रविवार, 29 दिसंबर 2024

ब्रह्मांडीय चेतना और मानव चेतना: एक गहरा संबंध

ब्रह्मांडीय चेतना और मानव चेतना: एक गहरा संबंध

ब्रह्मांडीय चेतना और मानव चेतना के बीच का संबंध एक प्राचीन और जटिल विषय है, जो दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी को प्रभावित करता है।
  ब्रह्मांडीय चेतना: इसे सर्वव्यापी चेतना, या एक सार्वभौमिक चेतना भी कहा जाता है जो सभी चीजों को जोड़ती है। यह एक ऐसी अवधारणा है जो ब्रह्मांड को एक एकीकृत और अंतःसंबंधित इकाई के रूप में देखती है।
  मानव चेतना: यह व्यक्तिगत अनुभवों, विचारों और भावनाओं का योग है जो एक व्यक्ति को परिभाषित करता है।
दोनों के बीच संबंध:
 अंश और पूर्ण: कई दर्शन इस विचार को प्रस्तुत करते हैं कि मानव चेतना ब्रह्मांडीय चेतना का एक अंश है। जैसे कि एक बूंद समुद्र का हिस्सा होती है, वैसे ही मानव चेतना ब्रह्मांडीय चेतना का एक हिस्सा है।
 अंतःसंबंध: ब्रह्मांडीय चेतना और मानव चेतना एक दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैं। हमारे विचार, भावनाएं और कार्य ब्रह्मांडीय चेतना को प्रभावित करते हैं, और बदले में, ब्रह्मांडीय चेतना हमारे जीवन को प्रभावित करती है।
 आध्यात्मिक विकास: कई आध्यात्मिक परंपराएं मानव चेतना को ब्रह्मांडीय चेतना के साथ एकीकृत करने के लक्ष्य को रखती हैं। यह एक ऐसा मार्ग है जो आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।
 
 हाल के वर्षों में, क्वांटम भौतिकी जैसे क्षेत्रों में किए गए शोध ने ब्रह्मांडीय चेतना की अवधारणा को वैज्ञानिक रूप से समझने की दिशा में कुछ रोचक संभावनाएं खोली हैं।

क्वांटम सिद्धान्त और ब्रह्माण्डीय चेतना के बीच कई तरह के संबंध बताए जाते हैं:
 अवलोकन का प्रभाव: क्वांटम सिद्धान्त के अनुसार, किसी कण का व्यवहार तब तक अनिश्चित रहता है जब तक कि उसका अवलोकन न किया जाए। अवलोकन करने से कण का व्यवहार बदल जाता है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह अवलोकन का प्रभाव चेतना की भूमिका को दर्शाता है।

 अंतर्निहित एकता: क्वांटम सिद्धान्त हमें बताता है कि ब्रह्माण्ड के सभी कण एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यह ब्रह्माण्डीय चेतना की अवधारणा को समर्थन करता है।

समानांतर ब्रह्माण्ड: कुछ क्वांटम सिद्धान्तों के अनुसार, जब हम कोई निर्णय लेते हैं तो ब्रह्माण्ड कई शाखाओं में विभाजित हो जाता है। प्रत्येक शाखा में एक अलग परिणाम होता है। यह विचार ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ इस तरह से जुड़ा हुआ है कि हमारी चेतना इन सभी शाखाओं को प्रभावित कर सकती है।

क्वांटम सिद्धान्त और ब्रह्माण्डीय चेतना, दोनों ही जटिल और रहस्यमयी विषय हैं। इन दोनों के बीच का संबंध अभी भी पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। 

"यद पिंडे तद ब्रह्माण्डे" एक प्राचीन भारतीय दर्शन का कथन है जिसका अर्थ है "जो कुछ पिंड (शरीर) में है, वही ब्रह्मांड में है।" यानी, मनुष्य का शरीर छोटे ब्रह्मांड के समान है और ब्रह्मांड एक बड़ा शरीर। अर्थात मनुष्य और ब्रह्मांड एक ही मूल तत्वों से बने हैं।

 जीवन दर्शन: यह कथन हमें जीवन को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने में मदद करता है और हमें अपने आसपास की दुनिया के साथ एकता का अनुभव करने में मदद करता है।
उदाहरण:
 हमारे शरीर में जो परमाणु होते हैं, वही परमाणु ब्रह्मांड के तारों और ग्रहों में भी पाए जाते हैं।
हमारे शरीर में जो ऊर्जा होती है, वही ऊर्जा ब्रह्मांड में भी विद्यमान है।
हमारे मन में जो विचार आते हैं, वे ब्रह्मांडीय चेतना के एक हिस्से हैं।

"यद पिंडे तद ब्रह्माण्डे" एक गहरा और अर्थपूर्ण कथन है जो हमें ब्रह्मांड के साथ अपने संबंध को समझने में मदद करता है।

चेतना और आत्मा:

चेतना और आत्मा: 
चेतना और आत्मा, दोनों ही अत्यंत गहन और जटिल अवधारणाएं हैं जिनके बारे में सदियों से दार्शनिक और आध्यात्मिक विचारक चर्चा करते रहे हैं। दोनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं । 
चेतना वह है जो हमें अपने आसपास की दुनिया और स्वयं को जानने और समझने में सक्षम बनाती है। यह हमारे विचारों, भावनाओं, अनुभवों और संवेदनाओं का समूह है। चेतना शरीर से जुड़ी हुई है और शरीर की मृत्यु के साथ समाप्त हो सकती है।
जबकि आत्मा को अक्सर एक अमर, शाश्वत और अविनाशी तत्व के रूप में देखा जाता है जो शरीर से परे है। यह चेतना का स्रोत माना जाता है और शरीर के नष्ट होने के बाद भी जीवित रहता है। आत्मा को अक्सर आत्मज्ञान और मोक्ष की खोज से जोड़ा जाता है।

दोनों के बीच अंतर
 * स्थायित्व: चेतना शरीर से जुड़ी होने के कारण अस्थायी है, जबकि आत्मा को अमर माना जाता है।
 * स्वरूप: चेतना विचारों, भावनाओं और अनुभवों का एक समूह है, जबकि आत्मा को अक्सर एक सार्वभौमिक चेतना या ब्रह्म के अंश के रूप में देखा जाता है।
 * अनुभव: चेतना व्यक्तिगत अनुभवों से जुड़ी होती है, जबकि आत्मा को एक सार्वभौमिक अनुभव के रूप में देखा जाता है।

चेतना और आत्मा, दोनों ही जटिल और बहुआयामी अवधारणाएं हैं। दोनों के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से परिभाषित करना मुश्किल हो सकता है। यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में सदियों से विचार किया जा रहा है और शायद हमेशा विचार किया जाएगा।

गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

भावशुद्धि (शुद्ध भाव) और कर्मशुद्धि (शुद्ध कर्म)

भावशुद्धि (शुद्ध भाव) और कर्मशुद्धि (शुद्ध कर्म) भारतीय दर्शन और अध्यात्म में अत्यधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। ये दोनों तत्व मानव जीवन को सही दिशा प्रदान करते हैं और उसकी आत्मिक उन्नति का आधार बनते हैं।
भावशुद्धि का महत्व

भावशुद्धि का तात्पर्य हृदय की पवित्रता, निष्कपटता और दूसरों के प्रति सच्ची भावना से है।

1. मूल प्रेरणा का शुद्धिकरण: जब हमारे विचार और इच्छाएँ पवित्र होती हैं, तब हमारी सभी गतिविधियाँ सकारात्मक ऊर्जा से संचालित होती हैं।
2. सद्गुणों का विकास: करुणा, सहानुभूति, और सत्य जैसे गुण भावशुद्धि से प्रकट होते हैं।
3. मन की शांति: शुद्ध भाव से जीवन में मानसिक तनाव और क्लेश कम होते हैं।
4. आध्यात्मिक प्रगति: भावशुद्धि आत्मा को सुदृढ़ करती है, जिससे व्यक्ति परमात्मा के निकट पहुंचता है।

कर्मशुद्धि का महत्व

कर्मशुद्धि का तात्पर्य है कि हमारे कार्य सदाचार, नैतिकता और निस्वार्थता के सिद्धांतों पर आधारित हों।

1. सामाजिक कल्याण: शुद्ध कर्म समाज में शांति और सद्भावना लाते हैं।
2. स्वयं की संतुष्टि: शुद्ध कर्म करने से व्यक्ति आत्म-संतोष अनुभव करता है।
3. अच्छे परिणाम: कर्म का सिद्धांत यह कहता है कि जैसे कर्म होते हैं, वैसे ही फल प्राप्त होते हैं।
4. धर्म और कर्तव्य का पालन: शुद्ध कर्म जीवन के धर्म का पालन करने में सहायता करते हैं।

भावशुद्धि और कर्मशुद्धि की परस्पर निर्भरता है तथा भावशुद्धि और कर्मशुद्धि एक-दूसरे के पूरक हैं।

1. भावना से प्रेरित कर्म: कर्म का आधार भावना होती है। यदि भावना शुद्ध है, तो कर्म भी स्वाभाविक रूप से शुद्ध होंगे।
उदाहरण: यदि किसी के प्रति दया का भाव है, तो उसकी सहायता करने का कर्म शुद्ध होगा।
2. कर्म द्वारा भाव का परिष्कार: शुद्ध कर्म करने से हृदय भी पवित्र होता है। सत्कर्म व्यक्ति के भीतर सकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा देते हैं।
3. सामंजस्यपूर्ण जीवन: भाव और कर्म के बीच संतुलन होने पर व्यक्ति का जीवन सरल और प्रेरणादायक बनता है।
4. आध्यात्मिक विकास का मार्ग: भावशुद्धि और कर्मशुद्धि दोनों मिलकर व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं।

भावशुद्धि और कर्मशुद्धि का महत्व मानव जीवन में अमूल्य है। शुद्ध भावों से प्रेरित शुद्ध कर्म न केवल व्यक्ति के जीवन को सार्थक बनाते हैं, बल्कि समाज और पर्यावरण को भी शुद्ध और उन्नत करते हैं। इन दोनों के बीच गहरा संबंध है, और इन्हें अलग-अलग देखना संभव नहीं है। जीवन में सुख, शांति और उन्नति के लिए भाव और कर्म, दोनों की शुद्धता आवश्यक है।

कथावाचक और साधु-सन्यासी

हिंदू धर्म में कथावाचक और साधु-सन्यासी दो अलग-अलग भूमिकाएँ और जीवन के मार्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों का महत्व है, लेकिन उनके उद्देश्यों, भूमिकाओं, और जीवनशैली में स्पष्ट अंतर होता है।

1. कथावाचक (कथा सुनाने वाले):

भूमिका: कथावाचक धार्मिक कथाएँ, जैसे कि रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, पुराण आदि, को श्रोताओं को सरल और प्रेरणादायक ढंग से सुनाने का काम करते हैं।

जीवनशैली: कथावाचक सामान्यतः गृहस्थ जीवन जीते हैं। वे भक्ति, ज्ञान और धर्म का प्रचार करते हैं लेकिन अपने पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों को भी निभाते हैं।

लक्ष्य: उनका मुख्य उद्देश्य धर्म के ज्ञान को लोगों तक पहुँचाना, उन्हें जीवन में नैतिकता और धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना होता है।

विशेषता: वे अपने प्रवचनों और कथाओं में श्रोताओं को आध्यात्मिक संदेश देने के लिए सरल भाषा, दृष्टांत, और कहानियों का उपयोग करते हैं।

आध्यात्मिक स्तर: कथावाचक आमतौर पर धार्मिक ग्रंथों के ज्ञाता होते हैं, लेकिन वे सन्यास धारण नहीं करते। वे सामान्य सांसारिक गृहस्थ होते हैं ।

2. साधु-सन्यासी:

भूमिका: साधु-सन्यासी वे होते हैं जो सांसारिक जीवन और भौतिक इच्छाओं का त्याग करके आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष प्राप्त करने के लिए सन्यास ग्रहण करते हैं।

जीवनशैली:

साधु: धार्मिक क्रियाकलापों में संलग्न रहते हैं और भक्ति, ध्यान, योग, और तपस्या करते हैं। वे एकांतवास करते हैं। 

सन्यासी: पूर्ण रूप से सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर भगवान की शरण में समर्पित रहते हैं।

लक्ष्य: साधु-सन्यासियों का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान प्राप्त करना और समाज को प्रेरणा देना होता है।

विशेषता: वे सामान्यतः वन में एक आश्रम में रहते हैं या तीर्थस्थानों पर विचरण करते हैं। उनका जीवन अनुशासन, तप, और भक्ति से भरा होता है।

आध्यात्मिक स्तर: साधु-सन्यासी गहन आध्यात्मिक साधना करते हैं और कई बार अपने ज्ञान और अनुभव को लोगों के साथ साझा करते हैं। 

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कथावाचक धर्म के प्रचारक होते हैं, जबकि साधु-सन्यासी आत्मज्ञान और मोक्ष के साधक। दोनों का उद्देश्य समाज को आध्यात्मिक मार्ग पर ले जाना है, लेकिन उनकी साधना और जीवन के तरीके अलग होते हैं।

चित्र : कथावाचक जया किशोरी व सन्यासी अक्का महादेवी जी

विखंडनवाद (Deconstruction)

विखंडनवाद (Deconstruction)-
विखंडनवाद एक साहित्यिक और दार्शनिक दृष्टिकोण है, जिसे 20वीं शताब्दी में जैक्स डेरीडा (Jacques Derrida) ने विकसित किया। इसका उद्देश्य किसी भी पाठ, संरचना या विचार प्रणाली को उसके भीतर मौजूद अंतर्विरोधों और अस्पष्टताओं के माध्यम से विश्लेषण करना है। यह स्थापित विचारों, धारणाओं और अर्थों को चुनौती देता है और दिखाता है कि कोई भी अर्थ स्थायी या अंतिम नहीं हो सकता।
विखंडनवाद का मूल सिद्धांत यह है कि पाठ स्वयं अपनी व्याख्या का विरोध करता है। यह विचार करता है कि भाषिक संरचनाएँ किसी एकल सत्य को व्यक्त करने के बजाय, अर्थ के बहुस्तरीय और अस्थिर आयामों को उजागर करती हैं।

भारतीय दर्शन में कई विचार धाराएँ हैं जो किसी स्थापित सत्य को चुनौती देती हैं और अंततः ज्ञान और सत्य की प्रकृति पर प्रश्न उठाती हैं। उदाहरणस्वरूप:

1. माध्यमिकवाद (नागार्जुन का शून्यवाद)
नागार्जुन द्वारा विकसित माध्यमिकवाद, विखंडनवाद से काफी मेल खाता है। यह दर्शन किसी भी दार्शनिक तर्क या सत्य को उसके अंदर मौजूद अंतर्विरोधों के माध्यम से निरस्त कर देता है। नागार्जुन ने कहा कि सभी वस्तुएँ शून्य हैं, अर्थात उनका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है। यह दृष्टिकोण विखंडनवादी सिद्धांत के समान है, जो यह मानता है कि कोई भी सत्य स्थायी नहीं है।

2. चार्वाक दर्शन
चार्वाक दर्शन भारतीय भौतिकवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है, जो वेदों और आध्यात्मिकता के पारंपरिक सिद्धांतों को चुनौती देता है। यह प्रत्यक्ष अनुभव और तर्क को प्राथमिकता देता है और पारंपरिक विश्वासों को खारिज करता है।

3. अद्वैत वेदांत
अद्वैत वेदांत, विशेष रूप से शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित, यह मानता है कि संसार मायावी है और ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। हालांकि यह विचार विखंडनवाद से भिन्न है, लेकिन इसकी यह धारणा कि "माया" (दृश्य जगत) सत्य प्रतीत होने के बावजूद असत्य है, विखंडनवादी दृष्टिकोण से मेल खाती है, जो हर स्थापित अर्थ को खारिज करता है।

विखंडनवाद मुख्यतः भाषा, पाठ और संरचना के स्तर पर कार्य करता है, जबकि भारतीय दर्शन का ध्यान सत्य, आत्मा, ब्रह्मांड और मोक्ष पर केंद्रित है।

भारतीय दर्शन में विखंडन के साथ-साथ एक समाधान (सत्य का प्रतिपादन) भी प्रस्तुत किया जाता है, जैसे अद्वैत में ब्रह्म का सत्य। विखंडनवाद, इसके विपरीत, किसी एकल सत्य को स्वीकार नहीं करता।

विखंडनवाद और भारतीय दर्शन में कुछ गहन समानताएँ हैं, खासकर नागार्जुन के शून्यवाद और अन्य संशयवादी विचारधाराओं में। दोनों ही स्थापित सत्य को चुनौती देते हैं और जटिलता व अस्पष्टता को स्वीकार करते हैं। भारतीय दर्शन, हालांकि, अंततः किसी न किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक समाधान की ओर इशारा करता है, जबकि विखंडनवाद एक सतत प्रक्रिया के रूप में काम करता है।

रविवार, 8 दिसंबर 2024

क्वांटम फील्ड थ्योरी" और भारतीय तत्वज्ञान

क्वांटम ऊर्जा और "क्वांटम फील्ड थ्योरी" का भारतीय तत्वज्ञान के "आकाश तत्व" और "सहस्रार चक्र" से गहरा प्रतीकात्मक और सैद्धांतिक संबंध है। दोनों प्रणालियां ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चेतना, और अदृश्य ताकतों के प्रभाव को समझने का प्रयास करती हैं, हालांकि इनकी भाषा और व्याख्या अलग हो सकती हैं।  आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
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1. "आकाश तत्व" और क्वांटम फील्ड थ्योरी का संबंध

a. आकाश तत्व का भारतीय तत्वज्ञान में अर्थ:

आकाश तत्व (Ether या Space) को भारतीय दर्शन में सूक्ष्मतम तत्व माना गया है। यह शुद्ध ऊर्जा का स्रोत है और सभी तत्वों का आधार है। आकाश को चेतना, विचार, और ब्रह्मांडीय ऊर्जा के माध्यम के रूप में देखा जाता है।

b. क्वांटम फील्ड थ्योरी का दृष्टिकोण:

क्वांटम फील्ड थ्योरी के अनुसार, ब्रह्मांड में प्रत्येक कण (जैसे इलेक्ट्रॉन) एक क्वांटम फील्ड से उत्पन्न होता है। क्वांटम फील्ड शून्यता (Vacuum) नहीं है, बल्कि यह ऊर्जा का ऐसा माध्यम है, जिसमें सूक्ष्मतर स्तर पर निरंतर कंपन होता रहता है।

समानताएं:

1. आकाश तत्व और क्वांटम फील्ड दोनों ही शारीरिक और भौतिक जगत से परे एक अति-सूक्ष्म शक्ति के रूप में देखे जाते हैं।

2. जैसे आकाश तत्व हर जगह व्याप्त है, उसी प्रकार क्वांटम फील्ड पूरे ब्रह्मांड में समान रूप से फैला हुआ है।

3. दोनों यह बताते हैं कि सारी सृष्टि एक सूक्ष्म, अदृश्य ऊर्जा से उत्पन्न हुई है।

4. आकाश तत्व को "सूचना और ऊर्जा का वाहक" माना गया है, और क्वांटम फील्ड थ्योरी के अनुसार, यह फील्ड सूक्ष्म कणों के व्यवहार को प्रभावित करती है। कण और ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं ।
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2. "सहस्रार चक्र" और क्वांटम ऊर्जा का संबंध

a. सहस्रार चक्र का तत्वज्ञान:

सहस्रार चक्र भारतीय योग में सातवां चक्र है, जिसे सर्वोच्च चेतना का केंद्र माना जाता है। यह चक्र ब्रह्मांडीय ऊर्जा (Universal Energy) और व्यक्तिगत चेतना (Individual Consciousness) के मिलन का प्रतीक है। यह आध्यात्मिक ज्ञान और संपूर्णता का स्रोत है।

b. क्वांटम ऊर्जा का अर्थ:

क्वांटम ऊर्जा वह शक्ति है जो सूक्ष्मतम स्तर पर कणों और तरंगों के रूप में प्रकट होती है। यह ऊर्जा मस्तिष्क और शरीर को नियंत्रित करने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड्स से जुड़ी हो सकती है।

समानताएं:

1. सहस्रार चक्र और क्वांटम ऊर्जा दोनों ही चेतना के उच्चतम स्तर और शुद्ध ऊर्जा से जुड़े हैं।

2. सहस्रार चक्र का उद्देश्य व्यक्ति को ब्रह्मांडीय चेतना से जोड़ना है, जो क्वांटम ऊर्जा की "इंटरकनेक्टेडनेस" (सभी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हैं) की अवधारणा से मेल खाता है।

3. सहस्रार चक्र में संतुलन या सक्रियता से व्यक्ति अपने उच्चतम आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त करता है, ठीक वैसे ही जैसे क्वांटम ऊर्जा के माध्यम से सूक्ष्म कण अपने संभावित रूपों में प्रकट हो सकते हैं।
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3. भारतीय तत्वज्ञान और क्वांटम सिद्धांत की व्याख्या

a. अद्वैत (Non-Duality) और क्वांटम इंटरकनेक्टेडनेस:

भारतीय दर्शन के अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्मांड में सब कुछ एक है। क्वांटम फिजिक्स में, "Quantum Entanglement" दर्शाता है कि दो कण चाहे कितनी भी दूरी पर हों, वे हमेशा एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।

b. चेतना और पर्यवेक्षक का प्रभाव:

भारतीय दर्शन में चेतना को सृजन और अनुभव का मुख्य स्रोत माना गया है। क्वांटम थ्योरी कहती है कि कणों का व्यवहार पर्यवेक्षक (Observer) की उपस्थिति से प्रभावित होता है। यह "चेतना" की भूमिका पर प्रकाश डालता है।

c. ऊर्जा का सूक्ष्म स्तर:

भारतीय दर्शन में कहा गया है कि ऊर्जा (प्राण) स्थूल और सूक्ष्म दोनों रूपों में प्रकट होती है। क्वांटम सिद्धांत में, ऊर्जा के सूक्ष्मतम कण (Photons, Quarks) अनिश्चितता के सिद्धांत (Uncertainty Principle) के अनुसार कार्य करते हैं।
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4. व्यावहारिक दृष्टिकोण:

योग और ध्यान:

सहस्रार चक्र को सक्रिय करने के लिए योग और ध्यान की विधियां, ब्रह्मांडीय ऊर्जा से जुड़ने का तरीका प्रदान करती हैं। यह अनुभव क्वांटम ऊर्जा की "इंटरकनेक्टेडनेस" की अवधारणा के समान है।

क्वांटम चिकित्सा और आयुर्वेद:

आधुनिक क्वांटम चिकित्सा और आयुर्वेद दोनों में ऊर्जा संतुलन का महत्व है। सहस्रार चक्र के असंतुलन को ठीक करना या इसे सक्रिय करना, "ऊर्जा तरंगों" को नियंत्रित कर सकता है। 
सहस्रारस्य चक्रस्य, सन्तुल्यं यदि साध्यते।
असन्तुल्यं विनाश्यं च, तरङ्गा ऊर्जया नियाम्यते॥
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निष्कर्ष:

आकाश तत्व और क्वांटम फील्ड दोनों ही इस बात को व्यक्त करते हैं कि ब्रह्मांडीय ऊर्जा सूक्ष्मतम स्तर पर सब कुछ जोड़ती है।

सहस्रार चक्र और क्वांटम ऊर्जा आत्मा और ब्रह्मांडीय चेतना के जुड़ाव को दर्शाते हैं।

भारतीय तत्वज्ञान और क्वांटम फिजिक्स दोनों ही यह समझाने का प्रयास करते हैं कि सृष्टि का मूल आधार एक अदृश्य और सूक्ष्म ऊर्जा है। क्वांटम मैकेनिक्स और अधिक विकसित होकर प्राचीन भारतीय दर्शन तक पहुंच जाएगी । 

इस प्रकार, दोनों विचारधाराएं गहरे स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं, हालांकि उनकी भाषा और व्याख्या अलग हैं।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI)

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) से मानवता को कई संभावित खतरे हो सकते हैं, जिन पर लगातार चर्चा और शोध हो रहा है। इनमें से कुछ खतरे निम्नलिखित हैं:

1. नौकरियों का नुकसान (Job Displacement)

AI और ऑटोमेशन के बढ़ते उपयोग से कई पारंपरिक नौकरियां समाप्त हो सकती हैं। खासतौर पर निम्न-कौशल वाली नौकरियों में मानव श्रमिकों की आवश्यकता कम हो सकती है।
उदाहरण: फैक्ट्री वर्कर्स, डेटा एंट्री ऑपरेटर, ड्राइवर, आदि।
2. गोपनीयता का उल्लंघन (Privacy Violation)

AI का उपयोग व्यक्तिगत डेटा को एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने में किया जाता है। इससे लोगों की गोपनीयता पर खतरा हो सकता है, खासकर जब डेटा का दुरुपयोग होता है।
उदाहरण: निगरानी कैमरों, सोशल मीडिया एनालिटिक्स, या गलत इरादे से डेटा चोरी।

3. भेदभाव और पूर्वाग्रह (Bias and Discrimination)

AI सिस्टम में इस्तेमाल होने वाले डेटा में अगर पहले से कोई पूर्वाग्रह हो, तो AI उन पूर्वाग्रहों को बढ़ा सकता है।
उदाहरण: AI आधारित भर्ती प्रणाली जो कुछ समूहों के खिलाफ भेदभाव करती हो।

4. हथियारों का दुरुपयोग (Weaponization)

AI का उपयोग स्वायत्त हथियारों (autonomous weapons) और साइबर अटैक्स के लिए किया जा सकता है, जो वैश्विक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।

5. गलत सूचना का प्रसार (Misinformation)

AI आधारित तकनीक जैसे डीपफेक (Deepfake) वीडियो और ऑटो-जेनरेटेड फेक न्यूज, समाज में भ्रम और अफवाहें फैलाने के लिए इस्तेमाल हो सकते हैं।
उदाहरण: राजनीतिक प्रचार या गलत जानकारी का प्रसार।

6. मानव निर्णय पर निर्भरता में कमी (Loss of Human Autonomy)

AI के अधिक उपयोग से लोग अपने निर्णय लेने की क्षमता पर कम ध्यान दे सकते हैं और AI पर अत्यधिक निर्भर हो सकते हैं।
उदाहरण: नेविगेशन, वित्तीय निवेश, या मेडिकल डायग्नोसिस में।

7. अवैध या अनैतिक प्रयोग (Unethical Use)

AI का इस्तेमाल धोखाधड़ी, निगरानी, या मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए किया जा सकता है।
उदाहरण: राजनीतिक नियंत्रण के लिए AI का दुरुपयोग।

8. सुपरइंटेलिजेंस का खतरा (Superintelligence Risk)

अगर AI इतना विकसित हो जाए कि वह मानव नियंत्रण से बाहर हो जाए, तो यह मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा हो सकता है।
उदाहरण: अगर AI सिस्टम अपने उद्देश्यों को मानवता के हितों के खिलाफ बना ले।

9. आर्थिक असमानता (Economic Inequality)

AI तकनीक पर कुछ ही बड़ी कंपनियों या देशों का नियंत्रण होने से वैश्विक असमानता बढ़ सकती है।

समाधान और उपाय

नियम और नीतियां: AI के विकास और उपयोग के लिए सख्त नियम लागू करना।

शिक्षा और पुनः प्रशिक्षण: श्रमिकों को नई तकनीकों के अनुकूल बनाने के लिए ट्रेनिंग देना।

नैतिक AI: ऐसे AI सिस्टम बनाना जो मानव मूल्यों और अधिकारों का सम्मान करें।

वैश्विक सहयोग: AI तकनीक के जोखिमों से निपटने के लिए देशों के बीच सहयोग।

AI में बड़े फायदे भी हैं, लेकिन इन खतरों को ध्यान में रखकर इसका जिम्मेदारी से इस्तेमाल करना जरूरी है।

बुधवार, 27 नवंबर 2024

ब्रम्हरन्ध

 सायर नाही सीप बिन, स्वाति बूंद भी नाहि।

कबीर मोती नीपजे, सुन्नि सिषर गढ़ माहिं।। 


 अर्थात कबीर दास जी अपनी इस साखी में कहते हैं कि शरीर रूपी किले में सुषुम्ना नाड़ी के ऊपर स्थित ब्रह्मरंध्र में ना तो समुद्र है, ना ही सीप है और ना ही वहाँ पर स्वाति नक्षत्र की बूंद है, फिर भी वहाँ मोक्ष रूपी मोती उत्पन्न होता है अर्थात एक अद्भुत दिव्य ज्योति का दर्शन हो रहा है।


ब्रह्मरंध्र का उल्लेख योग और तंत्र शास्त्रों में अत्यधिक महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में किया गया है। यह शरीर के शीर्ष पर स्थित सहस्रार चक्र के भीतर एक सूक्ष्म केंद्र होता है, जो आध्यात्मिकता और चेतना के उच्चतम स्तर का प्रतीक है। "ब्रह्मरंध्र" का शाब्दिक अर्थ है "ब्रह्म का द्वार" या "ईश्वर का द्वार", और यह माना जाता है कि इसी मार्ग से आत्मा शरीर को त्यागती है और ब्रह्मांडीय चेतना से एक हो जाती है।


ब्रह्मरंध्र का महत्व मुख्य रूप से साधक की आध्यात्मिक उन्नति में है। यह स्थान सिर के शीर्ष पर मौजूद होता है, जिसे 'सहस्रार चक्र' कहा जाता है, और इसे हजार पंखों वाले कमल के रूप में वर्णित किया गया है। जब साधक गहन साधना, ध्यान या कुंडलिनी जागरण की अवस्था में पहुंचता है, तब कुंडलिनी शक्ति मेरुदंड के नीचे से ऊपर उठकर इस चक्र को भेदती है, और ब्रह्मरंध्र के माध्यम से साधक को आत्म-साक्षात्कार या मोक्ष की अनुभूति होती है। यह परम आनंद और शांति की अवस्था होती है, जिसे ब्रह्म से मिलन कहा जाता है।



ब्रह्मरंध्र को भेदन करने की प्रक्रिया साधक के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि यह व्यक्ति के सीमित अहंकार को समाप्त कर उसे अनंत चेतना से जोड़ता है। इस चक्र के जागृत होने पर साधक के भीतर दिव्य ज्ञान, सत्य और असीम शांति का अनुभव होता है। योग शास्त्रों में इसे जीवन और मृत्यु के बंधनों से मुक्ति का मार्ग बताया गया है।

ध्यान योग

 भगवद् गीता में ध्यान योग (अध्याय 6: ध्यान योग) को मन की एकाग्रता और आत्मनियंत्रण के माध्यम से आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करने का साधन बताया गया है। इसे साधना की एक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर, ध्यान के माध्यम से, अपने भीतर स्थित आत्मा और परमात्मा को अनुभव कर सकता है।


ध्यान योग के कुछ प्रमुख पहलू निम्नलिखित हैं:


1. मन का नियंत्रण: भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन बड़ा चंचल होता है, परंतु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। मन को इधर-उधर भटकने से रोककर उसे आत्मा पर केंद्रित करना ध्यान योग का प्रमुख उद्देश्य है।


2. साधना की विधि: ध्यान योग में व्यक्ति एकांत स्थान पर बैठकर, शरीर और मन को स्थिर कर, ध्यान के द्वारा आत्मा पर ध्यान केंद्रित करता है। ध्यान करते समय सीधा बैठने, श्वास पर ध्यान केंद्रित करने, और ईश्वर पर मन को लगाकर साधना करने की सलाह दी गई है।


3. समता भाव: ध्यान योग के माध्यम से साधक अपने भीतर और बाहर समता भाव को प्राप्त करता है, अर्थात सुख-दुख, लाभ-हानि, सफलता-असफलता जैसे द्वंद्वों से परे होकर परम शांति का अनुभव करता है।


4. अभ्यास और संयम: ध्यान योग में निरंतर अभ्यास और संयम की आवश्यकता होती है। नियमित साधना से मन को नियंत्रित किया जा सकता है, जिससे अंततः आत्मा का ज्ञान और मुक्ति प्राप्त होती है।



गीता में ध्यान योग को ईश्वर की अनुभूति का साधन बताते हुए कहा गया है कि जब व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर, ध्यान की अवस्था में स्थित होता है, तब उसे आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है और वह परमात्मा से एकाकार हो जाता है।

शांभवी मुद्रा

 मां दुर्गा का एक नाम शांभवी भी है। वह जो अचेतन को भी चेतन कर सकती है। इन्‍हीं के नाम पर बना है -  हजारो वर्ष पुराना शांभवी मुद्रा योग। यह योगमुद्रा मन को एकाग्रचित करने के साथ ही आंखों में मौजूद विकार भी दूर करता है। 

योग जगत में शांभवी मुद्रासन की खास जगह है।  जो कि मन और मस्तिष्क को शांत करने में कारगर भूमिका निभाता है। इस मुद्रा की खास बात यह है कि इसके तहत आपकी आंखें खुली रहती हैं, लेकिन फिर भी आप कुछ देख नहीं पाते। वास्तव में योगाचार्यों के मुताबिक यह मुद्रा एक कठिन साधना है।


शांभवी मुद्रा की विधि (Shambhavi Mudra) -

गुरु के मार्गदर्शन में ध्यान के आसन में बैठें और अपनी पीठ सीधी रखें।

आपके कंधे और हाथ बिलकुल ढीली अवस्था में होने चाहिए।

इसके बाद हाथों को घुटनों पर चिंमुद्रा, ज्ञान मुद्रा या फिर योग मुद्रा में रखें। आप सामने की ओर किसी एक बिंदु पर दृष्टि एकाग्र करें।

इसके बाद ऊपर देखने का प्रयास करें। ध्यान रखिए आपका सिर स्थिर रहे। इस बीच आप अपने विचारों को भी नियंत्रित करने की कोशिश करें। सिर्फ और सिर्फ ध्यान रखें। इस बीच कुछ न सोचें।

शांभवी मुद्रा के दौरान आपकी आपकी पलकें झपकनी नहीं चाहिए।

इस आसन को शुरुआती दिनों में कुछ ही सेकेंड तक करें। यानी जैसे-जैसे आपकी ध्यान लगाने की और अपने विचारों पर नियंत्रण करने की क्षमता में विकास हो, वैसे वैसे इस आसन को करने के समय सीमा भी बढ़ाते रहें। इसे आप अधिकतम 3 से 6 मिनट कर सकते हैं।



शांभवी मुद्रा के लाभ-

शांभवी मुद्रा आज्ञा चक्र को जगाने वाली एक शक्तिशाली क्रिया है। आज्ञा चक्र निम्न और उच्च चेतना को जोड़ने वाला केंद्र है। इस मुद्रा से आपको शारीरिक लाभ तो हासिल होगा ही इसके अलावा यह मुद्रा आपकी आंखों के स्नायुओं को भी मजबूत बनाती है। इतना ही नहीं यह मुद्रा आपके मन और मस्तिष्क को शांत करती है। अर्थात यदि आप किसी बात से तनाव महसूस करें तो इस मुद्रा की मदद से अपने तनाव को कम कर सकते हैं। इसके तहत आंखें खुली रखकर भी व्यक्ति सो भी रहा होता है और ध्यान का आनंद भी ले रहा होता है। इसके योग मुद्रा के जरिए आप डिप्रेशन जैसी बीमारी से भी खुद को दूर कर सकते हैं।


'तुः' अक्षरस्य च देवी शाम्भवी देवता शिवः ।।बीजं 'शं' अत्रिरेवर्षिः शाम्भवी यन्त्रमेव च ।।भूती मुक्ताशिवे मुक्तिः फलं चानिष्टनाशनम्॥

देवी तत्त्व

 देवी तत्व का दर्शन भारतीय दर्शन और आध्यात्मिक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह दर्शन शक्ति या माँ के रूप में देवी की पूजा और मान्यता को केन्द्र में रखता है। देवी तत्व का मुख्य आधार यह है कि समस्त सृष्टि में शक्ति का स्रोत एक मातृ रूपी देवी है, जो सृजन, पालन, और संहार तीनों की अधिष्ठात्री है। इस दर्शन में देवी को संसार की आदि शक्ति माना जाता है, जो ब्रह्मांड की ऊर्जा का प्रतीक होती है।


देवी तत्व के कुछ मुख्य पहलू:


1. शक्ति का स्वरूप: देवी को शक्ति का स्वरूप माना जाता है। वे संसार की ऊर्जा का स्रोत हैं, और इस शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं है। यही शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकट होती है, जैसे दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती आदि।


2. अधिभौतिक और आध्यात्मिक सृजन: देवी न केवल भौतिक जगत की उत्पत्ति करती हैं, बल्कि वे आध्यात्मिक जागरण और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। वे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर सक्रिय रहती हैं।


3. माया और मोक्ष: देवी माया का रूप हैं, जो संसार के बंधनों का कारण बनती हैं, लेकिन वही मोक्ष का द्वार भी खोलती हैं। उन्हें माया और मोक्ष की अधिष्ठात्री माना जाता है।


4. प्रकृति और पुरुष: देवी तत्व दर्शन में प्रकृति को देवी का रूप माना जाता है, और पुरुष या आत्मा को शिव के रूप में। शिव बिना शक्ति (देवी) के निष्क्रिय होते हैं, इसलिए शक्ति को सर्वोच्च माना गया है।


5. त्रिगुण और त्रिदेव: देवी को सत्त्व, रजस और तमस तीनों गुणों का स्वामी माना जाता है। वे ब्रह्मा (सृजन), विष्णु (पालन) और महेश (संहार) की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं।



देवी तत्व का आध्यात्मिक संदेश:


देवी तत्व हमें यह सिखाता है कि जीवन में शक्ति का महत्व है, और हमें इस शक्ति का सम्मान और उपयोग करना चाहिए। देवी का ध्यान और पूजा जीवन में संतुलन, शक्ति, ज्ञान, और समृद्धि लाने के लिए होती है।

गायत्री महाविज्ञान

 गायत्री महाविज्ञान का दर्शन भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का एक गहन एवं व्यापक सिद्धांत है, जो जीवन के भौतिक, मानसिक और आत्मिक विकास पर केंद्रित है। यह दर्शन जीवन की उच्च संभावनाओं को जागृत करने और मानव-चेतना को परम चेतना से जोड़ने का मार्ग दिखाता है। आइए इसके प्रमुख तत्वों को समझें:


1. गायत्री का तात्त्विक स्वरूप


गायत्री को वेदों में महाशक्ति और ऋग्वेद की मातृशक्ति कहा गया है। यह ब्रह्मांड की रचनात्मक और दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है, जो जीवन को समृद्धि, ज्ञान और शुद्धता प्रदान करती है।


गायत्री मंत्र:

"ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥"

यह मंत्र सूर्य रूपी परमात्मा से बुद्धि, विवेक और प्रज्ञा की प्राप्ति का आह्वान करता है।


2. त्रयी शक्ति: सत्य, शिव और सुंदर



गायत्री महाविज्ञान में तीन प्रमुख तत्व माने जाते हैं:


सत्य: सत्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रतीक है। यह व्यक्ति को यथार्थ देखने और सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।


शिव: यह कल्याण का सिद्धांत है, जो अहिंसा, सेवा और परोपकार के मूल्यों को जागृत करता है।


सुंदर: सौंदर्य का अर्थ आत्मा के अंतर्मुखी सौंदर्य से है, जो भीतर की शांति, संतुलन और सद्भाव से प्रकट होता है।


3. बुद्धि और प्रज्ञा का विकास


गायत्री मंत्र के जप का उद्देश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मानसिक और बौद्धिक विकास भी है। यह धारणा है कि मंत्र का नियमित अभ्यास आत्म-चेतना को जागृत कर बुद्धि को शुद्ध करता है और व्यक्ति को विवेकशील एवं कर्मशील बनाता है।


4. विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय


गायत्री महाविज्ञान भौतिक विज्ञान और अध्यात्मिकता के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह दृष्टिकोण है कि विज्ञान की प्रगति का उपयोग मानवता की भलाई के लिए हो और व्यक्ति अपने भीतर के दिव्य तत्व को जागृत कर समाज के उत्थान में योगदान दे। देखिए 

https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC9623891/


5. आत्म-संयम और साधना


गायत्री महाविज्ञान साधना, आत्म-अनुशासन और ध्यान पर विशेष बल देता है। व्यक्ति को बाहरी प्रलोभनों से मुक्त होकर भीतर की शक्तियों को जागृत करना चाहिए।


6. सर्वजनहित और विश्वकल्याण


गायत्री दर्शन केवल व्यक्तिगत मुक्ति का नहीं, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण का भी मार्ग दिखाता है। यह विचारधारा बताती है कि मनुष्य का जीवन तभी सार्थक होता है जब वह अपने ज्ञान, शक्ति और संसाधनों का उपयोग लोकमंगल के लिए करता है।


निष्कर्ष


गायत्री महाविज्ञान का दर्शन व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास का पथप्रदर्शक है। यह जीवन को अनुशासन, ज्ञान, सेवा और परोपकार के आदर्शों से भरकर समाज और विश्व के समग्र कल्याण की दिशा में प्रेरित करता है। यह हमें सिखाता है कि आत्मोन्नति और लोककल्याण एक ही यात्रा के दो पहलू हैं।

शून्य की अवधारणा

 पश्चिमी दर्शन में शून्य (जीरो) का अर्थ है - कुछ नही (nothing) लेकिन हिन्दू और बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा एक गहरा और जटिल विषय है जो कि विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के माध्यम से प्रकट किया गया है। 



1. हिन्दू दर्शन में शून्य की अवधारणा


हिन्दू दर्शन में "शून्य" एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, लेकिन इसे केवल 'नहीं' या 'जीरो' के रूप में नहीं समझा जाता है। यह अस्तित्व के पार एक स्थिति या अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। वेदों, उपनिषदों और भगवदगीता में शून्य को कभी-कभी "ब्रह्म" या "परब्रह्म" के रूप में संदर्भित किया जाता है।


 अद्वैत वेदांत में, शून्य का अर्थ है "निर्गुण ब्रह्म" या "अपरिभाषित ईश्वर", जो न कोई गुण है, न कोई रूप, न कोई रंग, बल्कि वह शुद्ध चेतना है। यह ब्रह्म एकता और अखंडता का प्रतीक है, जहाँ द्वैत (द्विविधा) समाप्त हो जाता है।


पतंजलि के योग सूत्रों में, शून्यता का अर्थ "चित्त वृत्ति निरोध" से है, अर्थात् मन की सभी गतिविधियों और इच्छाओं को रोकने की स्थिति। इस अवस्था में व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है, जिसे शून्यता या कैवल्य भी कहा जाता है।


ब्रह्मांड और शून्य: हिन्दू गणित में, शून्य (0) का भी महत्व है, जिसका आविष्कार वैदिक ऋषि गणितज्ञों द्वारा किया गया था। यह शून्य असीम और अनंत के मध्य का संतुलन है।


पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं दशगुणं पुनः।

पूज्यं पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं पुनः पुनः॥

अर्थात -

शून्य पूज्य है क्योंकि जिसके पीछे लग जाये उसे दसदस  गुना करता जाता है 


ईश्वर से संबंध: हिन्दू दर्शन में शून्यता को अक्सर ब्रह्म, जो साकार और निराकार दोनों है, के साथ जोड़ा जाता है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति ईश्वर को उसके निराकार और अप्रकट रूप में अनुभव करता है। कबीर ने कहा है- गिरह हमारा सुन्य में ..... अर्थात हमारा वास्तविक निवास शून्य में है । 


2. बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा


बौद्ध दर्शन में "शून्यता" (संस्कृत में "शून्यता" और पाली में "सुन्नता") एक केंद्रीय अवधारणा है। यह अस्तित्व की अस्थिरता और असत्यता का प्रतीक है। बौद्ध धर्म में, शून्यता का अर्थ है कि सभी चीजें अस्थायी और निर्भरता से उत्पन्न हैं; उनमें कोई स्थायी आत्मा या स्थायी तत्व नहीं है।


मध्य्यमक दर्शन: नागार्जुन के मध्य्यमक दर्शन में, शून्यता को "प्रतीत्यसमुत्पाद" (परस्पर निर्भरता) के संदर्भ में समझा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी घटनाएं और वस्तुएं परस्पर निर्भरता से उत्पन्न होती हैं, और उनमें कोई स्थायी स्वरूप नहीं होता।


विपश्यना और ध्यान: बौद्ध साधना में, ध्यान का उद्देश्य "शून्यता" की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त करना है, जो यह समझने में सहायक है कि दुनिया की सभी चीजें अनित्य, दुःख और अनात्म (स्वरूपहीनता) हैं।


 बौद्ध धर्म में, शून्यता का ईश्वर की परिभाषा से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। बौद्ध धर्म में एक व्यक्तिगत ईश्वर या सर्वशक्तिमान की अवधारणा नहीं है। शून्यता यहाँ आत्मज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने की दिशा में एक मार्ग के रूप में समझी जाती है, जो अस्तित्व के द्वैत को समाप्त कर देती है।


हिन्दू दर्शन में, शून्यता को ब्रह्म (ईश्वर) की स्थिति के रूप में समझा जाता है, जहाँ व्यक्ति सत्य के साकार और निराकार दोनों पहलुओं को अनुभव कर सकता है।


बौद्ध दर्शन में, शून्यता का अर्थ सभी चीजों की निर्भर उत्पत्ति और अस्तित्व के स्थायित्व की अनुपस्थिति है। यह ईश्वर की अवधारणा से संबंधित नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान की प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण तत्व है।


दोनों दर्शनों में शून्यता की अवधारणा अस्तित्व की मौलिकता और वास्तविकता की समझ को गहरा करती है, चाहे वह ब्रह्म की निराकार अवस्था हो या अस्तित्व की अस्थिरता।

साधनाध्याय

 बादरायण कृत ब्रह्मसूत्र का तीसरा अध्याय साधनाध्याय कहलाता है, और इसमें मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के साधनों का विस्तृत वर्णन किया गया है। साधन का अर्थ है वह मार्ग, जिस पर चलकर साधक ब्रह्मज्ञान या परमात्मा का अनुभव कर सकता है। इस अध्याय में विभिन्न योग, ध्यान, और ज्ञान की विधियों पर प्रकाश डाला गया है, जिनसे साधक आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।


साधनाध्याय के प्रमुख विषय:


1. साधनों का स्वरूप:


इसमें यह बताया गया है कि आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग, और योगमार्ग जैसे साधनों का पालन करना आवश्यक है। इनमें से ज्ञानमार्ग को सर्वोच्च माना गया है, क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही अज्ञान का नाश होता है।


2. श्रवण, मनन और निदिध्यासन:


श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन करना), और निदिध्यासन (ध्यान में स्थिर रहना) को आत्मज्ञान के तीन महत्वपूर्ण साधन बताया गया है। उपनिषदों के ज्ञान को सुनना (श्रवण), उस पर विचार करना (मनन), और गहरे ध्यान में उतरना (निदिध्यासन) आत्मा की प्रकृति को समझने के लिए आवश्यक है।


3. साधक के गुण:


साधक में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता होती है जैसे कि विवेक (सही और गलत में अंतर समझना), वैराग्य (जगत के प्रति अनासक्ति), शम (मन का शांत होना), दम (इंद्रियों का संयम), और एकाग्रता। इन गुणों को विकसित करके ही साधक आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।


4. ध्यान और समाधि:


साधनाध्याय में ध्यान और समाधि का भी महत्त्व बताया गया है। ध्यान में मन को ब्रह्म में एकाग्र करना और समाधि में सभी बाहरी और आंतरिक विकारों को समाप्त कर ब्रह्म में लीन होना मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है।


5. कर्म और ज्ञान का संबंध:


इस अध्याय में कर्म (धर्म के अनुसार आचरण) और ज्ञान (ब्रह्म की पहचान) के बीच संबंध पर भी विचार किया गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि प्रारंभिक अवस्था में कर्म आवश्यक हैं, लेकिन अंतिम मुक्ति ज्ञान से ही संभव है।


6. मुक्ति का स्वरूप:


साधनाध्याय में यह भी बताया गया है कि जब साधक को ब्रह्मज्ञान होता है, तो उसे अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव होता है और वह अज्ञान के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति मोक्ष का कारण बनती है और जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।





साधनाध्याय में आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति के मार्गों का विस्तृत वर्णन है। यह स्पष्ट करता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रवण, मनन, और निदिध्यासन का अभ्यास आवश्यक है। साधक को अपने मन, इंद्रियों और कर्मों पर संयम रखते हुए निरंतर अभ्यास करना चाहिए, जिससे कि वह ब्रह्म का साक्षात्कार कर सके।

विज्ञान और ईश्वर

 विज्ञान और ईश्वर :


नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे।

कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमो नमः ।।

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विज्ञानरूपाय ईश्वर का अर्थ है वह ईश्वर जो विज्ञानस्वरूप हैं, अर्थात जो सम्पूर्ण सृष्टि के नियमों और प्रक्रियाओं का आधार हैं। भारतीय दर्शन में ईश्वर को न केवल सृष्टि का रचयिता माना गया है, बल्कि वह शक्ति भी माना गया है जो प्रत्येक कण, प्रत्येक घटना, और सृष्टि के हर नियम में विद्यमान है।



 ईश्वर वह अदृश्य शक्ति है जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियमों को बनाए रखती है और सृष्टि को एक निश्चित क्रम में चलाती है। जैसे गुरुत्वाकर्षण, विद्युत, चुंबकत्व, ऊर्जा संरक्षण, और अन्य सभी प्राकृतिक सिद्धांत एक अदृश्य नियमों के आधार पर चलते हैं, वैसे ही ईश्वर को उन नियमों का स्रोत और संचालनकर्ता माना गया है। हिन्दू दर्शन में पाश्चात्य धर्मों की तरह साइंस और रिलिजन में विरोधाभास नही है , अपितु समस्त विज्ञान को उपवेद एवं वेदांग कहा गया है । 


विज्ञान में हम पदार्थ, ऊर्जा और उनके विभिन्न रूपों का अध्ययन करते हैं, लेकिन इन सभी का प्रयोजन व अंतिम स्रोत क्या है, इसका उत्तर विज्ञान स्वयं नहीं दे सकता। इसी कारण से, भारतीय आध्यात्मिक परंपराएं यह मानती हैं कि यह सभी नियम, सिद्धांत, और शक्तियाँ विज्ञानरूप ईश्वर के अधीन हैं। 


अतः, विज्ञानरूपाय ईश्वर का अर्थ यह है कि ईश्वर ने अपनी सत्ता को विज्ञान के रूप में हर स्थान पर, हर कण में स्थापित किया है, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड में संतुलन, सामंजस्य और नियमबद्धता बनी रहती है।

क्या खोया, क्या पाया

 इस जीवन में "क्या खोया, क्या पाया" पर चिंतन करने पर हम पाते हैं कि जिंदगी के सफर में कुछ पाने की खुशी होती है, तो कुछ खोने का दुख भी। जीवन की इस यात्रा में खोने-पाने की भावनाएं अक्सर परस्पर गुंथी हुई होती हैं, और यही जीवन को विविधता और गहराई प्रदान करती हैं।


क्या पाया?- पाने की दृष्टि से देखें तो जीवन में हमें अनगिनत अनुभव, रिश्ते, प्रेम, मित्रता, ज्ञान, और अवसर मिलते हैं। यह अनुभव हमारी समझ, सहनशीलता और दृष्टिकोण को परिपक्व बनाते हैं। जो भी हम जीवन में सकारात्मक रूप में संजोते हैं—चाहे वो परीक्षा की या व्यवसायिक सफलता हो, रिश्तों का प्रेम हो , लोगो की सेवा करने से मिलने वाली आत्मतृप्ति या अपने लक्ष्य को पाने की संतुष्टि—ये सब हमारे लिए बहुमूल्य हैं।


क्या खोया?- खोने की दृष्टि से देखें तो जीवन में बहुत कुछ छूटता है। वक़्त के साथ बचपन का मासूमियत, शरारतें, कुछ प्रिय लोग, कुछ अवसर और गतिमान समय हम खोते चले जाते हैं। हर एक अनुभव हमें कुछ सिखाकर ही छोड़ता है, चाहे वो कड़वा अनुभव हो या मीठा। यह खोना हमें सिखाता है कि हर चीज़ अस्थायी है और हमें उसे स्वीकार करना आना चाहिए।


शेष शून्य - अंततः जब हम सब कुछ समेट कर सोचते हैं, तो जीवन का संतुलन शून्य ही होता है। जो पाया है, वो कहीं खोने के डर से घिरा रहता है और जो खोया है, उसकी कसक जीवन भर रहती है। यह शून्य एक ऐसा स्थिर बिंदु है जो हमें यह सिखाता है कि असल में हम कुछ भी सांसरिक वस्तु, जैसे- धन संपत्ति पद , अपने साथ लेकर नहीं जा सकते। यह शून्य हमें जीवन के मर्म का बोध कराता है और सिखाता है कि जीवन का असली अर्थ पाने-खोने से परे, एक संतुलन में है।



इस तरह से, जीवन को एक प्रवाह के रूप में देखना चाहिए जहां खोने और पाने के बीच शून्य का यह संतुलन हमें सच्ची शांति और संतुष्टि की ओर ले जाता है।


उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, 

सत हरि भजन जगत सब सपना.

सचखंड

 सिख दर्शन में सचखंड की अवधारणा एक महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक अवधारणा है, जो आत्मा की मुक्ति और ईश्वर के साथ एकता का प्रतीक है। सचखंड को सिख धर्म में आत्मा की अंतिम और सर्वोच्च स्थिति माना जाता है, जहाँ आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है और ईश्वर के साथ एक हो जाती है।


सचखंड का शाब्दिक अर्थ है "सत्य का क्षेत्र" या "सत्य का लोक"। यह सिख धर्म में पाँच आध्यात्मिक स्थितियों में से अंतिम और सबसे उच्च स्थिति है। इन पाँच स्थितियों को पंच खंड कहा जाता है और वे हैं:


1. धर्म खंड - धर्म का क्षेत्र, जहाँ न्याय और सही-गलत का निर्णय होता है।


2. ज्ञान खंड - ज्ञान का क्षेत्र, जहाँ आध्यात्मिक ज्ञान और सत्य की समझ विकसित होती है।


3. शरण खंड - मेहनत और आत्म-संयम का क्षेत्र, जहाँ व्यक्ति आध्यात्मिक विकास के लिए कठिन परिश्रम करता है।


4. करम खंड - शुभ कर्म एवं कृपा का क्षेत्र, जहाँ ईश्वर की कृपा से आत्मा को शक्ति मिलती है।


5. सचखंड - सत्य का क्षेत्र, जहाँ आत्मा ईश्वर के साथ एक हो जाती है।


सचखंड का आध्यात्मिक महत्व :


सचखंड में, आत्मा को ईश्वर की दिव्य कृपा और सच्चाई का अनुभव होता है। यहाँ आत्मा को किसी प्रकार के दुःख, मोह, या माया (मायावी संसार) से छुटकारा मिल जाता है। सचखंड की स्थिति में पहुँचने के बाद, आत्मा को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त कर दिया जाता है और वह ईश्वर की अनंत कृपा और प्रेम का अनुभव करती है।


गुरु ग्रंथ साहिब में सचखंड को उस स्थान के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ परमात्मा का निवास है। वहाँ पर केवल सत्य, प्रेम, और अनंत शांति का वास है। सिख गुरुओं ने इसे ईश्वर की वास्तविक स्थिति और आध्यात्मिकता के चरम के रूप में प्रस्तुत किया है।


गुरु नानक देव जी ने अपने अनुभव और शिक्षाओं के माध्यम से सचखंड की अवधारणा को व्यक्त किया है। उनके अनुसार, ईश्वर हर जगह और हर एक जीव में विद्यमान है, लेकिन सचखंड वह विशेष अवस्था है जहाँ व्यक्ति ईश्वर की उपस्थिति को सीधे अनुभव करता है।


सचखंड प्राप्त करने का मार्ग :


सिख धर्म में सचखंड प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित आध्यात्मिक मार्ग सुझाए गए हैं:


1. नाम सिमरन (ईश्वर के नाम का स्मरण): ईश्वर के नाम का जाप करना और उसकी महिमा गाना।


2. कीर्तन (भजन-गायन): ईश्वर के गुणों और महिमा का गान।


3. सेवा (निःस्वार्थ सेवा): मानवता की निःस्वार्थ सेवा करना।


4. गुरु की शरण में जाना: गुरु के उपदेशों का पालन करना और उनके बताए मार्ग पर चलना।


5. सत्य और धर्म का पालन: सच्चे मार्ग पर चलना और सद्गुणों को अपनाना।


सचखंड का दार्शनिक दृष्टिकोण:


सचखंड सिख धर्म में सिर्फ़ एक स्वर्गीय या भौतिक स्थान नहीं है, बल्कि यह आत्मा की एक आंतरिक और गहरी अवस्था का प्रतीक है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति अपने अहंकार, इच्छाओं और भ्रम से मुक्त हो जाता है और ईश्वर के अनंत सत्य का अनुभव करता है। सिख दर्शन में, यह माना जाता है कि हर व्यक्ति के भीतर ईश्वर की दिव्य ज्योति है, और सचखंड उस ज्योति का संपूर्ण और पूर्ण अनुभव है।



सचखंड सिख धर्म में आत्मा के लिए अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ आत्मा को ईश्वर के साथ मिलन का अनुभव होता है। सचखंड की अवधारणा व्यक्ति को यह प्रेरणा देती है कि वह अपने जीवन में सच्चाई, धर्म, और सेवा का पालन करे, ताकि वह अपने भीतर की दिव्यता को पहचान सके और ईश्वर के साथ एक हो सके। सिख धर्म में यह विश्वास है कि ईश्वर की कृपा से ही आत्मा सचखंड की ओर अग्रसर हो सकती है।

Space and Time दिक् और काल

 Space and Time 

दिक् और काल 


विज्ञान में स्पेस और टाइम का कॉन्सेप्ट लगभग 100 वर्ष पूर्व से आया है , किंतु भारतीय दर्शन में यह हजारों वर्षों पूर्व विकसित हो चुका था । पुराणों में कहा गया है - दिक् च कालश्च शक्त्योर्या जगतः कारणं स्मृतम्।"

अर्थात "दिक् और काल दोनों ही शक्ति के रूप में जगत के कारण माने गए हैं।"


यह सूत्र यह बताता है कि दिक् और काल शक्ति के दो रूप हैं, जिनसे समस्त जगत का निर्माण होता है।



उपनिषदों, पुराणों, महाभारत आदि के श्लोकों और सूत्रों से यह स्पष्ट होता है कि दिक् और काल को केवल भौतिक आयाम के रूप में नहीं बल्कि ब्रह्मांड की मूलभूत शक्तियों के रूप में देखा गया है, जिनके प्रभाव में सारा जगत है और जिनसे आत्मा को पार जाना चाहिए।


उपनिषदों में दिक् (अर्थात् "स्पेस") और काल (अर्थात् "समय") को भौतिक जगत के महत्वपूर्ण आयामों के रूप में देखा गया है। दोनों की अवधारणा ब्रह्मांड की संरचना और जीवन की वास्तविकता को समझने के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके परस्पर संबंध को समझना आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी महत्वपूर्ण है।


1. दिक् (स्पेस): उपनिषदों के अनुसार, दिक् सभी दिशाओं को इंगित करता है, जिससे यह संपूर्ण ब्रह्मांड का विस्तार या व्याप्ति दर्शाता है। यह किसी एक विशेष दिशा तक सीमित न होकर संपूर्ण जगत में व्याप्त है और सभी वस्तुओं के स्थान और स्थिति को दर्शाता है। यह स्थानिक आयाम (spatial dimension) का प्रतिनिधित्व करता है।


2. काल (समय): काल को परिवर्तन या घटनाओं के क्रम के रूप में देखा गया है। यह निरंतर गतिशील है और इसे किसी बाहरी वस्तु या घटना द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। उपनिषदों में समय को चिरंतन या अनंत कहा गया है। इसे मापा नहीं जा सकता और यह सभी घटनाओं और परिवर्तनों का साक्षी होता है।


"कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।

संयोग एषां न तु आत्मभावाद्, आत्मा ह्यनाश्रयममृतं स्वतन्त्रः॥"(श्वेताश्वतर उपनिषद् 1.2)

 अर्थात -

"समय (काल), स्वभाव, नियति (भाग्य), संयोग, और पुरुष इन तत्वों को ब्रह्मांड के कारणों के रूप में विचार किया गया है। लेकिन ये सब आत्मा का स्वभाव नहीं है, आत्मा इनसे स्वतंत्र, अमर और स्वनियंत्रित है।"


काल का उल्लेख विशेष रूप से गीता के अध्याय 11, श्लोक 32 में मिलता है:

"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।" अर्थात- "मैं (श्रीकृष्ण) समय हूँ, जो संपूर्ण लोकों का संहार करने वाला हूँ और यहाँ सब कुछ नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ।"

 महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है- 

"कालः पचति भूतानि सर्वाण्येव सह प्रभुः।

कालः संहरते सर्वं कालो हि दुरतिक्रमः॥"

अर्थात- "समय (काल) सभी भूतों को पकाता है और संपूर्ण संसार को संहार करता है। समय को कोई पार नहीं कर सकता।"


3. दिक् और काल का परस्पर संबंध: दिक् और काल के बीच का संबंध अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ये दोनों मिलकर भौतिक जगत की संरचना का निर्माण करते हैं। समय के बिना दिशा का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि समय ही घटनाओं को क्रमबद्ध करता है। इसी प्रकार, दिक् के बिना समय की माप भी संभव नहीं है, क्योंकि दिक् का निर्धारण स्थान से होता है, जिससे घटनाओं का स्थान-काल संबंध स्थापित होता है। उपनिषदों में यह भी कहा गया है कि दिक् और काल दोनों ही माया का हिस्सा हैं, जो वास्तविकता का बोध कराते हैं लेकिन स्वयं अपार और अनन्त हैं।


प्रकृतिः पंचभूतानि ग्रहा लोकाः स्वरास्तथा ।

दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम् ।। 


अर्थ: प्रकृति  पांच तत्वों अर्थात् अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और अंतरिक्ष के संयोजन से बनी है. ये पांच तत्व, सभी ग्रह और लोक,  संगीत के सात स्वर, दिक और काल हमारा सदा मंगल करें.


4. आध्यात्मिक दृष्टिकोण: उपनिषदों के अनुसार, जब कोई व्यक्ति आत्म-ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह दिक् और काल की सीमाओं से परे चला जाता है। उस अवस्था में, वह आत्मा को शाश्वत और सर्वव्यापी (अखंड और अनंत) रूप में देखता है, जो किसी भी स्थान और समय के बंधन से मुक्त होती है।

योग वाशिष्ठ का सूत्र है -चित्तकल्पितमेवेदं दिक्कालाद्यन्यथागतम्।

तस्माच्चित्तमयो बन्धः पुमांस्येनं विवर्जये ।।

अर्थात-  "दिक् और काल मन द्वारा कल्पित हैं। इसलिए, मन ही बंधन का कारण है, और पुरुष को इस मनोवृत्ति को त्यागना चाहिए।"


इस प्रकार, दिक् और काल के परस्पर संबंध को समझना ब्रह्मांडीय समझ और आत्मा की वास्तविकता के प्रति जागरूकता की ओर एक कदम है। दिक् और काल के परे जाकर ही आत्म साक्षात्कार होता है ।

विशिष्टाद्वैत

 विशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुसार, निराकार निर्गुण ईश्वर का साकार सगुण रूप में प्रकट होना इस बात पर आधारित है कि ईश्वर स्वभावतः आत्मा और प्रकृति का आधार है और अपनी करुणा के कारण भक्तों की भक्ति और साधना के लिए सगुण रूप में प्रकट होता है। इसका मुख्य सिद्धांत है कि ईश्वर एक है, लेकिन गुण, शक्ति और स्वरूप में विशिष्ट है। ईश्वर अपनी मूल स्थिति में निराकार, निर्गुण और परम चैतन्य है। ईश्वर सदा से निर्गुण और सगुण दोनों ही रूप में विद्यमान है। 


विशिष्टाद्वैत के अनुसार, ईश्वर आत्मा और प्रकृति का अधिष्ठान है।


जैसे आत्मा शरीर में अदृश्य रहकर शरीर को नियंत्रित करती है, वैसे ही ईश्वर संसार में अदृश्य रहकर जब चाहे अपने सगुण रूप में प्रकट हो सकता है।


जब ईश्वर भक्तों के प्रेम और भक्ति का उत्तर देते हैं, तो वे सगुण रूप धारण करते हैं।


यह ईश्वर की शरीर-आत्मा के संबंध की दृष्टि से स्वाभाविक प्रक्रिया है।


भक्तों के लिए ईश्वर का सगुण रूप उनकी साधना और मुक्ति के मार्ग को सरल बनाता है।


इसलिए, विशिष्टाद्वैत दर्शन में साकार सगुण ईश्वर को भक्तों के लिए एक कृपा स्वरूप माना गया है, जबकि वह अपनी मूल स्थिति में सदा निराकार और निर्गुण रहता है।



Statue of equality : रामानुजाचार्य , विशिष्टाद्वैत वेदांत के प्रवर्तक संत (1017-1137 AD)

कामायनी

 कामायनी में मन, श्रद्धा और इड़ा का संबंध यह दर्शाता है कि मानव जीवन में भावनाओं, तर्क और चंचलता का संतुलन आवश्यक है। मनुष्य तभी अपने अस्तित्व की पूर्णता प्राप्त करता है, जब वह श्रद्धा के प्रेम और इड़ा के विवेक से प्रेरित होकर अपने मन को नियंत्रित करता है। यह संबंध जीवन के संघर्षों और समाधान का प्रतीक है।


कामायनी में श्रद्धा, इड़ा और मन का संबंध इस प्रकार स्थापित होता है कि ये तीनों मानव व्यक्तित्व के अभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।


मन: चंचल और अस्थिर।


श्रद्धा: प्रेम और विश्वास, जो मन को स्थिरता देती है।


इड़ा: बुद्धि और तर्क, जो मन को दिशा प्रदान करती है।


इन तीनों के सामंजस्य से ही मानव जीवन संतुलित और पूर्ण बनता है।


जब श्रद्धा और इड़ा दोनों मिलकर मन को नियंत्रित करती हैं, तो व्यक्ति भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में संतुलन प्राप्त करता है।


श्रद्धा मन को भावना और प्रेम देती है, जबकि इड़ा उसे ज्ञान और विवेक से समृद्ध करती है।


कामायनी में यह दर्शाया गया है कि केवल भावना (श्रद्धा) या केवल बुद्धि (इड़ा) के आधार पर जीवन को पूर्णता नहीं मिलती। मन की चंचलता तभी समाप्त होती है, जब श्रद्धा और इड़ा दोनों मिलकर उसे मार्गदर्शन प्रदान करें।


श्रद्धा मनुष्य के हृदय को शांति और संतोष देती है।



इड़ा जीवन की व्यावहारिकता और यथार्थ को समझने में मदद करती है।


मन इन दोनों के बीच का सेतु है, जो संघर्षों और समाधान की प्रक्रिया से गुजरता है।

शुभ और अशुभ

 जीवन में शुभ और अशुभ का सतत संघर्ष रहता है। गीता में अर्जुन के धर्मसंकट को शुभ और अशुभ के बीच संघर्ष का उदाहरण माना जा सकता है।


शुभ सार्वभौमिक है या सापेक्ष? भारतीय परंपरा में यह मान्यता है कि शुभ की मूल प्रकृति सार्वभौमिक है, लेकिन इसके व्यावहारिक स्वरूप को संदर्भ विशेष के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है।


शुभ को परिभाषित करने में मानवीय इंद्रियां, बुद्धि और आध्यात्मिक ज्ञान का योगदान महत्वपूर्ण है। लेकिन यह पहचान सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत संदर्भों के आधार पर भिन्न हो सकती है।


भारतीय दर्शन में "शुभ" एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो नैतिकता, आध्यात्मिकता और आदर्श जीवन के लिए प्रेरणा का आधार है। शुभ का अर्थ है वह जो कल्याणकारी, हितकारी और सकारात्मक हो। यह सत्य, सुंदरता और न्याय जैसे गुणों के साथ संबद्ध होता है।


भारतीय दर्शन में शुभ का अर्थ है जीवन और समाज के लिए हितकारी कार्य या विचार। इसे धर्म, सत्य और अहिंसा जैसे गुणों के संदर्भ में देखा जाता है। वेदांत, जैन, बौद्ध, सांख्य, और योग जैसे दार्शनिक प्रणालियों में शुभ को आत्मा और ब्रह्म के संबंध में समझाया गया है।


1. वेदांत में शुभ: वेदांत दर्शन शुभ को ब्रह्म के साथ जोड़ता है। ब्रह्म सत्य, चैतन्य और आनंद है, और इससे जुड़कर व्यक्ति अपने जीवन को शुभ बना सकता है। शुभ का लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है।


2. जैन दर्शन में शुभ: जैन धर्म में शुभ को अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य जैसे गुणों के पालन से जोड़ा गया है। शुभ कर्मों से आत्मा की शुद्धि होती है।


3. बौद्ध दर्शन में शुभ: बौद्ध धर्म में शुभ का अर्थ है मध्यम मार्ग का अनुसरण, जिसमें अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक कर्म आदि) के माध्यम से दुःख से मुक्ति पाई जाती है।


क्या शुभ वही है जो धर्म के अनुसार है, या जो परिणामस्वरूप सुखद है? 


शुभ को सार्वभौमिक मानते हुए यह स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति को अपने धर्म और ज्ञान के अनुसार शुभ कार्य करना चाहिए। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने "निष्काम कर्म" को शुभ का सर्वोत्तम साधन बताया है।



शुभ का अनुसरण जीवन में शांति, सद्भाव और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।

प्रारब्ध कर्म

 प्रारब्ध कर्म का अर्थ है वे कर्म जो हमारे पिछले जन्मों के कारण उत्पन्न हुए हैं और वर्तमान जीवन में हमें फलस्वरूप अनुभव करने पड़ते हैं। प्रारब्ध कर्म हमारे जीवन में सुख-दुख, अच्छे-बुरे अनुभवों के रूप में प्रकट होते हैं और ये हमारे नियंत्रण में नहीं होते। इन्हें नष्ट करना सरल नहीं होता, लेकिन कुछ तरीकों से इनके प्रभाव को कम किया जा सकता है या उनसे मुक्ति पाई जा सकती है।


प्रारब्ध कर्म के प्रभाव को कम करने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं:


1. सद्गुरु की कृपा: एक सच्चे गुरु का मार्गदर्शन और उनका आशीर्वाद प्रारब्ध कर्म के प्रभाव को कम कर सकता है। गुरु की कृपा से मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है और प्रारब्ध से मुक्त हो सकता है।


2. भक्ति और प्रार्थना: ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति और प्रार्थना से मन शुद्ध होता है और हमारे भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इससे कर्म के बंधन धीरे-धीरे कम हो जाते हैं।


3. साधना और ध्यान: नियमित साधना, ध्यान और योग अभ्यास से मन और आत्मा शुद्ध होती है, जिससे प्रारब्ध के असर को कम किया जा सकता है। ध्यान से व्यक्ति अपने भीतर की चेतना को जाग्रत करता है और कर्म के परिणामों से ऊपर उठता है।


4. संतोष और समर्पण: प्रारब्ध के प्रति संतोष और ईश्वर में पूर्ण समर्पण रखने से व्यक्ति मानसिक शांति प्राप्त कर सकता है। इससे प्रारब्ध के असर का बोझ कम महसूस होता है और वह जीवन के कठिन समय का सामना सहजता से कर पाता है।


5. सेवा और परोपकार: दूसरों की सेवा करने और परोपकार में संलग्न रहने से हमारे नकारात्मक कर्मों का प्रभाव कम होता है। सेवा और परोपकार के कार्यों से मनुष्य के कर्मों में सुधार आता है, जिससे प्रारब्ध के बंधन धीरे-धीरे ढीले पड़ते हैं।



6. स्वधर्म का पालन: अपने धर्म, कर्तव्यों, और नैतिकता का पालन करते हुए जीवन जीने से भी प्रारब्ध के प्रभाव में कमी आती है। अपने कर्मों का सही तरीके से पालन करना प्रारब्ध को निष्प्रभावी करने का एक तरीका है।


हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि प्रारब्ध से मुक्ति का मार्ग समय ले सकता है और इसमें धैर्य तथा ईश्वर के प्रति  आत्मसमर्पण की आवश्यकता होती है।

आचार्य विनोबा भावे

 आचार्य विनोबा भावे का आध्यात्मिक दृष्टिकोण गहराई से गांधीवादी आदर्शों और भारतीय दर्शन से प्रेरित था। वे अहिंसा, सत्य, और आत्मशुद्धि के सिद्धांतों में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि आत्मा की शुद्धता और व्यक्तिगत विकास ही समाज और राष्ट्र की प्रगति का आधार है।


विनोबा का दृष्टिकोण यह था कि आध्यात्मिकता केवल व्यक्तिगत साधना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य संपूर्ण मानवता की भलाई है। उन्होंने भगवद् गीता, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और उनके ज्ञान का उपयोग समाज सुधार के कार्यों, जैसे भूदान आंदोलन, में किया।


उनका मानना था कि सच्ची आध्यात्मिकता वह है जो व्यक्ति को निःस्वार्थ सेवा और करुणा के मार्ग पर ले जाए, जिससे सामाजिक समरसता और शांति की स्थापना हो सके।


विनोबा भावे की पुस्तक The Intimate and the Ultimate उनके गहन विचारों और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का एक संग्रह है। यह पुस्तक मुख्य रूप से उनके भाषणों और लेखों का संकलन है, जिनमें उन्होंने मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, विशेषकर अध्यात्म, सत्य, अहिंसा, और सामाजिक उत्थान के सिद्धांतों पर अपने विचार साझा किए हैं।



इस पुस्तक में विनोबा भावे का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक गहरी आत्मीयता और परम सत्य (ultimate) का अनुभव करने की क्षमता होती है। वे आत्मशुद्धि, करुणा, और अहिंसक व्यवहार के महत्व को रेखांकित करते हैं, ताकि व्यक्ति स्वयं की उच्चतम क्षमता को प्राप्त कर सके और समाज में सकारात्मक योगदान दे सके।


विनोबा भावे ने इसमें जीवन के सरल लेकिन गहन पहलुओं पर प्रकाश डाला है, जैसे आंतरिक शांति, नैतिक मूल्यों का पालन, और दूसरों के प्रति प्रेम और सेवा का भाव। उनके अनुसार, जीवन की सच्ची पूर्ति तभी संभव है जब व्यक्ति आत्मिक विकास और समाज के कल्याण के बीच संतुलन स्थापित कर सके।


The Intimate and the Ultimate पाठकों को एक गहरे आत्मनिरीक्षण और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना के लिए प्रेरित करती है। यह पुस्तक उनके मानवीय और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है।

प्रथम और अंतिम मुक्ति

 "प्रथम और अंतिम मुक्ति


" (The First and Last Freedom) जे. कृष्णमूर्ति की एक प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व, चेतना, और मुक्ति के विषय पर गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। इस पुस्तक में वे पारंपरिक धार्मिक प्रथाओं और सिद्धांतों से हटकर, आत्म-अन्वेषण और सत्य की खोज पर जोर देते हैं। उनका दृष्टिकोण यह है कि वास्तविक स्वतंत्रता बाहरी अनुकरण और परंपराओं से नहीं, बल्कि भीतर की गहरी समझ और अंतर्दृष्टि से मिलती है।


पुस्तक के खास बिंदु - 


1. स्वयं की समझ:


कृष्णमूर्ति का मानना है कि जीवन की समस्याओं और दुखों की जड़ हमारी सीमित सोच और आत्म-केन्द्रित दृष्टिकोण में है। उन्होंने कहा कि आत्म-जागरूकता और स्वयं का निरीक्षण करना ही सच्ची मुक्ति का मार्ग है।


बाहरी गुरुओं, ग्रंथों या प्रथाओं पर निर्भर रहने के बजाय, उन्होंने आत्म-अन्वेषण की शक्ति पर जोर दिया। स्वयं को जानने से ही हम मानसिक शांति और स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं।


2. मुक्ति का अर्थ:


कृष्णमूर्ति के अनुसार, मुक्ति का अर्थ है मन की पूरी तरह से स्वतंत्रता, जहां विचार बाधाओं और सीमाओं से मुक्त होता है। उन्होंने इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में देखा, जहां व्यक्ति अपने पूर्वाग्रहों, पूर्व धारणाओं और अतीत के बोझ से मुक्त हो जाता है।


उन्होंने यह भी कहा कि मुक्ति कोई गंतव्य नहीं है, बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जो तब होती है जब व्यक्ति हर क्षण को जागरूकता के साथ जीता है।


3. डर और इच्छा:


पुस्तक में कृष्णमूर्ति ने बताया कि डर और इच्छा मानव मन की मूल समस्याएं हैं। ये हमारे दृष्टिकोण और व्यवहार को नियंत्रित करते हैं, जिससे हम अपनी वास्तविकता से अलग हो जाते हैं।


डर से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि व्यक्ति को अपने विचारों और प्रतिक्रियाओं का गहन अवलोकन करना चाहिए। जब हम बिना किसी निर्णय के अपने डर को देख पाते हैं, तभी उसका समाधान हो सकता है।


4. संबंधों का महत्व:


कृष्णमूर्ति ने कहा कि हमारे संबंध ही हमारे मन का आईना होते हैं। उन्होंने यह बताया कि अगर हम अपने संबंधों को समझ लें और उनमें पूरी तरह से उपस्थित रहें, तो हम अपने भीतर की जटिलताओं और विरोधाभासों को भी समझ सकते हैं।


उन्होंने संबंधों में प्रेम की भूमिका को भी महत्वपूर्ण बताया, जहां प्रेम का अर्थ किसी प्रकार की आसक्ति या स्वार्थ नहीं, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता है।


5. ध्यान और मन की स्थिति:


ध्यान के बारे में उन्होंने कहा कि यह किसी पद्धति या तकनीक का अभ्यास नहीं है। बल्कि, ध्यान का अर्थ है हर क्षण में पूरी तरह से जागरूक रहना और बिना किसी प्रयास के, बिना किसी सीमा के अपनी चेतना का निरीक्षण करना।


ध्यान में व्यक्ति खुद को और अपनी दुनिया को बिना किसी विभाजन के देखता है, जिससे एक अद्वितीय समझ और शांति की स्थिति उत्पन्न होती है।


"प्रथम और अंतिम मुक्ति" में कृष्णमूर्ति ने यह संदेश दिया कि सच्ची मुक्ति बाहरी चीजों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह आंतरिक रूप से आत्म-जागरूकता और स्वतंत्रता पर आधारित है। यह पुस्तक पाठकों को अपने मन के पैटर्न को समझने और एक नई दृष्टि से जीवन को देखने के लिए प्रेरित करती है।

गोवर्धन पूजा

 गोवर्धन पूजा का संबंध भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की पूजा से है, जो इस बात का प्रतीक है कि भगवान प्रेम से पूजे जाते हैं, न कि भय से। गोवर्धन पूजा की कथा में बताया गया है कि गांववाले इंद्र देव की पूजा करते थे क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वे इंद्र की पूजा नहीं करेंगे, तो उन्हें बारिश नहीं मिलेगी और उनके खेत बर्बाद हो जाएंगे।


भगवान कृष्ण ने लोगों को समझाया कि पूजा भय के कारण नहीं बल्कि प्रेम और कृतज्ञता से होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि गोवर्धन पर्वत, जो गांववासियों की रक्षा करता है और उनके पशुओं के लिए चारा प्रदान करता है, उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। इस पर सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इंद्र ने नाराज़ होकर भारी बारिश शुरू कर दी, लेकिन भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर सबको सुरक्षित किया।



इस कथा का संदेश यही है कि भगवान को प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से पूजना चाहिए, न कि भय से। कृष्ण ने यह सिखाया कि ईश्वर प्रेम और सेवा भाव के प्रतीक हैं, और उनके साथ सच्चा संबंध केवल प्रेम से ही बन सकता है, न कि डर से।


कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा रोकने के बाद उन्होंने गोवर्धन पर्वत की पूजा का प्रस्ताव रखा। इसके बाद गांववालों ने गोवर्धन पर्वत, गौधन (गायों), और प्रकृति की पूजा की, क्योंकि कृष्ण ने उन्हें समझाया कि प्रकृति के तत्व, जो उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सहायता और संरक्षण प्रदान करते हैं, उनकी वास्तविक पूजा के पात्र हैं।


इस पूजा में सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत को प्रतीकात्मक रूप से अन्नकूट का भोग लगाया और विभिन्न प्रकार के पकवानों का अर्पण किया। इसके अलावा, गायों और बछड़ों का पूजन कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। इस प्रकार, गोवर्धन पूजा के दिन मुख्य रूप से गोवर्धन पर्वत, गौधन और प्रकृति की पूजा की गई, जो एक नई चेतना और भक्ति का प्रतीक बन गई।

दीपावली

 "भारत" शब्द का एक आध्यात्मिक और गूढ़ अर्थ "प्रकाश में रत" या "ज्ञान में लीन" भी है। इस व्याख्या के अनुसार "भा" का अर्थ "प्रकाश" या "ज्ञान" और "रत" का अर्थ "लगा हुआ" या "लीन" होता है।


इस प्रकार, "भारत" का अर्थ होता है वह देश या भूमि जहाँ लोग ज्ञान, प्रकाश और सत्य की खोज में रत रहते हैं। यह दृष्टिकोण भारत के उस सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वरूप को दर्शाता है, जहाँ सदियों से ऋषि-मुनि, संत और दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करने और मानवता के कल्याण के लिए साधना करते रहे हैं।



इस अर्थ में, भारत केवल एक देश नहीं है, बल्कि ज्ञान और प्रकाश की भूमि का प्रतीक है, जहाँ लोगों का जीवन सत्य, धर्म और आध्यात्मिक उन्नति के आदर्शों पर आधारित है।


 भारतीय परंपरा में दीपक को ज्ञान, प्रकाश, और आशा का प्रतीक माना गया है। इसे अज्ञानता से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर जाने का प्रतीक माना जाता है।


दीपक जलाने के प्रमुख आध्यात्मिक अर्थ निम्नलिखित हैं:


1. ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक: दीपक का प्रकाश अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है। यह हमारे मन और हृदय में ज्ञान और विवेक की ज्योति जलाने का संकेत देता है।


2. सकारात्मकता और शांति का प्रतीक: दीप जलाने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक विचार एवं भावनाओं का नाश होता है। यह मन में शांति और समर्पण का भाव उत्पन्न करता है।


3. आत्मा का प्रतीक: दीपक की लौ आत्मा का प्रतीक मानी जाती है। जैसे दीपक जलता रहता है, वैसे ही आत्मा भी जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों के बीच सजीव रहती है और प्रकाश फैलाती है।


4. दिव्यता और आस्था: दीपक में घी या तेल का उपयोग हमारी आस्था और समर्पण का प्रतीक है, जो जलते हुए अर्पण को दिखाता है। यह जीवन में ईश्वर और धर्म के प्रति आस्था को और प्रगाढ़ करता है।


5. समाज और समर्पण का प्रतीक: दीप जलाने की परंपरा से यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने आसपास के लोगों के जीवन में प्रकाश फैलाना चाहिए।


त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों में दीप जलाना अज्ञानता से ज्ञान की ओर, निराशा से आशा की ओर और नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर एक आध्यात्मिक यात्रा को प्रदर्शित करता है।


आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं

भगवान धन्वंतरि

 धन्वंतरि को भारतीय चिकित्सा विज्ञान, विशेषकर आयुर्वेद के जनक के रूप में जाना जाता है। उनका योगदान स्वास्थ्य और चिकित्सा क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। धन्वंतरि का उल्लेख आयुर्वेदिक ग्रंथों और पुराणों में किया गया है, जहाँ उन्हें देवताओं के वैद्य का दर्जा प्राप्त है। आयुर्वेद के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन को रोगों से मुक्ति दिलाने और स्वस्थ जीवन जीने के उपाय बताए।


1. आयुर्वेद का प्रवर्तन:


धन्वंतरि ने आयुर्वेद को एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप दिया। उन्होंने इसे आठ भागों में विभाजित किया, जिसे "अष्टांग आयुर्वेद" कहा जाता है। इन आठ अंगों में काय चिकित्सा (सामान्य चिकित्सा), शल्य चिकित्सा (सर्जरी), शालक्य (नेत्र, नाक, कान और गला रोग), कौल चिकित्सा (बालरोग), अगद तंत्र (विष चिकित्सा), रसायन (जीवन को लंबा करने वाले औषध) और वाजीकरण (प्रजनन चिकित्सा) शामिल हैं।


2. सर्जरी और औषध निर्माण में योगदान:


धन्वंतरि को औषध निर्माण और सर्जरी के क्षेत्र में महान योगदान के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने विभिन्न जड़ी-बूटियों और औषधियों की खोज की, जिनका उपयोग आज भी आयुर्वेद में होता है। माना जाता है कि उन्होंने शल्य चिकित्सा के भी कई उन्नत तरीकों को अपनाया, जिनका उपयोग उस समय असाध्य माने जाने वाले रोगों के इलाज के लिए किया जाता था।


3. रोगों का निदान और उपचार पद्धति:


धन्वंतरि ने विभिन्न रोगों के निदान और उपचार के लिए विभिन्न पद्धतियों का विकास किया। उन्होंने शरीर को वात, पित्त, और कफ – तीन दोषों के आधार पर समझा और इसी संतुलन से स्वास्थ्य और रोग की स्थिति का निर्धारण किया।


4. स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता:


उन्होंने स्वस्थ जीवनशैली और रोगों से बचाव के महत्व पर जोर दिया। आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुसार, भोजन, दिनचर्या, और प्राकृतिक जीवन शैली पर ध्यान देना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।


धन्वंतरि की शिक्षा और चिकित्सा पद्धतियां आज भी आयुर्वेद चिकित्सा का आधार मानी जाती हैं। उनके योगदान से न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को एक प्राचीन चिकित्सा पद्धति का उपहार मिला, जो आज भी लाखों लोगों के लिए उपयोगी है।

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

सेठ रामदास जी गुड़वाले

सेठ रामदास जी गुड़वाले - 1857 के महान क्रांतिकारी, दानवीर जिन्हें फांसी पर चढ़ाने से पहले अंग्रेजों ने उनपर शिकारी कुत्ते छोड़े जिन्होंने जीवित ही उनके शरीर को नोच खाया।
सेठ रामदास जी गुड़वाले दिल्ली के अरबपति सेठ और बैंकर थे.  इनका जन्म दिल्ली में एक अग्रवाल परिवार में हुआ था. इनके परिवार ने दिल्ली में पहली कपड़े की मिल की स्थापना की थी।

उनकी अमीरी की एक कहावत थी “रामदास जी गुड़वाले के पास इतना सोना चांदी जवाहरात है कि वे उसकी दीवार बना कर गंगा जी का पानी भी रोक सकते है”

जब 1857 में मेरठ से आरम्भ होकर क्रांति की चिंगारी जब दिल्ली पहुँची तो दिल्ली से अंग्रेजों की हार के बाद अनेक रियासतों की भारतीय सेनाओं ने दिल्ली में डेरा डाल दिया। उनके भोजन और वेतन की समस्या पैदा हो गई । मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की आर्थिक हालत ठीक नही थी । यह देख कर रामदास जी ने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति बादशाह के हवाले कर दी और कह दिया - 

"मातृभूमि की रक्षा प्राथमिकता है ,  धन फिर कमा लिया जायेगा "

रामजीदास ने केवल धन ही नहीं दिया, लाखों सैनिकों को सत्तू, आटा, दाल, चावल,  अनाज,  और उनके बैलों, ऊँटों व घोड़ों के लिए चारे की व्यवस्था तक की।

सेठ जी जिन्होंने अभी तक केवल व्यापार ही किया था, अंग्रेजों के खिलाफ सेना व खुफिया विभाग के संघठन का कार्य भी प्रारंभ कर दिया उनकी संघठन की शक्ति को देखकर अंग्रेज़ सेनापति भी हैरान हो गए ।
सारे उत्तर भारत में उन्होंने जासूसों का जाल बिछा दिया, अनेक सैनिक छावनियों से गुप्त संपर्क किया।

उन्होंने भीतर ही भीतर एक शक्तिशाली सेना व गुप्तचर संघठन का निर्माण किया। देश के कोने कोने में गुप्तचर भेजे व छोटे से छोटे मनसबदार और राजाओं से प्रार्थना की इस संकट काल में सभी सँगठित हो और देश को स्वतंत्र करवाएं।

रामदास जी की इस प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधियों से अंग्रेज़ शासन व अधिकारी बहुत परेशान होने लगे ।

कुछ महीने बाद दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः कब्जा हो गया ।  अंग्रेजों को समझ आ गया की भारत पर शासन करना है तो रामदास जी का अंत बहुत ज़रूरी है । 

सेठ रामदास जी गुड़वाले को धोखे से पकड़ा गया और जिस तरह से मारा गया वो तथाकथित सभ्य अंग्रेजों की क्रूरता की मिसाल है।

पहले उन्हें रस्सियों से खम्बे में बाँधा गया फिर उन पर  शिकारी कुत्ते छुड़वाए गए, जब उनका 90% मांस नोच लिया ,  उसके बाद उन्हें उसी अधमरी अवस्था में दिल्ली के चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फांसी पर लटका दिया गया। 

सेठ रामदास जैसे अनेकों क्रांतिकारी इतिहास के पन्नों से गुम कर दिए गए ।

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

मैकाले की टूल किट

मैकाले की टूल किट 

मैकाले की सोच -- हमे एक ऐसी कौम बनानी है जो देखने मे हिंदुस्तानी हो मगर दिलोदिमाग से अंग्रेजों की गुलाम हो । 1857 का संग्राम हम देख चुके है ।  एक दिन हम अंग्रेजो को भारत से जाना ही होगा लेकिन जाने से पहले हम इन हिंदुस्तानी लोगों को अपनी मानसिक गुलाम कौम बना देंगे । और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा ।

(कल्पना करिए कि उस वक़्त क्या बातचीत हुई होगी)



 
फिर मैकाले अपने शिष्य कर्जन और डलहौजी से बोले - हमे ये करना है जिससे कि -

- ये लोग अपने धर्म और संस्कृति पर ग्लानि व शर्म महसूस करें व उसका मखौल उड़ाए  किंतु दूसरे धर्म को अच्छा समझे 
-ये लोग अपने सभी साधु संतों को पाखंडी समझे और पोप पादरी बाइबिल को महान समझे
-ये लोग अपने प्राचीन विज्ञान को पाखंड और झूठ माने और विदेशी विज्ञान को श्रेष्ठतम माने 
- ये लोग अपनी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेदिक और यूनानी को बकवास और अवैज्ञानिक माने और अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति को श्रेष्ठ मानें
-ये लोग अपनी भाषा में पढ़ने लिखने बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखे और अंग्रेजी पढ़ने लिखने बोलने वालों को उच्च मानें । अंग्रेजी पढ़ने वालों की भारतीय समाज मे बड़ी इज्जत हो , उनको ही बड़ी नौकरियां मिलें ।
-इनके लाखो गुरुकुल जो मंदिरों में चलते है वे बंद करवाओ , इनकी शिक्षा व्यवस्था तबाह कर दो और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लागू करो ।  स्कूलों में इनके बच्चों को वही पढवाओ जो हम चाहते हैं । शिक्षा को सिर्फ नौकरी पाने का जरिया बना दो । 
-इनकी किताबे बदल दो और अंग्रेजी किताबे चला दो । हमे ऐसा करना है कि आगे 50 सालों में भारत मे संस्कृत और फ़ारसी पढ़ने और समझने वालों की संख्या 1% से भी कम हो जाये। 
-ये लोग ऐसा साहित्य पढ़े (और ऐसी फिल्में देखे) जिसमे क्षत्रिय को अय्याश अत्याचारी राजा या जमीन्दार , ब्राह्मण को धूर्त पाखंडी , वैश्य को सूदखोर लालची व शूद्र को इनके जुल्म सहने वाला बताया हो 
- ये लोग अपनी परंपराओं को ब्राह्मणवाद कह के मजाक उड़ाए और विरोध करें 
-इनको बताओ कि तुम्हारे पास कुछ भी श्रेष्ठ नही था , जो भी श्रेष्ठ है वो हम यूरोपीय लोगो ने तुमको दिया है 
- इनको बताओ कि तुम लोग भी हमारी तरह  बाहरी हो और तुम्हारे पूर्वज यूरोप से आये थे , तुम्हारी भाषा भी यूरोपीय लोगो की देन है 
- इनको झूठी आर्य आक्रमण थ्योरी पढ़ा कर द्रविड़ों से लड़वाओ , शूद्रों को ब्राह्मणों से लड़वाओ , हिंदी और तमिल को लड़वाओ 
- इनके देशज वस्त्र जो इनके देश के मौसम के अनुसार कम्फ़र्टेबल होते है -जैसे धोती कुर्ता गमछा उत्तरीय आदि को पहनने में इनको शर्म आये और ये इंग्लैंड के ठंडे मौसम के अंग्रेजी वस्त्रों जैसे शर्ट सूट पैंट टाई कोट को पहनने में गर्व अनुभव करें 
- ये लोग अपने नायकों का मजाक उड़ाए और विदेशी आक्रमणकारियों की तारीफ करें 
- इनको बताओ कि तुम लोग कभी एक देश नही थे । हम अंग्रेजो ने तुमको एक देश बनाया । 

डलहौजी ने पूछा सर कैसे किया जाएगा यह सब -

मैकॉले बोला - एक झूठ को यदि 100 बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है । पहले यह काम जर्मन और अंग्रेज विद्वान करेंगे फिर गुलाम भारतीय खुद ही करेंगे । हम मैक्स मूलर , स्पीयर, मेटकाफ जैसे लोगो को तनख्वाह देंगे यह काम करने के लिए । समझे डलहौज़ी , तुम मेरा बनाया हुआ इंडियन एडुकेशन एक्ट तुरंत लागू करो  । इनको धर्म जाति भाषा क्षेत्र के आधार पर बांटते जाओ और लड़वाते जाओ। 

देखना डलहौज़ी भारत की आजादी के बाद एक दिन ऐसा आएगा कि जो भारत के टुकड़े होने की बात करेगा , जो आतंकवादी नक्सली का समर्थन करेगा उसका साथ देने के लिए हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । जो भगवा पहनेगा या संस्कृत आयुर्वेद गीता पढ़ने की बात करेगा उसका विरोध करने हमारे मानसिक गुलाम खड़े हो जाएंगे । भारत में भारत माता की जय बोलने वालों को मूर्ख समझा जाएगा । 
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मैकाले की टूल किट सफल हुई । आज भी हमारे बीच मे बहुत से लोग इसी टूलकिट के अनुसार दिलोदिमाग से अंग्रेजो के गुलाम बन हुए हैं ।

ऐसे लोगो को  देश और समाज के हित में अपने दिमाग को अब decolonized कर लेना चाहिए ।

प्राचीन भारतीय इंजीनियरिंग ग्रन्थ

प्राचीन भारतीय इंजीनियरिंग ग्रन्थ :  
विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। विश्वकर्मा प्रकाश के अध्यायों के नाम हैं- भूमिलक्षण, गृह्यादिलक्षण, मुहुर्त, गृहविचार, पदविन्यास, प्रासादलक्षण, द्वारलक्षण, जलाशयविचार, वृक्ष, गृहप्रवेश, दुर्ग, शाल्योद्धार, गृहवेध।
ग्रन्थ अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं। संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। कहा जाता है कि इस ग्रन्थ में जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने का वर्णन है ।
शिल्पशास्त्र में लम्बाई मापने कि लिये सब से छोटा मापदण्ड ‘पारामणु’ था जो आधुनिक इंच के 1/349525 भाग के बराबर है। यह मापदण्ड न्याय विशेषिका के ‘त्रास्रेणु’ (अन्धेरे कमरे में आने वाली सूर्य किरण की रौशनी में दिखने वाला अति सूक्षम कण) के बराबर था।  वराहमिहिर के अनुसार 86 त्रास्रेणु ऐक उंगली के बराबर (ऐक इंच का तीन चौथाई भाग) होते हैं। 64 त्रास्रेणु ऐक बाल के बराबर मोटे होते हैं।
मानसार शिल्पशास्त्र शिल्पशास्त्र का प्राचीन ग्रन्थ है जिसके रचयिता मानसार हैं। इसके 43 वें अध्याय में ऐसे अनेक रथों का वर्णन है। जो वायुवेग से चल कर लक्ष्य तक पहुँचते थे। उनमें बैठा व्यक्ति बिना अधिक समय गवाँए गंतव्य तक पहुँच जाता था। मानसर शिल्पशास्त्र ब्रह्मा की स्तुति से आरम्भ होता है जो ब्रह्माण्द के निर्माता हैं। यह ग्रन्थ शिव के तीसरे नेत्र के खुलने पर समाप्त होता है। इसमें लगभग ७० अध्याय हैं जिनमें से प्रथम आठ अध्यायों को एक भाग में रखा गया है। आगे के दस अध्याय दूसरा समूह बनाते हैं। इसके बाद मानसार का केन्द्रीय भाग आता है। अध्याय १९ से अध्याय ३० में एकमंजिला भवन से लेकर १२ मंजिला भवन का वर्णन  करते हैं। अध्याय ३१ से अध्याय ५० में वास्तुशिलप (आर्किटेक्चर) की चर्चा है। इसके बाद मूर्तिकला की चर्चा आती है जो अध्याय ५१ से अध्याय ७० तक की गयी है। अध्याय ५१ से अध्याय ७० की सामग्री को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है- अध्याय ५१ से अध्याय ६५ तक युद्ध अस्त्र शस्त्र निर्माण का एक समूह है तथा अध्याय ६६ से अध्याय ७० तक धातुकर्म का दूसरा समूह।
मयमतम् के ३६ अध्यायों के नाम इस प्रकर हैं-
संग्रहाध्याय, वास्तुप्रकार, भूपरीक्षा, भूपरिग्रह, मनोपकरण, दिक्-परिच्छेद, पाद-देवता-विन्यास, बालिकर्मविधान, ग्रामविन्यास, नगरविधान, भू-लम्ब-विधान, गर्भन्यासविधान, उपपित-विधान, अधिष्ठान विधान, पाद-प्रमान-द्रव्य-संग्रह, प्रस्तर प्रकरण, संधिकर्मविधान, शिखर-करण-विधान समाप्ति-विधान, एक-भूमि-विधान, द्वि-भूमि-विधान, त्रि-भूमि-विधान, बहु-भूमि-विधान, प्रकर-परिवार, गोपुर-विधान, मण्डप-विधान, शाला-विधान, गृहप्रवेश, राज-वेस्म-विधान, द्वार-विधान, यानाधिकार, यान-शयनाधिकार, लिंगलक्षण, पीठलक्षण, अनुकर्म-विधान, प्रतिमालक्षण।

प्राचीन भारतीय प्रमुख विश्वकर्मीय ग्रन्थ लगभग ३५० से भी अधिक उपलब्ध हैं । ये ग्रन्थ भारत में संस्कृत में ( अधिकतर हस्तलिखित ताड़पत्र में जीर्ण शीर्ण अवस्था में ) तथा यूरोप में अंग्रेजी में या जर्मन भाषा में छपे हुए उपलब्ध हैं  . इनमें से प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित हैं: 

>>अपराजितपृच्छा (रचयिता : भुवनदेवाचार्य ; विश्वकर्मा और उनके पुत्र अपराजित के बीच वार्तालाप सिविल तथा मेकेनिकल इंजीनियरिंग के सिद्धांत )
>>ईशान-गुरुदेवपद्धति : चरखा , धुरी , पुली , पहिया आदि का निर्माण 
>>कामिकागम : मुख्यतः सामुद्रिक बड़े जहाज बनाने तथा नदी नौका परिवहन का वैज्ञानिक ग्रन्थ , इसमें कम्पास निर्माण चुम्बक सिधांत , द्रव बहाव यांत्रिकी , टरबाइन आदि का वर्णन है 
>>कर्णागम (इसमें वास्तु पर लगभग ४० अध्याय हैं। इसमें तालमान का बहुत ही वैज्ञानिक एवं पारिभाषिक विवेचन है।) 
>>मनुष्यालयचंद्रिका (कुल ७ अध्याय, २१० से अधिक श्लोक) : कांसा लकड़ी तथा लोहे का भवन निर्माण में प्रयोग , धातुओं को आपस में जोड़ने हेतु रिवेट निर्माण 
>>प्रासादमण्डन (कुल ८ अध्याय): महल वास्तुशिल्प का ग्रन्थ 
>>राजवल्लभ (कुल १४ अध्याय): सिक्के ढालने की मशीने तथा टकसाल पद्धति 
>>तंत्रसमुच्चय : यंत्रो की गणित तथा डिजाइन , इस ग्रन्थ में रॉकेट बनाने का वर्णन है
>>वास्तुसौख्यम् (कुल ९ अध्याय): आर्किटेक्चर का महान ग्रन्थ 
>>विश्वकर्मा प्रकाश (कुल १३ अध्याय, लगभग १३७४ श्लोक)
>>विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र (कुल ८४ अध्याय)
>>सनत्कुमारवास्तुशास्त्र
>> शिल्पसन्हिता : आर्किटेक्चर का महान ग्रन्थ , इसमें श्री विश्वकर्मा द्वारा रचित एक ‘दिव्य-दृष्टि’ नामक यंत्र का जिक्र है । इस यंत्र से राजभवन में बैठकर भी युद्ध-मैदान के दृश्य देखे जा सकते थे। यही यंत्र आजकल दूरदर्शन (टेलीविजन) कहलाता है। शिल्प संहिता में विश्वकर्मा निर्मित ‘दूरवीक्षण-यंत्र’ का वर्णन किया गया है।
>> राजाभोज की ‘समरांगण सूत्रधार’ (1100 ईस्वी) में कई याँत्रिक खोजो का वर्णन है जैसे कि चक्री (पुल्ली), लिवर, ब्रिज, छज्जे (केन्टीलिवर) आदि।  कुल ८४ अध्याय, ८००० से अधिक श्लोक
>> पातञ्जली ऋषि ने लोहशास्त्र ग्रन्थ में धातुओं के प्रयोग से कई प्रकार के रसायन, लवण, और लेप बनाने के निर्देश दिये हैं। धातुओं के निरीक्षण, सफाई तथा निकालने के बारे में भी निर्देश हैं। स्वर्ण तथा पलेटिनिम को पिघलाने के लिये ‘अकुआ रेगिना’ तरह का घोल नाइटरिक एसिड तथा हाइड्रोक्लोरिक एसिड के मिश्रण से तैय्यार किया जाता था।
>>वास्तुमण्डन
>>मयशास्त्र : (भित्ति सजाना) 
>>बिम्बमान : (अजंता एलोरा जैसी अमिट दीवार चित्रकला की पद्धति )
>>शुक्रनीति (प्रतिमा, मूर्ति या विग्रह निर्माण)
>>सुप्रभेदगान : पुल बनाने के सिधांत एवं पुलों की संरचना 
>>आगम (इनमें भी शिल्प की चर्चा है।)
>>प्रतिमालक्षणविधानम् : मूर्तिकला 
>>गार्गेयम् : बाँध बनाने के तरीके , नहरें एवं सिंचाई कला 
>>मानसार शिल्पशास्त्र (कुल ७० अध्याय; ५१०० से अधिक श्लोक; कास्टिंग, मोल्डिंग, कार्विंग, पॉलिशिंग, तथा कला एवं हस्तशिल्प निर्माण, युद्ध अस्त्र शस्त्र निर्माण , धातुकर्म  के अनेकों अध्याय) 
>>अत्रियम् : राजपथ तथा ग्रामपथ निर्माण , सराय धर्मशाला निर्माण , घोड़ों हाथियों ऊंटों के स्थान के निर्माण , तालाब निर्माण 
>>प्रतिमा मान लक्षणम् (इसमें टूटी हुई मूर्तियों को सुधारने आदि पर अध्याय है।)
>>दशतल न्याग्रोध परिमण्डल : दस मंजिल भवनों तथा जमीन के अन्दर दस मंजिल तहखानो के निर्माण , सुरंगों के निर्माण का वर्णन 
>>शम्भुद्भाषित प्रतिमालक्षण विवरणम् : मूर्तिकला 
>>मयमतम् (मयासुर द्वारा रचित, कुल ३६ अध्याय, ३३०० से अधिक श्लोक) : राजधानी निर्माण , टाउन प्लानिंग , नगर जल प्रदाय , नगर महल सड़क कुये बावड़ी नहर , विमान विद्या , खगोल विद्या कलेंडर , धातुकर्म , खदान , जहाज निर्माण , मौसम विज्ञान , जल शक्ति , वायु शक्ति , सूर्य सिधान्त आदि 
>>बृहत्संहिता (अध्याय ५३-६०, ७७, ७९, ८६)निर्माण 
>>शिल्परत्नम् (इसके पूर्वभाग में 46 अध्याय कला तथा भवन/नगर-निर्माण पर हैं। उत्तरभाग में ३५ अध्याय मूर्तिकला आदि पर हैं।)
>>युक्तिकल्पतरु (आभूषण-कला सहित विविध कलाएँ)
>>शिल्पकलादर्शनम्
>>वास्तुकर्मप्रकाशम् : खिडकी एवं दरवाजा आदि निर्माण  
>>कश्यपशिल्प (कुल ८४ अध्याय तथा ३३०० से अधिक श्लोक) : पहिया तथा रथ निर्माण , कृतिम झील निर्माण, बिना पहिये के वाहनों का निर्माण (स्लेज गाड़ी ) , 
>>अलंकारशास्त्र : स्वर्ण तथा रजत शुद्धिकरण , परीक्षण व आभूषण निर्माण
>>चित्रकल्प (आभूषण)
>>चित्रकर्मशास्त्र
>>मयशिल्पशास्त्र (तमिल में)
>>विश्वकर्मा शिल्प (स्तम्भों पर कलाकारी, काष्ठकला)
>>अगत्स्य (काष्ठ आधारित कलाएँ एवं शिल्प)
>>मण्डन शिल्पशास्त्र (दीपक आदि)
>>रत्नशास्त्र (मोती, आभूषण आदि)
>>रत्नपरीक्षा (आभूषण)
>>रत्नसंग्रह (आभूषण)
>>लघुरत्नपरीक्षा (आभूषण आदि)
>>मणिमहात्म्य (lapidary)
>>अगस्तिमत (lapidary crafts)
>>नलपाक (भोजनालय निर्माण , पात्र कलाएँ)
>>पाकदर्पण (भोजनालय निर्माण , पात्र कलाएँ)
>>पाकार्नव (भोजनालय निर्माण, पात्र कलाएँ)
>>कुट्टनीमतम् (टेक्सटाइल मशीने , वस्त्र कलाएँ)
>>कादम्बरी (वस्त्र कला तथा शिल्प पर अध्याय हैं)
>>समयमात्रिका (वस्त्रकलाएँ)
>>यन्त्रकोश (संगीत के यंत्र )
>>संगीतरत्नाकर (संगीत से सम्बन्धित शिल्प)
>>चिलपटिकारम् ( दूसरी शताब्दी में रचित तमिल ग्रन्थ जिसमें संगीत यंत्रों पर अध्याय हैं)
>>मानसोल्लास (संगीत यन्त्रों से सम्बन्धित कला एवं शिल्प,पाकशास्त्र, वस्त्र, सज्जा आदि)
>>वास्तुविद्या (मूर्तिकला, चित्रकला, तथा शिल्प)
>> भारद्वाज रचित वैमानिक शास्त्र : इसमें ५२ प्रकार के विमानों का सचित्र निर्माण दिया है 
>>उपवन विनोद (उद्यान, उपवन भवन निर्माण, घर में लगाये जाने वाले पादप आदि से सम्बन्धित शिल्प)
>>वास्तुसूत्र (संस्कृत में शिल्पशास्त्र का सबसे प्राचीन ग्रन्थ; ६ अध्याय; ) 
>> नागार्जुन द्वारा रचित रस रत्नाकर, रसेन्द्र मंगल आदि ग्रन्थ   : पारा धातु का शुद्धिकरण व उपयोग , रसायनों का प्रयोग रंगाई, टेनिंग, साबुन निर्माण, सीमेन्ट निर्माण, तथा दर्पण निर्माण , केलसीनेशन, डिस्टिलेशन, स्बलीमेशन, स्टीमिंग, फिक्सेशन, तथा बिना गर्मी के हल्के इस्पात निर्माण , कई प्रकार के खनिज लवण, चूर्ण और रसायन तैय्यार किये जाने की विधियाँ ।  
>> अगस्त्य द्वारा रचित अगस्त्य संहिता : विद्युत् कर्म , बैटरी निर्माण