सोमवार, 15 मई 2023

अशफ़ाक़ उल्ला खान

भारत माँ के वीर सपूत , अमर बलिदानी , शहीदे आजम अशफ़ाक़ उल्ला खान की जयंती पर शत शत नमन । फांसी के समय उनकी उम्र मात्र 27 साल थी । 

अशफ़ाक़ उल्ला खान एक महान क्रांतिकारी होने के साथ उच्चकोटि के शायर भी थे । उनकी गजले देशभक्ति की भावना से भरी हुई हैं । 
उस वक़्त भी अनेक लिबरल हिंदुस्तानी थे जो अंग्रेजी राज्य को अच्छा मानते थे और उनके सपोर्टर थे । आज भी देश को ऐसे ही  आस्तीन के सापों से ज्यादा खतरा है जो विदेशी टुकड़ों पर पल रहें हैं । इन लोगो के लिये अशफ़ाक़ जी लिखते हैं -

न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई तुर्की,
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी जो आज हमको मिटा रहे हैं ।

चलो-चलो यारो रिंग थिएटर दिखाएँ तुमको वहाँ पे लिबरल,
जो चन्द टुकडों पे सीमोज़र के नया तमाशा दिखा रहे हैं।

उनकी अंतिम इक्षा थी -

ख़ुदा अगर मिल गया कहीं 
अपनी झोली फैला दूंगा 
और जन्नत के बदले उससे 
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा 
फिर आकर ऐ भारत माता 
तुझको आज़ाद कराऊंगा ।

22 october 2020


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जालियाँवाला बाग

नमन कर रहा हूँ उनको जिनका तन-मन भारत माँ को अर्पित है.
भारत माँ अपने बेटों की कुर्बानी पर गर्वित है.
जिन लोगो का लहू बह गया जलिया वाले बाग में,
उनके चरणों में शब्दों का श्रद्धा सुमन समर्पित है.
जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) हुआ था। रौलेट एक्ट और किचलू और डॉ॰ सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी !! रॉलेट ऐक्ट मार्च 1919 में भारत की ब्रिटनी सरकार द्वारा भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से निर्मित कानून था। यह कानून “सर सिडनी रौलेट” की अध्यक्षता वाली समिति की शिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। इसके अनुसार ब्रिटनी सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना दंड दिए उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था l इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जूलूस और प्रदर्शन होने लगे। गाँधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे,  जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद  लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा।
सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। 10  मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहां तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया।! 
मुख्यालय वापस पहुँच कर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फ़ौज ने हमला किया था जिससे बचने के  लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ी !!
एक अनुमान के मुताबिक़ जलियांवाला बाग़ हत्याकांड में कम से कम 1300 लोगों की जानें गयी थी जबकि जलियावाला बाग़ में लगी पट्टिका पर मात्र 120 लोगों की मरने की सूचना दी गयी है !!
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकाण्ड के विरोध-स्वरूप अपनी नाइटहुड को वापस कर दिया ! पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था परंतु इस घटना से  पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ कियाथा !! भगतसिंह जलियावाला बाग़ की वो मिट्टी को (जिस पर निर्दोष भारतीयों का खून गिरा था)  एक छोटी सी शीशी में भरकर लाये थे ! और हर वक़्त वो उस शीशी को अपने साथ ही रखते थे !!
जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह इसका बदला लेंगे।  13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल डायर को गोली चला के मार डाला ! ऊधमसिंह को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की कड़े शब्दों में निंदा की थी !!

हर दमन चक्र की तिमिर निशा में
अविरल जलता चिराग हूं ,
क्रांति क्षेत्र, शोणित सिंचित ,
मैं जलियांवाला बाग हूं ।

अश्रुपूर्ण 103 वर्ष 13 april 1919

यतीन्द्रनाथ दास

श्री यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की अवस्था में ही वे असहयोग आंदोलन में दो बार जेल गये थे। इसके बाद वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये।
लाहौर षड्यंत्र अभियोग में वे छठी बार गिरफ्तार हुए। उन दिनों जेल में क्रांतिकारियों से बहुत दुर्व्यवहार होता था। उन्हें न खाना ठीक मिलता था और न वस्त्र,जबकि कांग्रेसी सत्याग्रहियों को राजनीतिक बंदी मान कर सब सुविधा दी जाती थीं। जेल अधिकारी क्रांतिकारियों से मारपीट किया करते थे और उनको अमानवीय यातनाये ढ़ी जाती थी । इसके विरोध में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त आदि ने लाहौर के केन्द्रीय कारागार में भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी। जब इन अनशनकारियों की हालत खराब होने लगी, तो इनके समर्थन में बाकी क्रांतिकारियों ने भी अनशन प्रारम्भ करने का विचार किया। अनेक लोग इसके लिए उतावले हो रहे थेे। जब सबने यतीन्द्र की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है, ‘विजय या मृत्यु।'

यतीन्द्रनाथ का मनोबल बहुत ऊंचा था।  यतीन्द्रनाथ का मत था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति क्रमशः मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन के व्यापक उद्देश्य को हानि होती है।

अतः उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन प्रारम्भ कर दिया। जेल में यों तो बहुत खराब खाना दिया जाता था; पर अब जेल अधिकारी स्वादिष्ट भोजन, मिष्ठान और केसरिया दूध आदि उनके कमरों में रखने लगे। सब क्रांतिकारी यह सामग्री फेंक देते थे; पर यतीन्द्र कमरे में रखे होने पर भी इन खाद्य-पदार्थों को  छूना तो दूर देखते तक न थे।

जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे। यतीन्द्र के साथ ऐसा किया गया, तो वे जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।

यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर यतीन्द्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प में बाधक नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाद्य सामग्री, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।

13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। आज यतीन्द्र के चेहरे पर विशेष मुस्कान थी। उन्होंने सब मित्रों को अपने पास बुलाया। छोटे भाई किरण ने उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। विजय सिन्हा ने यतीन्द्र का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे' और फिर ‘वन्दे मातरम्' गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी यतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया। देश के लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया । आज उनकी जयंती पर शत शत नमन ।

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कहाँ गए सुभाष

जीवन अपना दांव लगाकर
दुश्मन सारे खूब छकाकर
कहां गया वो, कहां गया वो
जीवन-संगी सब बिसराकर?

तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
मैं तुमको आजादी दूंगा
लेकिन उसका मोल भी लूंगा
खूं बदले आजादी दूंगा
बोलो सब तैयार हो क्या?
 
गरजा सुभाष, बरसा सुभाष
वो था सुभाष, अपना सुभाष
नेता सुभाष, बाबू सुभाष
तेरा सुभाष, मेरा सुभाष
अपना सुभाष, अपना सुभाष। 
***********************
वे कहां गए, वे कहां रहे, ये धूमिल अभी कहानी है, 
हमने तो उसकी नयी कथा, आज़ाद फ़ौज से जानी है।
आखिर कहाँ गए नेताजी सुभाष चंद्र बोस : 
यह संभव है कि 1945 मेँ नेताजी ने विमान दुर्घटना और अपनी मौत की खबर स्वयं फैलाई हो ताकि अंग्रेजो को चकमा दिया जा सके । विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी रूस जाना चाहते थे । यह बात उन्होंने अपने करीबियों को बताई थी और जापानियों से अपने मंचूरिया जाने का प्रबंध करने को कहा था । संभवतः नेताजी उस विमान में बैठे ही नहीं जिसकी दुर्घटना की बात कही जाती है , और ऐसी कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं । नेताजी की मृत्यु पर बने सभी सरकारी जांच आयोगों ने सही तरह से जांच किये बगैर वही निष्कर्ष दे दिया जो सरकार चाहती थी । सरकारी ढोल बजाने वाले इन जांच आयोगों ने देश की जनता से विश्वासघात किया ।
संभवतः अपनी मौत की खबर फैला कर ताईपेह से नेताजी मंचूरिया गए । अभी मंचूरिया चीन का प्रान्त है मगर उन दिनों यह रूस का अंग था । नेताजी को भरोसा था कि रूस की साम्यवादी   सरकार उनको साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए सहायता देगी । कुछ लोग मानते हैं कि मंचूरिया पहुचकर नेताजी मास्को गए वहां स्टालिन ने विश्वासघात किया और  नेहरू के कहने पर नेताजी को गिरफ्तार कर साइबेरिया की जेल में रखा । 
यह भी कहा जाता है कि 1952 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रूस में भारत के राजदूत थे । उनको किसी रूसी अखिकारी ने बताया कि आपके नेताजी हमारी जेल में है । नेताजी को किसी अन्य नाम से जेल में रखा गया था । राधाकृष्णन को इस बात पर भरोसा नहीं हुआ उन्होंने स्वयं नेताजी को देखने की इक्षा व्यक्त की । राधाकृष्णन साइबेरिया गए । वहां उन्होंने दूर से नेताजी को देखा । डॉ राधाकृष्णन ने रूसी अधिकारियो से बात कर उनके प्रथक सेल में रखने और दो सहायक  तथा अन्य सुविधाये दिए जाने की व्यवस्था की । मास्को आकर डॉ राधाकृष्णन ने नेताजी की रिहाई हेतु नेहरूजी से बात की । नेहरूजी ने डॉ राधाकृष्णन को चुप रहने को कहा और उनको  भारत बुला कर उपराष्ट्रपति ( बाद में राष्ट्रपति) बनवा दिया,  ऐसा कुछ लोग मानते हैं ।

यह भी कहा जाता है कि लालबहादुर शास्री जब  विदेश मंत्री और बाद में प्रधान मंत्री बने तब गोपनीय फाइलों द्वारा उनको नेताजी के रूस में होने का पता चला । 1968 में ताशकंद रूस में लालबहादुर शास्री नेताजी की रिहाई कराने का प्रयास कर रहे थे तभी उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी और नेहरू की बेटी प्रधानमंत्री बन गयी । इसके बदले KGB को भारत में कार्य करने की अनुमति और रूस को अयस्क निकलने की अनुमति और सोवियत विचारधारा के प्रचार तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को फंडिंग की अनुमति आदि मिली ।  माना जाता है कि शास्री जी की मौत का  सुभाष चंद्र बोस की रिहाई से गहरा सम्बन्ध है ।

अगर नेताजी भारत आ जाते तो उन्हें छुप कर रहने की जरूरत न पड़ती , पूरा देश उनका साथ देता और द्वितीय विश्वयुद्ध के अपराधियों को पकड़ कर इंग्लैंड के सुपुर्द करने की संधि किसी काम न आती । इसलिए उनके फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा बन कर रहने वाली बात सही हो सकती है या नही , इस पर भी कोई ठोस सरकारी इन्वेस्टिगेशन नही हुआ ।
मेरे गुरु डॉ एम् पी चौरसिया अनेक वर्षों तक रूस में रहे , 1958 में जब वे मास्को पावर इंस्टिट्यूट में कार्यरत थे तब उन्हें एक रूसी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर ने बताया कि वह साइबेरिया ट्रांसमिशन लाइन में कार्यरत था । उसने डॉ चौरसिया को बताया कि वहां कोई भारतीय रहता है जिसे एक कोठी , घोड़े तथा नौकर मिले हुए है । उस भारतीय को साइबेरिया के उस गाँव से बाहर जाने की अनुमति नहीं है । इसकी निगरानी वहां की पुलिस करती है । डॉ चौरसिया का मानना था कि वह भारतीय सुभाष चंद्र बोस ही है । यह डॉ चौरसिया ने मुझे 1984 में बताया था । 

सत्य जो भी हो हर देशवासी को पूरा अधिकार है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जानने का और उन ग़द्दारों के बारे में भी जानने का जिनकी वजह से नेताजी आजादी के बाद भी अपने देश नहीं आ सके ।



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मुंशी प्रेमचंद

जिहाद , नमक का दरोगा, पंच परमेश्वर, पूस की रात, ईदगाह आदि हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कालजयी कहानियां है - जिनके लेखक थे मुंशी प्रेमचंद । 

आज की युवा पीढ़ी को ये कहानियां अवश्य पढ़नी चाहिए जो आज भी सामयिक हैं ।
सन् 1929 में अंग्रेजी सरकार ने प्रेमचंद की लोकप्रियता के चलते उन्हें 'रायसाहब' की उपाधि देने का निश्चय किया।

तत्कालीन गवर्नर सर हेली ने प्रेमचंद को खबर भिजवाई कि सरकार उन्हें रायसाहब की उपाधि से नवाजना चाहती है। उन दिनों रायसाहब को सरकार की तरफ से घोड़ा गाड़ी कोचवान बंगला अर्दली और मासिक रुपये दिए जाते थे ।  प्रेमचंद ने इस संदेश को पाकर कोई खास प्रसन्नता व्यक्त नहीं की, हालांकि उनकी पत्नी बड़ी खुश हुईं और उन्होंने पूछा, उपाधि के साथ कुछ और भी देंगे या नहीं? प्रेमचंद बोले, 'हां!

कुछ और भी देंगे।' पत्नी का इशारा धनराशि आदि से था। प्रेमचंद का उत्तर सुनकर पत्नी ने कहा, तो फिर सोच क्या रहे हैं? आप फौरन गवर्नर साहब को हां कहलवा दीजिए।

प्रेमचंद पत्नी का विरोध करते हुए बोले, मैं यह उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।

कारण यह है कि अभी मैंने जितना लिखा है, वह जनता के लिए लिखा है, किंतु रायसाहब बनने के बाद मुझे सरकार के लिए लिखना पड़ेगा। यह गुलामी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसके बाद प्रेमचंद ने गवर्नर को उत्तर भेजते हुए लिखा, "मैं जनता की रायसाहबी ले सकता हूं, किंतु सरकार की नहीं।" प्रेमचंद के उत्तर से गवर्नर हेली आश्चर्य में पड़ गए।

(आज तो सरकारी सुख सुविधा लेने के लिए लेखकों पत्रकारों की लंबी फेहरिस्त है )

प्रेमचंद दलित नही थे मगर उन्होंने दलितों के लिए , उनकी समस्याओं पर जितना ज्यादा लिखा उतना आज तक कोई नही लिख सका । 
प्रेमचन्द के कहानी साहित्य में राष्ट्रीयता का स्वर सबसे ज्यादा मुखर है। उस युग के स्वतंत्रता आंदोलन ने ही प्रेमचन्द जैसे संवेदनशील लेखकों में राष्ट्रीयता जैसा प्रबल भाव डाला था।

 प्रेमचन्द गाँधी जी से बहुत प्रभावित हुए थे और राष्ट्रीयता के क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मानकर चले थे। गाँधी जी के आवहान पर सरकारी नौकरी छोङने वाले प्रेमचंद जी की कहानियोँ में समाज के सभी वर्गों का चित्रण बहुत ही सहज और स्वाभाविक ढंग से देखने को मिलता है।माँ, अनमन, दालान (मानसरोवर-१) कुत्सा, डामुल का कैदी (मानसरोवर-२) माता का हृदय, धिक्कार, लैला (मानसरोवर-३) सती (मानसरोवर-५) जेल, पत्नी से पति, शराब की दुकान जलूस, होली का उपहार कफन, समर यात्रा सुहाग की साड़ी (मानसरोवर-७) तथा आहुति इत्यादि वे कहानियाँ हैं जिनमें राष्ट्रीयता के विष्य को प्रमुखता से डाला गया है।इन कहानियों ने प्रेमचन्द ने एक इतिहासकार की भांति राष्ट्रीय आंदोलन के चित्र खींचे हैं।  उन्होंने विश्वास जैसी कहानी के माध्यम से गाँधी जी के आदर्शों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया।

प्रेमचन्द के मानस में भारतीय संस्कार अपेक्षाकृत अधिक प्रबल थे। विदेशी सभ्यता, संस्कृति आचरण एवं शिक्षा के प्रति उनकी आस्था दुर्बल थी।प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंडों को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। 

व्यक्तिगत जीवन में भी मुंशी प्रेमचंद जी सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन यापन करते थे, दिखावटी तामझाम से दूर रहते थे। एक बार किसी ने प्रेमचंद जी से पूछा कि – “आप कैसे कागज और कैसे पैन से लिखते हैं ?”

मुंशी जी, सुनकर पहले तो जोरदार ठहाका लगाये फिर बोले – “ऐसे कागज पर जनाब, जिसपर पहले से कुछ न लिखा हो यानि कोरा हो और ऐसे पैन से , जिसका निब न टूटा हो।‘

थोङा गम्भीर होते हुए बोले – “भाई जान ! ये सब चोंचले हम जैसे कलम के मजदूरों के लिये नही है।“

मुशी प्रेमचंद जी के लिये कहा जाता है कि वो जिस निब से लिखते थे, बीच बीच में उसी से दाँत भी खोद लेते थे। जिस कारण कई बार उनके होंठ स्याही से रंगे दिखाई देते थे।
प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से एक हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।


महान लेखक प्रेमचंद के जन्मदिवस पर उनको सादर  नमन 
🙏🙏🙏

परसाई जी का घर

लगभग 37 साल पहले मैं इस घर मे परसाई जी से मिला था । 

तब मैं बी. ई. तृतीय वर्ष का छात्र था ।  जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर दिनेश खरे (सिविल) कालेज में साहित्यिक कार्यक्रमों के इंचार्ज थे और हमारे एक सीनियर समीर निगम "सारिका कहानी मंच" के संयोजक थे । उनके साथ मुझे परसाई जी के घर जाने का अवसर मिला । परसाई जी को सभी साहित्यकार दादा कहते थे और रामेश्वर अंचल जी को दद्दा । उनका सिगरेट पीते रहना , बिंदास स्वभाव और ठहाके लगा कर बोलना आज भी याद है। हरिशंकर परसाई एक सरल और सहज व्यक्तित्व थे, उनका स्वाभाव मजाकिया था । फक्कड़ की तरह रहते थे । 

देश के जागरुक प्रहरी के रूप में पहचाने जाने वाले हरिशंकर परसाई जी ने लेखन में व्यंग्य की विधा को चुना, क्योंकि वे जानते थे कि समसामयिक जीवन की व्याख्या, उनका विश्लेषण और उनकी भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और दूसरा हो नहीं सकता ।  उनकी अधिकतर रचनाएं सामाजिक राजनीति, साहित्य, भ्रष्टाचार, आजादी के बाद का ढोंग, आज के जीवन का अन्तर्विरोध, पाखंड और विसंगतियों पर आधारित है । उनके लेखन का तरीका मात्र हंसाता नहीं वरन् आपको सोचने को बाध्य कर देता है। 

परसाई जी ने सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की जितनी समझ पैदा की उतना  हमारे युग में प्रेमचंद के बाद कोई और लेखक नहीं कर सका है । 

आज लगभग 37 वर्ष बाद किसी कार्यवश उस तरफ जाना हुआ तो सोचा चलो परसाई जी का घर भी देख ले । 

अब वहां पर कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यालय है । परसाई जी की स्मृति कही नजर नही आई ।


हरिशंकर परसाई जी व्यंग्य लेखक को डॉक्टर की जगह रखते थे. जैसे डॉक्टर पस को बाहर निकालने के लिए दबाता है. वैसे व्यंग्य लेखक समाज की गंदगी हटाने के लिए उस पर उंगली रखता है. उसमें वो कितने कामयाब हुई ये बताना नापने वालों का काम है. हमारा तुम्हारा काम है उनको और पढ़ना.

NTPC के रामाराव साहब

NTPC के रामाराव साहब 

NTPC विंध्याचल में AGM थे रामाराव साहब , विशाल आध्यात्मिक व्यक्तिव वाले। कॉलोनी में उनका घर था , जिसमे प्रवेश करते ही ऐसा लगता था जैसे मंदिर में आ गए हो । हर कमरा एक भव्य मंदिर । रामाराव साहब सत्यसाई बाबा के परम भक्त थे और विभिन्न सेवा कार्यो में लगे रहते थे । उन दिनों मैं बैढन के 132 केवी उपकेंद्र में पदस्थ था और विभिन्न कार्यो से मुझे विंध्याचल पावर स्टेशन जाना पड़ता था । इस वजह से रामाराव साहब से पहचान हुई । वे अक्सर मुझे अपने सेवा कार्यो में आने को बोलते थे और मैं कन्नी काट जाता था ।

 उन दिनों मुझे मोरवा अमरकंटक ई एच टी लाइन के टावर 446 का कार्य करने के लिए दुर्गम इलाके में जाना पड़ता था । यह स्थान एक आदिवासी इलाका था और सोनभद्र जिले से लगा हुआ था । लगभग 25 साल पहले यहां की दशा बहुत खराब थी । इन गांवों में कोई बीमार पड़ जाए तो 25 किमी तक कोई अस्पताल या स्वास्थ सेवा उपलब्ध नही थी । बीमार को खटिया में लिटाकर ग्रामीण 25 किमी पैदल ले जाते थे । 

एक बार रामाराव साहब से मैने इस बारे में चर्चा की तो बोले आप वहां एक निशुल्क अस्पताल खोल दीजिये । मैने पूछा कि मैं यह कैसे कर सकता हूँ ? तो उन्होंने कहा कि आप संकल्प ले लीजिए बाकी सब व्यवस्था  ईश्वर कर देगा । सबसे पहले नजदीक के किसी कस्बे में कोई खाली मकान देखिए जिसमे अस्पताल चलाया जा सकता हो । 

हमने काफी तलाश किया तो मिश्रा जी का टीन शेड वाला खाली घर मिल गया । हमने उनको अपनी योजना बताई और पूछा कितना किराया लेंगे तो वे बोले आप इन आदिवासियों के लिए  नेक काम कर रहे हैं इसलिए सिर्फ 1 रुपया प्रति माह । 

फिर अन्य लोगो के सहयोग से हमें बेड, स्ट्रेचर, कुर्सियां टेबल मिली , रामाराव साहब के सहयोग से NTPC हॉस्पिटल के डॉक्टर वहां जा कर सप्ताह में एक दिन निःशुल्क सेवा देते । दवाइया भी आ गयी । कुछ वर्ष बाद हमारे प्रयासों से और लायंस क्लब , रोटरी क्लब आदि के सहयोग से वहां एक्स रे मशीन और पैथोलॉजी भी हो गयी । 

रामाराव साहब की प्रेरणा से इस प्रकार शुरुआत हुई "मानस सेवा चिकित्सालय"  की,  जो आज भी चल रहा है ।