मंगलवार, 27 जून 2023

डॉ हरगोविंद खुराना

9 फरवरी 1922 को जिला मुल्तान, पंजाब में जन्मे महान वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना के पिता एक पटवारी थे। अपने माता-पिता के चार पुत्रों में हरगोविंद सबसे छोटे थे। वे जब मात्र 12 साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और ऐसी परिस्थिति में उनके बड़े भाई नंदलाल ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में ही हुई। उन्होंने मुल्तान के डी.ए.वी. हाई स्कूल में भी अध्यन किया। वे बचपन से ही एक प्रतिभावान् विद्यार्थी थे जिसके कारण इन्हें बराबर छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।
        उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी.एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम.एस-सी. (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की। इसके पश्चात भारत सरकार की छात्रवृत्ति पाकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रॉजर जे.एस. बियर के देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरैट की उपाधि अर्जित की। इसके उपरान्त इन्हें एक बार फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं जिसके बाद वे जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए। 1948 से 1952 के दौरान उन्होंने दिल्ली बंगलौर सहित कई प्रयोगशालों में नौकरी के लिए आवेदन किया , मगर उन्हें देश में नौकरी नहीं मिल सकी l 1952 में उन्हें कनाडा कि वेनकोवर यूनिवर्सिटी से बुलावा आया और वह वे जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष बना दिए गए l  सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया। इसके पश्चात सन् 1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली।

       खुराना जी जीवकोशिकाओं के नाभिकों की रासायनिक संरचना के अध्ययन में लगे रहे। नाभिकों के नाभिकीय अम्लों के संबंध में खोज दीर्घकाल से हो रही है, पर डाक्टर खुराना की विशेष पद्धतियों से वह संभव हुआ। इनके अध्ययन का विषय न्यूक्लिऔटिड नामक उपसमुच्चर्यों की अतयंत जटिल, मूल, रासायनिक संरचनाएँ हैं। डाक्टर खुराना इन समुच्चयों का योग कर महत्व के दो वर्गों के न्यूक्लिप्रोटिड इन्जाइम नामक यौगिकों को बनाने में सफल हुये।

        नाभिकीय अम्ल सहस्रों एकल न्यूक्लिऔटिडों से बनते हैं। जैव कोशिकओं के आनुवंशिकीय गुण इन्हीं जटिल बहु न्यूक्लिऔटिडों की संरचना पर निर्भर रहते हैं। डॉ॰ खुराना ग्यारह न्यूक्लिऔटिडों का योग करने में सफल हो गए थे तथा वे  ज्ञात शृंखलाबद्ध न्यूक्लिऔटिडोंवाले न्यूक्लीक अम्ल का प्रयोगशाला में संश्लेषण करने में सफल हुये। इस सफलता से ऐमिनो अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय ढूँढने में चिकित्सक सफल हो सकेl
डॉ खुराना ने खोज के दौरान यह पाया गया कि जीन्स डी.एन.ए. और आर.एन.ए. के संयोग से बनते हैं। अतः इन्हें जीवन की मूल इकाई माना जाता है। इन अम्लों में आनुवंशिकता का मूल रहस्य छिपा हुआ है। खुराना के व्दारा किए गए कृत्रिम जिन्स के अनुसंधान से यह पता चला कि जीन्स मनुष्य की शारीरिक रचना, रंग-रूप और गुण स्वभाव से जुड़े हुए हैं।

       1960 के दशक में डॉ खुराना ने नीरबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि डी.एन.ए. अणु के घुमावदार 'सोपान' पर चार विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिओटाइड्स के विन्यास का तरीका नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य को निर्धारित करता है। डी.एन.ए. के एक तंतु पर इच्छित अमीनोअम्ल उत्पादित करने के लिए न्यूक्लिओटाइड्स के 64 संभावित संयोजन पढ़े गए हैं, जो प्रोटीन के निर्माण के खंड हैं। खुराना जी  ने इस बारे में आगे जानकारी दी कि न्यूक्लिओटाइड्स का कौन सा क्रमिक संयोजन किस विशेष अमीनो अम्ल को बनाता है। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि न्यूक्लिओटाइड्स कूट कोशिका को हमेशा तीन के समूह में प्रेषित किया जाता है, जिन्हें प्रकूट (कोडोन) कहा जाता है। उन्होंने यह भी पता लगाया कि कुछ प्रकूट कोशिका को प्रोटीन का निर्माण शुरू या बंद करने के लिए प्रेरित करते हैं। 

आनुवांशिक कोड (डीएनए) की व्याख्या करने वाले भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक डॉ. हरगोबिंद खुराना को चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए 1968  में नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Physiology or Medicine) से सम्मानित किया गया। खुराना ने मार्शल, निरेनबर्ग और रोबेर्ट होल्ले के साथ मिलकर चिकित्सा के क्षेत्र में काम किया। 

डॉ खुराना ने 1970 में आनुवंशिकी में एक और योगदान दिया, जब वह और उनका अनुसंधान दल एक खमीर जीन की पहली कृत्रिम प्रतिलिपि संश्लेषित करने में सफल रहे। डॉक्टर खुराना अंतिम समय में जीव विज्ञान एवं रसायनशास्त्र के एल्फ़्रेड पी. स्लोन प्राध्यापक और लिवरपूल यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे। हरगोबिन्द खुराना जी का निधन 9 नवंबर, 2011 को हुआ था।

सोमवार, 26 जून 2023

कोलम्बस

कोलंबस की भारत खोज के पीछे असली  मकसद क्या था ?
हमे यही बताया गया कि नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस भारत खोजने निकला था .
भारत की समृद्धि के किस्से तब दूर-दूर तक पसरे हुए थे. यहां के मसालों का यश दुनियाभर में फैला था. भारत में मौजूद सोने की भी बड़ी चर्चा थी. कोलंबस को भारत पहुंचने का समुद्री मार्ग खोजना था.
स्पेन के राजा फर्डिनेंड और रानी इसाबेला कोलंबस की यात्रा को स्पॉन्सर करने के लिए राजी हो गए. उन्हें लगा कि अगर कोलंबस ने ऐसा कर दिखाया, तो एशिया के साथ मसालों के कारोबार का नया मार्ग शुरू हो जाएगा. ये उपनिवेशवाद का दौर था. दुनिया के ये चंद यूरोपियन देश अपने पांव पसारना चाहते थे. नए बाजारों के लिए. कच्चे माल के लिए. अपने फायदे के लिए. हर देश अपने लिए कारोबार के नए मार्ग खोलना चाहता था. किंग और क्वीन ने कोलंबस से वादा किया. अगर कोई नई जगह मिलती है, तो उन्हें वहां का गर्वनर बना देंगे. जो भी दौलत वो स्पेन लाएंगे, उसका 10 फीसद हिस्सा भी उन्हें दे दिया जाएगा. 
उपरोक्त हमे इतिहास की किताबो में पढ़ाया गया है . लेकिन कोलम्बस की भारत यात्रा की असलियत कुछ और है , जो हमे उसकी लिखी डायरी से मिलती है । पोस्ट के साथ संलग्न है । कोलम्बस का प्रथम और वास्तविक उद्देश्य भारत को ईसाई देश बनाना और यहां के निवासियों को ईसाई धर्म मे कन्वर्ट करना था । 

क्या कारण है कि कोलंबस , वास्कोडिगामा , कैप्टन कुक जैसे लोगो की यात्राओं के असली मकसद इतिहास की किताब में छुपाए गए ?

स्त्रोत : the world is flat by thomas L. Friedman , page 3 .

indian history in hindi, भारतीय इतिहास


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मन

मन :
इंसान की सबसे बड़ी भूल एक ये भी है कि उसको अपनी शारिरिक क्षमताओं का आभास और स्वीकार तो होता है , 
लेकिन मानसिक क्षमताओं का न आभास होता है न स्वीकार ।
जैसे प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक शक्ति की अपनी एक क्षमता है ऐसे ही मानसिक शक्ति की क्षमता है ।
और इसी वजह से वह दूसरो की तरह खुद को बनाने की कोशिश करता है । जो दूसरे कर रहे है वो करने की कोशिश करता है ।

जिस गति से दूसरे मन को दौड़ा रहे है उसी गति से अपने मन को भी दौड़ाने की कोशिश करता है ।
और अंततः खुद को टूटा हुआ थका हुआ , जिंदा लेकिन मरा हुआ पाता है ।
क्योंकि मन अपनी स्वाभाविक प्रकृति को खो देता है । 
मन ही मन का बाधक है 
मन ही मन का साधक है ।।

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुध्दं चाशुध्दमेव च ।
अशुध्दं कामसंकल्पं शुध्दं कामविवर्जितम् ॥

मन दो प्रकार के होते हैं -अशुध्द और शुध्द । कामना और संकल्प वाला मन अशुध्द और जो मन कामना रहित हो वह शुध्द ।
गीता में भगवान कहते है -

आत्मानं रथिनं विध्दि शरीरं रथमेव तु ।
बिध्दिं तु सारथि विध्दि मनः प्रग्रहमेव च ॥

आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो ।

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श्री गणेश जी

श्री गणेश जी सर्वस्वरूप, परात्पर परब्रह्‌म साक्षात्‌ परमात्मा हैं । गणेश शब्द का अर्थ है जो समस्त जीव-जाति के “ईश” अर्थात्‌ स्वामी हैं । धर्मपरायण भारतीय जन वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों द्वारा अनादि काल से इन्हीं अनादि तथा सर्वपूज्य भगवान गणपति की पूजा करते आ रहे हैं । हृदय से उपासना करने वाले भक्‍तों को आज भी उनके अनुग्रह का प्रसाद मिलता है । अतः उनकी कृपा की प्राप्ति के लिए वेदों, शास्त्रों ने वैदिक उपासना पद्धति का निर्माण किया है जिससे उपासक गणेश की उपासना करके मनोवांछित फल प्राप्त कर सकें । गणेश का अर्थ - ‘गण’ का अर्थ है- वर्ग, समूह, समुदाय । ‘ईश’ का अर्थ है- स्वामी । शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने से उन्हें “गणेश” कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य ‘गणदेवता’ कहे गए हैं ।
“गण” शब्द व्याकरण के अंतर्गत भी आता है । अनेक शब्द एक गण में आते हैं । व्याकरण में गण पाठ का अपना एक अलग ही अस्तित्व है । वैसे भी भवादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृतिगण धातु समूह है । “गण” शब्द शूद्र के अनुचर के लिए भी आता है । जैसा कि “रामायण” में कहा गया है- धनाध्यक्ष समो देवः प्राप्तो वृषभध्वजः । उमा सहायो देवेशो गणैश्‍च बहुभिर्युत: ॥

तुलसीदास जी  ने रामचरित मानस  में श्री पार्वतीजी को “श्रद्धा” और शंकरजी को विश्‍वास का रूप माना है । किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए श्रद्धा और विश्‍वास दोनों का ही होना आवश्यक है । जब तक श्रद्धा न होगी, तब तक विश्‍वास नहीं हो सकता तथा विश्‍वास के अभाव में श्रद्धा भी नहीं ठहर पाती । वैसे ही पार्वती और शिव से श्री गणेश हुए । अतः गणेश सिद्धि और अभीष्ट पूर्ति के प्रतीक हैं । किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व विघ्न के निवारणार्थ एवं कार्य सिद्धियार्थ गणेशजी की आराधना आवश्यक है । यही बात योग शास्त्र में भी कही गई है । 

“योग शास्त्र” के आचार्यों का कहना है कि -मेरूदंड के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है, वह ब्रह्‌मारन्ध में प्रवेश करके मस्तिष्क के नाड़ी गुच्छ में मिल जाती है । साधारण दशा में प्राण सम्पूर्ण शरीर में बिखरा होता है, उसके साथ चित्त भी चंचल होता है । योगी क्रिया विशेष से प्राण को सुषुम्ना में खींचकर ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ाता है त्यों-त्यों उसका चित्त शांत होता है । योगी के ज्ञान और शक्‍ति में भी वृद्धि होती है । सुषुम्ना में नीचे से ऊपर तक नाड़ी कद या नाड़ियों के गुच्छे होते हैं । इन्हें क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र कहते हैं । इस मूलाधार को- ‘गणेश स्थान’ भी कहा जाता है । कबीर आदि ने जहाँ चक्रों का वर्णन किया है, वहाँ प्रथम स्थान को “गणेश स्थान” भी कहा है ।

मानव मुख गणेश मंदिर (आदि विनायक )

गणेश जी का मुख हाथी का हैं .  विश्व में केवल एक मंदिर है जहा भगवान् गणेश की प्रतिमा मानव मुख में स्थापित है .  यहाँ गणेश भगवान्  की  पूजा उनके मूल मुख  (हाथी मुख के पूर्व वाले मुख) के रूप  में की जाती है . 
यह प्राचीन "स्वर्णवल्ली मुक्तीश्वर मंदिर"  तमिलनाडु के तिरुवरुर जिले Mayavaram – Tiruvarur Road पर Poonthottam के निकट Koothanur से 2.6 कि मी Thilatharpanapuri थिलान्थरपानपुरी में है . 
भगवान गणेश को यहाँ नर-मुख विनायकर कहा जाता है .  
स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपङ्कजस्मरणम् ।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम् ॥

बुधवार, 21 जून 2023

नेत्रदान महादान

यह दुनियां बहुत खूबसूरत है. हमारे आसपास की हर वस्तु में एक अलग ही सुंदरता छिपी होती है जिसे देखने के लिए एक अलग नजर की जरुरत होती है. दुनियां में हर चीज का नजारा लेने के लिए हमारे पास आंखों का ही सहारा होता है. लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि बिन आंखों के यह दुनियां कैसी होगी? चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा मालूम होगा. दुनियां की सारी खूबसूरती आंखों के बिना कुछ नहीं है. आंखें ना होने का दुख वही समझ सकता है जिसके पास आंखें नहीं होतीं.
थोड़ी देर के लिए अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर देखें दुनियां कैसी लगती है. लगता है ना डर. आंखों के बिना तो सही से चला भी नहीं जा सकता और यही वजह है कि इंसान सबसे ज्यादा रक्षा अपनी आंखों की ही करता है. लेकिन कुछ अभागों की दुनियां में परमात्मा ने ही अंधेरा लिखा होता है जिन्हें आंखें नसीब नहीं होतीं. कई बच्चे इस दुनियां में बिना आंखों के ही आते हैं तो कुछ हादसों में आंखें गंवा बैठते हैं. दुनियां भर में नेत्रहीनों की संख्या काफी अधिक है जिनमें से कई तो जन्मजात ही नेत्रहीन होते हैं.

आंखों का महत्व तो हम सब समझते हैं और इसीलिए इसकी सुरक्षा भी हम बड़े पैमाने पर करते हैं लेकिन हममें से बहुत कम होते हैं जो अपने साथ दूसरों के बारे में भी सोचते हैं. आंखें ना सिर्फ हमें रोशनी दे सकती हैं बल्कि हमारे मरने के बाद वह किसी और की जिंदगी से भी अंधेरा हटा सकती हैं. लेकिन जब बात नेत्रदान की होती है तो काफी लोग इस अंधविश्वास में पीछे हट जाते हैं कि कहीं अगले जन्म में वह नेत्रहीन ना पैदा हो जाएं. इस अंधविश्वास की वजह से दुनियां के कई नेत्रहीन लोगों को जिंदगी भर अंधेरे में ही रहना पड़ता है.
हमारे नेत्र का काला गोल हिस्सा 'कार्निया' कहलाता है। यह आँख का पर्दा है जो बाहरी वस्तुओं का चित्र बनाकर हमें दृष्टि देता है । यदि कर्निया पर चोट लग जाये ,इस पर झिल्ली पड़ जाये या इसपर धब्बे पड़ जायें तो दिखाई देना बन्द हो जाता है । हमारे देश में करीब ढ़ाई लाख लोग हैं जो कि कर्निया की समस्या से पीड़ित हैं। इन लोगों के जीवन का आंधेरा दूर हो सकता है यदि उन्हें किसी मृत व्यक्ति का कर्निया प्राप्त हो जाये । लेकिन डाक्टर किसी मृत व्यक्ति का कार्निया तब तक नहीं निकाल सकते जब तक कि वह व्यक्ति अपने जीवन काल में ही नेत्रदान की घोषणा लिखित रूप में ना कर दे ।हमारे देश में सभी राज्यों नेत्रबैंक हैं जहाँ लिखित सूचना देने पर उस व्यक्ति के देहांत के 6 घटे के अन्दर उसका कार्निया निकाल ले जाते हैं।

हमारे सभी धर्मों में दया, परोपकार, जैसी मानवीय भावनाएँ सिखाई जाती हैं ।यदि हम अपने नेत्रदान करके मरणोपरांत किसी की निष्काम सहायता कर सकें तो हम अपने धर्म का पालन करेंगे , और क्योकि इसमें कोई भी स्वार्थ नहीं है इसलिये यह महादान माना जाता है।

नेत्रदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के 6 से 8 घंटे के अंदर ही नेत्रदान कर देना चाहिए। जिस व्यक्ति को नेत्रदान के कॉर्निया का उपयोग करना है, उसे 24 घंटे के भीतर ही कॉर्निया प्रत्यारोपित कराना जरूरी होता है। नेत्रदान का मतलब शरीर से पूरी आंख निकालना नहीं होता। इसमें मृत व्यक्ति की आखों के कॉर्निया का उपयोग किया जाता है। 
 नेत्रदान की प्रकिया मृत्यु के कुछ घंटों के अंतराल में की जाती है और इससे किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होती. एक मृत व्यक्ति के नेत्र को एक नेत्रहीन को दे दी जाती है जिससे उस नेत्रहीन के जीवन में उजाला हो जाता है. आप भी अगर किसी की जिंदगी में उजाला करना चाहते हैं तो अपने निकटतम मेडिकल कॉलेज या नेत्र चिकित्सालय से संपर्क कर नेत्रदान के लिए पंजीकरण करा सकते हैं. किसी की दुनियां में उजाला फैलाने के लिए एक कदम आगे बढ़ाइए...

यात्रा वृतान्त (Tour Diary)

यात्रा वृतान्त (Tour Diary) :
प्राचीन यात्रियों के यात्रा वृतांत मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं । आज से हजारों साल पहले जब मोटर गाड़ी हवाईजहाज आदि नही थे , तब ये लोग पैदल , बैलगाड़ी , घोड़े या ऊंट से हजारों किलोमीटर की यात्रा कर लेते थे । इनके यात्रा वर्णनों में रोमांच, मानव जीवन का संघर्ष , कठिन परिस्थितियों पर विजय आदि मूल्य हमे प्रेरित करते हैं और जीवन मे सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं । इनके वृत्तांत पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे मैं खुद इनके साथ यात्रा कर रहा हूँ । 

प्राचीन काल मे अनेक विदेशी यात्री भारत आये , इससे उस जमाने मे भारत के इतिहास और समाज का पता चलता है । मूल यात्रा संस्मरण पढ़ने से पता चलता है कि इतिहासकारों द्वारा अनेक तथ्यों को हमारे सामने नही लाया गया है । प्राचीन विदेशी पर्यटकों ने भारत का जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि सच मे सोने की चिड़िया था हमारा देश और साथ ही विश्व गुरु था हमारा देश । 
Preiplus of the erythrean sea - प्राचीन रोमन साम्राज्य में एक अज्ञात ग्रीस नाविक था । वह प्रथम शताब्दी में अपनी नाव से लाल सागर पार कर हिन्द महासागर में व्यापार हेतु आया था । वह भारत मे वर्तमान गुजरात , महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के अनेक शहरों में गया ,  वर्तमान भरूच, उज्जैन, दक्षिणापथ, कालीकट, गोवा, कल्याण मुम्बई, कोचीन, फुहार, आदि शहरों का वर्णन किया । इस पुस्तक में नर्मदा नदी का भी नाम आता है। अज्ञात नाविक ने कश्मीर का नाम कश्यपमारा (home of kashyap) और राजधानी कश्यपपुर लिखा है। इस पुस्तक से पता चलता है कि उस वक़्त गुजरात मे शक , आंध्र में सातवाहन , दक्षिण में पल्लव चोल चेर तथा गंगा के इलाके में मगध राजाओं का राज्य था ।  भारत से मसाले , जड़ी बूटी, रत्न पत्थर, रेशमी कपड़े, कॉटन, टिन सीसा तांबा और कांच के समान आदि एक्सपोर्ट होते थे । ये लिखते है " glass of india as superior to others, because made of pounded crystal" 
इस पुस्तक की एक टिप्पणी समझने लायक है - india is the most populous region of the world, as it was the most cultivated, the most active industrially and commercially, the richest in natural resources and production, the most highly organised socially , and the least powerful politically . "
फाह्यान और हेनसांग के यात्रा वर्णन - इतिहास की पुस्तकों ने इन चीनी यात्रियों के संघर्षों और यात्रा वर्णनों के साथ न्याय नही किया । फाह्यान चौथी शताब्दी में भारत आया - वो लिखते है " प्रजा बहुत साधन सम्पन्न और सुखी है , देश के अधिकांश निवासी न जीवहिंसा करते , न मद्यपान करते हैं ।" उत्तर भारत के अनेक नगरों का वर्णन फाह्यान ने किया , ये श्रीलंका भी गए , वहां से जावा इंडोनेशिया फिर वहां से वापिस चीन । हुएनसांग जो कि 7 वी शताब्दी में भारत आया , उसका विवरण अत्यंत विस्तृत है । दोनो यात्रियों के अनुसार भारत मे सभी पंथ सनातन ( शैव वैष्णव शाक्त आदि ) बौद्ध जैन (श्रमण) आदि समन्वयपूर्वक प्रयेक शहर ग्राम में रहते थे । छिटपुट घटनाओं को छोड़कर इनमें कोई बड़ा विवाद नही हुआ । प्रत्येक राजा सभी पंथों की समान इज्जत करता था । सामान्यतः देश मे अश्पृश्यता कही नहीं थी । न ही किसी जाति या सम्प्रदाय पर अत्याचार होता था । तक्षशिला से गौहाटी तक , श्रीनगर कश्मीर से नासिक तक भारत के अनेक शहरों राजाओं और समाजो का वर्णन हेनसांग ने किया । हेनसांग के समय समरकंद , ताशकंद और कश्मीर बौद्ध बहुल प्रदेश हो चुके थे । हेनसांग दक्षिण भारत में विजयवाड़ा कांचीपुरम भी गया । नालंदा विश्वविद्यालय में उसने 5 साल अध्ययन किया । हेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय का विस्तृत वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि आज के ऑक्सफ़ोर्ड हारवर्ड भी प्राचीन नालंदा से पीछे हैं । हेनसांग के वर्णनों से जो बुद्ध का कालक्रम मिलता है वह वर्तमान मान्य कालक्रम (400-500 BCE)  से मैच नही करता वरन 600 साल और पीछे ले जाता है । इस पर इतिहासकारों को शोध करना चाहिए ।
अलबरूनी - सन 1000 के आसपास अरबी- ईरानी उच्चकोटि का विद्वान अलबरूनी , सुल्तान महमूद के बंधक के रूप में, भारत आया था। इसने भारत के अनेक नगरों की यात्रा की और अनेक भारतीय ग्रंथो का अध्ययन भी किया ।  इसने उस जमाने के भारत का विधितन्त्र , धर्म और दर्शन, समाज , नगर संगठन , धार्मिक नियम, मूर्तिकला, वैज्ञानिक साहित्य , माप कीमिया, भारतीय खगोलशास्त्र, कालानुक्रम, ज्योतिषशास्त्र आदि पर लिखा है। लेकिन अलबरूनी ने कई बाते बिना स्वयं देखे सुनी सुनाई बातों पर आधारित भी लिखी है जिनमें सत्यता नही है। इस समय तक भारत मे जाति प्रथा कठोर हो गयी थी और अस्पृश्यता आ गयी थी । अलबरूनी की अनेक बातें आधुनिक  इकोलॉजी और डार्विन के सिद्धांतों के समकक्ष है, जो उसने भारत मे सीखी ।
इब्नबतूता - इसने 14 वी शताब्दी में मोरक्को (अफ्रीका) से मक्का , मक्का से भारत , भारत से श्रीलंका से इंडोनेशिया से चीन फिर वापिस अफ्रीका से स्पेन की 1 लाख 17 हजार किलोमीटर यात्रा 30 सालों में की।  इब्नबतूता मेरे फ़ेवरिट ट्रेवलर हैं । इनकी पुस्तक संघर्ष और रोमांच से भरी पड़ी है । जंगली जानवरो, डाकुओं, समुद्री तूफान आदि का रोमांचक वर्णन है। भारत मे कालीकट , दिल्ली और मुल्तान शहरों में इब्नबतूता रहे । इससे उस समय की भारत मे डाक व्यवस्था , उस समय की वीसा व्यवस्था , भारत की सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था का पता चलता है । 
मार्कोपोलो - ये इटली का व्यापारी नाविक था  14 वी शताब्दी में गुजरात व केरल आया , भारत  से अनेक पुस्तकें ले गया । (जिसका बाद में इटालियन में अनुवाद हुआ) ।  इनके वर्णन से सेंट थॉमस की मृत्यु के असली कारण का पता चलता है । ये चीन की जेल में भी रहे जहां इन्होंने यह पुस्तक लिखी । 
अंत मे बात करलें अपने देश के घुमक्कड़  राहुल सांस्कृतायन जी की जिन्होंने वोल्गा से गंगा तक की संस्कृति 6000 BCE से 1942 तक के कालखंड की 20 कहानियों में समेट दी । 

आप भी इन प्रेरणादायक रोमांचक यात्रा वृतांतों को स्वयं अवश्य पढ़े ।

indian history in hindi, भारतीय इतिहास , Travelers 

मंगलवार, 20 जून 2023

योग दिवस

योग के प्रवर्तक ऋषि पतंजलि को माना जाता है , जिनका काल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी है । अर्थात यह बताने का प्रयास किया जाता है कि योग के जनक महर्षी पतंजलि थे , पतंजलि से पूर्व योग दर्शन नही था , अथवा उनसे पहले लोग योग नही जानते थे ।
जबकि पतंजलि से हजारों वर्ष पूर्व भी योग पूर्ण रूप में प्रचलित था , इसके अनेक प्रमाण वेदों में मिलते है -

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥
योग के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता, वे सदसस्पति देव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओं से युक्त करते हैं।[ऋग्वेद 1.18.7]

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे सखाय इन्द्र मूतये
(यजुर्वेद 11/14)

क्व१॒॑ त्री च॒क्रा त्रि॒वृतो॒ रथ॑स्य॒ क्व१॒॑ त्रयो॑ व॒न्धुरो॒ ये सनी॑ळाः । क॒दा योगो॑ वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॒ येन॑ य॒ज्ञं ना॑सत्योपया॒थः ॥ [ऋग्वेद 1.34.9] 

अनेक उपनिषदों में भी योग के समस्त अंगों का विस्तृत वर्णन मिलता है ।

पतंजलि के पूर्व गौतम बुद्ध ने भी योग से यम नियम पद्मासन ध्यान व समाधि को अपनाया और प्रचलित किया। 
महर्षि पतंजलि ने पूर्व प्रचलित योग के 195 सूत्रों को संकलित किया, जो योग दर्शन के स्तंभ माने गए। महर्षि पतंजलि ही पहले और एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को आस्था और धार्मिक कर्मकांड से बाहर निकालकर एक जीवन दर्शन का रूप दिया था।

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की महिमा को बताया, जो स्वस्थ जीवन के लिए महत्वपूर्ण माना गया । 
(सभी फ़ोटो- हड़प्पा कालीन योग मुद्राये ) 
आजकल योग को सिर्फ शारीरिक समस्याओं से छुटकारा दिलाने का साधन मान लिया गया है , जबकि यह अध्यात्मिक उन्नति और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की पद्धति है । 

शरीर मन और आत्मा को जोड़ने का विज्ञान है योग

योग दिवस की शुभकामनाएं !