बुधवार, 5 जुलाई 2023

छत्रपति शिवाजी

शिवाजी महाराज ने भारत की प्राचीन राज्यव्यवस्था का और राजधर्म का बड़ी गहराई से अवलोकन किया था । उन्होंने अपने यौवन का सदुपयोग जहां बड़ी बड़ी जीतों को प्राप्त करने में किया , वहीं उन्होंने भारतीय राजधर्म की शिक्षा लेने के लिए भी अपना मूल्यवान समय लगाया । यही कारण रहा कि वह भारत के राजधर्म की गहराई को समझ गए थे। शिवाजी ने अपने समकालीन शासकों को देखा था कि उनका शासन पूर्णतया अनुत्तरदायी था और वे निरंकुशता में विश्वास रखते थे। स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश होकर ये शासक अपनी प्रजा पर शासन करते थे , जबकि शिवाजी एक पूर्ण उत्तरदायी शासन की व्यवस्था देने के पक्षधर थे।
एक जनहितकारी शासक और शासन के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें मर्यादा , जनता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध हर पग पर होता है । शिवाजी इसी प्रकार के शासन के पक्षधर थे। यही कारण है कि उनके साम्राज्य में शासन की नीतियों में प्रजावत्सलता , अनुशासन, मर्यादा और उत्तरदायित्व का बोध स्पष्टत: झलकता था । शिवाजी महाराज की प्रबंधन नीतियाँ आधुनिक काल की निगम-नीतियों से कई गुणा अधिक परिपूर्ण थीं ,क्योंकि वह लोगों के लिए हितकारी होने के साथ-साथ बहुत ही व्यवहारिक एवं पारदर्शी भी थीं ।

आधुनिक प्रबंधन की परिभाषा में कुशल नेतृत्व वह है जो जनता को सारे मौलिक अधिकारों को प्रदान करे , और उसके कल्याण के लिए अच्छी से अच्छी योजनाएं लागू करने में विश्वास रखता हो । साथ ही सामाजिक ,आर्थिक , एवं राजनीतिक न्याय प्रदान करते समय जनता के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव न करता हो । ऐसे शासक की दृष्टि और दृष्टिकोण में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं होती । वह विशालहृदयता के साथ और उदारमना होकर अपने लोगों के कल्याण में रत रहता है । 

नेतृत्व केवल सपने ही नहीं देखता है ,अपितु सपनों को साकार रूप देकर उन्हें यथार्थ के धरातल पर लागू भी करता है और जब वह सपने सही अर्थों , संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में लागू हो जाते हैं या व्यावहारिक स्वरूप ले लेते हैं , तभी किसी शासक के नेतृत्व और उसके प्रबंधन के गुणों की सही परख हो पाती है । इस प्रकार नेतृत्व और प्रबंधन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । नेतृत्व के लिए आवश्यक है कि उसकी नीतियों में उसकी प्रजा के लोग स्वाभाविक रूप से न केवल रुचि रखते हों , अपितु उसे अपना समर्थन भी व्यक्त करते हों । साथ ही प्रबंधन की उसकी नीतियों को स्वीकार करते हुए उसके पूरे तंत्र के साथ स्वाभाविक रूप से अपना समर्थन व्यक्त करते हों और उसके साथ समन्वय स्थापित कर उसी दिशा में जोर लगाते हों ,जिस दिशा में प्रबंधन तंत्र स्वयं बल लगा रहा हो । जब ऐसी स्थिति किसी राज्य में स्थापित हो जाती है तो तब समझना चाहिए कि राजा और प्रजा के बीच बहुत ही सुंदर समन्वय है । शिवाजी के समकालीन शासक अर्थात मुगल लोग अपने प्रजाजनों के साथ ऐसा संबंध में कभी भी स्थापित नहीं कर पाए । यही कारण रहा कि उनके विरुद्ध जनांदोलन होते रहे और विद्रोह की स्थिति में रहने वाले प्रजाजन सदैव ही अशांत और असंतुष्ट रहे । शिवाजी ने ऐसा अवसर अपने लोगों को नहीं दिया और यही उनकी महानता का एक बड़ा कारण था ।

शिवाजी महाराज ने देशहित में और भारतीय संस्कृति की रक्षार्थ जिस राज्य की नींव रखी , वह अधिक देर तक इसीलिए स्थापित रहा कि उसकी स्थापना करने में शिवाजी जनहित को साधना था । वह चाहते थे कि भारत में वास्तविक जनतंत्र की स्थापना हो और राजा अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्यभाव से भरा हो । विद्वानों का निष्कर्ष है कि शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की पक्की नींव सामरिक, नैतिक तथा शिष्ट व्यावहारिक परंपराओं पर रखी । जहाँ मुग़ल एवं क्षेत्रीय सल्तनतों के लगातार के आक्रमणों से थककर या डरकर कोई और राजा अपनी पराजय स्वीकार कर लेता वहीँ शिवाजी महाराज वीरता और आक्रमकता से डटकर उनका सामना करते रहे । युद्ध के समय में नियोजन कुशलता, किसी भी व्यक्ति की सही परख, समय का सम्मान और अनुशासन जैसे गुण उनके कुशल नेतृत्व के साक्षी हैं । इसी नेतृत्व में मुट्ठी भर सैनिक हजारों की सेना से लड़ते हुए विजयश्री प्राप्त कर लेते थे । एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण करने का उनका सपना और दृढ़ संकल्प ही वास्तव में उनकी सफलता का आधार था । उनके अनुयायियों में उनके लिए प्रगाढ़ श्रद्धा, सम्मान और निष्ठा का कारण उनका महान नेतृत्व कौशल तथा उच्च नैतिक चरित्र है । आज भी शिवाजी महाराज को एक न्यायसंगत एवं कल्याणकारी राजा और नायक के रूप में ही स्मरण किया जाता है ।

indian history in hindi, भारतीय इतिहास

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शिक्षक परामर्शदाता

 क्या एक शिक्षक परामर्शदाता भी हो सकता है?


स्कूल और कॉलेज में आपके बीते दिनों को याद करें और अपने प्रिय शिक्षक के बारे में सोचें।  उनको किस बात ने इतना विशेष बनाया ? कुछ ऐसे है जिन्हे आप उनके आकर्षक तरीके से अध्ययन कराने के तरीके के कारण याद करते हैं, पर कुछ ऐसे भी है जो छात्रों के प्रति सहयोगी व्यवहार और सहानुभूति भाव दिखाते हैं और इस कारण आप उन्हे सानुराग याद करते हैं ।  एक श्रेष्ठ शिक्षक अक्सर दोनों का मिश्रण होता है।


जैसा कि हम सभी को मालूम है कि छात्र अपने वयस्क होने की उम्र का आधा समय स्कूल व कॉलेज में बिताते हैं, छात्रों के व्यक्तित्व को आकार देने में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  स्कूल के परामर्शदाता अनेक मुद्दे सुलझाने के लिए प्रशिक्षित होते हैं जैसे कि टूटे-रिश्ते, माँ-बाप के साथ तनावपूर्ण संबंध, आत्म-सम्मान और देह-छवि समस्याएं, व्यसन और आत्महत्या के विचार या सम्भावित पेशा मार्ग, एक शिक्षक जो छात्रों के साथ लगातार संपर्क में रहता है, छात्रों के साथ बात-चीत भी शुरु कर सकता है और उन्हे अपनी समस्याओं को बताने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। यह परामर्शदाता की भूमिका को शैक्षणिक ढाँचे में अनिवार्य बनाता है, और छात्रों के लिए परिसर में सहायता पहुंचाने हेतु शिक्षक एक प्राथमिक स्रोत बन सकता है।


केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) भारत ने इस बात की सिफारिश की है कि विद्यालय परिसर में एक पूर्णकालिक परामर्शदाता को नियुक्त किया जाए, लेकिन यह ज्यादातर कार्यान्वित नहीं हुआ है।  कभी-कभी यह स्कूल-व्यवस्था की अनिच्छा, और अक्सर प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की अनुपलब्धता होने का परिणाम है।  दूसरी चुनौती है कि जब छात्र अपने आप को परेशान स्थितियों में पाता है तो स्कूल के परामर्शदाता से मिलने मे हिचकता है।  इस अंतर को भरने में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। एक शिक्षक जिसपर विश्वास किया जा सके और जो सहानुभूति रखता हो, छात्रों को सहायता पहुंचा सकता है और जब जरूरत हो स्कूल के परामर्शदाता की ओर मार्गदर्शित कर सकता है।  यद्यपि, ऐसा करने के लिए हर शिक्षक के पास एक जैसे गुण नहीं होते।


इस भूमिका को कौन निभा सकता है?


छात्रों के लिए यह आसान नहीं कि वे शिक्षक से अपनी सारी समस्याएं बता दें।  यह शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे उदार-चित्त और सहायता करने के लिए इच्छुक हों।  यदि एक शिक्षक हमराज़ होना चाहता है तो छात्रों के मन में उसके प्रति विश्वास होना आवश्यक है। 


ऐसे कुछ गुण जो छात्रों को शिक्षक से बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं:


दृष्टिकोण में निष्पक्षतावाद: एक शिक्षक द्वरा छात्र को व्यक्तित्व या शैक्षिक रिकार्ड के आधार पर, किसी वैयक्तिक पक्षपात रहित निष्पक्षतावाद के ढंग से देखना चाहिए।पुराने लोग: एक पुराना व्यक्ति जो संस्था के साथ लम्बे समय से जुड़ा है, वातावरण और छात्रों को जानता है, भी परामर्शदाता की भूमिका के लिए एक आदर्श उम्मीदवार है।  एक शिक्षक जो छात्रों को सुलभ से उपलब्ध होता है, परामर्श-सेवा हेतु पहचाना और प्रशिक्षित किया जा सकता है। सक्रिय रूप से सुनने की कौशलता: छात्र जो कह रहे हैं, शिक्षक को उनकी बातों में स्वाभविक रुचि दिखाना जरूरी है। उन्हें स्वयं पर नियंत्रण रखने का अभ्यास होना चाहिए, उनमें धैर्यता होना जरूरी है, उन्हे सिर हिलाकर और छात्रों के संकेतों पर अनुक्रिया देकर सहिष्णुता और सहायता पहुँचाने हेतु शारीरिक हाव-भाव दिखाने की कोशिश करनी चाहिए।उच्च स्तर की सत्यनिष्ठा: यदि छात्र अपनी सबसे बड़े कठिनाई-भरे मुद्दों को बतलाता है तो शिक्षक का विश्वसनीय होना जरूरी है, जो किसी अन्य से ना बताएं या उससे भी बदतर, उसपर गपशप ना करें।  उदाहरण के लिए, यह विश्वास आए बिना कि जिस व्यक्ति से वे बातें कर रहे हैं वह विश्वसनीय है या नहीं, कोई छात्र अपने अशांत परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में बात करना नहीं चाहेगा।सहानुभूतिपूर्ण और गंवेषणात्मक: शिक्षक को सहानुभूति होना चाहिए क्योंकि यह छात्र के परिपेक्ष्य से जुड़े मुद्दे को समझने में मदद करता है।  उसी तरह, उनके पास बातचीत की युक्ति की कौशलता होनी चाहिए जिससे हल निकाले जाने के लिए छात्र के मन की बात अधिक से अधिक जान सकें।

जब एक छात्र उनके पास आएं तो एक शिक्षक को क्या करना चाहिए:


मेल-जोल बढ़ाएं: यह पहला चरण है जो एक शिक्षक-परामर्शदाता को उठाना चाहिए।  छात्र को अपनी उपस्थिति में तब तक सहज महसूस कराएं जब तक कि वह अपनी बातें सहजता से करना शुरु न कर दें ।  याद रखें कि छात्र आपको विश्वसनीयता की कसौटी पर नापने की कोशिश करता है।  इस पड़ाव पर मौखिक तथा हाव-भाव से मिश्रित सम्प्रेषण का उपयोग करना महत्वपूर्ण है।छात्रों को स्वयं से अभिव्यक्ति की अनुमति दें: जब छात्र सामना की जा रही चुनौतियों के बारे में बातें करना शुरु करता है, तो उन्हे गहराई में उतरने दें।  छात्र की बातों को बिना टोके हर वो बात सुनें जो वह कहना चाहता है।  शिक्षक के रूप में भी, आप छात्र के विचारों को पदच्छेद करके सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपने समस्या को सही तरीके से समझ लिया है।  यह उनके विचारों में स्पष्टता प्रदान करेगा।  “मैंने इस तरह से तुम्हारी सारी समस्या को समझ लिया है और मुझे विश्वास है कि तुम इसका समाधान इस तरह से कर सकोगे।  तुम्हें क्या लगता है?” यह एक तरीका हो सकता है।  छात्र को तुरंत समाधान प्रदान करने के बदले में समस्या से पार पाने के विचारों तक पहुंचने में सहायता करें या समस्या का समाधान करें।गैर-निर्णायक रहें: शिक्षक को छात्र के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और संवेदनशील रहना चाहिए।  उदाहरण के लिए, यदि एक छात्र आकर कहता है कि वह एक दिन में 60 सिगरेट पी गया, तो शिक्षक को यह नहीं कहना चाहिए “अरे, यह बुरी बात है!” उन्हे आत्म-संयम से रहना आवश्यक है।भावनाओं में एकरूपता का होना: शिक्षक के रूप में, व्यक्ति को अपने विचारों तथा भावनाओं में स्थिर होना चाहिए।  उन्हें प्रयत्न करना चाहिए कि वे उनकी मनोदशा तथा भावनाओं को उस छात्र पर ना थोपें जो उनके पास सहायता माँगने आता है।  उन्हे अपनी गंभीरता को बनाएँ रखना होगा।पूर्णरूप से गोपनीयता बनाएँ रखें:छात्र को भरोसा दें कि वे जो बातें बताते है वह गोपनीय ही रहेंगी और किसी से नहीं बताई जाएंगी (यदि छात्र द्वारा कही गई बातें स्वयं या किसी और को नुकसानदाई हो सकती हैं, तो यह स्कूल प्रबंधन के ध्यान में लाना जरूरी है)।

इसके साथ में, स्कूल प्रबंधन ऐसे शिक्षकों की पहचान कर सकता है जिनको छात्रों को परामर्श देने हेतु प्रशिक्षित किया जा सकता है।


(इस विषय-वस्तु को जैन विश्वविद्यालय, बेंगलूर की डॉ. उमा वारियर, मुख्य परामर्शदाता के द्वारा व्यक्त विचारों से लिया गया है।)



मंगलवार, 27 जून 2023

डॉ हरगोविंद खुराना

9 फरवरी 1922 को जिला मुल्तान, पंजाब में जन्मे महान वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना के पिता एक पटवारी थे। अपने माता-पिता के चार पुत्रों में हरगोविंद सबसे छोटे थे। वे जब मात्र 12 साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और ऐसी परिस्थिति में उनके बड़े भाई नंदलाल ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में ही हुई। उन्होंने मुल्तान के डी.ए.वी. हाई स्कूल में भी अध्यन किया। वे बचपन से ही एक प्रतिभावान् विद्यार्थी थे जिसके कारण इन्हें बराबर छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।
        उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी.एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम.एस-सी. (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की। इसके पश्चात भारत सरकार की छात्रवृत्ति पाकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रॉजर जे.एस. बियर के देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरैट की उपाधि अर्जित की। इसके उपरान्त इन्हें एक बार फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं जिसके बाद वे जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए। 1948 से 1952 के दौरान उन्होंने दिल्ली बंगलौर सहित कई प्रयोगशालों में नौकरी के लिए आवेदन किया , मगर उन्हें देश में नौकरी नहीं मिल सकी l 1952 में उन्हें कनाडा कि वेनकोवर यूनिवर्सिटी से बुलावा आया और वह वे जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष बना दिए गए l  सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया। इसके पश्चात सन् 1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली।

       खुराना जी जीवकोशिकाओं के नाभिकों की रासायनिक संरचना के अध्ययन में लगे रहे। नाभिकों के नाभिकीय अम्लों के संबंध में खोज दीर्घकाल से हो रही है, पर डाक्टर खुराना की विशेष पद्धतियों से वह संभव हुआ। इनके अध्ययन का विषय न्यूक्लिऔटिड नामक उपसमुच्चर्यों की अतयंत जटिल, मूल, रासायनिक संरचनाएँ हैं। डाक्टर खुराना इन समुच्चयों का योग कर महत्व के दो वर्गों के न्यूक्लिप्रोटिड इन्जाइम नामक यौगिकों को बनाने में सफल हुये।

        नाभिकीय अम्ल सहस्रों एकल न्यूक्लिऔटिडों से बनते हैं। जैव कोशिकओं के आनुवंशिकीय गुण इन्हीं जटिल बहु न्यूक्लिऔटिडों की संरचना पर निर्भर रहते हैं। डॉ॰ खुराना ग्यारह न्यूक्लिऔटिडों का योग करने में सफल हो गए थे तथा वे  ज्ञात शृंखलाबद्ध न्यूक्लिऔटिडोंवाले न्यूक्लीक अम्ल का प्रयोगशाला में संश्लेषण करने में सफल हुये। इस सफलता से ऐमिनो अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय ढूँढने में चिकित्सक सफल हो सकेl
डॉ खुराना ने खोज के दौरान यह पाया गया कि जीन्स डी.एन.ए. और आर.एन.ए. के संयोग से बनते हैं। अतः इन्हें जीवन की मूल इकाई माना जाता है। इन अम्लों में आनुवंशिकता का मूल रहस्य छिपा हुआ है। खुराना के व्दारा किए गए कृत्रिम जिन्स के अनुसंधान से यह पता चला कि जीन्स मनुष्य की शारीरिक रचना, रंग-रूप और गुण स्वभाव से जुड़े हुए हैं।

       1960 के दशक में डॉ खुराना ने नीरबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि डी.एन.ए. अणु के घुमावदार 'सोपान' पर चार विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिओटाइड्स के विन्यास का तरीका नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य को निर्धारित करता है। डी.एन.ए. के एक तंतु पर इच्छित अमीनोअम्ल उत्पादित करने के लिए न्यूक्लिओटाइड्स के 64 संभावित संयोजन पढ़े गए हैं, जो प्रोटीन के निर्माण के खंड हैं। खुराना जी  ने इस बारे में आगे जानकारी दी कि न्यूक्लिओटाइड्स का कौन सा क्रमिक संयोजन किस विशेष अमीनो अम्ल को बनाता है। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि न्यूक्लिओटाइड्स कूट कोशिका को हमेशा तीन के समूह में प्रेषित किया जाता है, जिन्हें प्रकूट (कोडोन) कहा जाता है। उन्होंने यह भी पता लगाया कि कुछ प्रकूट कोशिका को प्रोटीन का निर्माण शुरू या बंद करने के लिए प्रेरित करते हैं। 

आनुवांशिक कोड (डीएनए) की व्याख्या करने वाले भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक डॉ. हरगोबिंद खुराना को चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए 1968  में नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Physiology or Medicine) से सम्मानित किया गया। खुराना ने मार्शल, निरेनबर्ग और रोबेर्ट होल्ले के साथ मिलकर चिकित्सा के क्षेत्र में काम किया। 

डॉ खुराना ने 1970 में आनुवंशिकी में एक और योगदान दिया, जब वह और उनका अनुसंधान दल एक खमीर जीन की पहली कृत्रिम प्रतिलिपि संश्लेषित करने में सफल रहे। डॉक्टर खुराना अंतिम समय में जीव विज्ञान एवं रसायनशास्त्र के एल्फ़्रेड पी. स्लोन प्राध्यापक और लिवरपूल यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे। हरगोबिन्द खुराना जी का निधन 9 नवंबर, 2011 को हुआ था।

सोमवार, 26 जून 2023

कोलम्बस

कोलंबस की भारत खोज के पीछे असली  मकसद क्या था ?
हमे यही बताया गया कि नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस भारत खोजने निकला था .
भारत की समृद्धि के किस्से तब दूर-दूर तक पसरे हुए थे. यहां के मसालों का यश दुनियाभर में फैला था. भारत में मौजूद सोने की भी बड़ी चर्चा थी. कोलंबस को भारत पहुंचने का समुद्री मार्ग खोजना था.
स्पेन के राजा फर्डिनेंड और रानी इसाबेला कोलंबस की यात्रा को स्पॉन्सर करने के लिए राजी हो गए. उन्हें लगा कि अगर कोलंबस ने ऐसा कर दिखाया, तो एशिया के साथ मसालों के कारोबार का नया मार्ग शुरू हो जाएगा. ये उपनिवेशवाद का दौर था. दुनिया के ये चंद यूरोपियन देश अपने पांव पसारना चाहते थे. नए बाजारों के लिए. कच्चे माल के लिए. अपने फायदे के लिए. हर देश अपने लिए कारोबार के नए मार्ग खोलना चाहता था. किंग और क्वीन ने कोलंबस से वादा किया. अगर कोई नई जगह मिलती है, तो उन्हें वहां का गर्वनर बना देंगे. जो भी दौलत वो स्पेन लाएंगे, उसका 10 फीसद हिस्सा भी उन्हें दे दिया जाएगा. 
उपरोक्त हमे इतिहास की किताबो में पढ़ाया गया है . लेकिन कोलम्बस की भारत यात्रा की असलियत कुछ और है , जो हमे उसकी लिखी डायरी से मिलती है । पोस्ट के साथ संलग्न है । कोलम्बस का प्रथम और वास्तविक उद्देश्य भारत को ईसाई देश बनाना और यहां के निवासियों को ईसाई धर्म मे कन्वर्ट करना था । 

क्या कारण है कि कोलंबस , वास्कोडिगामा , कैप्टन कुक जैसे लोगो की यात्राओं के असली मकसद इतिहास की किताब में छुपाए गए ?

स्त्रोत : the world is flat by thomas L. Friedman , page 3 .

indian history in hindi, भारतीय इतिहास


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मन

मन :
इंसान की सबसे बड़ी भूल एक ये भी है कि उसको अपनी शारिरिक क्षमताओं का आभास और स्वीकार तो होता है , 
लेकिन मानसिक क्षमताओं का न आभास होता है न स्वीकार ।
जैसे प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक शक्ति की अपनी एक क्षमता है ऐसे ही मानसिक शक्ति की क्षमता है ।
और इसी वजह से वह दूसरो की तरह खुद को बनाने की कोशिश करता है । जो दूसरे कर रहे है वो करने की कोशिश करता है ।

जिस गति से दूसरे मन को दौड़ा रहे है उसी गति से अपने मन को भी दौड़ाने की कोशिश करता है ।
और अंततः खुद को टूटा हुआ थका हुआ , जिंदा लेकिन मरा हुआ पाता है ।
क्योंकि मन अपनी स्वाभाविक प्रकृति को खो देता है । 
मन ही मन का बाधक है 
मन ही मन का साधक है ।।

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुध्दं चाशुध्दमेव च ।
अशुध्दं कामसंकल्पं शुध्दं कामविवर्जितम् ॥

मन दो प्रकार के होते हैं -अशुध्द और शुध्द । कामना और संकल्प वाला मन अशुध्द और जो मन कामना रहित हो वह शुध्द ।
गीता में भगवान कहते है -

आत्मानं रथिनं विध्दि शरीरं रथमेव तु ।
बिध्दिं तु सारथि विध्दि मनः प्रग्रहमेव च ॥

आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो ।

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श्री गणेश जी

श्री गणेश जी सर्वस्वरूप, परात्पर परब्रह्‌म साक्षात्‌ परमात्मा हैं । गणेश शब्द का अर्थ है जो समस्त जीव-जाति के “ईश” अर्थात्‌ स्वामी हैं । धर्मपरायण भारतीय जन वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों द्वारा अनादि काल से इन्हीं अनादि तथा सर्वपूज्य भगवान गणपति की पूजा करते आ रहे हैं । हृदय से उपासना करने वाले भक्‍तों को आज भी उनके अनुग्रह का प्रसाद मिलता है । अतः उनकी कृपा की प्राप्ति के लिए वेदों, शास्त्रों ने वैदिक उपासना पद्धति का निर्माण किया है जिससे उपासक गणेश की उपासना करके मनोवांछित फल प्राप्त कर सकें । गणेश का अर्थ - ‘गण’ का अर्थ है- वर्ग, समूह, समुदाय । ‘ईश’ का अर्थ है- स्वामी । शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने से उन्हें “गणेश” कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य ‘गणदेवता’ कहे गए हैं ।
“गण” शब्द व्याकरण के अंतर्गत भी आता है । अनेक शब्द एक गण में आते हैं । व्याकरण में गण पाठ का अपना एक अलग ही अस्तित्व है । वैसे भी भवादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृतिगण धातु समूह है । “गण” शब्द शूद्र के अनुचर के लिए भी आता है । जैसा कि “रामायण” में कहा गया है- धनाध्यक्ष समो देवः प्राप्तो वृषभध्वजः । उमा सहायो देवेशो गणैश्‍च बहुभिर्युत: ॥

तुलसीदास जी  ने रामचरित मानस  में श्री पार्वतीजी को “श्रद्धा” और शंकरजी को विश्‍वास का रूप माना है । किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए श्रद्धा और विश्‍वास दोनों का ही होना आवश्यक है । जब तक श्रद्धा न होगी, तब तक विश्‍वास नहीं हो सकता तथा विश्‍वास के अभाव में श्रद्धा भी नहीं ठहर पाती । वैसे ही पार्वती और शिव से श्री गणेश हुए । अतः गणेश सिद्धि और अभीष्ट पूर्ति के प्रतीक हैं । किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व विघ्न के निवारणार्थ एवं कार्य सिद्धियार्थ गणेशजी की आराधना आवश्यक है । यही बात योग शास्त्र में भी कही गई है । 

“योग शास्त्र” के आचार्यों का कहना है कि -मेरूदंड के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है, वह ब्रह्‌मारन्ध में प्रवेश करके मस्तिष्क के नाड़ी गुच्छ में मिल जाती है । साधारण दशा में प्राण सम्पूर्ण शरीर में बिखरा होता है, उसके साथ चित्त भी चंचल होता है । योगी क्रिया विशेष से प्राण को सुषुम्ना में खींचकर ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ाता है त्यों-त्यों उसका चित्त शांत होता है । योगी के ज्ञान और शक्‍ति में भी वृद्धि होती है । सुषुम्ना में नीचे से ऊपर तक नाड़ी कद या नाड़ियों के गुच्छे होते हैं । इन्हें क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र कहते हैं । इस मूलाधार को- ‘गणेश स्थान’ भी कहा जाता है । कबीर आदि ने जहाँ चक्रों का वर्णन किया है, वहाँ प्रथम स्थान को “गणेश स्थान” भी कहा है ।

मानव मुख गणेश मंदिर (आदि विनायक )

गणेश जी का मुख हाथी का हैं .  विश्व में केवल एक मंदिर है जहा भगवान् गणेश की प्रतिमा मानव मुख में स्थापित है .  यहाँ गणेश भगवान्  की  पूजा उनके मूल मुख  (हाथी मुख के पूर्व वाले मुख) के रूप  में की जाती है . 
यह प्राचीन "स्वर्णवल्ली मुक्तीश्वर मंदिर"  तमिलनाडु के तिरुवरुर जिले Mayavaram – Tiruvarur Road पर Poonthottam के निकट Koothanur से 2.6 कि मी Thilatharpanapuri थिलान्थरपानपुरी में है . 
भगवान गणेश को यहाँ नर-मुख विनायकर कहा जाता है .  
स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपङ्कजस्मरणम् ।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम् ॥

बुधवार, 21 जून 2023

नेत्रदान महादान

यह दुनियां बहुत खूबसूरत है. हमारे आसपास की हर वस्तु में एक अलग ही सुंदरता छिपी होती है जिसे देखने के लिए एक अलग नजर की जरुरत होती है. दुनियां में हर चीज का नजारा लेने के लिए हमारे पास आंखों का ही सहारा होता है. लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि बिन आंखों के यह दुनियां कैसी होगी? चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा मालूम होगा. दुनियां की सारी खूबसूरती आंखों के बिना कुछ नहीं है. आंखें ना होने का दुख वही समझ सकता है जिसके पास आंखें नहीं होतीं.
थोड़ी देर के लिए अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर देखें दुनियां कैसी लगती है. लगता है ना डर. आंखों के बिना तो सही से चला भी नहीं जा सकता और यही वजह है कि इंसान सबसे ज्यादा रक्षा अपनी आंखों की ही करता है. लेकिन कुछ अभागों की दुनियां में परमात्मा ने ही अंधेरा लिखा होता है जिन्हें आंखें नसीब नहीं होतीं. कई बच्चे इस दुनियां में बिना आंखों के ही आते हैं तो कुछ हादसों में आंखें गंवा बैठते हैं. दुनियां भर में नेत्रहीनों की संख्या काफी अधिक है जिनमें से कई तो जन्मजात ही नेत्रहीन होते हैं.

आंखों का महत्व तो हम सब समझते हैं और इसीलिए इसकी सुरक्षा भी हम बड़े पैमाने पर करते हैं लेकिन हममें से बहुत कम होते हैं जो अपने साथ दूसरों के बारे में भी सोचते हैं. आंखें ना सिर्फ हमें रोशनी दे सकती हैं बल्कि हमारे मरने के बाद वह किसी और की जिंदगी से भी अंधेरा हटा सकती हैं. लेकिन जब बात नेत्रदान की होती है तो काफी लोग इस अंधविश्वास में पीछे हट जाते हैं कि कहीं अगले जन्म में वह नेत्रहीन ना पैदा हो जाएं. इस अंधविश्वास की वजह से दुनियां के कई नेत्रहीन लोगों को जिंदगी भर अंधेरे में ही रहना पड़ता है.
हमारे नेत्र का काला गोल हिस्सा 'कार्निया' कहलाता है। यह आँख का पर्दा है जो बाहरी वस्तुओं का चित्र बनाकर हमें दृष्टि देता है । यदि कर्निया पर चोट लग जाये ,इस पर झिल्ली पड़ जाये या इसपर धब्बे पड़ जायें तो दिखाई देना बन्द हो जाता है । हमारे देश में करीब ढ़ाई लाख लोग हैं जो कि कर्निया की समस्या से पीड़ित हैं। इन लोगों के जीवन का आंधेरा दूर हो सकता है यदि उन्हें किसी मृत व्यक्ति का कर्निया प्राप्त हो जाये । लेकिन डाक्टर किसी मृत व्यक्ति का कार्निया तब तक नहीं निकाल सकते जब तक कि वह व्यक्ति अपने जीवन काल में ही नेत्रदान की घोषणा लिखित रूप में ना कर दे ।हमारे देश में सभी राज्यों नेत्रबैंक हैं जहाँ लिखित सूचना देने पर उस व्यक्ति के देहांत के 6 घटे के अन्दर उसका कार्निया निकाल ले जाते हैं।

हमारे सभी धर्मों में दया, परोपकार, जैसी मानवीय भावनाएँ सिखाई जाती हैं ।यदि हम अपने नेत्रदान करके मरणोपरांत किसी की निष्काम सहायता कर सकें तो हम अपने धर्म का पालन करेंगे , और क्योकि इसमें कोई भी स्वार्थ नहीं है इसलिये यह महादान माना जाता है।

नेत्रदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के 6 से 8 घंटे के अंदर ही नेत्रदान कर देना चाहिए। जिस व्यक्ति को नेत्रदान के कॉर्निया का उपयोग करना है, उसे 24 घंटे के भीतर ही कॉर्निया प्रत्यारोपित कराना जरूरी होता है। नेत्रदान का मतलब शरीर से पूरी आंख निकालना नहीं होता। इसमें मृत व्यक्ति की आखों के कॉर्निया का उपयोग किया जाता है। 
 नेत्रदान की प्रकिया मृत्यु के कुछ घंटों के अंतराल में की जाती है और इससे किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होती. एक मृत व्यक्ति के नेत्र को एक नेत्रहीन को दे दी जाती है जिससे उस नेत्रहीन के जीवन में उजाला हो जाता है. आप भी अगर किसी की जिंदगी में उजाला करना चाहते हैं तो अपने निकटतम मेडिकल कॉलेज या नेत्र चिकित्सालय से संपर्क कर नेत्रदान के लिए पंजीकरण करा सकते हैं. किसी की दुनियां में उजाला फैलाने के लिए एक कदम आगे बढ़ाइए...