मंगलवार, 1 अगस्त 2023

मुंशी प्रेमचंद

जिहाद , नमक का दरोगा, पंच परमेश्वर, पूस की रात, ईदगाह आदि हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कालजयी कहानियां है - जिनके लेखक थे मुंशी प्रेमचंद । 

आज की युवा पीढ़ी को ये कहानियां अवश्य पढ़नी चाहिए जो आज भी सामयिक हैं ।
सन् 1929 में अंग्रेजी सरकार ने प्रेमचंद की लोकप्रियता के चलते उन्हें 'रायसाहब' की उपाधि देने का निश्चय किया।

तत्कालीन गवर्नर सर हेली ने प्रेमचंद को खबर भिजवाई कि सरकार उन्हें रायसाहब की उपाधि से नवाजना चाहती है। उन दिनों रायसाहब को सरकार की तरफ से घोड़ा गाड़ी कोचवान बंगला अर्दली और मासिक रुपये दिए जाते थे ।  प्रेमचंद ने इस संदेश को पाकर कोई खास प्रसन्नता व्यक्त नहीं की, हालांकि उनकी पत्नी बड़ी खुश हुईं और उन्होंने पूछा, उपाधि के साथ कुछ और भी देंगे या नहीं? प्रेमचंद बोले, 'हां!

कुछ और भी देंगे।' पत्नी का इशारा धनराशि आदि से था। प्रेमचंद का उत्तर सुनकर पत्नी ने कहा, तो फिर सोच क्या रहे हैं? आप फौरन गवर्नर साहब को हां कहलवा दीजिए।

प्रेमचंद पत्नी का विरोध करते हुए बोले, मैं यह उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।

कारण यह है कि अभी मैंने जितना लिखा है, वह जनता के लिए लिखा है, किंतु रायसाहब बनने के बाद मुझे सरकार के लिए लिखना पड़ेगा। यह गुलामी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसके बाद प्रेमचंद ने गवर्नर को उत्तर भेजते हुए लिखा, "मैं जनता की रायसाहबी ले सकता हूं, किंतु सरकार की नहीं।" प्रेमचंद के उत्तर से गवर्नर हेली आश्चर्य में पड़ गए।

(आज तो सरकारी सुख सुविधा लेने के लिए लेखकों पत्रकारों की लंबी फेहरिस्त है )

प्रेमचंद दलित नही थे मगर उन्होंने दलितों के लिए , उनकी समस्याओं पर जितना ज्यादा लिखा उतना आज तक कोई नही लिख सका । 
प्रेमचन्द के कहानी साहित्य में राष्ट्रीयता का स्वर सबसे ज्यादा मुखर है। उस युग के स्वतंत्रता आंदोलन ने ही प्रेमचन्द जैसे संवेदनशील लेखकों में राष्ट्रीयता जैसा प्रबल भाव डाला था।
 प्रेमचन्द गाँधी जी से बहुत प्रभावित हुए थे और राष्ट्रीयता के क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मानकर चले थे। गाँधी जी के आवहान पर सरकारी नौकरी छोङने वाले प्रेमचंद जी की कहानियोँ में समाज के सभी वर्गों का चित्रण बहुत ही सहज और स्वाभाविक ढंग से देखने को मिलता है।माँ, अनमन, दालान (मानसरोवर-१) कुत्सा, डामुल का कैदी (मानसरोवर-२) माता का हृदय, धिक्कार, लैला (मानसरोवर-३) सती (मानसरोवर-५) जेल, पत्नी से पति, शराब की दुकान जलूस, होली का उपहार कफन, समर यात्रा सुहाग की साड़ी (मानसरोवर-७) तथा आहुति इत्यादि वे कहानियाँ हैं जिनमें राष्ट्रीयता के विष्य को प्रमुखता से डाला गया है।इन कहानियों ने प्रेमचन्द ने एक इतिहासकार की भांति राष्ट्रीय आंदोलन के चित्र खींचे हैं।  उन्होंने विश्वास जैसी कहानी के माध्यम से गाँधी जी के आदर्शों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया।

प्रेमचन्द के मानस में भारतीय संस्कार अपेक्षाकृत अधिक प्रबल थे। विदेशी सभ्यता, संस्कृति आचरण एवं शिक्षा के प्रति उनकी आस्था दुर्बल थी।प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंडों को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। 

व्यक्तिगत जीवन में भी मुंशी प्रेमचंद जी सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन यापन करते थे, दिखावटी तामझाम से दूर रहते थे। एक बार किसी ने प्रेमचंद जी से पूछा कि – “आप कैसे कागज और कैसे पैन से लिखते हैं ?”

मुंशी जी, सुनकर पहले तो जोरदार ठहाका लगाये फिर बोले – “ऐसे कागज पर जनाब, जिसपर पहले से कुछ न लिखा हो यानि कोरा हो और ऐसे पैन से , जिसका निब न टूटा हो।‘

थोङा गम्भीर होते हुए बोले – “भाई जान ! ये सब चोंचले हम जैसे कलम के मजदूरों के लिये नही है।“

मुशी प्रेमचंद जी के लिये कहा जाता है कि वो जिस निब से लिखते थे, बीच बीच में उसी से दाँत भी खोद लेते थे। जिस कारण कई बार उनके होंठ स्याही से रंगे दिखाई देते थे।

प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से एक हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।


महान लेखक प्रेमचंद के जन्मदिवस पर उनको सादर  नमन 
🙏🙏🙏

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शनिवार, 29 जुलाई 2023

माँ तारा


माँ तारा 

बौद्ध धर्म मे देवी तारा अत्यंत प्रमुख शक्ति हैं । जिन्हें बोधिसत्व का स्त्री रूप माना जाता है । इन्हें अनेक बौद्ध देशों में बुद्ध की पत्नी के रूप में पूजा जाता है । सनातन धर्म मे तारा देवी को दुर्गा का एक रूप माना गया है । 

ध्यायेत् कोटि-दिवाकरद्युति-निभां बालेन्दुयुक्छेखरां
रक्ताङ्गीं रसनां सुरक्त वसनां पूर्णेन्दुबिम्बाननां।
पाशं कर्तृ-महाङ्कुशादि-दधतीं दोर्भिश्चतुर्भिर्युतां
नानाभूषण-भूषितां भगवतीं तारां जगत्तारिणीं॥

माँ काली नील रूप में भगवती तारा बनी , हयग्रीव का वध करने पर इन्हें नील विग्रह प्राप्त हुआ । इन्हें नील सरस्वती भी कहा जाता है ।
तारा एक बोधिसत्व हैं । 
देवी तारा तिब्बत, मंगोलिया , नेपाल , भूटान , सिक्किम में बहुत लोकप्रिय है और बौद्ध समुदायों में उनकी पूजा की जाती है।  चीनी बौद्ध धर्म में देवी तारा को अवलोकितेश्वर की अर्धांगिनी के रूप में पूजा जाता है । बौद्ध धर्म मे माँ तारा स्त्री सिद्धांत के कई गुणों का प्रतीक है। उन्हें दया और करुणा की माता के रूप में जाना जाता है। वह ब्रह्मांड के स्त्री पहलू का स्त्रोत है, जो चक्रीय अस्तित्व में सामान्य प्राणियों द्वारा अनुभव किए गए बुरे कर्म से मुक्ति , करुणा और राहत को जन्म देता है। वह सृजन की जीवन शक्ति को जन्म देती हैं, पोषण करती हैं, मुस्कुराती हैं , और सभी प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखती हैं जैसे एक माँ अपने बच्चों के लिए करती हैं। बौद्ध धर्म मे मान्यता है कि हरी तारा के रूप में वह संसार के भीतर आने वाली सभी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों से सहायता और सुरक्षा प्रदान करती हैं। श्वेत तारा के रूप में वह मातृ करुणा व्यक्त करती हैं और मानसिक या मानसिक रूप से आहत या घायल प्राणियों को उपचार प्रदान करती हैं। लाल तारा के रूप में वह सृजित घटनाओं के बारे में विवेकपूर्ण जागरूकता सिखाती हैं, कि अधूरी इच्छा को करुणा और प्रेम में कैसे बदलना है।
मंत्र
॥ॐ तारायै विद्महे महोग्रायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥

यह तारा गायत्री मन्त्र है, इसका भाव है- “हम भगवती तारा को जानते हैं और उन महान् उग्र स्वरूप वाली देवी का ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमारी चित्तवृत्ति को अपने ही ध्यान में, अपनी ही लीला में लगाये रखें।”
इनका एक तिब्बती मंत्र बहुत शक्तिशाली है 
ॐ तारा तू तारा तुरे सोहम 
अर्थात ओम माँ तारा , आप तारने वाली है , मां तारा (आपको प्रणाम व आपके लिए) स्वाहा 

https://youtu.be/ayGQoJdRcdQ


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बुधवार, 19 जुलाई 2023

क्रांतिकारी वीर हलधर बाजपेई


क्रांतिकारी वीर योद्धा पंडित हलधर बाजपेई
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हलधर बाजपेई चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह के साथी व हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सक्रिय सदस्य थे |
कानपुर देहरादून षड्यंत्र केस के संदर्भ में 12 अगस्त 1932 की रात कानपुर में पुलिस ने शहर में लगभग 30 - 32 घरों में एक साथ छापा मारा उसमें से परमट , कुरसवां और कछियाना मोहाल प्रमुख थे | कानपुर इलेक्ट्रिसिटी दफ्तर मे काम करने वाला युवक हलधर फूलबाग के सामने कुरसवां की सकरी गली में बड़ी तेजी से घुसा और अपने मकान में ऊपर के कमरे में पहुंचकर पिस्तौल छोटे-मोटे घातक औजार व क्रांतिकारी साहित्य को इकट्ठा करके हटाने की योजना बना ही रहा था की पुलिस पार्टी मकान में दाखिल हुई | पुलिस पार्टी को जीने का दरवाजा खुला मिला तो वह  धड़धड़ाते हुए हुए ऊपर चढ़ने लगी | हलधर बाजपेई छत पर अपने कमरे में सामान इकट्ठा कर ही रहे थे कि उन्होंने सीढ़ियों पर पुलिस पार्टी के आमद की आहट से सशंकित हो उठे थे और  जीने से छत पर आने वाला दरवाजा को तुरन्त बंद किया और पिस्तौल व गोलियां लेकर ऊपर चढ़ गए पुलिस ने दरवाजा तोड़ा तो हलधर बाजपेई पिस्तौल ताने दरवाजे पर ताक लगाए वीरासन मुद्रा में बैठे दिखे जरा सा भी दरवाजा खुलता तो हलधर बाजपेई तुरंत पिस्तौल दाग देते और दरवाजा बंद हो जाता | पुलिस की भी बंदूके  गरज उठती  वहां निशाना साधने को ताब कहां थी ? रात भर हलधर बाजपेई जी और पुलिस दोनों तरफ से गोलियां चलती है छत वाले कमरे की एक दीवार का एक भाग और दरवाजे के ऊपर अगल-बगल की दीवाले गोली चलने से छलनी हो गई |  इस बीच पुलिस ने आंगन का दरवाजा भी खोल डाला और आंगन से भी गोलियां चलाने लगी पुलिस की टुकड़ी से घर के आस-पास  गोलियों के चलने से वातावरण गूंज उठा | उधर हलधर की पत्नी भी मौका देख अपने पति के कमरे में दाखिल होकर मोर्चे पर आ डर्टी वह पिस्तौल भर भरकर हलधर को देती जाती और  हलधर दोनों तरफ ताक लगाए रहते जैसे ही किसी को झांकते देखते या फिर सिर देखते तो फायर ठोक देते | रात के सन्नाटे मे  हलधर और पुलिस वालों की आवाज भी रह रहकर सुनाई देती ? कोई छत पर मत आना ,सब लोग घरों के अंदर रहे " सवेरा होते होते पुलिस टीम बढ़ती  चली गई | पुलिस वाले कहीं से हलधर बाजपेई के पिता मुरलीधर बाजपेई जी को पकड़ लाए और पुलिस का दरोगा असगर अली मुरलीधर जी को आगे करके आंगन में निकल आया और हलघर बाजपेई पर गोलियां चलाने लगा | लेकिन हां जरा सा मौका मिला तो हलधर ने ऐसा निशाना साधा की गोली सीधे असगर अली के पेट में जा लगी और वह पेट पकड़कर वही लेट गया |  सुबह हुई पुलिस कप्तान  मार्श स्मिथ भी हलधर के पिता मुरलीधर जी की ओट लेकर आंगन में आ गया हलधर ने फिर गोली चलाई जो मार्स स्मिथ के कंधे पर जा लगी  | हलधर के पिता ने अपील की कि बेटा-  अब बहुत हो चुका तुम्हें अब गिरफ्तार होना ही पड़ेगा |  इसके बाद पिता के कहने पर  हलधर बाजपेई ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया | लेकिन हलधर बाजपेई हंस रहे थे और मार्स स्मिथ भी हलधर की वीरता और साहस को देखकर दंग था | पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जिसमें उन्हें 6 वर्ष की कड़ी कैद की सजा दी गई |

1950 में आसाम में भूकंप पीड़ितों की सहायता करते हुए मुंबई कांग्रेस के जत्थे के साथ गए जहां पर 18 अक्टूबर 1950 को मलवा साफ करने के दौरान अचानक एक दीवार गिरने से भारत माता का यह सपूत हलधर बाजपेई समाज सेवा करते करते शहीद हो गया |

           ( ✍️ अनूप कुमार शुक्ल
 महासचिव कानपुर इतिहास समिति कानपुर)

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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

रमा खंडवाला:


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रमा खंडवाला: 

सिर्फ एक टूर गाइड नहीं, वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज में सेकंड लेफ्टिनेंट भी थी
अगर अपने शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा अभिनीत "जब हैरी मेट सेजल" देखी होगी तो उसमें एक टूर गाइड की भूमिका में एक वृद्धा को एक छोटे से,  मगर यादगार रोल में भी देखा होगा. 

यह 94-वर्षीय रमा खंडवाला हैं।  वह मुंबई की  नियमित टूरिस्ट गाइड रही हैं. यह काम उन्होंने अब से लगभग पचास वर्ष पूर्व नेताजी सुभास चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज से क्रियाशीलता खत्म होने के बाद आजीविका के लिए करना शुरू किया था. क्योकि सरकार द्वारा आजाद हिंद फौज के सैनिकों को युद्ध अपराधी मानते हुए पेंशन नही दी गयी । वह १७-वर्ष की आयु में नेताजी की सेना की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन में एक सिपाही के रूप में भर्ती हुई थीं और अपनी निष्ठा, समर्पण और जूनून से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद तक जा पहुंची. 
अभी मुंबई के गिरगांव क्षेत्र में अपने एक कमरे के छोटे से फ्लैट में रहने वाली रमा का जन्म रंगून के एक सम्पन्न मेहता परिवार में हुआ था. रमा को इस भर्ती के लिए किसी और ने नहीं उसकी अपनी माँ ने प्रेरित किया था जो स्वयं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन की भर्ती इंचार्ज थी। उनका मानना था कि अंग्रेजों को भारत  से भगाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस से बेहतर कोई विकल्प नहीं था.

रमा का नेताजी से पहला सामना अचानक तब हुआ जब वह प्रशिक्षण केंद्र के इलाके की देखरेख करते हुए एक खाई  में गिरकर घायल हो गई. यहाँ शत्रु पक्ष की सेना ने भयंकर गोलाबारी की थी. आनन-फानन में उसे अस्पताल ले जाया गया. वहां घायलो को देखने सुभाष चंद्र बोस आये थे . वह यह देखकर विस्मित हो गए कि एक कम उम्र की लड़की जिसके पैरों से कई जगह से लगातार खून बह रहा था, वह सामान्य रूप से अपनी मरहम-पट्टी कराए जाने का इंतजार कर रही थी. उसकी आंखों में कोई आँसू  नहीं थे. उन्होंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 
“यह  तो एक शुरुआत भर है. ..एक छोटी-सी दुर्घटना थी. अभी बहुत बड़ी लड़ाइयों के लिए कमर कसनी है. देश की आजादी के जूनून में रहना है तो हिम्मत बनाये रखो. तुम जैसी लड़कियों के जूनून से ही हम,हमारा भारत देश आजाद हो कर रहेगा.”

रमा की आँखों में हिम्मत और ख़ुशी के आँसू निकल आए. वह जल्दी ही स्वस्थ होकर फिर से अपनी बटालियन के कामों में जुट गई. उसने जल्दी ही निशानेबाजी, घुड़सवारी और सैन्य बल में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने वाले सब गुणों को सीख लिया था. उसका जूनून उसे किसी काम में आगे बढ़ने के लिए मदद करता. उसकी लगन के कारण ही रमा को जल्दी ही सिपाही से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया. 

रमा का कहना है कि अभी भी जब वह किसी असहज स्थिति में फंस जाती है तो नेताजी के शब्द “आगे बढ़!” उसके कानों में इस तरह से गूँज जाते हैं कि वह अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाती है. 

रमा बताती हैं कि, 

“युवा अवस्था में जीवन के वैभव और सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर संघर्ष का पथ चुनना बहुत कठिन फैसला होता है. मैं भी आरंभिक दिनों में इतनी परेशान रहती थी कि अकेले में दहाड़ मार कर रोया करती. पर धीरे-धीरे समझ में आ गया. फिर, जब नेताजी से स्वयं मुलाकात हुई तो उसके बाद तो फिर कभी पीछे मुड़कर देखा ही नहीं. आरम्भिक दो महीनों मुझे जमीन पर सोना पड़ा. सादा भोजन मिलता था और अनथक काम वो भी बिना किसी आराम के करना बहुत कष्टकर था. मैंने मित्र भी बना लिए थे. जब बड़े उद्देश्य के विषय में समझ आया तो कुछ भी असहज नहीं रहा.”

रमा की तैनाती एक नर्स के रूप में हुई जिस जिम्मेदारी को भी उसने बखूबी निभाया.  उसके लिए अनुशासन, समय का महत्त्व, काम के प्रति निष्ठा और जूनून-- बस इन्हीं शब्दों की जगह रह गई थी. पहले उसे प्लाटून कमांडर बनाया गया और फिर सेकंड लेफ्टिनेंट. 
जब आजाद हिन्द फ़ौज को ब्रिटिश सेना ने कब्जे में ले लिया तो रमा भी गिरफ्तार हुई. उसे बर्मा में ही नजरबंद कर दिया गया. सौभाग्य से जल्दी ही देश आजाद हो गया. तब वह मुंबई चली आई. उसका विवाह हो गया था. आजीविका के लिए पति का साथ देने का निश्चय किया. पहले एक निजी कंपनी में सेक्रेटरी का काम किया, फिर टूर गाइड बनी. 

तब से अब तक वह सैलानियों को पर्यटन के रास्ते दिखाती रही है और तमाम किस्से सुनाया करती है. एक बार सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उन्हें राजनीतिक धारा में भाग लेने का आमन्त्रण भी दिया था, पर तब वह हवाई दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु के समाचार से इतनी विचलित हो गई थी कि उसने राजनीति से दूर रहना ही उचित समझा. 

बमुश्किल दो साल पहले ही उसने टूर गाइड के काम को विदा कहा है, पर अभी भी वह पूरी तरह स्वस्थ और मजाकिया है. कहती हैं, 

“उम्र के कारण नहीं छोड़ा,  इसलिए छोड़ा है कि नई पीढी के लोगों को रास्ते मिलें. मेरी पारी तो खत्म हुई.”

उनके एक बेटी है. पति की मृत्यु सन १९८२ में हो गई थी. सन २०१७ में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उनको बेस्ट टूरिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया था. उनके जीवन पर एक वृत्त फिल्म भी बनी है, और एक किताब ‘जय हिन्द’ भी प्रकाशित हुई है. 

सादर शत शत नमन आपको 🙏🙏🙏

००००
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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक


लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

कई क्रांतिकारियों ने पत्रकारिता के माध्यम से स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वाधीनता के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने का कार्य किया। जिनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक प्रमुख व्यक्ति थे।

यह तिलक ही थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष को ‘स्वराज्य’ का नारा देकर जन-जन से जोड़ दिया। उनके ‘स्वराज्य’ के नारे को ही आधार बनाकर वर्षों बाद महात्मा गाँधी ने स्वदेशी आंदोलन का आगाज़ किया था। 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में जन्में बाल गंगाधर तिलक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। वे उस दौर की पहली पीढ़ी थे, जिन्होंने कॉलेज में जाकर आधुनिक शिक्षा की पढ़ाई की।

वे भारतीयों को एकत्र कर, उन्हें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़ा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नारा दिया,

“स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा।”
उनका यह नारा धीरे-धीरे लगभग पूरे भारत की सोच बन गया। तिलक की क्रांति में उनके द्वारा शुरू किये गये समाचार-पत्रों का भी ख़ास योगदान रहा। उन्होंने दो समाचार पत्र, ‘मराठा‘ एवं ‘केसरी‘ की शुरुआत की। इन पत्रों को छापने के लिए एक प्रेस खरीदा गया, जिसका नाम ‘आर्य भूषण प्रेस‘ रखा गया। साल 1881 में ‘केसरी’ अख़बार का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इन अख़बारों में तिलक के लेख ब्रिटिश शासन की क्रूर नीतियों और अत्याचारों का खुलकर विरोध करते थे।धीरे-धीरे वे आम जनता की आवाज़ बन गये और इसकी वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ‘मराठा’ और ‘केसरी’ की प्रतियाँ भी वे खुद घर-घर जाकर बांटते। उन्होंने कभी भी अपने अख़बारों को पैसा कमाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया। उनके समाचार पत्रों में विदेशी-बहिष्कार, स्वदेशी का उपयोग, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आधार बनाया गया। अपने इन्हीं स्पष्ट और विद्रोही लेखों के कारण वे कई बार जेल भी गये। इसके बावजूद, तिलक पत्रकारिता के लिए पूर्णतः समर्पित थे और हमेशा अपने विचारों और उसूलों पर अडिग रहे।अपने इसी निडर और दृढ़ व्यक्तित्व के कारण उन्हें आम लोगों से ‘लोकमान्य’ की उपाधि मिली। इतना ही नहीं, उनके लेख युवा क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें। उनका लेखन एवं मार्गदर्शन क्रांतिकारियों को ऊर्जा प्रदान करता था। इसलिए अंग्रेज़ी सरकार हमेशा ही तिलक और उनके अख़बारों से परेशान रहती थी। मांडले (म्यांमार) की जेल में उन्होंने ' गीता रहस्य' पुस्तक लिखी । जो कि हिन्दू धर्म और दर्शन का महान ग्रंथ है । 

जहाँ एक तरफ वे अंग्रेज़ों के लिए “भारतीय अशान्ति के जनक” थे, तो दूसरी तरफ़ लोग उन्हें अपना ‘नायक’ मान चुके थे। पर भारत का यह ‘लोकमान्य नायक’ स्वाधीनता का सूर्योदय होने से पहले ही दुनिया को अलविदा कह गया। 1 अगस्त 1920 को तिलक का निधन हुआ।

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भारतीय इतिहास में नक्शो का फर्जीवाड़ा

इतिहास की किताबों में नक्शो का फर्जीवाड़ा 

इतिहास की किताबों में सुल्तानों बादशाहों के राज्य के नक्शे दिखाए जाते हैं । जिससे पता चलता है कि उनके राज्य की सीमा कितनी थी , कितने भू भाग में उनका शासन था ।

लेकिन हमारे देश के इतिहासकार इसमें भी फर्जीवाड़ा करने से बाज नही आये । भाटों और चाटुकारों की तरह उन्होंने ऐसे नक्शे बनवाये जिसमे सुल्तानों का साम्राज्य बड़ा विशाल दिखाई दे । जबकि सत्यता कुछ और ही है। 
दो उदाहरण काफी है इस कपट को समझने के लिए l उत्तराखंड या गढ़वाल राज्य जिसे पुराणों में केदारखंड या हिमावत कहा गया है , अतिप्राचीन काल से सन 1816 तक हिन्दू राजाओं के आधिपत्य में रहा । यहां सन 822 से 1803 तक (1000 वर्ष तक लगातार ) पाल वंशीय क्षत्रियों का राज्य था और 1803 से गोरखों का राज्य हुआ । 1816 की एक संधि में यह राज्य अंग्रेजो के पास चला गया ।
सन 1200 से 1700 तक गढ़वाल राज्य पर अनेकानेक मु"स्लिम आक्रमण हुए । प्रत्येक बार आक्रमणकारियों की पराजय हुई । रानी कर्णावती को नाक काटने वाली रानी की संज्ञा दी जाती है । यह राज्य हमेशा स्वतंत्र रहा । फिर भी इतिहास लेखन फर्जीवाड़े के तहत इस क्षेत्र को नक्शों में खिलजी साम्राज्य और मुगल साम्राज्य का भू भाग दिखाया जाता है । 
गढ़वाल की तरह अन्य राज्य भी ऐसे थे जिनको भी इतिहासकारों ने इसी तरह नक्शो में जबरन घुसा दिया । 
इसी तरह तुगलक साम्राज्य का नक्शा देखे । जिसमे पूरे राजस्थान को साम्राज्य का हिस्सा दिखाया गया है । एक बार मोहम्मद बिन तुगलक ने राजस्थान पर आक्रमण करने की जुर्रत की थी । मगर मेवाड़ के राणा हम्मीर सिंह ने न केवल उसे पराजित किया बल्कि मेवाड़ की जेल में महान तुगलक सुल्तान को तीन महीने कैद कर के रखा । फिर राणा साहब ने दरियादिली दिखाते हुए जुर्माना ले कर सुल्तान को छोड़ दिया । फिर भी कपटी इतिहासकारो ने नक्शे में पूरे  राजस्थान को तुगलक साम्राज्य का हिस्सा दिखा दिया । 
बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि इन नक्शो में दिखाए गए तथाकथित विशाल साम्राज्य के दर्शाए गए क्षेत्र वास्तविकता में आधे भी इनके अधीन शासन में नहीं थे । 
हालांकि कुछ इतिहासकारों की पुस्तकों में सही नक्शे मिलते है , लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है । 
इतिहास के नक्शों का फर्जीवाड़ा हमारे बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में भी है और प्रतियोगिता परीक्षाओं की किताबो में भी हैं ।

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बुधवार, 5 जुलाई 2023

उद्योगपति और सरकार

पहले टाटा-बिरलाकरण होता था , अब अम्बानीअदाणीकरण हो रहा है !!!

चुनाव लड़ने के लिए पार्टी फण्ड में पैसा गरीब मजदूर किसान नही देता है , न ही हम और आप देते है । बड़े व्यापारी उद्योगपति ही पार्टियों को करोड़ों रुपये का फंड देते है ।

उद्योगपति फ्री में पैसा नही देता है, मुफ्त दान नही करता है । वह निवेश करता है , और चुनाव के बाद अपने निवेश की फसल काटता है । देश मे यह सिस्टम 1952 से लागू है । राजनीतिक पार्टी का आका बन कर उद्योगपति अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है , अपने फायदे के नियम और नीतियां बनवाता है, टैक्स सिस्टम बनवाता है , सरकारी कम्पनियों को खरीदता है और फिर अपने बिज़नेस में प्रॉफिट बढ़ाता है । 
नेहरू इंदिरा गांधी के समय टाटा बिरला उद्योग जगत में छा गए थे । राजीव गांधी के समय बजाज छा गए ।  क्वात्रोचि ने खूब मलाई काटी । मनमोहन सिंह के समय देश का विजय माल्याकरण हुआ , उनको कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा । कार्तिक चिदंबरम , दामाद जी आदि ने जम के पैसा लूटा । 
पार्टी फण्ड में करोड़ों रुपये ले कर केजरीवाल ने बिज़नेसमैन नारायण गुप्ता , सुशील गुप्ता को राज्यसभा में भेजा , अब ये भी अपने बिजनेस में प्रॉफिट की फसल काटेंगे । 

समाजवादी पार्टी के फिनांसर सहारा ग्रुप के सुब्रतराय , ममता बनर्जी की पार्टी के फिनांसर शारदा ग्रुप के बारे में आपको पता ही है । केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के फिनांसर सोने की स्मगलिंग में शामिल है । 

दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के लोकतंत्र की  यही परंपरा रही है  😥😥😥😥 इसी व्यवस्था से राजनीतिक पार्टियों को फंड मिलता है । अम्बानी अडानी मोदी बीजेपी को कोसने से कुछ नही होगा , पूरी राजनीतिक वित्तीय व्यवस्था ही ऐसी बनी हुई है ।

इससे नुकसान यही है कि देश की अधिकांश पूंजी मात्र कुछ व्यापारियों के हाथ मे इकट्ठा हो जाती है , गरीब जनता और गरीब होती जाती है । देश की नीतियां गरीब मजदूर किसान के हित में नही बल्कि फण्ड देने वाले आका व्यापारी के हित में बनती है । अमीर उद्योगपति और ज्यादा अमीर होता चला जाता है , देश मे आर्थिक असमानता की खाई बढ़ती जाती है। 

इसका एक हल यह है कि चुनाव के समय प्रचार का पूरा खर्च सरकार खुद उठाये (स्टेट फंडिंग) जिससे नेताओ को उद्योगपतियों से पैसे न लेने पड़े । लेकिन इसकी भी हानियां हैं ।

और भी कई समाधान हो सकते हैं , जिसे आपलोग कमेंट में बताएं ।

DrAshok Kumar Tiwari 🙏
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