बुधवार, 17 मई 2023

2000 साल पहले की कवियत्री की कविताएं : गाथा सप्तशती

2000 साल पहले की अज्ञात कवियत्री की कविताएं :
गाथा सप्तशती ( गाहा सत्तसई ) 

गाथा सप्तशती प्राकृत भाषा का ग्रंथ है । प्राकृत भाषा प्राचीन काल से 10 वी शताब्दी तक पूरे भारत मे जनसामान्य की भाषा हुआ करती थी । गाथा अर्थात छंद , सप्तशती अर्थात 700 । इसमें 700 छोटी छोटी कविताओं का संकलन होने पर इस कृति का नाम गाथा सप्तशती पड़ा । 
यह कब लिखी गयी इसमें विद्वानों के एक विचार नही है । किंतु राजा सालवाहन के दरबारी कवि हाल ने इसका संकलन किया । अर्थात इसका वर्तमान स्वरूप प्रथम शताब्दी ईसवी में आया । बाणभट्ट ने भी हर्षचरित में इसका जिक्र किया ।

इस ग्रंथ को पढ़ने से पता चलता है कि अधिकांश कविताएं किसी अज्ञात कवियत्री की लिखी हुई है । पुस्तक में केरल की नदियों , गुजरात , मानसरोवर, विंध्याचल, महाराष्ट्र के स्थानों आदि का जिक्र आता है । 
आधुनिक काल मे भारतीयों को गाथा सप्तशती का पता तब चला जब जर्मन कवि वेबर ने 1870 में इसकी 17 पांडुलिपियों को खोज निकाला । ये पांडुलिपियां तमिलनाडु बिहार राजस्थान महाराष्ट्र बंगाल गुजरात कश्मीर से प्राप्त की गई । आश्चर्यजनक रूप से इनमें 430 कविताएं सभी मे हूबहू मिली । वेबर ने 1870 में गाथा सप्तशती को जर्मन भाषा में प्रकाशित करवाया । 1956 में इसका मराठी अनुवाद प्रकाशित हुआ ।

इन कविताओं में 2000 साल पहले के लोक व्यवहार , राग रंग, मिलन वियोग , प्रेम काम , हास विलास, रीति रिवाज पर स्त्री के दृष्टिकोण पता चलता है । इन कविताओं में जाति प्रथा का कोई जिक्र नही है । उस समय के समाज मे स्त्री भावनाओं से रचित कविताएं गाई जाती थी और इन्हें राजाओं का आश्रय प्राप्त था ।

गाथा सप्तशती से कुछ कविताएं प्रस्तुत है ।
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आग -
निर्वासित के चूल्हे में 
और यज्ञशाला में 
एक जैसी ही जलती है ।
सब से
अपना व्यवहार समान रखो।
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मेरे उलझे बाल 
अभी सुलझे भी नही 
और तुम जाने की बात करते हो ।
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लौटेंगे प्रीतम परदेश से ...
मैं रूठ जाऊंगी ,
वह मनाएंगे ,
मैं रूठी रहूंगी ,
वे फिर मनाएंगे ,
मैं रूठी रहूंगी ।
क्या यह है मेरे भाग्य में ?
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प्रियतम,
मुझे मेरा जीवन प्रिय है तुमसे अधिक ।
तभी तो तुम्हारी हर बात मानती हूँ ।
क्योकि तुम बिन मेरा जीवन है ही नही ।
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कुत्ता मर गया है 
सास सोई है 
भैस चरने गयी है 
पति परदेश गया है ,
मेरे बारे में कौन किसको क्या बताएगा ?
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तुम्हारे अधरों का स्वाद यदि जानते ,
तो देवता समुद्र मंथन न करते ,
अमृत के लिए !!!
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नवरात्रि

नवरात्र ईश्वर के स्त्री रूप को समर्पित है। काली, लक्ष्मी और सरस्वती स्त्री-गुण के तीन आयामों के प्रतीक हैं। वे अस्तित्व के तीन मूल गुणों-तमस, रजस और सत्व के भी प्रतीक हैं। तमस का अर्थ है जड़ता। रजस का मतलब है सक्रियता और जोश। सत्व एक तरह से सीमाओं को तोड़कर विलीन होना है, पिघलकर समा जाना है। तीन खगोलीय पिंडों से हमारे शरीर की रचना का बहुत गहरा संबंध है-पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा। इन तीन गुणों को इन तीन पिंडों से भी जोड़ कर देखा जाता है। पृथ्वी माता को तमस माना गया है, सूर्य रजस है और चंद्रमा सत्व। 
नवरात्र के पहले तीन दिन तमस से जुड़े होते हैं। इसके बाद के दिन रजस से और नवरात्र के अंतिम दिन सत्व से जुड़े होते हैं। जो लोग शक्ति, अमरता या क्षमता की इच्छा रखते हैं, वे स्त्रैण के उन रूपों की आराधना करते हैं, जिन्हें तमस कहा जाता है, जैसे काली या धरती मां। जो लोग धन-दौलत, जोश और उत्साह, जीवन और भौतिक दुनिया की तमाम दूसरी सौगातों की इच्छा करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से स्त्रैण के उस रूप की ओर आकर्षित होते हैं, जिसे लक्ष्मी या सूर्य के रूप में जाना जाता है। जो लोग ज्ञान, बोध चाहते हैं और नश्वर शरीर की सीमाओं के पार जाना चाहते हैं, वे स्त्रैण के सत्व रूप की आराधना करते हैं। सरस्वती या चंद्रमा उसका प्रतीक है। तमस पृथ्वी की प्रकृति है, जो सबको जन्म देने वाली है। हम जो समय गर्भ में बिताते हैं, वह समय तामसी प्रकृति का होता है। उस समय हम लगभग निष्क्रिय स्थिति में होते हुए भी विकसित हो रहे होते हैं। इसलिए तमस धरती और आपके जन्म की प्रकृति है। आप धरती पर बैठे हैं। आपको उसके साथ एकाकार होना सीखना चाहिए। वैसे भी आप उसका एक अंश हैं। जब वह चाहती है, एक शरीर के रूप में आपको अपने गर्भ से बाहर निकाल कर आपको जीवन दे देती है और जब वह चाहती है, उस शरीर को वापस अपने भीतर समा लेती है। इन तीनों आयामों में आप खुद को जिस तरह से लगाएंगे, वह आपके जीवन को एक दिशा देगा। अगर आप खुद को तमस की ओर लगाते हैं, तो आप एक तरीके से शक्तिशाली होंगे। अगर आप रजस पर ध्यान देते हैं, तो आप दूसरी तरह से शक्तिशाली होंगे। लेकिन अगर आप सत्व की ओर जाते हैं, तो आप बिलकुल अलग रूप में शक्तिशाली होंगे। लेकिन यदि आप इन सब के परे चले जाते हैं, तो बात शक्ति की नहीं रह जाएगी, फिर आप मोक्ष की ओर बढ़ेंगे।

 नवरात्र के बाद दसवां और आखिरी दिन विजयदशमी या दशहरा होता है। इसका अर्थ है कि आपने इन तीनों गुणों पर विजय पा ली है। आप हर एक में शामिल हुए, मगर आपने किसी में भी खुद को लगाया नहीं। आपने उन्हें जीत लिया। यही विजयदशमी है यानी विजय का दिन। 

स्त्री शक्ति की पूजा इस धरती पर पूजा का सबसे प्राचीन रूप है। सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि पूरे यूरोप और अरब तथा अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों में स्त्री शक्ति की हमेशा पूजा की जाती थी। वहां देवियां होती थीं।  दुनिया में हर कहीं पूजा का सबसे बुनियादी रूप देवी पूजा या कहें स्त्री शक्ति की पूजा ही रही है। भारत इकलौती ऐसी संस्कृति है, जिसने अब भी उसे संभाल कर रखा है। हर गांव में एक देवी मंदिर जरूर होता है। और यही एक संस्कृति है, जहां आपको अपनी देवी बनाने की आजादी दी गई थी। इसलिए आप स्थानीय जरूरतों के मुताबिक अपनी जरूरतों के लिए अपनी देवी बना सकते थे। (जैसे  - खेरमाई , सिमसा , तारिणी , मनसा, शीतला आदि ) l प्राण-प्रतिष्ठा का विज्ञान इतना व्यापक था कि यह मान लिया जाता था कि हर गांव में कम से कम एक देवी मंदिर होगा जो उस स्थान के लिए जरूरी ऊर्जा उत्पन्न करेगा। 

नवरात्रि, जिसका अर्थ ही होता है नौ रातें। यह एक ऐसा पर्व होता है जिसका इंतजार लोग साल के गुजरने से पहले से ही करने लगते है। जिसकी प्रतिक्षा हर व्यक्ति को साल भर रहती है। यह हमारी श्रद्धा तपस्या और अध्यात्म की गंगा में बहने वाला पर्व होता है। 

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। 
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

बहुत जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून

बहुत जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून -

अनियंत्रित गति से बढ़ रही जनसंख्या देश के विकास को बाधित करने के साथ ही हमारे आम जन जीवन को भी दिन-प्रतिदिन प्रभावित कर रही है। विकास की कोई भी परियोजना वर्तमान जनसंख्या दर को ध्यान में रखकर बनायी जाती है, लेकिन अचानक जनसंख्या में इजाफा होने के कारण परियोजना का जमीनी धरातल पर साकार हो पाना मुश्किल हो जाता है। ये साफ तौर पर जाहिर है कि जैसे-जैसे भारत की जनसंख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे गरीबी का रूप भी विकराल होता जायेगा। महंगाई बढ़ती जायेगी और जीवन के अस्तित्व के लिए संघर्ष होना प्रारंभ हो जायेगा।
लोगों में जन-जागृति का अभाव होने के कारण तथा मज़हबी विचारों के कारण दस-बारह बच्चों की फौज खड़ी करने में वे कोई गुरेज नहीं करते है। एक पुत्र की कामना में अनेक पुत्रियां हों इसमें कोई गुरेज नहीं क्योकि ऐसे लोगो की धार्मिक मान्यता है कि वंश पुत्र से ही चलता है । इसलिए सबसे पहले उन्हें जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक करने की महती आवश्यकता है। यह समझने की जरूरत है कि जनसंख्या को बढ़ाकर हम अपने आने वाले कल को ही खतरे में डाल रहे हैं। वस्तुतः बढ़ती जनसंख्या के कारण भारी मात्रा में खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो रहा है। जिसके कारण देश में भुखमरी, पानी व बिजली की समस्या, आवास की समस्या, अशिक्षा का दंश, चिकित्सा की बदइंतजामी व रोजगार के कम होते विकल्प इत्यादि प्रकार की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। 

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या 2024 तक चीन की भारी आबादी को पीछे छोड़कर काफी आगे निकल जायेगी। सन 2100 तक भारत दुनिया का सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बन जायेगा। 

हमें समझना चाहिए कि बेहताशा बढ़ती जनसंख्या न केवल वर्तमान विकास क्रम को प्रभावित करती है, बल्कि अपने साथ भविष्य की कई चुनौतियां भी लेकर आती है। भूखों और नंगों की तादाद खड़ी करके हम खाद्यान्न संकट, पेयजल, आवास और शिक्षा का खतरा मोल ले रहे हैं। लोकतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील कर देश की गरीबी को बढ़ा रहे हैं। सालों पहले प्रतिपादित भूगोलवेत्ता माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत के मुताबिक मानव जनसंख्या ज्यामितीय आधार पर बढ़ती है लेकिन वहीं, भोजन और प्राकृतिक संसाधन अंकगणितीय आधार पर बढ़ते हैं। यही वजह है कि जनसंख्या और संसाधनों के बीच का अंतर उत्पन्न हो जाता है। कुदरत इस अंतर को पाटने के लिए आपदाएं लाती है। कभी सूखा पड़ता है तो कभी बाढ़ इसकी मिसालें हैं। इसी तरह डार्विनवाद के प्रणेता चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत के मुताबिक ''जीवन के लिए संघर्ष' लागू होता स्पष्ट नजर आ रहा है। सीमित जनसंख्या में हम बेहतर और अधिक संसाधनों के साथ आरामदायक जीवन जी सकते हैं, जबकि जनसंख्या वृद्धि के कारण यही आराम संघर्ष में परिवर्तित होकर शांति-सुकून को छीनने का काम करता है। 

आज देश की सभी समस्याओं की जड़ में जनसंख्या-विस्फोट है। विश्व के सबसे अधिक गरीब और भूखे लोग भारत में हैं। कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है। बेरोजगारी से देश के युवा परेशान हैं। युवा शक्ति में निरंतर तनाव बढ़ता जा रहा है जो देश में बढ़ते हुए अपराधों का एक सबसे बड़ा कारण है। बढ़ती हुई जनसंख्या चिंता का विषय है।

सरकार से उम्मीद है कि वह जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाये ।

सोमवार, 15 मई 2023

अशफ़ाक़ उल्ला खान

भारत माँ के वीर सपूत , अमर बलिदानी , शहीदे आजम अशफ़ाक़ उल्ला खान की जयंती पर शत शत नमन । फांसी के समय उनकी उम्र मात्र 27 साल थी । 

अशफ़ाक़ उल्ला खान एक महान क्रांतिकारी होने के साथ उच्चकोटि के शायर भी थे । उनकी गजले देशभक्ति की भावना से भरी हुई हैं । 
उस वक़्त भी अनेक लिबरल हिंदुस्तानी थे जो अंग्रेजी राज्य को अच्छा मानते थे और उनके सपोर्टर थे । आज भी देश को ऐसे ही  आस्तीन के सापों से ज्यादा खतरा है जो विदेशी टुकड़ों पर पल रहें हैं । इन लोगो के लिये अशफ़ाक़ जी लिखते हैं -

न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई तुर्की,
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी जो आज हमको मिटा रहे हैं ।

चलो-चलो यारो रिंग थिएटर दिखाएँ तुमको वहाँ पे लिबरल,
जो चन्द टुकडों पे सीमोज़र के नया तमाशा दिखा रहे हैं।

उनकी अंतिम इक्षा थी -

ख़ुदा अगर मिल गया कहीं 
अपनी झोली फैला दूंगा 
और जन्नत के बदले उससे 
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा 
फिर आकर ऐ भारत माता 
तुझको आज़ाद कराऊंगा ।

22 october 2020


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जालियाँवाला बाग

नमन कर रहा हूँ उनको जिनका तन-मन भारत माँ को अर्पित है.
भारत माँ अपने बेटों की कुर्बानी पर गर्वित है.
जिन लोगो का लहू बह गया जलिया वाले बाग में,
उनके चरणों में शब्दों का श्रद्धा सुमन समर्पित है.
जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) हुआ था। रौलेट एक्ट और किचलू और डॉ॰ सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी !! रॉलेट ऐक्ट मार्च 1919 में भारत की ब्रिटनी सरकार द्वारा भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से निर्मित कानून था। यह कानून “सर सिडनी रौलेट” की अध्यक्षता वाली समिति की शिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। इसके अनुसार ब्रिटनी सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना दंड दिए उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था l इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जूलूस और प्रदर्शन होने लगे। गाँधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे,  जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद  लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा।
सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। 10  मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहां तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया।! 
मुख्यालय वापस पहुँच कर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फ़ौज ने हमला किया था जिससे बचने के  लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ी !!
एक अनुमान के मुताबिक़ जलियांवाला बाग़ हत्याकांड में कम से कम 1300 लोगों की जानें गयी थी जबकि जलियावाला बाग़ में लगी पट्टिका पर मात्र 120 लोगों की मरने की सूचना दी गयी है !!
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकाण्ड के विरोध-स्वरूप अपनी नाइटहुड को वापस कर दिया ! पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था परंतु इस घटना से  पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ कियाथा !! भगतसिंह जलियावाला बाग़ की वो मिट्टी को (जिस पर निर्दोष भारतीयों का खून गिरा था)  एक छोटी सी शीशी में भरकर लाये थे ! और हर वक़्त वो उस शीशी को अपने साथ ही रखते थे !!
जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह इसका बदला लेंगे।  13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल डायर को गोली चला के मार डाला ! ऊधमसिंह को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की कड़े शब्दों में निंदा की थी !!

हर दमन चक्र की तिमिर निशा में
अविरल जलता चिराग हूं ,
क्रांति क्षेत्र, शोणित सिंचित ,
मैं जलियांवाला बाग हूं ।

अश्रुपूर्ण 103 वर्ष 13 april 1919

यतीन्द्रनाथ दास

श्री यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये।
लाहौर षड्यंत्र अभियोग में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिकारियों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र,जबकि कांग्रेसी सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से मारपीट किया करते थे और उनको अमानवीय यातनाये ढ़ी जाती थी । इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी। जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने यतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है, ‘विजय या मृत्यु।'

यतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था।  यतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।

अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन खाद्य-पदार्थों को  छूना तो दूर देखते तक न थे।

जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। यतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज यतीन्द्र के चेहरे पर विशेष मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने यतीन्द्र का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे' और फिर ‘वन्दे मातरम्' गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी यतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया। देश के लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया । आज उनकी जयंती पर शत शत नमन ।

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कहाँ गए सुभाष

जीवन अपना दांव लगाकर
दुश्मन सारे खूब छकाकर
कहां गया वो, कहां गया वो
जीवन-संगी सब बिसराकर?

तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
मैं तुमको आजादी दूंगा
लेकिन उसका मोल भी लूंगा
खूं बदले आजादी दूंगा
बोलो सब तैयार हो क्या?
 
गरजा सुभाष, बरसा सुभाष
वो था सुभाष, अपना सुभाष
नेता सुभाष, बाबू सुभाष
तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
अपना सुभाष, अपना सुभाष। 
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वे कहां गए, वे कहां रहे, ये धूमिल अभी कहानी है, 
हमने तो उसकी नयी कथा, आज़ाद फ़ौज से जानी है।
आखिर कहाँ गए नेताजी सुभाष चंद्र बोस : 
यह संभव है कि 1945 मेँ नेताजी ने विमान दुर्घटना और अपनी मौत की खबर स्वयं फैलाई हो ताकि अंग्रेजो को चकमा दिया जा सके । विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी रूस जाना चाहते थे । यह बात उन्होंने अपने करीबियों को बताई थी और जापानियों से अपने मंचूरिया जाने का प्रबंध करने को कहा था । संभवतः नेताजी उस विमान में बैठे ही नहीं जिसकी दुर्घटना की बात कही जाती है , और ऐसी कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं । नेताजी की मृत्यु पर बने सभी सरकारी जांच आयोगों ने सही तरह से जांच किये बगैर वही निष्कर्ष दे दिया जो सरकार चाहती थी । सरकारी ढोल बजाने वाले इन जांच आयोगों ने देश की जनता से विश्वासघात किया ।
संभवतः अपनी मौत की खबर फैला कर ताईपेह से नेताजी मंचूरिया गए । अभी मंचूरिया चीन का प्रान्त है मगर उन दिनों यह रूस का अंग था । नेताजी को भरोसा था कि रूस की साम्यवादी   सरकार उनको साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए सहायता देगी । कुछ लोग मानते हैं कि मंचूरिया पहुचकर नेताजी मास्को गए वहां स्टालिन ने विश्वासघात किया और  नेहरू के कहने पर नेताजी को गिरफ्तार कर साइबेरिया की जेल में रखा । 
यह भी कहा जाता है कि 1952 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रूस में भारत के राजदूत थे । उनको किसी रूसी अखिकारी ने बताया कि आपके नेताजी हमारी जेल में है । नेताजी को किसी अन्य नाम से जेल में रखा गया था । राधाकृष्णन को इस बात पर भरोसा नहीं हुआ उन्होंने स्वयं नेताजी को देखने की इक्षा व्यक्त की । राधाकृष्णन साइबेरिया गए । वहां उन्होंने दूर से नेताजी को देखा । डॉ राधाकृष्णन ने रूसी अधिकारियो से बात कर उनके प्रथक सेल में रखने और दो सहायक  तथा अन्य सुविधाये दिए जाने की व्यवस्था की । मास्को आकर डॉ राधाकृष्णन ने नेताजी की रिहाई हेतु नेहरूजी से बात की । नेहरूजी ने डॉ राधाकृष्णन को चुप रहने को कहा और उनको  भारत बुला कर उपराष्ट्रपति ( बाद में राष्ट्रपति) बनवा दिया,  ऐसा कुछ लोग मानते हैं ।

यह भी कहा जाता है कि लालबहादुर शास्री जब  विदेश मंत्री और बाद में प्रधान मंत्री बने तब गोपनीय फाइलों द्वारा उनको नेताजी के रूस में होने का पता चला । 1968 में ताशकंद रूस में लालबहादुर शास्री नेताजी की रिहाई कराने का प्रयास कर रहे थे तभी उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी और नेहरू की बेटी प्रधानमंत्री बन गयी । इसके बदले KGB को भारत में कार्य करने की अनुमति और रूस को अयस्क निकलने की अनुमति और सोवियत विचारधारा के प्रचार तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को फंडिंग की अनुमति आदि मिली ।  माना जाता है कि शास्री जी की मौत का  सुभाष चंद्र बोस की रिहाई से गहरा सम्बन्ध है ।

अगर नेताजी भारत आ जाते तो उन्हें छुप कर रहने की जरूरत न पड़ती , पूरा देश उनका साथ देता और द्वितीय विश्वयुद्ध के अपराधियों को पकड़ कर इंग्लैंड के सुपुर्द करने की संधि किसी काम न आती । इसलिए उनके फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा बन कर रहने वाली बात सही हो सकती है या नही , इस पर भी कोई ठोस सरकारी इन्वेस्टिगेशन नही हुआ ।
मेरे गुरु डॉ एम् पी चौरसिया अनेक वर्षों तक रूस में रहे , 1958 में जब वे मास्को पावर इंस्टिट्यूट में कार्यरत थे तब उन्हें एक रूसी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर ने बताया कि वह साइबेरिया ट्रांसमिशन लाइन में कार्यरत था । उसने डॉ चौरसिया को बताया कि वहां कोई भारतीय रहता है जिसे एक कोठी , घोड़े तथा नौकर मिले हुए है । उस भारतीय को साइबेरिया के उस गाँव से बाहर जाने की अनुमति नहीं है । इसकी निगरानी वहां की पुलिस करती है । डॉ चौरसिया का मानना था कि वह भारतीय सुभाष चंद्र बोस ही है । यह डॉ चौरसिया ने मुझे 1984 में बताया था । 

सत्य जो भी हो हर देशवासी को पूरा अधिकार है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जानने का और उन ग़द्दारों के बारे में भी जानने का जिनकी वजह से नेताजी आजादी के बाद भी अपने देश नहीं आ सके ।



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