वीर्य॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यः पार्थिवनी विम॒मे रजां॑सि। यो अस्क॑भय॒दुत्तिरं स॒धस्थं॑ विचक्र्मा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः
विष्णोर्नु कं वीर्यणि प्र वोचं यः पार्थिवनि विम्मे रजांशी। यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमानस्त्रेधोरुगायः
विशोर नु कां वीर्यानि प्रा वोकां यां पार्थिवनि विममे राजंसी | यो अस्कभयद उत्तरम साधस्थां विक्रमांस त्रेधोरुगय: || (ऋग्वेद विष्णुसूक्त  1.1.154.1 )
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उक्त सूक्त से पता चलता है कि ऋग्वेद काल मे विष्णु भगवान देवता के रूप में पूजे जाते थे । 
जबकि तथाकथित इतिहासकारों के अनुसार विष्णु गुप्तकाल (300 ईसवीं )के भगवान हैं । इन इतिहासकारों के अनुसार सनातन धर्म नाम की कोई चीज नही होती हैं बल्कि वैष्णव धर्म , शैव धर्म , शाक्त धर्म आदि होते हैं । 

तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में मेगस्थनीज ने मथुरा को मेथोरा नाम  से संबोधित करके लिखा है कि यहां हर घर मे भगवान कृष्ण की पूजा होती है ।
दक्षिण भारत मे भी संगम काल मे (लगभग 300 ई पू ) हम्पी कर्नाटक में कृष्ण भगवान की मूर्ति प्राप्त हुई है । 
ईसा पूर्व करीब 150 वर्ष पूर्व का विदिशा म.प्र. के निकट यह हेलियोडोरस स्तंभ दरअसल गरूड़ ध्वज है, जो उस समय के विष्णु मंदिर के सामने था। एक ग्रीक राजदूत  हेलियोडोरस ने वैष्णव धर्म को स्वीकार कर यह स्तंभ लगवाया था, इसीलिए इसे हेलियोडोरस स्तंभ ( Heliodorus Pillar ) कहा जाने लगा। स्तंभ के चबूतरे पर खम्बे का इतिहास लिखा है, जिस पर वर्णन है इस खम्बे को खांब बाबा भी कहते हैं  ।

यदु- नन्द नन्दन देवकी- वसुदेव नन्दन वन्दनम् ।
मृदु चपल नयननम् चंचलम् मनमोहनम् अभिनन्दनम् ।।
योगेश्वरम् सर्वेश्वरम् राधेरमण ब्रजभूषणम् ।
हे! माधवम् मधुसूदनम् जय जयति जय नारायणम् ।।

आप सभी को जन्माष्टमी की शुभकामनाएं 

चित्र - बैक्ट्रिया (ताजिकिस्तान उज्बेकिस्तान) के ग्रीक राजा Agathocles Dikaios द्वारा जारी किया गया भगवान श्रीकृष्ण का सिक्का 180 BCE

शनिवार, 26 अगस्त 2023

जौहर

आज 26 अगस्त 1303 को जौहर_दिवस पर महाराणी माता पद्मिनी एवं साथ मे जौहर करने वाली सोलह हजार क्षत्राणियों को नमन 👏👏

करीब 700 वर्ष पूर्व सन 1303 को चितौड़ की महारानी मां पद्मनी ने सतीत्व की रक्षा के लिये 16000 राजपूतानियों व अन्य स्त्रियों तथा बालिकाओं के साथ जौहर किया था!


जौहर' एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर हमारी 'रुह कांप' जाती है, परन्तु उसके साथ ही साथ यह शब्द हिन्दू नारियों के अभूतपूर्व 'बलिदान' का स्मरण कराता हैँ! जो जौहर शब्द के अर्थ से अनभिज्ञ हैँ! उन्हेँ मेँ बताना चाहुँगा....॥ जब किसी हिंदू राजा के राज्य पर विधर्मी आक्रमणकारीयोँ का आक्रमण होता तो युध्द मेँ जीत की कोई संम्भावना ना देखकर क्षत्रिय और क्षत्राणी आत्म समर्पण करने के बजाय लड़कर मरना अपना धर्म समझते थे! क्योकिँ कहा जाता है ना "वीर अपनी मृत्यु स्वयं चुनते है!" इसिलिए भारतीय वीर और वीरांगनाए भी आत्मसमर्पण के बजाय साका +जौहर का मार्ग अपनाते थे! पुरुष 'केसरिया' वस्त्र धारण कर प्राणोँ का उत्सर्ग करने हेतु 'रण भूमि' मेँ उतर जाते थे! और राजमहल की समस्त महिलाएँ अपनी 'सतीत्व की रक्षा' हेतु अपनी जीवन लीला समाप्त करने हेतु जौहर कर लेती थी! महिलाँए ऐसा इसलिए करती थी क्योँकि मलेक्ष् आक्रमणकारी युध्द मेँ विजय के पश्चात महिलाओँ के साथ बलात्कार व नेक्रोफिलिया करते थे! और उन्हें सुल्तान के हरम में भेज देते थे ।  अत: हिन्दू स्त्रियां व बालिकाएं अपनी अस्मिता व गौरव की रक्षा हेतु जौहर का मार्ग अपनाती थी! जिसमेँ वे जौहर कुण्ड मेँ अग्नि प्रज्जवलित कर धधकती अग्नि कुण्ड मेँ कुद कर अपने प्रणोँ की आहुती दे देती थी!! जौहर के मार्ग को एक क्षत्राणी अपना गौरव व अपना अधिकार मानती थी! और यह मार्ग उनके लिए स्वाधिनता व आत्मसम्मान का प्रतिक था! ये जौहर कुण्ड ऐसी ही हजारोँ वीरांगनाओ के बलिदान का साक्ष्य हैँ! नमन है ऐसी  वीरांगनाओँ को...और गर्व है हमे हमारे गौरवपूर्ण इतिहास पर......


शनिवार, 5 अगस्त 2023

वैज्ञानिक प्रफुल्ल चंद्र राय

आज महान भारतीय वैज्ञानिक प्रफ़ुल चंंद्र राय का जन्मदिन है।
आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। वर्ष 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रसायन वर्ष के रूप में मनाया गया। भारत में इसका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि यह वर्ष एक मनीषी तथा महान भारतीय रसायनविज्ञानी  आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के जन्म का 150वाँ वर्ष भी था। आचार्य राय भारत में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक पुनर्जागरण के स्तम्भ थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आजादी की लड़ाई के साथ साथ देश में ज्ञान-विज्ञान की भी एक नई लहर उठी थी। इस दौरान अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने जन्म लिया। इसमे जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय, श्रीनिवास रामानुजन और चंद्रशेखर वेंकटरामन जैसे महान वैज्ञानिकों का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने पराधीनता के बावजूद अपनी लगन तथा निष्ठा से विज्ञान में उस ऊंचाई को छुआ जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। ये आधुनिक भारत की पहली पीढ़ी के वैज्ञानिक थे जिनके कार्यों और आदर्शों से भारतीय विज्ञान को एक नई दिशा मिली। इन वैज्ञानिकों में आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का नाम गर्व से लिया जाता है। वे वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक महान देशभक्त भी थे। सही मायनों में वे भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतीक थे। इनका जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर जिले के ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांगलादेश में है तथा खुल्ना जिले के नाम से जाना जाता है। 
प्रफुल्ल चंद्र राय को एडिनबरा विश्वविद्यालय में अध्ययन करना था जो विज्ञान की पढ़ाई के लिए मशहूर था। वर्ष 1885 में उन्होंने पी.एच.डी का शोधकार्य पूरा किया। तदनंतर 1887 में "ताम्र और मैग्नीशियम समूह के 'कॉन्जुगेटेड' सल्फेटों" के बारे में किए गए उनके कार्यों को मान्यता देते हुए एडिनबरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस.सी की उपाधि प्रदान की। उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें एक साल की अध्येतावृत्ति मिली तथा एडिनबरा विश्वविद्यालय की रसायन सोसायटी ने उनको अपना उपाध्यक्ष चुना। तदोपरान्त वे छह साल बाद भारत वापस आए। उनका उद्देश्य रसायन विज्ञान में अपना शोधकार्य जारी रखना था। अगस्त 1888 से जून 1889 के बीच लगभग एक साल तक डा. राय को नौकरी नहीं मिली थी। यह समय उन्होंने कलकत्ता में जगदीश चंद्र के घर पर व्यतीत किया। इस दौरान ख़ाली रहने पर उन्होंने रसायन विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन किया और रॉक्सबोर्ग की 'फ्लोरा इंडिका' और हॉकर की 'जेनेरा प्लाण्टेरम' की सहायता से कई पेड़-पौधों की प्रजातियों को पहचाना एवं संग्रहीत किया।
आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक "द ग्रीक एल्केमी" पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलाट के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक "रसेन्द्र सार संग्रह" पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा। बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा "जर्नल डे सावंट" में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।

१९१२ में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक यौगिकों के प्रथम विरचन से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

अनुसंधान
डाक्टर राय ने अपना अनुसंधान कार्य पारद के यौगिकों से प्रारंभ किया तथा पारद नाइट्राइट नामक यौगिक, संसार में सर्वप्रथम सन् 1896 में, आपने ही तैयार किया, जिससे आपकी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्रारंभ हुई। बाद में आपने इस यौगिक की सहायता से 80 नए यौगिक तैयार किए और कई महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्याओं को सुलझाया। आपने ऐमोनियम, जिंक, कैडमियम, कैल्सियम, स्ट्रांशियम, वैरियम, मैग्नीशियम इत्यादि के नाइट्राइटों के संबंध में भी महत्वपूर्ण गवेषणाएँ कीं तथा ऐमाइन नाइट्राइटों को विशुद्ध रूप में तैयार कर, उनके भौतिक और रासायनिक गुणों का पूरा विवरण दिया। आपने ऑर्गेनोमेटालिक (organo-metallic) यौगिकों का भी विशेष रूप से अध्ययन कर कई उपयोगी तथ्यों का पता लगाया तथा पारद, गंधक और आयोडीन का एक नवीन यौगिक, (I2Hg2S2), तैयार किया तथा दिखाया कि प्रकाश में रखने पर इसके क्रिस्टलों का वर्ण बदल जाता है और अँधेरे में रखने पर पुन: मूल रंग वापस आ जाता है। सन् 1904 में बंगाल सरकार ने आपको यूरोप की विभिन्न रसायनशालाओं के निरीक्षण के लिये भेजा। इस अवसर पर विदेश के विद्धानों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मानपूर्वक आपका स्वागत किया।

अन्य कार्य
विज्ञान के क्षेत्र में जो सबसे बड़ा कार्य डाक्टर राय ने किया, वह रसायन के सैकड़ों उत्कृष्ट विद्वान् तैयार करना था, जिन्होंने अपने अनुसंधानों से ख्याति प्राप्त की तथा देश को लाभ पहुँचाया। सच्चे भारतीय आचार्य की भाँति डॉ॰ राय अपने शिष्यों को पुत्रवत् समझते थे। वे जीवन भर अविवाहित रहे और अपनी आय का अत्यल्प भाग अपने ऊपर खर्च करने के पश्चात् शेष अपने शिष्यों तथा अन्य उपयुक्त मनुष्यों में बाँट देते थे। आचार्य राय की रहन सहन, वेशभूषा इत्यादि अत्यंत सादी थी और उनका समस्त जीवन त्याग तथा देश और जनसेवा से पूर्ण था।

सन् 1920 में आप इंडियन सायंस कांग्रेस के सभापति निर्वाचित किए गए थे। सन् 1924 में आपने इंडियन केमिकल सोसाइटी की स्थापना की तथा धन से भी उसकी सहायता की। सन् 1911 में ही अंग्रेज सरकार ने आपको सी. आई. ई. की उपाधि दी थी तथा कुछ वर्ष बाद "नाइट" बनाकर "सर" का खिताब दिया। इस तरह विदेशी सरकार ने अपनी पूर्व उपेक्षा का प्रायश्चित किया। अनेक देशी तथा विदेशी विश्वविद्यालयों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने उपाधियों तथा अन्य सम्मानों से आपको अलंकृत किया था।

प्रफुल्ल चंद्र राय को जुलाई 1889 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में 250 रुपये मासिक वेतन पर रसायनविज्ञान के सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया। यहीं से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन् 1911 में वे प्रोफेसर बने। उसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1916 में वे प्रेसिडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत हुए। फिर 1916 से 1936 तक उसी जगह एमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत रहे। सन् 1933 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय ने आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय को डी.एस-सी की मानद उपाधि से विभूषित किया। वे देश विदेश के अनेक विज्ञान संगठनों के सदस्य रहे।

अमोनियम नाइट्राइट का संश्लेषण

एक दिन आचार्य राय अपनी प्रयोगशाला में पारे और तेजाब से प्रयोग कर रहे थे। इससे मर्क्यूरस नाइट्रेट नामक पदार्थ बनता है। इस प्रयोग के समय डा. राय को कुछ पीले-पीले क्रिस्टल दिखाई दिए। वह पदार्थ लवण भी था तथा नाइट्रेट भी। यह खोज बड़े महत्त्व की थी। वैज्ञानिकों को तब इस पदार्थ तथा उसके गुणधर्मों के बारे में पता नहीं था। उनकी खोज प्रकाशित हुई तो दुनिया भर में डा. राय को ख्याति मिली। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया था। वह था अमोनियम नाइट्राइट का उसके विशुद्ध रूप में संश्लेषण। इसके पहले माना जाता था कि अमोनियम नाइट्राइट का तेजी से तापीय विघटन होता है तथा यह अस्थायी होता है। राय ने अपने इन निष्कर्षों को फिर से लंदन की केमिकल सोसायटी की बैठक में प्रस्तुत किया।

स्वदेशी उद्योग की नींव
उस समय भारत का कच्चा माल सस्ती दरों पर इंग्लैंड जाता था। वहाँ से तैयार वस्तुएं हमारे देश में आती थीं और ऊँचे दामों पर बेची जाती थीं। इस समस्या के निराकरण के उद्देश्य से आचार्य राय ने स्वदेशी उद्योग की नींव डाली। उन्होंने 1892 में अपने घर में ही एक छोटा-सा कारखाना निर्मित किया। उनका मानना था कि इससे बेरोज़गार युवकों को मदद मिलेगी। इसके लिए उन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ा। वे हर दिन कॉलेज से शाम तक लौटते, फिर कारखाने के काम में लग जाते। यह सुनिश्चित करते कि पहले के आर्डर पूरे हुए कि नहीं। डॉ. राय को इस कार्य में थकान के बावजूद आनंद आता था। उन्होंने एक लघु उद्योग के रूप में देसी सामग्री की मदद से औषधियों का निर्माण शुरू किया। बाद में इसने एक बड़े कारखाने का स्वरूप ग्रहण किया जो आज "बंगाल केमिकल्स ऐण्ड फार्मास्यूटिकल वर्क्स" के नाम से सुप्रसिद्ध है। उनके द्वारा स्थापित स्वदेसी उद्योगों में सौदेपुर में गंधक से तेजाब बनाने का कारखाना, कलकत्ता पॉटरी वर्क्स, बंगाल एनामेल वर्क्स, तथा स्टीम नेविगेशन, प्रमुख हैं।

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

मुंशी प्रेमचंद

जिहाद , नमक का दरोगा, पंच परमेश्वर, पूस की रात, ईदगाह आदि हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कालजयी कहानियां है - जिनके लेखक थे मुंशी प्रेमचंद । 

आज की युवा पीढ़ी को ये कहानियां अवश्य पढ़नी चाहिए जो आज भी सामयिक हैं ।
सन् 1929 में अंग्रेजी सरकार ने प्रेमचंद की लोकप्रियता के चलते उन्हें 'रायसाहब' की उपाधि देने का निश्चय किया।

तत्कालीन गवर्नर सर हेली ने प्रेमचंद को खबर भिजवाई कि सरकार उन्हें रायसाहब की उपाधि से नवाजना चाहती है। उन दिनों रायसाहब को सरकार की तरफ से घोड़ा गाड़ी कोचवान बंगला अर्दली और मासिक रुपये दिए जाते थे ।  प्रेमचंद ने इस संदेश को पाकर कोई खास प्रसन्नता व्यक्त नहीं की, हालांकि उनकी पत्नी बड़ी खुश हुईं और उन्होंने पूछा, उपाधि के साथ कुछ और भी देंगे या नहीं? प्रेमचंद बोले, 'हां!

कुछ और भी देंगे।' पत्नी का इशारा धनराशि आदि से था। प्रेमचंद का उत्तर सुनकर पत्नी ने कहा, तो फिर सोच क्या रहे हैं? आप फौरन गवर्नर साहब को हां कहलवा दीजिए।

प्रेमचंद पत्नी का विरोध करते हुए बोले, मैं यह उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।

कारण यह है कि अभी मैंने जितना लिखा है, वह जनता के लिए लिखा है, किंतु रायसाहब बनने के बाद मुझे सरकार के लिए लिखना पड़ेगा। यह गुलामी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसके बाद प्रेमचंद ने गवर्नर को उत्तर भेजते हुए लिखा, "मैं जनता की रायसाहबी ले सकता हूं, किंतु सरकार की नहीं।" प्रेमचंद के उत्तर से गवर्नर हेली आश्चर्य में पड़ गए।

(आज तो सरकारी सुख सुविधा लेने के लिए लेखकों पत्रकारों की लंबी फेहरिस्त है )

प्रेमचंद दलित नही थे मगर उन्होंने दलितों के लिए , उनकी समस्याओं पर जितना ज्यादा लिखा उतना आज तक कोई नही लिख सका । 
प्रेमचन्द के कहानी साहित्य में राष्ट्रीयता का स्वर सबसे ज्यादा मुखर है। उस युग के स्वतंत्रता आंदोलन ने ही प्रेमचन्द जैसे संवेदनशील लेखकों में राष्ट्रीयता जैसा प्रबल भाव डाला था।
 प्रेमचन्द गाँधी जी से बहुत प्रभावित हुए थे और राष्ट्रीयता के क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मानकर चले थे। गाँधी जी के आवहान पर सरकारी नौकरी छोङने वाले प्रेमचंद जी की कहानियोँ में समाज के सभी वर्गों का चित्रण बहुत ही सहज और स्वाभाविक ढंग से देखने को मिलता है।माँ, अनमन, दालान (मानसरोवर-१) कुत्सा, डामुल का कैदी (मानसरोवर-२) माता का हृदय, धिक्कार, लैला (मानसरोवर-३) सती (मानसरोवर-५) जेल, पत्नी से पति, शराब की दुकान जलूस, होली का उपहार कफन, समर यात्रा सुहाग की साड़ी (मानसरोवर-७) तथा आहुति इत्यादि वे कहानियाँ हैं जिनमें राष्ट्रीयता के विष्य को प्रमुखता से डाला गया है।इन कहानियों ने प्रेमचन्द ने एक इतिहासकार की भांति राष्ट्रीय आंदोलन के चित्र खींचे हैं।  उन्होंने विश्वास जैसी कहानी के माध्यम से गाँधी जी के आदर्शों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया।

प्रेमचन्द के मानस में भारतीय संस्कार अपेक्षाकृत अधिक प्रबल थे। विदेशी सभ्यता, संस्कृति आचरण एवं शिक्षा के प्रति उनकी आस्था दुर्बल थी।प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंडों को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। 

व्यक्तिगत जीवन में भी मुंशी प्रेमचंद जी सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन यापन करते थे, दिखावटी तामझाम से दूर रहते थे। एक बार किसी ने प्रेमचंद जी से पूछा कि – “आप कैसे कागज और कैसे पैन से लिखते हैं ?”

मुंशी जी, सुनकर पहले तो जोरदार ठहाका लगाये फिर बोले – “ऐसे कागज पर जनाब, जिसपर पहले से कुछ न लिखा हो यानि कोरा हो और ऐसे पैन से , जिसका निब न टूटा हो।‘

थोङा गम्भीर होते हुए बोले – “भाई जान ! ये सब चोंचले हम जैसे कलम के मजदूरों के लिये नही है।“

मुशी प्रेमचंद जी के लिये कहा जाता है कि वो जिस निब से लिखते थे, बीच बीच में उसी से दाँत भी खोद लेते थे। जिस कारण कई बार उनके होंठ स्याही से रंगे दिखाई देते थे।

प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से एक हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।


महान लेखक प्रेमचंद के जन्मदिवस पर उनको सादर  नमन 
🙏🙏🙏

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शनिवार, 29 जुलाई 2023

माँ तारा


माँ तारा 

बौद्ध धर्म मे देवी तारा अत्यंत प्रमुख शक्ति हैं । जिन्हें बोधिसत्व का स्त्री रूप माना जाता है । इन्हें अनेक बौद्ध देशों में बुद्ध की पत्नी के रूप में पूजा जाता है । सनातन धर्म मे तारा देवी को दुर्गा का एक रूप माना गया है । 

ध्यायेत् कोटि-दिवाकरद्युति-निभां बालेन्दुयुक्छेखरां
रक्ताङ्गीं रसनां सुरक्त वसनां पूर्णेन्दुबिम्बाननां।
पाशं कर्तृ-महाङ्कुशादि-दधतीं दोर्भिश्चतुर्भिर्युतां
नानाभूषण-भूषितां भगवतीं तारां जगत्तारिणीं॥

माँ काली नील रूप में भगवती तारा बनी , हयग्रीव का वध करने पर इन्हें नील विग्रह प्राप्त हुआ । इन्हें नील सरस्वती भी कहा जाता है ।
तारा एक बोधिसत्व हैं । 
देवी तारा तिब्बत, मंगोलिया , नेपाल , भूटान , सिक्किम में बहुत लोकप्रिय है और बौद्ध समुदायों में उनकी पूजा की जाती है।  चीनी बौद्ध धर्म में देवी तारा को अवलोकितेश्वर की अर्धांगिनी के रूप में पूजा जाता है । बौद्ध धर्म मे माँ तारा स्त्री सिद्धांत के कई गुणों का प्रतीक है। उन्हें दया और करुणा की माता के रूप में जाना जाता है। वह ब्रह्मांड के स्त्री पहलू का स्त्रोत है, जो चक्रीय अस्तित्व में सामान्य प्राणियों द्वारा अनुभव किए गए बुरे कर्म से मुक्ति , करुणा और राहत को जन्म देता है। वह सृजन की जीवन शक्ति को जन्म देती हैं, पोषण करती हैं, मुस्कुराती हैं , और सभी प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखती हैं जैसे एक माँ अपने बच्चों के लिए करती हैं। बौद्ध धर्म मे मान्यता है कि हरी तारा के रूप में वह संसार के भीतर आने वाली सभी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों से सहायता और सुरक्षा प्रदान करती हैं। श्वेत तारा के रूप में वह मातृ करुणा व्यक्त करती हैं और मानसिक या मानसिक रूप से आहत या घायल प्राणियों को उपचार प्रदान करती हैं। लाल तारा के रूप में वह सृजित घटनाओं के बारे में विवेकपूर्ण जागरूकता सिखाती हैं, कि अधूरी इच्छा को करुणा और प्रेम में कैसे बदलना है।
मंत्र
॥ॐ तारायै विद्महे महोग्रायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥

यह तारा गायत्री मन्त्र है, इसका भाव है- “हम भगवती तारा को जानते हैं और उन महान् उग्र स्वरूप वाली देवी का ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमारी चित्तवृत्ति को अपने ही ध्यान में, अपनी ही लीला में लगाये रखें।”
इनका एक तिब्बती मंत्र बहुत शक्तिशाली है 
ॐ तारा तू तारा तुरे सोहम 
अर्थात ओम माँ तारा , आप तारने वाली है , मां तारा (आपको प्रणाम व आपके लिए) स्वाहा 

https://youtu.be/ayGQoJdRcdQ


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बुधवार, 19 जुलाई 2023

क्रांतिकारी वीर हलधर बाजपेई


क्रांतिकारी वीर योद्धा पंडित हलधर बाजपेई
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हलधर बाजपेई चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह के साथी व हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सक्रिय सदस्य थे |
कानपुर देहरादून षड्यंत्र केस के संदर्भ में 12 अगस्त 1932 की रात कानपुर में पुलिस ने शहर में लगभग 30 - 32 घरों में एक साथ छापा मारा उसमें से परमट , कुरसवां और कछियाना मोहाल प्रमुख थे | कानपुर इलेक्ट्रिसिटी दफ्तर मे काम करने वाला युवक हलधर फूलबाग के सामने कुरसवां की सकरी गली में बड़ी तेजी से घुसा और अपने मकान में ऊपर के कमरे में पहुंचकर पिस्तौल छोटे-मोटे घातक औजार व क्रांतिकारी साहित्य को इकट्ठा करके हटाने की योजना बना ही रहा था की पुलिस पार्टी मकान में दाखिल हुई | पुलिस पार्टी को जीने का दरवाजा खुला मिला तो वह  धड़धड़ाते हुए हुए ऊपर चढ़ने लगी | हलधर बाजपेई छत पर अपने कमरे में सामान इकट्ठा कर ही रहे थे कि उन्होंने सीढ़ियों पर पुलिस पार्टी के आमद की आहट से सशंकित हो उठे थे और  जीने से छत पर आने वाला दरवाजा को तुरन्त बंद किया और पिस्तौल व गोलियां लेकर ऊपर चढ़ गए पुलिस ने दरवाजा तोड़ा तो हलधर बाजपेई पिस्तौल ताने दरवाजे पर ताक लगाए वीरासन मुद्रा में बैठे दिखे जरा सा भी दरवाजा खुलता तो हलधर बाजपेई तुरंत पिस्तौल दाग देते और दरवाजा बंद हो जाता | पुलिस की भी बंदूके  गरज उठती  वहां निशाना साधने को ताब कहां थी ? रात भर हलधर बाजपेई जी और पुलिस दोनों तरफ से गोलियां चलती है छत वाले कमरे की एक दीवार का एक भाग और दरवाजे के ऊपर अगल-बगल की दीवाले गोली चलने से छलनी हो गई |  इस बीच पुलिस ने आंगन का दरवाजा भी खोल डाला और आंगन से भी गोलियां चलाने लगी पुलिस की टुकड़ी से घर के आस-पास  गोलियों के चलने से वातावरण गूंज उठा | उधर हलधर की पत्नी भी मौका देख अपने पति के कमरे में दाखिल होकर मोर्चे पर आ डर्टी वह पिस्तौल भर भरकर हलधर को देती जाती और  हलधर दोनों तरफ ताक लगाए रहते जैसे ही किसी को झांकते देखते या फिर सिर देखते तो फायर ठोक देते | रात के सन्नाटे मे  हलधर और पुलिस वालों की आवाज भी रह रहकर सुनाई देती ? कोई छत पर मत आना ,सब लोग घरों के अंदर रहे " सवेरा होते होते पुलिस टीम बढ़ती  चली गई | पुलिस वाले कहीं से हलधर बाजपेई के पिता मुरलीधर बाजपेई जी को पकड़ लाए और पुलिस का दरोगा असगर अली मुरलीधर जी को आगे करके आंगन में निकल आया और हलघर बाजपेई पर गोलियां चलाने लगा | लेकिन हां जरा सा मौका मिला तो हलधर ने ऐसा निशाना साधा की गोली सीधे असगर अली के पेट में जा लगी और वह पेट पकड़कर वही लेट गया |  सुबह हुई पुलिस कप्तान  मार्श स्मिथ भी हलधर के पिता मुरलीधर जी की ओट लेकर आंगन में आ गया हलधर ने फिर गोली चलाई जो मार्स स्मिथ के कंधे पर जा लगी  | हलधर के पिता ने अपील की कि बेटा-  अब बहुत हो चुका तुम्हें अब गिरफ्तार होना ही पड़ेगा |  इसके बाद पिता के कहने पर  हलधर बाजपेई ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया | लेकिन हलधर बाजपेई हंस रहे थे और मार्स स्मिथ भी हलधर की वीरता और साहस को देखकर दंग था | पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जिसमें उन्हें 6 वर्ष की कड़ी कैद की सजा दी गई |

1950 में आसाम में भूकंप पीड़ितों की सहायता करते हुए मुंबई कांग्रेस के जत्थे के साथ गए जहां पर 18 अक्टूबर 1950 को मलवा साफ करने के दौरान अचानक एक दीवार गिरने से भारत माता का यह सपूत हलधर बाजपेई समाज सेवा करते करते शहीद हो गया |

           ( ✍️ अनूप कुमार शुक्ल
 महासचिव कानपुर इतिहास समिति कानपुर)

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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

रमा खंडवाला:


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रमा खंडवाला: 

सिर्फ एक टूर गाइड नहीं, वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज में सेकंड लेफ्टिनेंट भी थी
अगर अपने शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा अभिनीत "जब हैरी मेट सेजल" देखी होगी तो उसमें एक टूर गाइड की भूमिका में एक वृद्धा को एक छोटे से,  मगर यादगार रोल में भी देखा होगा. 

यह 94-वर्षीय रमा खंडवाला हैं।  वह मुंबई की  नियमित टूरिस्ट गाइड रही हैं. यह काम उन्होंने अब से लगभग पचास वर्ष पूर्व नेताजी सुभास चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज से क्रियाशीलता खत्म होने के बाद आजीविका के लिए करना शुरू किया था. क्योकि सरकार द्वारा आजाद हिंद फौज के सैनिकों को युद्ध अपराधी मानते हुए पेंशन नही दी गयी । वह १७-वर्ष की आयु में नेताजी की सेना की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन में एक सिपाही के रूप में भर्ती हुई थीं और अपनी निष्ठा, समर्पण और जूनून से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद तक जा पहुंची. 
अभी मुंबई के गिरगांव क्षेत्र में अपने एक कमरे के छोटे से फ्लैट में रहने वाली रमा का जन्म रंगून के एक सम्पन्न मेहता परिवार में हुआ था. रमा को इस भर्ती के लिए किसी और ने नहीं उसकी अपनी माँ ने प्रेरित किया था जो स्वयं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन की भर्ती इंचार्ज थी। उनका मानना था कि अंग्रेजों को भारत  से भगाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस से बेहतर कोई विकल्प नहीं था.

रमा का नेताजी से पहला सामना अचानक तब हुआ जब वह प्रशिक्षण केंद्र के इलाके की देखरेख करते हुए एक खाई  में गिरकर घायल हो गई. यहाँ शत्रु पक्ष की सेना ने भयंकर गोलाबारी की थी. आनन-फानन में उसे अस्पताल ले जाया गया. वहां घायलो को देखने सुभाष चंद्र बोस आये थे . वह यह देखकर विस्मित हो गए कि एक कम उम्र की लड़की जिसके पैरों से कई जगह से लगातार खून बह रहा था, वह सामान्य रूप से अपनी मरहम-पट्टी कराए जाने का इंतजार कर रही थी. उसकी आंखों में कोई आँसू  नहीं थे. उन्होंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 
“यह  तो एक शुरुआत भर है. ..एक छोटी-सी दुर्घटना थी. अभी बहुत बड़ी लड़ाइयों के लिए कमर कसनी है. देश की आजादी के जूनून में रहना है तो हिम्मत बनाये रखो. तुम जैसी लड़कियों के जूनून से ही हम,हमारा भारत देश आजाद हो कर रहेगा.”

रमा की आँखों में हिम्मत और ख़ुशी के आँसू निकल आए. वह जल्दी ही स्वस्थ होकर फिर से अपनी बटालियन के कामों में जुट गई. उसने जल्दी ही निशानेबाजी, घुड़सवारी और सैन्य बल में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने वाले सब गुणों को सीख लिया था. उसका जूनून उसे किसी काम में आगे बढ़ने के लिए मदद करता. उसकी लगन के कारण ही रमा को जल्दी ही सिपाही से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया. 

रमा का कहना है कि अभी भी जब वह किसी असहज स्थिति में फंस जाती है तो नेताजी के शब्द “आगे बढ़!” उसके कानों में इस तरह से गूँज जाते हैं कि वह अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाती है. 

रमा बताती हैं कि, 

“युवा अवस्था में जीवन के वैभव और सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर संघर्ष का पथ चुनना बहुत कठिन फैसला होता है. मैं भी आरंभिक दिनों में इतनी परेशान रहती थी कि अकेले में दहाड़ मार कर रोया करती. पर धीरे-धीरे समझ में आ गया. फिर, जब नेताजी से स्वयं मुलाकात हुई तो उसके बाद तो फिर कभी पीछे मुड़कर देखा ही नहीं. आरम्भिक दो महीनों मुझे जमीन पर सोना पड़ा. सादा भोजन मिलता था और अनथक काम वो भी बिना किसी आराम के करना बहुत कष्टकर था. मैंने मित्र भी बना लिए थे. जब बड़े उद्देश्य के विषय में समझ आया तो कुछ भी असहज नहीं रहा.”

रमा की तैनाती एक नर्स के रूप में हुई जिस जिम्मेदारी को भी उसने बखूबी निभाया.  उसके लिए अनुशासन, समय का महत्त्व, काम के प्रति निष्ठा और जूनून-- बस इन्हीं शब्दों की जगह रह गई थी. पहले उसे प्लाटून कमांडर बनाया गया और फिर सेकंड लेफ्टिनेंट. 
जब आजाद हिन्द फ़ौज को ब्रिटिश सेना ने कब्जे में ले लिया तो रमा भी गिरफ्तार हुई. उसे बर्मा में ही नजरबंद कर दिया गया. सौभाग्य से जल्दी ही देश आजाद हो गया. तब वह मुंबई चली आई. उसका विवाह हो गया था. आजीविका के लिए पति का साथ देने का निश्चय किया. पहले एक निजी कंपनी में सेक्रेटरी का काम किया, फिर टूर गाइड बनी. 

तब से अब तक वह सैलानियों को पर्यटन के रास्ते दिखाती रही है और तमाम किस्से सुनाया करती है. एक बार सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उन्हें राजनीतिक धारा में भाग लेने का आमन्त्रण भी दिया था, पर तब वह हवाई दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु के समाचार से इतनी विचलित हो गई थी कि उसने राजनीति से दूर रहना ही उचित समझा. 

बमुश्किल दो साल पहले ही उसने टूर गाइड के काम को विदा कहा है, पर अभी भी वह पूरी तरह स्वस्थ और मजाकिया है. कहती हैं, 

“उम्र के कारण नहीं छोड़ा,  इसलिए छोड़ा है कि नई पीढी के लोगों को रास्ते मिलें. मेरी पारी तो खत्म हुई.”

उनके एक बेटी है. पति की मृत्यु सन १९८२ में हो गई थी. सन २०१७ में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उनको बेस्ट टूरिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया था. उनके जीवन पर एक वृत्त फिल्म भी बनी है, और एक किताब ‘जय हिन्द’ भी प्रकाशित हुई है. 

सादर शत शत नमन आपको 🙏🙏🙏

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indian history in hindi, भारतीय इतिहास , rama khandwala , freedom fighter

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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक


लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

कई क्रांतिकारियों ने पत्रकारिता के माध्यम से स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वाधीनता के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने का कार्य किया। जिनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक प्रमुख व्यक्ति थे।

यह तिलक ही थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष को ‘स्वराज्य’ का नारा देकर जन-जन से जोड़ दिया। उनके ‘स्वराज्य’ के नारे को ही आधार बनाकर वर्षों बाद महात्मा गाँधी ने स्वदेशी आंदोलन का आगाज़ किया था। 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में जन्में बाल गंगाधर तिलक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। वे उस दौर की पहली पीढ़ी थे, जिन्होंने कॉलेज में जाकर आधुनिक शिक्षा की पढ़ाई की।

वे भारतीयों को एकत्र कर, उन्हें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़ा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नारा दिया,

“स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा।”
उनका यह नारा धीरे-धीरे लगभग पूरे भारत की सोच बन गया। तिलक की क्रांति में उनके द्वारा शुरू किये गये समाचार-पत्रों का भी ख़ास योगदान रहा। उन्होंने दो समाचार पत्र, ‘मराठा‘ एवं ‘केसरी‘ की शुरुआत की। इन पत्रों को छापने के लिए एक प्रेस खरीदा गया, जिसका नाम ‘आर्य भूषण प्रेस‘ रखा गया। साल 1881 में ‘केसरी’ अख़बार का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इन अख़बारों में तिलक के लेख ब्रिटिश शासन की क्रूर नीतियों और अत्याचारों का खुलकर विरोध करते थे।धीरे-धीरे वे आम जनता की आवाज़ बन गये और इसकी वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ‘मराठा’ और ‘केसरी’ की प्रतियाँ भी वे खुद घर-घर जाकर बांटते। उन्होंने कभी भी अपने अख़बारों को पैसा कमाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया। उनके समाचार पत्रों में विदेशी-बहिष्कार, स्वदेशी का उपयोग, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आधार बनाया गया। अपने इन्हीं स्पष्ट और विद्रोही लेखों के कारण वे कई बार जेल भी गये। इसके बावजूद, तिलक पत्रकारिता के लिए पूर्णतः समर्पित थे और हमेशा अपने विचारों और उसूलों पर अडिग रहे।अपने इसी निडर और दृढ़ व्यक्तित्व के कारण उन्हें आम लोगों से ‘लोकमान्य’ की उपाधि मिली। इतना ही नहीं, उनके लेख युवा क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें। उनका लेखन एवं मार्गदर्शन क्रांतिकारियों को ऊर्जा प्रदान करता था। इसलिए अंग्रेज़ी सरकार हमेशा ही तिलक और उनके अख़बारों से परेशान रहती थी। मांडले (म्यांमार) की जेल में उन्होंने ' गीता रहस्य' पुस्तक लिखी । जो कि हिन्दू धर्म और दर्शन का महान ग्रंथ है । 

जहाँ एक तरफ वे अंग्रेज़ों के लिए “भारतीय अशान्ति के जनक” थे, तो दूसरी तरफ़ लोग उन्हें अपना ‘नायक’ मान चुके थे। पर भारत का यह ‘लोकमान्य नायक’ स्वाधीनता का सूर्योदय होने से पहले ही दुनिया को अलविदा कह गया। 1 अगस्त 1920 को तिलक का निधन हुआ।

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भारतीय इतिहास में नक्शो का फर्जीवाड़ा

इतिहास की किताबों में नक्शो का फर्जीवाड़ा 

इतिहास की किताबों में सुल्तानों बादशाहों के राज्य के नक्शे दिखाए जाते हैं । जिससे पता चलता है कि उनके राज्य की सीमा कितनी थी , कितने भू भाग में उनका शासन था ।

लेकिन हमारे देश के इतिहासकार इसमें भी फर्जीवाड़ा करने से बाज नही आये । भाटों और चाटुकारों की तरह उन्होंने ऐसे नक्शे बनवाये जिसमे सुल्तानों का साम्राज्य बड़ा विशाल दिखाई दे । जबकि सत्यता कुछ और ही है। 
दो उदाहरण काफी है इस कपट को समझने के लिए l उत्तराखंड या गढ़वाल राज्य जिसे पुराणों में केदारखंड या हिमावत कहा गया है , अतिप्राचीन काल से सन 1816 तक हिन्दू राजाओं के आधिपत्य में रहा । यहां सन 822 से 1803 तक (1000 वर्ष तक लगातार ) पाल वंशीय क्षत्रियों का राज्य था और 1803 से गोरखों का राज्य हुआ । 1816 की एक संधि में यह राज्य अंग्रेजो के पास चला गया ।
सन 1200 से 1700 तक गढ़वाल राज्य पर अनेकानेक मु"स्लिम आक्रमण हुए । प्रत्येक बार आक्रमणकारियों की पराजय हुई । रानी कर्णावती को नाक काटने वाली रानी की संज्ञा दी जाती है । यह राज्य हमेशा स्वतंत्र रहा । फिर भी इतिहास लेखन फर्जीवाड़े के तहत इस क्षेत्र को नक्शों में खिलजी साम्राज्य और मुगल साम्राज्य का भू भाग दिखाया जाता है । 
गढ़वाल की तरह अन्य राज्य भी ऐसे थे जिनको भी इतिहासकारों ने इसी तरह नक्शो में जबरन घुसा दिया । 
इसी तरह तुगलक साम्राज्य का नक्शा देखे । जिसमे पूरे राजस्थान को साम्राज्य का हिस्सा दिखाया गया है । एक बार मोहम्मद बिन तुगलक ने राजस्थान पर आक्रमण करने की जुर्रत की थी । मगर मेवाड़ के राणा हम्मीर सिंह ने न केवल उसे पराजित किया बल्कि मेवाड़ की जेल में महान तुगलक सुल्तान को तीन महीने कैद कर के रखा । फिर राणा साहब ने दरियादिली दिखाते हुए जुर्माना ले कर सुल्तान को छोड़ दिया । फिर भी कपटी इतिहासकारो ने नक्शे में पूरे  राजस्थान को तुगलक साम्राज्य का हिस्सा दिखा दिया । 
बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि इन नक्शो में दिखाए गए तथाकथित विशाल साम्राज्य के दर्शाए गए क्षेत्र वास्तविकता में आधे भी इनके अधीन शासन में नहीं थे । 
हालांकि कुछ इतिहासकारों की पुस्तकों में सही नक्शे मिलते है , लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है । 
इतिहास के नक्शों का फर्जीवाड़ा हमारे बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में भी है और प्रतियोगिता परीक्षाओं की किताबो में भी हैं ।

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बुधवार, 5 जुलाई 2023

उद्योगपति और सरकार

पहले टाटा-बिरलाकरण होता था , अब अम्बानीअदाणीकरण हो रहा है !!!

चुनाव लड़ने के लिए पार्टी फण्ड में पैसा गरीब मजदूर किसान नही देता है , न ही हम और आप देते है । बड़े व्यापारी उद्योगपति ही पार्टियों को करोड़ों रुपये का फंड देते है ।

उद्योगपति फ्री में पैसा नही देता है, मुफ्त दान नही करता है । वह निवेश करता है , और चुनाव के बाद अपने निवेश की फसल काटता है । देश मे यह सिस्टम 1952 से लागू है । राजनीतिक पार्टी का आका बन कर उद्योगपति अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है , अपने फायदे के नियम और नीतियां बनवाता है, टैक्स सिस्टम बनवाता है , सरकारी कम्पनियों को खरीदता है और फिर अपने बिज़नेस में प्रॉफिट बढ़ाता है । 
नेहरू इंदिरा गांधी के समय टाटा बिरला उद्योग जगत में छा गए थे । राजीव गांधी के समय बजाज छा गए ।  क्वात्रोचि ने खूब मलाई काटी । मनमोहन सिंह के समय देश का विजय माल्याकरण हुआ , उनको कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा । कार्तिक चिदंबरम , दामाद जी आदि ने जम के पैसा लूटा । 
पार्टी फण्ड में करोड़ों रुपये ले कर केजरीवाल ने बिज़नेसमैन नारायण गुप्ता , सुशील गुप्ता को राज्यसभा में भेजा , अब ये भी अपने बिजनेस में प्रॉफिट की फसल काटेंगे । 

समाजवादी पार्टी के फिनांसर सहारा ग्रुप के सुब्रतराय , ममता बनर्जी की पार्टी के फिनांसर शारदा ग्रुप के बारे में आपको पता ही है । केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के फिनांसर सोने की स्मगलिंग में शामिल है । 

दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के लोकतंत्र की  यही परंपरा रही है  😥😥😥😥 इसी व्यवस्था से राजनीतिक पार्टियों को फंड मिलता है । अम्बानी अडानी मोदी बीजेपी को कोसने से कुछ नही होगा , पूरी राजनीतिक वित्तीय व्यवस्था ही ऐसी बनी हुई है ।

इससे नुकसान यही है कि देश की अधिकांश पूंजी मात्र कुछ व्यापारियों के हाथ मे इकट्ठा हो जाती है , गरीब जनता और गरीब होती जाती है । देश की नीतियां गरीब मजदूर किसान के हित में नही बल्कि फण्ड देने वाले आका व्यापारी के हित में बनती है । अमीर उद्योगपति और ज्यादा अमीर होता चला जाता है , देश मे आर्थिक असमानता की खाई बढ़ती जाती है। 

इसका एक हल यह है कि चुनाव के समय प्रचार का पूरा खर्च सरकार खुद उठाये (स्टेट फंडिंग) जिससे नेताओ को उद्योगपतियों से पैसे न लेने पड़े । लेकिन इसकी भी हानियां हैं ।

और भी कई समाधान हो सकते हैं , जिसे आपलोग कमेंट में बताएं ।

DrAshok Kumar Tiwari 🙏
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छत्रपति शिवाजी

शिवाजी महाराज ने भारत की प्राचीन राज्यव्यवस्था का और राजधर्म का बड़ी गहराई से अवलोकन किया था । उन्होंने अपने यौवन का सदुपयोग जहां बड़ी बड़ी जीतों को प्राप्त करने में किया , वहीं उन्होंने भारतीय राजधर्म की शिक्षा लेने के लिए भी अपना मूल्यवान समय लगाया । यही कारण रहा कि वह भारत के राजधर्म की गहराई को समझ गए थे। शिवाजी ने अपने समकालीन शासकों को देखा था कि उनका शासन पूर्णतया अनुत्तरदायी था और वे निरंकुशता में विश्वास रखते थे। स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश होकर ये शासक अपनी प्रजा पर शासन करते थे , जबकि शिवाजी एक पूर्ण उत्तरदायी शासन की व्यवस्था देने के पक्षधर थे।
एक जनहितकारी शासक और शासन के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें मर्यादा , जनता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध हर पग पर होता है । शिवाजी इसी प्रकार के शासन के पक्षधर थे। यही कारण है कि उनके साम्राज्य में शासन की नीतियों में प्रजावत्सलता , अनुशासन, मर्यादा और उत्तरदायित्व का बोध स्पष्टत: झलकता था । शिवाजी महाराज की प्रबंधन नीतियाँ आधुनिक काल की निगम-नीतियों से कई गुणा अधिक परिपूर्ण थीं ,क्योंकि वह लोगों के लिए हितकारी होने के साथ-साथ बहुत ही व्यवहारिक एवं पारदर्शी भी थीं ।

आधुनिक प्रबंधन की परिभाषा में कुशल नेतृत्व वह है जो जनता को सारे मौलिक अधिकारों को प्रदान करे , और उसके कल्याण के लिए अच्छी से अच्छी योजनाएं लागू करने में विश्वास रखता हो । साथ ही सामाजिक ,आर्थिक , एवं राजनीतिक न्याय प्रदान करते समय जनता के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव न करता हो । ऐसे शासक की दृष्टि और दृष्टिकोण में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं होती । वह विशालहृदयता के साथ और उदारमना होकर अपने लोगों के कल्याण में रत रहता है । 

नेतृत्व केवल सपने ही नहीं देखता है ,अपितु सपनों को साकार रूप देकर उन्हें यथार्थ के धरातल पर लागू भी करता है और जब वह सपने सही अर्थों , संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में लागू हो जाते हैं या व्यावहारिक स्वरूप ले लेते हैं , तभी किसी शासक के नेतृत्व और उसके प्रबंधन के गुणों की सही परख हो पाती है । इस प्रकार नेतृत्व और प्रबंधन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । नेतृत्व के लिए आवश्यक है कि उसकी नीतियों में उसकी प्रजा के लोग स्वाभाविक रूप से न केवल रुचि रखते हों , अपितु उसे अपना समर्थन भी व्यक्त करते हों । साथ ही प्रबंधन की उसकी नीतियों को स्वीकार करते हुए उसके पूरे तंत्र के साथ स्वाभाविक रूप से अपना समर्थन व्यक्त करते हों और उसके साथ समन्वय स्थापित कर उसी दिशा में जोर लगाते हों ,जिस दिशा में प्रबंधन तंत्र स्वयं बल लगा रहा हो । जब ऐसी स्थिति किसी राज्य में स्थापित हो जाती है तो तब समझना चाहिए कि राजा और प्रजा के बीच बहुत ही सुंदर समन्वय है । शिवाजी के समकालीन शासक अर्थात मुगल लोग अपने प्रजाजनों के साथ ऐसा संबंध में कभी भी स्थापित नहीं कर पाए । यही कारण रहा कि उनके विरुद्ध जनांदोलन होते रहे और विद्रोह की स्थिति में रहने वाले प्रजाजन सदैव ही अशांत और असंतुष्ट रहे । शिवाजी ने ऐसा अवसर अपने लोगों को नहीं दिया और यही उनकी महानता का एक बड़ा कारण था ।

शिवाजी महाराज ने देशहित में और भारतीय संस्कृति की रक्षार्थ जिस राज्य की नींव रखी , वह अधिक देर तक इसीलिए स्थापित रहा कि उसकी स्थापना करने में शिवाजी जनहित को साधना था । वह चाहते थे कि भारत में वास्तविक जनतंत्र की स्थापना हो और राजा अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्यभाव से भरा हो । विद्वानों का निष्कर्ष है कि शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की पक्की नींव सामरिक, नैतिक तथा शिष्ट व्यावहारिक परंपराओं पर रखी । जहाँ मुग़ल एवं क्षेत्रीय सल्तनतों के लगातार के आक्रमणों से थककर या डरकर कोई और राजा अपनी पराजय स्वीकार कर लेता वहीँ शिवाजी महाराज वीरता और आक्रमकता से डटकर उनका सामना करते रहे । युद्ध के समय में नियोजन कुशलता, किसी भी व्यक्ति की सही परख, समय का सम्मान और अनुशासन जैसे गुण उनके कुशल नेतृत्व के साक्षी हैं । इसी नेतृत्व में मुट्ठी भर सैनिक हजारों की सेना से लड़ते हुए विजयश्री प्राप्त कर लेते थे । एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण करने का उनका सपना और दृढ़ संकल्प ही वास्तव में उनकी सफलता का आधार था । उनके अनुयायियों में उनके लिए प्रगाढ़ श्रद्धा, सम्मान और निष्ठा का कारण उनका महान नेतृत्व कौशल तथा उच्च नैतिक चरित्र है । आज भी शिवाजी महाराज को एक न्यायसंगत एवं कल्याणकारी राजा और नायक के रूप में ही स्मरण किया जाता है ।

indian history in hindi, भारतीय इतिहास

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शिक्षक परामर्शदाता

 क्या एक शिक्षक परामर्शदाता भी हो सकता है?


स्कूल और कॉलेज में आपके बीते दिनों को याद करें और अपने प्रिय शिक्षक के बारे में सोचें।  उनको किस बात ने इतना विशेष बनाया ? कुछ ऐसे है जिन्हे आप उनके आकर्षक तरीके से अध्ययन कराने के तरीके के कारण याद करते हैं, पर कुछ ऐसे भी है जो छात्रों के प्रति सहयोगी व्यवहार और सहानुभूति भाव दिखाते हैं और इस कारण आप उन्हे सानुराग याद करते हैं ।  एक श्रेष्ठ शिक्षक अक्सर दोनों का मिश्रण होता है।


जैसा कि हम सभी को मालूम है कि छात्र अपने वयस्क होने की उम्र का आधा समय स्कूल व कॉलेज में बिताते हैं, छात्रों के व्यक्तित्व को आकार देने में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  स्कूल के परामर्शदाता अनेक मुद्दे सुलझाने के लिए प्रशिक्षित होते हैं जैसे कि टूटे-रिश्ते, माँ-बाप के साथ तनावपूर्ण संबंध, आत्म-सम्मान और देह-छवि समस्याएं, व्यसन और आत्महत्या के विचार या सम्भावित पेशा मार्ग, एक शिक्षक जो छात्रों के साथ लगातार संपर्क में रहता है, छात्रों के साथ बात-चीत भी शुरु कर सकता है और उन्हे अपनी समस्याओं को बताने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। यह परामर्शदाता की भूमिका को शैक्षणिक ढाँचे में अनिवार्य बनाता है, और छात्रों के लिए परिसर में सहायता पहुंचाने हेतु शिक्षक एक प्राथमिक स्रोत बन सकता है।


केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) भारत ने इस बात की सिफारिश की है कि विद्यालय परिसर में एक पूर्णकालिक परामर्शदाता को नियुक्त किया जाए, लेकिन यह ज्यादातर कार्यान्वित नहीं हुआ है।  कभी-कभी यह स्कूल-व्यवस्था की अनिच्छा, और अक्सर प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की अनुपलब्धता होने का परिणाम है।  दूसरी चुनौती है कि जब छात्र अपने आप को परेशान स्थितियों में पाता है तो स्कूल के परामर्शदाता से मिलने मे हिचकता है।  इस अंतर को भरने में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। एक शिक्षक जिसपर विश्वास किया जा सके और जो सहानुभूति रखता हो, छात्रों को सहायता पहुंचा सकता है और जब जरूरत हो स्कूल के परामर्शदाता की ओर मार्गदर्शित कर सकता है।  यद्यपि, ऐसा करने के लिए हर शिक्षक के पास एक जैसे गुण नहीं होते।


इस भूमिका को कौन निभा सकता है?


छात्रों के लिए यह आसान नहीं कि वे शिक्षक से अपनी सारी समस्याएं बता दें।  यह शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे उदार-चित्त और सहायता करने के लिए इच्छुक हों।  यदि एक शिक्षक हमराज़ होना चाहता है तो छात्रों के मन में उसके प्रति विश्वास होना आवश्यक है। 


ऐसे कुछ गुण जो छात्रों को शिक्षक से बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं:


दृष्टिकोण में निष्पक्षतावाद: एक शिक्षक द्वरा छात्र को व्यक्तित्व या शैक्षिक रिकार्ड के आधार पर, किसी वैयक्तिक पक्षपात रहित निष्पक्षतावाद के ढंग से देखना चाहिए।पुराने लोग: एक पुराना व्यक्ति जो संस्था के साथ लम्बे समय से जुड़ा है, वातावरण और छात्रों को जानता है, भी परामर्शदाता की भूमिका के लिए एक आदर्श उम्मीदवार है।  एक शिक्षक जो छात्रों को सुलभ से उपलब्ध होता है, परामर्श-सेवा हेतु पहचाना और प्रशिक्षित किया जा सकता है। सक्रिय रूप से सुनने की कौशलता: छात्र जो कह रहे हैं, शिक्षक को उनकी बातों में स्वाभविक रुचि दिखाना जरूरी है। उन्हें स्वयं पर नियंत्रण रखने का अभ्यास होना चाहिए, उनमें धैर्यता होना जरूरी है, उन्हे सिर हिलाकर और छात्रों के संकेतों पर अनुक्रिया देकर सहिष्णुता और सहायता पहुँचाने हेतु शारीरिक हाव-भाव दिखाने की कोशिश करनी चाहिए।उच्च स्तर की सत्यनिष्ठा: यदि छात्र अपनी सबसे बड़े कठिनाई-भरे मुद्दों को बतलाता है तो शिक्षक का विश्वसनीय होना जरूरी है, जो किसी अन्य से ना बताएं या उससे भी बदतर, उसपर गपशप ना करें।  उदाहरण के लिए, यह विश्वास आए बिना कि जिस व्यक्ति से वे बातें कर रहे हैं वह विश्वसनीय है या नहीं, कोई छात्र अपने अशांत परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में बात करना नहीं चाहेगा।सहानुभूतिपूर्ण और गंवेषणात्मक: शिक्षक को सहानुभूति होना चाहिए क्योंकि यह छात्र के परिपेक्ष्य से जुड़े मुद्दे को समझने में मदद करता है।  उसी तरह, उनके पास बातचीत की युक्ति की कौशलता होनी चाहिए जिससे हल निकाले जाने के लिए छात्र के मन की बात अधिक से अधिक जान सकें।

जब एक छात्र उनके पास आएं तो एक शिक्षक को क्या करना चाहिए:


मेल-जोल बढ़ाएं: यह पहला चरण है जो एक शिक्षक-परामर्शदाता को उठाना चाहिए।  छात्र को अपनी उपस्थिति में तब तक सहज महसूस कराएं जब तक कि वह अपनी बातें सहजता से करना शुरु न कर दें ।  याद रखें कि छात्र आपको विश्वसनीयता की कसौटी पर नापने की कोशिश करता है।  इस पड़ाव पर मौखिक तथा हाव-भाव से मिश्रित सम्प्रेषण का उपयोग करना महत्वपूर्ण है।छात्रों को स्वयं से अभिव्यक्ति की अनुमति दें: जब छात्र सामना की जा रही चुनौतियों के बारे में बातें करना शुरु करता है, तो उन्हे गहराई में उतरने दें।  छात्र की बातों को बिना टोके हर वो बात सुनें जो वह कहना चाहता है।  शिक्षक के रूप में भी, आप छात्र के विचारों को पदच्छेद करके सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपने समस्या को सही तरीके से समझ लिया है।  यह उनके विचारों में स्पष्टता प्रदान करेगा।  “मैंने इस तरह से तुम्हारी सारी समस्या को समझ लिया है और मुझे विश्वास है कि तुम इसका समाधान इस तरह से कर सकोगे।  तुम्हें क्या लगता है?” यह एक तरीका हो सकता है।  छात्र को तुरंत समाधान प्रदान करने के बदले में समस्या से पार पाने के विचारों तक पहुंचने में सहायता करें या समस्या का समाधान करें।गैर-निर्णायक रहें: शिक्षक को छात्र के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और संवेदनशील रहना चाहिए।  उदाहरण के लिए, यदि एक छात्र आकर कहता है कि वह एक दिन में 60 सिगरेट पी गया, तो शिक्षक को यह नहीं कहना चाहिए “अरे, यह बुरी बात है!” उन्हे आत्म-संयम से रहना आवश्यक है।भावनाओं में एकरूपता का होना: शिक्षक के रूप में, व्यक्ति को अपने विचारों तथा भावनाओं में स्थिर होना चाहिए।  उन्हें प्रयत्न करना चाहिए कि वे उनकी मनोदशा तथा भावनाओं को उस छात्र पर ना थोपें जो उनके पास सहायता माँगने आता है।  उन्हे अपनी गंभीरता को बनाएँ रखना होगा।पूर्णरूप से गोपनीयता बनाएँ रखें:छात्र को भरोसा दें कि वे जो बातें बताते है वह गोपनीय ही रहेंगी और किसी से नहीं बताई जाएंगी (यदि छात्र द्वारा कही गई बातें स्वयं या किसी और को नुकसानदाई हो सकती हैं, तो यह स्कूल प्रबंधन के ध्यान में लाना जरूरी है)।

इसके साथ में, स्कूल प्रबंधन ऐसे शिक्षकों की पहचान कर सकता है जिनको छात्रों को परामर्श देने हेतु प्रशिक्षित किया जा सकता है।


(इस विषय-वस्तु को जैन विश्वविद्यालय, बेंगलूर की डॉ. उमा वारियर, मुख्य परामर्शदाता के द्वारा व्यक्त विचारों से लिया गया है।)



मंगलवार, 27 जून 2023

डॉ हरगोविंद खुराना

9 फरवरी 1922 को जिला मुल्तान, पंजाब में जन्मे महान वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना के पिता एक पटवारी थे। अपने माता-पिता के चार पुत्रों में हरगोविंद सबसे छोटे थे। वे जब मात्र 12 साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और ऐसी परिस्थिति में उनके बड़े भाई नंदलाल ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में ही हुई। उन्होंने मुल्तान के डी.ए.वी. हाई स्कूल में भी अध्यन किया। वे बचपन से ही एक प्रतिभावान् विद्यार्थी थे जिसके कारण इन्हें बराबर छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।
        उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी.एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम.एस-सी. (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की। इसके पश्चात भारत सरकार की छात्रवृत्ति पाकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रॉजर जे.एस. बियर के देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरैट की उपाधि अर्जित की। इसके उपरान्त इन्हें एक बार फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं जिसके बाद वे जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए। 1948 से 1952 के दौरान उन्होंने दिल्ली बंगलौर सहित कई प्रयोगशालों में नौकरी के लिए आवेदन किया , मगर उन्हें देश में नौकरी नहीं मिल सकी l 1952 में उन्हें कनाडा कि वेनकोवर यूनिवर्सिटी से बुलावा आया और वह वे जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष बना दिए गए l  सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया। इसके पश्चात सन् 1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली।

       खुराना जी जीवकोशिकाओं के नाभिकों की रासायनिक संरचना के अध्ययन में लगे रहे। नाभिकों के नाभिकीय अम्लों के संबंध में खोज दीर्घकाल से हो रही है, पर डाक्टर खुराना की विशेष पद्धतियों से वह संभव हुआ। इनके अध्ययन का विषय न्यूक्लिऔटिड नामक उपसमुच्चर्यों की अतयंत जटिल, मूल, रासायनिक संरचनाएँ हैं। डाक्टर खुराना इन समुच्चयों का योग कर महत्व के दो वर्गों के न्यूक्लिप्रोटिड इन्जाइम नामक यौगिकों को बनाने में सफल हुये।

        नाभिकीय अम्ल सहस्रों एकल न्यूक्लिऔटिडों से बनते हैं। जैव कोशिकओं के आनुवंशिकीय गुण इन्हीं जटिल बहु न्यूक्लिऔटिडों की संरचना पर निर्भर रहते हैं। डॉ॰ खुराना ग्यारह न्यूक्लिऔटिडों का योग करने में सफल हो गए थे तथा वे  ज्ञात शृंखलाबद्ध न्यूक्लिऔटिडोंवाले न्यूक्लीक अम्ल का प्रयोगशाला में संश्लेषण करने में सफल हुये। इस सफलता से ऐमिनो अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय ढूँढने में चिकित्सक सफल हो सकेl
डॉ खुराना ने खोज के दौरान यह पाया गया कि जीन्स डी.एन.ए. और आर.एन.ए. के संयोग से बनते हैं। अतः इन्हें जीवन की मूल इकाई माना जाता है। इन अम्लों में आनुवंशिकता का मूल रहस्य छिपा हुआ है। खुराना के व्दारा किए गए कृत्रिम जिन्स के अनुसंधान से यह पता चला कि जीन्स मनुष्य की शारीरिक रचना, रंग-रूप और गुण स्वभाव से जुड़े हुए हैं।

       1960 के दशक में डॉ खुराना ने नीरबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि डी.एन.ए. अणु के घुमावदार 'सोपान' पर चार विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिओटाइड्स के विन्यास का तरीका नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य को निर्धारित करता है। डी.एन.ए. के एक तंतु पर इच्छित अमीनोअम्ल उत्पादित करने के लिए न्यूक्लिओटाइड्स के 64 संभावित संयोजन पढ़े गए हैं, जो प्रोटीन के निर्माण के खंड हैं। खुराना जी  ने इस बारे में आगे जानकारी दी कि न्यूक्लिओटाइड्स का कौन सा क्रमिक संयोजन किस विशेष अमीनो अम्ल को बनाता है। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि न्यूक्लिओटाइड्स कूट कोशिका को हमेशा तीन के समूह में प्रेषित किया जाता है, जिन्हें प्रकूट (कोडोन) कहा जाता है। उन्होंने यह भी पता लगाया कि कुछ प्रकूट कोशिका को प्रोटीन का निर्माण शुरू या बंद करने के लिए प्रेरित करते हैं। 

आनुवांशिक कोड (डीएनए) की व्याख्या करने वाले भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक डॉ. हरगोबिंद खुराना को चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए 1968  में नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Physiology or Medicine) से सम्मानित किया गया। खुराना ने मार्शल, निरेनबर्ग और रोबेर्ट होल्ले के साथ मिलकर चिकित्सा के क्षेत्र में काम किया। 

डॉ खुराना ने 1970 में आनुवंशिकी में एक और योगदान दिया, जब वह और उनका अनुसंधान दल एक खमीर जीन की पहली कृत्रिम प्रतिलिपि संश्लेषित करने में सफल रहे। डॉक्टर खुराना अंतिम समय में जीव विज्ञान एवं रसायनशास्त्र के एल्फ़्रेड पी. स्लोन प्राध्यापक और लिवरपूल यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे। हरगोबिन्द खुराना जी का निधन 9 नवंबर, 2011 को हुआ था।

सोमवार, 26 जून 2023

कोलम्बस

कोलंबस की भारत खोज के पीछे असली  मकसद क्या था ?
हमे यही बताया गया कि नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस भारत खोजने निकला था .
भारत की समृद्धि के किस्से तब दूर-दूर तक पसरे हुए थे. यहां के मसालों का यश दुनियाभर में फैला था. भारत में मौजूद सोने की भी बड़ी चर्चा थी. कोलंबस को भारत पहुंचने का समुद्री मार्ग खोजना था.
स्पेन के राजा फर्डिनेंड और रानी इसाबेला कोलंबस की यात्रा को स्पॉन्सर करने के लिए राजी हो गए. उन्हें लगा कि अगर कोलंबस ने ऐसा कर दिखाया, तो एशिया के साथ मसालों के कारोबार का नया मार्ग शुरू हो जाएगा. ये उपनिवेशवाद का दौर था. दुनिया के ये चंद यूरोपियन देश अपने पांव पसारना चाहते थे. नए बाजारों के लिए. कच्चे माल के लिए. अपने फायदे के लिए. हर देश अपने लिए कारोबार के नए मार्ग खोलना चाहता था. किंग और क्वीन ने कोलंबस से वादा किया. अगर कोई नई जगह मिलती है, तो उन्हें वहां का गर्वनर बना देंगे. जो भी दौलत वो स्पेन लाएंगे, उसका 10 फीसद हिस्सा भी उन्हें दे दिया जाएगा. 
उपरोक्त हमे इतिहास की किताबो में पढ़ाया गया है . लेकिन कोलम्बस की भारत यात्रा की असलियत कुछ और है , जो हमे उसकी लिखी डायरी से मिलती है । पोस्ट के साथ संलग्न है । कोलम्बस का प्रथम और वास्तविक उद्देश्य भारत को ईसाई देश बनाना और यहां के निवासियों को ईसाई धर्म मे कन्वर्ट करना था । 

क्या कारण है कि कोलंबस , वास्कोडिगामा , कैप्टन कुक जैसे लोगो की यात्राओं के असली मकसद इतिहास की किताब में छुपाए गए ?

स्त्रोत : the world is flat by thomas L. Friedman , page 3 .

indian history in hindi, भारतीय इतिहास


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मन

मन :
इंसान की सबसे बड़ी भूल एक ये भी है कि उसको अपनी शारिरिक क्षमताओं का आभास और स्वीकार तो होता है , 
लेकिन मानसिक क्षमताओं का न आभास होता है न स्वीकार ।
जैसे प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक शक्ति की अपनी एक क्षमता है ऐसे ही मानसिक शक्ति की क्षमता है ।
और इसी वजह से वह दूसरो की तरह खुद को बनाने की कोशिश करता है । जो दूसरे कर रहे है वो करने की कोशिश करता है ।

जिस गति से दूसरे मन को दौड़ा रहे है उसी गति से अपने मन को भी दौड़ाने की कोशिश करता है ।
और अंततः खुद को टूटा हुआ थका हुआ , जिंदा लेकिन मरा हुआ पाता है ।
क्योंकि मन अपनी स्वाभाविक प्रकृति को खो देता है । 
मन ही मन का बाधक है 
मन ही मन का साधक है ।।

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुध्दं चाशुध्दमेव च ।
अशुध्दं कामसंकल्पं शुध्दं कामविवर्जितम् ॥

मन दो प्रकार के होते हैं -अशुध्द और शुध्द । कामना और संकल्प वाला मन अशुध्द और जो मन कामना रहित हो वह शुध्द ।
गीता में भगवान कहते है -

आत्मानं रथिनं विध्दि शरीरं रथमेव तु ।
बिध्दिं तु सारथि विध्दि मनः प्रग्रहमेव च ॥

आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो ।

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श्री गणेश जी

श्री गणेश जी सर्वस्वरूप, परात्पर परब्रह्‌म साक्षात्‌ परमात्मा हैं । गणेश शब्द का अर्थ है जो समस्त जीव-जाति के “ईश” अर्थात्‌ स्वामी हैं । धर्मपरायण भारतीय जन वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों द्वारा अनादि काल से इन्हीं अनादि तथा सर्वपूज्य भगवान गणपति की पूजा करते आ रहे हैं । हृदय से उपासना करने वाले भक्‍तों को आज भी उनके अनुग्रह का प्रसाद मिलता है । अतः उनकी कृपा की प्राप्ति के लिए वेदों, शास्त्रों ने वैदिक उपासना पद्धति का निर्माण किया है जिससे उपासक गणेश की उपासना करके मनोवांछित फल प्राप्त कर सकें । गणेश का अर्थ - ‘गण’ का अर्थ है- वर्ग, समूह, समुदाय । ‘ईश’ का अर्थ है- स्वामी । शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने से उन्हें “गणेश” कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य ‘गणदेवता’ कहे गए हैं ।
“गण” शब्द व्याकरण के अंतर्गत भी आता है । अनेक शब्द एक गण में आते हैं । व्याकरण में गण पाठ का अपना एक अलग ही अस्तित्व है । वैसे भी भवादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृतिगण धातु समूह है । “गण” शब्द शूद्र के अनुचर के लिए भी आता है । जैसा कि “रामायण” में कहा गया है- धनाध्यक्ष समो देवः प्राप्तो वृषभध्वजः । उमा सहायो देवेशो गणैश्‍च बहुभिर्युत: ॥

तुलसीदास जी  ने रामचरित मानस  में श्री पार्वतीजी को “श्रद्धा” और शंकरजी को विश्‍वास का रूप माना है । किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए श्रद्धा और विश्‍वास दोनों का ही होना आवश्यक है । जब तक श्रद्धा न होगी, तब तक विश्‍वास नहीं हो सकता तथा विश्‍वास के अभाव में श्रद्धा भी नहीं ठहर पाती । वैसे ही पार्वती और शिव से श्री गणेश हुए । अतः गणेश सिद्धि और अभीष्ट पूर्ति के प्रतीक हैं । किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व विघ्न के निवारणार्थ एवं कार्य सिद्धियार्थ गणेशजी की आराधना आवश्यक है । यही बात योग शास्त्र में भी कही गई है । 

“योग शास्त्र” के आचार्यों का कहना है कि -मेरूदंड के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है, वह ब्रह्‌मारन्ध में प्रवेश करके मस्तिष्क के नाड़ी गुच्छ में मिल जाती है । साधारण दशा में प्राण सम्पूर्ण शरीर में बिखरा होता है, उसके साथ चित्त भी चंचल होता है । योगी क्रिया विशेष से प्राण को सुषुम्ना में खींचकर ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ाता है त्यों-त्यों उसका चित्त शांत होता है । योगी के ज्ञान और शक्‍ति में भी वृद्धि होती है । सुषुम्ना में नीचे से ऊपर तक नाड़ी कद या नाड़ियों के गुच्छे होते हैं । इन्हें क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र कहते हैं । इस मूलाधार को- ‘गणेश स्थान’ भी कहा जाता है । कबीर आदि ने जहाँ चक्रों का वर्णन किया है, वहाँ प्रथम स्थान को “गणेश स्थान” भी कहा है ।

मानव मुख गणेश मंदिर (आदि विनायक )

गणेश जी का मुख हाथी का हैं .  विश्व में केवल एक मंदिर है जहा भगवान् गणेश की प्रतिमा मानव मुख में स्थापित है .  यहाँ गणेश भगवान्  की  पूजा उनके मूल मुख  (हाथी मुख के पूर्व वाले मुख) के रूप  में की जाती है . 
यह प्राचीन "स्वर्णवल्ली मुक्तीश्वर मंदिर"  तमिलनाडु के तिरुवरुर जिले Mayavaram – Tiruvarur Road पर Poonthottam के निकट Koothanur से 2.6 कि मी Thilatharpanapuri थिलान्थरपानपुरी में है . 
भगवान गणेश को यहाँ नर-मुख विनायकर कहा जाता है .  
स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपङ्कजस्मरणम् ।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम् ॥

बुधवार, 21 जून 2023

नेत्रदान महादान

यह दुनियां बहुत खूबसूरत है. हमारे आसपास की हर वस्तु में एक अलग ही सुंदरता छिपी होती है जिसे देखने के लिए एक अलग नजर की जरुरत होती है. दुनियां में हर चीज का नजारा लेने के लिए हमारे पास आंखों का ही सहारा होता है. लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि बिन आंखों के यह दुनियां कैसी होगी? चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा मालूम होगा. दुनियां की सारी खूबसूरती आंखों के बिना कुछ नहीं है. आंखें ना होने का दुख वही समझ सकता है जिसके पास आंखें नहीं होतीं.
थोड़ी देर के लिए अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर देखें दुनियां कैसी लगती है. लगता है ना डर. आंखों के बिना तो सही से चला भी नहीं जा सकता और यही वजह है कि इंसान सबसे ज्यादा रक्षा अपनी आंखों की ही करता है. लेकिन कुछ अभागों की दुनियां में परमात्मा ने ही अंधेरा लिखा होता है जिन्हें आंखें नसीब नहीं होतीं. कई बच्चे इस दुनियां में बिना आंखों के ही आते हैं तो कुछ हादसों में आंखें गंवा बैठते हैं. दुनियां भर में नेत्रहीनों की संख्या काफी अधिक है जिनमें से कई तो जन्मजात ही नेत्रहीन होते हैं.

आंखों का महत्व तो हम सब समझते हैं और इसीलिए इसकी सुरक्षा भी हम बड़े पैमाने पर करते हैं लेकिन हममें से बहुत कम होते हैं जो अपने साथ दूसरों के बारे में भी सोचते हैं. आंखें ना सिर्फ हमें रोशनी दे सकती हैं बल्कि हमारे मरने के बाद वह किसी और की जिंदगी से भी अंधेरा हटा सकती हैं. लेकिन जब बात नेत्रदान की होती है तो काफी लोग इस अंधविश्वास में पीछे हट जाते हैं कि कहीं अगले जन्म में वह नेत्रहीन ना पैदा हो जाएं. इस अंधविश्वास की वजह से दुनियां के कई नेत्रहीन लोगों को जिंदगी भर अंधेरे में ही रहना पड़ता है.
हमारे नेत्र का काला गोल हिस्सा 'कार्निया' कहलाता है। यह आँख का पर्दा है जो बाहरी वस्तुओं का चित्र बनाकर हमें दृष्टि देता है । यदि कर्निया पर चोट लग जाये ,इस पर झिल्ली पड़ जाये या इसपर धब्बे पड़ जायें तो दिखाई देना बन्द हो जाता है । हमारे देश में करीब ढ़ाई लाख लोग हैं जो कि कर्निया की समस्या से पीड़ित हैं। इन लोगों के जीवन का आंधेरा दूर हो सकता है यदि उन्हें किसी मृत व्यक्ति का कर्निया प्राप्त हो जाये । लेकिन डाक्टर किसी मृत व्यक्ति का कार्निया तब तक नहीं निकाल सकते जब तक कि वह व्यक्ति अपने जीवन काल में ही नेत्रदान की घोषणा लिखित रूप में ना कर दे ।हमारे देश में सभी राज्यों नेत्रबैंक हैं जहाँ लिखित सूचना देने पर उस व्यक्ति के देहांत के 6 घटे के अन्दर उसका कार्निया निकाल ले जाते हैं।

हमारे सभी धर्मों में दया, परोपकार, जैसी मानवीय भावनाएँ सिखाई जाती हैं ।यदि हम अपने नेत्रदान करके मरणोपरांत किसी की निष्काम सहायता कर सकें तो हम अपने धर्म का पालन करेंगे , और क्योकि इसमें कोई भी स्वार्थ नहीं है इसलिये यह महादान माना जाता है।

नेत्रदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के 6 से 8 घंटे के अंदर ही नेत्रदान कर देना चाहिए। जिस व्यक्ति को नेत्रदान के कॉर्निया का उपयोग करना है, उसे 24 घंटे के भीतर ही कॉर्निया प्रत्यारोपित कराना जरूरी होता है। नेत्रदान का मतलब शरीर से पूरी आंख निकालना नहीं होता। इसमें मृत व्यक्ति की आखों के कॉर्निया का उपयोग किया जाता है। 
 नेत्रदान की प्रकिया मृत्यु के कुछ घंटों के अंतराल में की जाती है और इससे किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होती. एक मृत व्यक्ति के नेत्र को एक नेत्रहीन को दे दी जाती है जिससे उस नेत्रहीन के जीवन में उजाला हो जाता है. आप भी अगर किसी की जिंदगी में उजाला करना चाहते हैं तो अपने निकटतम मेडिकल कॉलेज या नेत्र चिकित्सालय से संपर्क कर नेत्रदान के लिए पंजीकरण करा सकते हैं. किसी की दुनियां में उजाला फैलाने के लिए एक कदम आगे बढ़ाइए...