मंगलवार, 27 जून 2023

डॉ हरगोविंद खुराना

9 फरवरी 1922 को जिला मुल्तान, पंजाब में जन्मे महान वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना के पिता एक पटवारी थे। अपने माता-पिता के चार पुत्रों में हरगोविंद सबसे छोटे थे। वे जब मात्र 12 साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और ऐसी परिस्थिति में उनके बड़े भाई नंदलाल ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में ही हुई। उन्होंने मुल्तान के डी.ए.वी. हाई स्कूल में भी अध्यन किया। वे बचपन से ही एक प्रतिभावान् विद्यार्थी थे जिसके कारण इन्हें बराबर छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।
        उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी.एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम.एस-सी. (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की। इसके पश्चात भारत सरकार की छात्रवृत्ति पाकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रॉजर जे.एस. बियर के देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरैट की उपाधि अर्जित की। इसके उपरान्त इन्हें एक बार फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं जिसके बाद वे जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए। 1948 से 1952 के दौरान उन्होंने दिल्ली बंगलौर सहित कई प्रयोगशालों में नौकरी के लिए आवेदन किया , मगर उन्हें देश में नौकरी नहीं मिल सकी l 1952 में उन्हें कनाडा कि वेनकोवर यूनिवर्सिटी से बुलावा आया और वह वे जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष बना दिए गए l  सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया। इसके पश्चात सन् 1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली।

       खुराना जी जीवकोशिकाओं के नाभिकों की रासायनिक संरचना के अध्ययन में लगे रहे। नाभिकों के नाभिकीय अम्लों के संबंध में खोज दीर्घकाल से हो रही है, पर डाक्टर खुराना की विशेष पद्धतियों से वह संभव हुआ। इनके अध्ययन का विषय न्यूक्लिऔटिड नामक उपसमुच्चर्यों की अतयंत जटिल, मूल, रासायनिक संरचनाएँ हैं। डाक्टर खुराना इन समुच्चयों का योग कर महत्व के दो वर्गों के न्यूक्लिप्रोटिड इन्जाइम नामक यौगिकों को बनाने में सफल हुये।

        नाभिकीय अम्ल सहस्रों एकल न्यूक्लिऔटिडों से बनते हैं। जैव कोशिकओं के आनुवंशिकीय गुण इन्हीं जटिल बहु न्यूक्लिऔटिडों की संरचना पर निर्भर रहते हैं। डॉ॰ खुराना ग्यारह न्यूक्लिऔटिडों का योग करने में सफल हो गए थे तथा वे  ज्ञात शृंखलाबद्ध न्यूक्लिऔटिडोंवाले न्यूक्लीक अम्ल का प्रयोगशाला में संश्लेषण करने में सफल हुये। इस सफलता से ऐमिनो अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय ढूँढने में चिकित्सक सफल हो सकेl
डॉ खुराना ने खोज के दौरान यह पाया गया कि जीन्स डी.एन.ए. और आर.एन.ए. के संयोग से बनते हैं। अतः इन्हें जीवन की मूल इकाई माना जाता है। इन अम्लों में आनुवंशिकता का मूल रहस्य छिपा हुआ है। खुराना के व्दारा किए गए कृत्रिम जिन्स के अनुसंधान से यह पता चला कि जीन्स मनुष्य की शारीरिक रचना, रंग-रूप और गुण स्वभाव से जुड़े हुए हैं।

       1960 के दशक में डॉ खुराना ने नीरबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि डी.एन.ए. अणु के घुमावदार 'सोपान' पर चार विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिओटाइड्स के विन्यास का तरीका नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य को निर्धारित करता है। डी.एन.ए. के एक तंतु पर इच्छित अमीनोअम्ल उत्पादित करने के लिए न्यूक्लिओटाइड्स के 64 संभावित संयोजन पढ़े गए हैं, जो प्रोटीन के निर्माण के खंड हैं। खुराना जी  ने इस बारे में आगे जानकारी दी कि न्यूक्लिओटाइड्स का कौन सा क्रमिक संयोजन किस विशेष अमीनो अम्ल को बनाता है। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि न्यूक्लिओटाइड्स कूट कोशिका को हमेशा तीन के समूह में प्रेषित किया जाता है, जिन्हें प्रकूट (कोडोन) कहा जाता है। उन्होंने यह भी पता लगाया कि कुछ प्रकूट कोशिका को प्रोटीन का निर्माण शुरू या बंद करने के लिए प्रेरित करते हैं। 

आनुवांशिक कोड (डीएनए) की व्याख्या करने वाले भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक डॉ. हरगोबिंद खुराना को चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए 1968  में नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize in Physiology or Medicine) से सम्मानित किया गया। खुराना ने मार्शल, निरेनबर्ग और रोबेर्ट होल्ले के साथ मिलकर चिकित्सा के क्षेत्र में काम किया। 

डॉ खुराना ने 1970 में आनुवंशिकी में एक और योगदान दिया, जब वह और उनका अनुसंधान दल एक खमीर जीन की पहली कृत्रिम प्रतिलिपि संश्लेषित करने में सफल रहे। डॉक्टर खुराना अंतिम समय में जीव विज्ञान एवं रसायनशास्त्र के एल्फ़्रेड पी. स्लोन प्राध्यापक और लिवरपूल यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे। हरगोबिन्द खुराना जी का निधन 9 नवंबर, 2011 को हुआ था।

सोमवार, 26 जून 2023

कोलम्बस

कोलंबस की भारत खोज के पीछे असली  मकसद क्या था ?
हमे यही बताया गया कि नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस भारत खोजने निकला था .
भारत की समृद्धि के किस्से तब दूर-दूर तक पसरे हुए थे. यहां के मसालों का यश दुनियाभर में फैला था. भारत में मौजूद सोने की भी बड़ी चर्चा थी. कोलंबस को भारत पहुंचने का समुद्री मार्ग खोजना था.
स्पेन के राजा फर्डिनेंड और रानी इसाबेला कोलंबस की यात्रा को स्पॉन्सर करने के लिए राजी हो गए. उन्हें लगा कि अगर कोलंबस ने ऐसा कर दिखाया, तो एशिया के साथ मसालों के कारोबार का नया मार्ग शुरू हो जाएगा. ये उपनिवेशवाद का दौर था. दुनिया के ये चंद यूरोपियन देश अपने पांव पसारना चाहते थे. नए बाजारों के लिए. कच्चे माल के लिए. अपने फायदे के लिए. हर देश अपने लिए कारोबार के नए मार्ग खोलना चाहता था. किंग और क्वीन ने कोलंबस से वादा किया. अगर कोई नई जगह मिलती है, तो उन्हें वहां का गर्वनर बना देंगे. जो भी दौलत वो स्पेन लाएंगे, उसका 10 फीसद हिस्सा भी उन्हें दे दिया जाएगा. 
उपरोक्त हमे इतिहास की किताबो में पढ़ाया गया है . लेकिन कोलम्बस की भारत यात्रा की असलियत कुछ और है , जो हमे उसकी लिखी डायरी से मिलती है । पोस्ट के साथ संलग्न है । कोलम्बस का प्रथम और वास्तविक उद्देश्य भारत को ईसाई देश बनाना और यहां के निवासियों को ईसाई धर्म मे कन्वर्ट करना था । 

क्या कारण है कि कोलंबस , वास्कोडिगामा , कैप्टन कुक जैसे लोगो की यात्राओं के असली मकसद इतिहास की किताब में छुपाए गए ?

स्त्रोत : the world is flat by thomas L. Friedman , page 3 .

indian history in hindi, भारतीय इतिहास


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मन

मन :
इंसान की सबसे बड़ी भूल एक ये भी है कि उसको अपनी शारिरिक क्षमताओं का आभास और स्वीकार तो होता है , 
लेकिन मानसिक क्षमताओं का न आभास होता है न स्वीकार ।
जैसे प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक शक्ति की अपनी एक क्षमता है ऐसे ही मानसिक शक्ति की क्षमता है ।
और इसी वजह से वह दूसरो की तरह खुद को बनाने की कोशिश करता है । जो दूसरे कर रहे है वो करने की कोशिश करता है ।

जिस गति से दूसरे मन को दौड़ा रहे है उसी गति से अपने मन को भी दौड़ाने की कोशिश करता है ।
और अंततः खुद को टूटा हुआ थका हुआ , जिंदा लेकिन मरा हुआ पाता है ।
क्योंकि मन अपनी स्वाभाविक प्रकृति को खो देता है । 
मन ही मन का बाधक है 
मन ही मन का साधक है ।।

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुध्दं चाशुध्दमेव च ।
अशुध्दं कामसंकल्पं शुध्दं कामविवर्जितम् ॥

मन दो प्रकार के होते हैं -अशुध्द और शुध्द । कामना और संकल्प वाला मन अशुध्द और जो मन कामना रहित हो वह शुध्द ।
गीता में भगवान कहते है -

आत्मानं रथिनं विध्दि शरीरं रथमेव तु ।
बिध्दिं तु सारथि विध्दि मनः प्रग्रहमेव च ॥

आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो ।

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श्री गणेश जी

श्री गणेश जी सर्वस्वरूप, परात्पर परब्रह्‌म साक्षात्‌ परमात्मा हैं । गणेश शब्द का अर्थ है जो समस्त जीव-जाति के “ईश” अर्थात्‌ स्वामी हैं । धर्मपरायण भारतीय जन वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों द्वारा अनादि काल से इन्हीं अनादि तथा सर्वपूज्य भगवान गणपति की पूजा करते आ रहे हैं । हृदय से उपासना करने वाले भक्‍तों को आज भी उनके अनुग्रह का प्रसाद मिलता है । अतः उनकी कृपा की प्राप्ति के लिए वेदों, शास्त्रों ने वैदिक उपासना पद्धति का निर्माण किया है जिससे उपासक गणेश की उपासना करके मनोवांछित फल प्राप्त कर सकें । गणेश का अर्थ - ‘गण’ का अर्थ है- वर्ग, समूह, समुदाय । ‘ईश’ का अर्थ है- स्वामी । शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने से उन्हें “गणेश” कहते हैं । आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य ‘गणदेवता’ कहे गए हैं ।
“गण” शब्द व्याकरण के अंतर्गत भी आता है । अनेक शब्द एक गण में आते हैं । व्याकरण में गण पाठ का अपना एक अलग ही अस्तित्व है । वैसे भी भवादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृतिगण धातु समूह है । “गण” शब्द शूद्र के अनुचर के लिए भी आता है । जैसा कि “रामायण” में कहा गया है- धनाध्यक्ष समो देवः प्राप्तो वृषभध्वजः । उमा सहायो देवेशो गणैश्‍च बहुभिर्युत: ॥

तुलसीदास जी  ने रामचरित मानस  में श्री पार्वतीजी को “श्रद्धा” और शंकरजी को विश्‍वास का रूप माना है । किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए श्रद्धा और विश्‍वास दोनों का ही होना आवश्यक है । जब तक श्रद्धा न होगी, तब तक विश्‍वास नहीं हो सकता तथा विश्‍वास के अभाव में श्रद्धा भी नहीं ठहर पाती । वैसे ही पार्वती और शिव से श्री गणेश हुए । अतः गणेश सिद्धि और अभीष्ट पूर्ति के प्रतीक हैं । किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व विघ्न के निवारणार्थ एवं कार्य सिद्धियार्थ गणेशजी की आराधना आवश्यक है । यही बात योग शास्त्र में भी कही गई है । 

“योग शास्त्र” के आचार्यों का कहना है कि -मेरूदंड के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी है, वह ब्रह्‌मारन्ध में प्रवेश करके मस्तिष्क के नाड़ी गुच्छ में मिल जाती है । साधारण दशा में प्राण सम्पूर्ण शरीर में बिखरा होता है, उसके साथ चित्त भी चंचल होता है । योगी क्रिया विशेष से प्राण को सुषुम्ना में खींचकर ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ाता है त्यों-त्यों उसका चित्त शांत होता है । योगी के ज्ञान और शक्‍ति में भी वृद्धि होती है । सुषुम्ना में नीचे से ऊपर तक नाड़ी कद या नाड़ियों के गुच्छे होते हैं । इन्हें क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र कहते हैं । इस मूलाधार को- ‘गणेश स्थान’ भी कहा जाता है । कबीर आदि ने जहाँ चक्रों का वर्णन किया है, वहाँ प्रथम स्थान को “गणेश स्थान” भी कहा है ।

मानव मुख गणेश मंदिर (आदि विनायक )

गणेश जी का मुख हाथी का हैं .  विश्व में केवल एक मंदिर है जहा भगवान् गणेश की प्रतिमा मानव मुख में स्थापित है .  यहाँ गणेश भगवान्  की  पूजा उनके मूल मुख  (हाथी मुख के पूर्व वाले मुख) के रूप  में की जाती है . 
यह प्राचीन "स्वर्णवल्ली मुक्तीश्वर मंदिर"  तमिलनाडु के तिरुवरुर जिले Mayavaram – Tiruvarur Road पर Poonthottam के निकट Koothanur से 2.6 कि मी Thilatharpanapuri थिलान्थरपानपुरी में है . 
भगवान गणेश को यहाँ नर-मुख विनायकर कहा जाता है .  
स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपङ्कजस्मरणम् ।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम् ॥

बुधवार, 21 जून 2023

नेत्रदान महादान

यह दुनियां बहुत खूबसूरत है. हमारे आसपास की हर वस्तु में एक अलग ही सुंदरता छिपी होती है जिसे देखने के लिए एक अलग नजर की जरुरत होती है. दुनियां में हर चीज का नजारा लेने के लिए हमारे पास आंखों का ही सहारा होता है. लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि बिन आंखों के यह दुनियां कैसी होगी? चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा मालूम होगा. दुनियां की सारी खूबसूरती आंखों के बिना कुछ नहीं है. आंखें ना होने का दुख वही समझ सकता है जिसके पास आंखें नहीं होतीं.
थोड़ी देर के लिए अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर देखें दुनियां कैसी लगती है. लगता है ना डर. आंखों के बिना तो सही से चला भी नहीं जा सकता और यही वजह है कि इंसान सबसे ज्यादा रक्षा अपनी आंखों की ही करता है. लेकिन कुछ अभागों की दुनियां में परमात्मा ने ही अंधेरा लिखा होता है जिन्हें आंखें नसीब नहीं होतीं. कई बच्चे इस दुनियां में बिना आंखों के ही आते हैं तो कुछ हादसों में आंखें गंवा बैठते हैं. दुनियां भर में नेत्रहीनों की संख्या काफी अधिक है जिनमें से कई तो जन्मजात ही नेत्रहीन होते हैं.

आंखों का महत्व तो हम सब समझते हैं और इसीलिए इसकी सुरक्षा भी हम बड़े पैमाने पर करते हैं लेकिन हममें से बहुत कम होते हैं जो अपने साथ दूसरों के बारे में भी सोचते हैं. आंखें ना सिर्फ हमें रोशनी दे सकती हैं बल्कि हमारे मरने के बाद वह किसी और की जिंदगी से भी अंधेरा हटा सकती हैं. लेकिन जब बात नेत्रदान की होती है तो काफी लोग इस अंधविश्वास में पीछे हट जाते हैं कि कहीं अगले जन्म में वह नेत्रहीन ना पैदा हो जाएं. इस अंधविश्वास की वजह से दुनियां के कई नेत्रहीन लोगों को जिंदगी भर अंधेरे में ही रहना पड़ता है.
हमारे नेत्र का काला गोल हिस्सा 'कार्निया' कहलाता है। यह आँख का पर्दा है जो बाहरी वस्तुओं का चित्र बनाकर हमें दृष्टि देता है । यदि कर्निया पर चोट लग जाये ,इस पर झिल्ली पड़ जाये या इसपर धब्बे पड़ जायें तो दिखाई देना बन्द हो जाता है । हमारे देश में करीब ढ़ाई लाख लोग हैं जो कि कर्निया की समस्या से पीड़ित हैं। इन लोगों के जीवन का आंधेरा दूर हो सकता है यदि उन्हें किसी मृत व्यक्ति का कर्निया प्राप्त हो जाये । लेकिन डाक्टर किसी मृत व्यक्ति का कार्निया तब तक नहीं निकाल सकते जब तक कि वह व्यक्ति अपने जीवन काल में ही नेत्रदान की घोषणा लिखित रूप में ना कर दे ।हमारे देश में सभी राज्यों नेत्रबैंक हैं जहाँ लिखित सूचना देने पर उस व्यक्ति के देहांत के 6 घटे के अन्दर उसका कार्निया निकाल ले जाते हैं।

हमारे सभी धर्मों में दया, परोपकार, जैसी मानवीय भावनाएँ सिखाई जाती हैं ।यदि हम अपने नेत्रदान करके मरणोपरांत किसी की निष्काम सहायता कर सकें तो हम अपने धर्म का पालन करेंगे , और क्योकि इसमें कोई भी स्वार्थ नहीं है इसलिये यह महादान माना जाता है।

नेत्रदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के 6 से 8 घंटे के अंदर ही नेत्रदान कर देना चाहिए। जिस व्यक्ति को नेत्रदान के कॉर्निया का उपयोग करना है, उसे 24 घंटे के भीतर ही कॉर्निया प्रत्यारोपित कराना जरूरी होता है। नेत्रदान का मतलब शरीर से पूरी आंख निकालना नहीं होता। इसमें मृत व्यक्ति की आखों के कॉर्निया का उपयोग किया जाता है। 
 नेत्रदान की प्रकिया मृत्यु के कुछ घंटों के अंतराल में की जाती है और इससे किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होती. एक मृत व्यक्ति के नेत्र को एक नेत्रहीन को दे दी जाती है जिससे उस नेत्रहीन के जीवन में उजाला हो जाता है. आप भी अगर किसी की जिंदगी में उजाला करना चाहते हैं तो अपने निकटतम मेडिकल कॉलेज या नेत्र चिकित्सालय से संपर्क कर नेत्रदान के लिए पंजीकरण करा सकते हैं. किसी की दुनियां में उजाला फैलाने के लिए एक कदम आगे बढ़ाइए...

यात्रा वृतान्त (Tour Diary)

यात्रा वृतान्त (Tour Diary) :
प्राचीन यात्रियों के यात्रा वृतांत मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं । आज से हजारों साल पहले जब मोटर गाड़ी हवाईजहाज आदि नही थे , तब ये लोग पैदल , बैलगाड़ी , घोड़े या ऊंट से हजारों किलोमीटर की यात्रा कर लेते थे । इनके यात्रा वर्णनों में रोमांच, मानव जीवन का संघर्ष , कठिन परिस्थितियों पर विजय आदि मूल्य हमे प्रेरित करते हैं और जीवन मे सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं । इनके वृत्तांत पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे मैं खुद इनके साथ यात्रा कर रहा हूँ । 

प्राचीन काल मे अनेक विदेशी यात्री भारत आये , इससे उस जमाने मे भारत के इतिहास और समाज का पता चलता है । मूल यात्रा संस्मरण पढ़ने से पता चलता है कि इतिहासकारों द्वारा अनेक तथ्यों को हमारे सामने नही लाया गया है । प्राचीन विदेशी पर्यटकों ने भारत का जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि सच मे सोने की चिड़िया था हमारा देश और साथ ही विश्व गुरु था हमारा देश । 
Preiplus of the erythrean sea - प्राचीन रोमन साम्राज्य में एक अज्ञात ग्रीस नाविक था । वह प्रथम शताब्दी में अपनी नाव से लाल सागर पार कर हिन्द महासागर में व्यापार हेतु आया था । वह भारत मे वर्तमान गुजरात , महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के अनेक शहरों में गया ,  वर्तमान भरूच, उज्जैन, दक्षिणापथ, कालीकट, गोवा, कल्याण मुम्बई, कोचीन, फुहार, आदि शहरों का वर्णन किया । इस पुस्तक में नर्मदा नदी का भी नाम आता है। अज्ञात नाविक ने कश्मीर का नाम कश्यपमारा (home of kashyap) और राजधानी कश्यपपुर लिखा है। इस पुस्तक से पता चलता है कि उस वक़्त गुजरात मे शक , आंध्र में सातवाहन , दक्षिण में पल्लव चोल चेर तथा गंगा के इलाके में मगध राजाओं का राज्य था ।  भारत से मसाले , जड़ी बूटी, रत्न पत्थर, रेशमी कपड़े, कॉटन, टिन सीसा तांबा और कांच के समान आदि एक्सपोर्ट होते थे । ये लिखते है " glass of india as superior to others, because made of pounded crystal" 
इस पुस्तक की एक टिप्पणी समझने लायक है - india is the most populous region of the world, as it was the most cultivated, the most active industrially and commercially, the richest in natural resources and production, the most highly organised socially , and the least powerful politically . "
फाह्यान और हेनसांग के यात्रा वर्णन - इतिहास की पुस्तकों ने इन चीनी यात्रियों के संघर्षों और यात्रा वर्णनों के साथ न्याय नही किया । फाह्यान चौथी शताब्दी में भारत आया - वो लिखते है " प्रजा बहुत साधन सम्पन्न और सुखी है , देश के अधिकांश निवासी न जीवहिंसा करते , न मद्यपान करते हैं ।" उत्तर भारत के अनेक नगरों का वर्णन फाह्यान ने किया , ये श्रीलंका भी गए , वहां से जावा इंडोनेशिया फिर वहां से वापिस चीन । हुएनसांग जो कि 7 वी शताब्दी में भारत आया , उसका विवरण अत्यंत विस्तृत है । दोनो यात्रियों के अनुसार भारत मे सभी पंथ सनातन ( शैव वैष्णव शाक्त आदि ) बौद्ध जैन (श्रमण) आदि समन्वयपूर्वक प्रयेक शहर ग्राम में रहते थे । छिटपुट घटनाओं को छोड़कर इनमें कोई बड़ा विवाद नही हुआ । प्रत्येक राजा सभी पंथों की समान इज्जत करता था । सामान्यतः देश मे अश्पृश्यता कही नहीं थी । न ही किसी जाति या सम्प्रदाय पर अत्याचार होता था । तक्षशिला से गौहाटी तक , श्रीनगर कश्मीर से नासिक तक भारत के अनेक शहरों राजाओं और समाजो का वर्णन हेनसांग ने किया । हेनसांग के समय समरकंद , ताशकंद और कश्मीर बौद्ध बहुल प्रदेश हो चुके थे । हेनसांग दक्षिण भारत में विजयवाड़ा कांचीपुरम भी गया । नालंदा विश्वविद्यालय में उसने 5 साल अध्ययन किया । हेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय का विस्तृत वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि आज के ऑक्सफ़ोर्ड हारवर्ड भी प्राचीन नालंदा से पीछे हैं । हेनसांग के वर्णनों से जो बुद्ध का कालक्रम मिलता है वह वर्तमान मान्य कालक्रम (400-500 BCE)  से मैच नही करता वरन 600 साल और पीछे ले जाता है । इस पर इतिहासकारों को शोध करना चाहिए ।
अलबरूनी - सन 1000 के आसपास अरबी- ईरानी उच्चकोटि का विद्वान अलबरूनी , सुल्तान महमूद के बंधक के रूप में, भारत आया था। इसने भारत के अनेक नगरों की यात्रा की और अनेक भारतीय ग्रंथो का अध्ययन भी किया ।  इसने उस जमाने के भारत का विधितन्त्र , धर्म और दर्शन, समाज , नगर संगठन , धार्मिक नियम, मूर्तिकला, वैज्ञानिक साहित्य , माप कीमिया, भारतीय खगोलशास्त्र, कालानुक्रम, ज्योतिषशास्त्र आदि पर लिखा है। लेकिन अलबरूनी ने कई बाते बिना स्वयं देखे सुनी सुनाई बातों पर आधारित भी लिखी है जिनमें सत्यता नही है। इस समय तक भारत मे जाति प्रथा कठोर हो गयी थी और अस्पृश्यता आ गयी थी । अलबरूनी की अनेक बातें आधुनिक  इकोलॉजी और डार्विन के सिद्धांतों के समकक्ष है, जो उसने भारत मे सीखी ।
इब्नबतूता - इसने 14 वी शताब्दी में मोरक्को (अफ्रीका) से मक्का , मक्का से भारत , भारत से श्रीलंका से इंडोनेशिया से चीन फिर वापिस अफ्रीका से स्पेन की 1 लाख 17 हजार किलोमीटर यात्रा 30 सालों में की।  इब्नबतूता मेरे फ़ेवरिट ट्रेवलर हैं । इनकी पुस्तक संघर्ष और रोमांच से भरी पड़ी है । जंगली जानवरो, डाकुओं, समुद्री तूफान आदि का रोमांचक वर्णन है। भारत मे कालीकट , दिल्ली और मुल्तान शहरों में इब्नबतूता रहे । इससे उस समय की भारत मे डाक व्यवस्था , उस समय की वीसा व्यवस्था , भारत की सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था का पता चलता है । 
मार्कोपोलो - ये इटली का व्यापारी नाविक था  14 वी शताब्दी में गुजरात व केरल आया , भारत  से अनेक पुस्तकें ले गया । (जिसका बाद में इटालियन में अनुवाद हुआ) ।  इनके वर्णन से सेंट थॉमस की मृत्यु के असली कारण का पता चलता है । ये चीन की जेल में भी रहे जहां इन्होंने यह पुस्तक लिखी । 
अंत मे बात करलें अपने देश के घुमक्कड़  राहुल सांस्कृतायन जी की जिन्होंने वोल्गा से गंगा तक की संस्कृति 6000 BCE से 1942 तक के कालखंड की 20 कहानियों में समेट दी । 

आप भी इन प्रेरणादायक रोमांचक यात्रा वृतांतों को स्वयं अवश्य पढ़े ।

indian history in hindi, भारतीय इतिहास , Travelers 

मंगलवार, 20 जून 2023

योग दिवस

योग के प्रवर्तक ऋषि पतंजलि को माना जाता है , जिनका काल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी है । अर्थात यह बताने का प्रयास किया जाता है कि योग के जनक महर्षी पतंजलि थे , पतंजलि से पूर्व योग दर्शन नही था , अथवा उनसे पहले लोग योग नही जानते थे ।
जबकि पतंजलि से हजारों वर्ष पूर्व भी योग पूर्ण रूप में प्रचलित था , इसके अनेक प्रमाण वेदों में मिलते है -

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥
योग के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता, वे सदसस्पति देव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओं से युक्त करते हैं।[ऋग्वेद 1.18.7]

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे सखाय इन्द्र मूतये
(यजुर्वेद 11/14)

क्व१॒॑ त्री च॒क्रा त्रि॒वृतो॒ रथ॑स्य॒ क्व१॒॑ त्रयो॑ व॒न्धुरो॒ ये सनी॑ळाः । क॒दा योगो॑ वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॒ येन॑ य॒ज्ञं ना॑सत्योपया॒थः ॥ [ऋग्वेद 1.34.9] 

अनेक उपनिषदों में भी योग के समस्त अंगों का विस्तृत वर्णन मिलता है ।

पतंजलि के पूर्व गौतम बुद्ध ने भी योग से यम नियम पद्मासन ध्यान व समाधि को अपनाया और प्रचलित किया। 
महर्षि पतंजलि ने पूर्व प्रचलित योग के 195 सूत्रों को संकलित किया, जो योग दर्शन के स्तंभ माने गए। महर्षि पतंजलि ही पहले और एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को आस्था और धार्मिक कर्मकांड से बाहर निकालकर एक जीवन दर्शन का रूप दिया था।

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की महिमा को बताया, जो स्वस्थ जीवन के लिए महत्वपूर्ण माना गया । 
(सभी फ़ोटो- हड़प्पा कालीन योग मुद्राये ) 
आजकल योग को सिर्फ शारीरिक समस्याओं से छुटकारा दिलाने का साधन मान लिया गया है , जबकि यह अध्यात्मिक उन्नति और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की पद्धति है । 

शरीर मन और आत्मा को जोड़ने का विज्ञान है योग

योग दिवस की शुभकामनाएं !

शुक्रवार, 16 जून 2023

पुस्तकें

पढ़ना हमें बुद्धिमान और जीवंत महसूस कराता है, पढ़ना अधिक आरामदायक और अधिक कल्पनाशील होता है, जब हम कोई पुस्तक पढ़ते हैं तो हम उसमें समा जाते हैं, हमारा मस्तिष्क काम करना शुरू कर देता है, हमारी कल्पना को पंख लग जाते हैं ।

पुस्तकें एकल-विषय की जानकारी का भंडार हैं, यह व्यापक, विशिष्ट और पूर्ण है, किताबें सभी आवश्यक जानकारी को भीतर संग्रहीत करती है, किताबें हमें भ्रमित नहीं करती हैं, यह हमारे मस्तिष्क की ऊर्जा को यह तय करने के लिए कभी भी बर्बाद नहीं करती है कि आगे कहाँ तक जाना है, आगे की ओर पलटा प्रत्येक पृष्ठ हमारे लिए यह निर्णय लेता है, और सीखने के लिए हमारी सारी ऊर्जा आरक्षित करता है।

पुस्तकों के माध्यम से हम विद्वानों से सीखते हैं, हम उन लोगों से सीखते हैं जिन्होंने उसी समस्या का सामना किया था जिसका हम अभी सामना कर रहे हैं ।  पुस्तकों में संरक्षक समाधान, उनके ज्ञान, उनके अनुभव और वे समस्याओं से कैसे निपटते हैं, इसका पता चलता है । पुस्तकें समाधान दाता हैं।

सबसे तकनीकी रूप से कुशल मशीन जिसका आविष्कार मनुष्य ने कभी किया है वह पुस्तक है। - नॉर्थ्रॉप फ्राई 

पुस्तकों को अधिक गहन अध्ययन के लिए पढ़ा जाता है और इंटरनेट का उपयोग सूचना इकट्ठा करने व विषय के सतही ज्ञान के लिए किया जाता है।

इंटरनेट सर्फर को पढ़ने, ध्वनि और दृश्य के अनुभव प्रदान करता है, लेकिन पुस्तकें मस्तिष्क की कल्पना शक्ति को ऊंचाइयां प्रदान करती हैं , क्योकि ध्वनि व दृश्य आपको मस्तिष्क में स्वयं बनाने होते हैं ।

किताबों में आमतौर पर असत्य तथ्य, कुतर्क या गलत जानकारी नहीं होती है, पुस्तकें प्रकाशित होने से पहले पूरी तरह से जांच से गुजरती हैं, जबकि इंटरनेट में नकली तथ्यों की भरमार है, इंटरनेट पॉप-अप , विज्ञापन और लिंक द्वारा उपयोगकर्ताओं को विचलित करता है, और ध्यान भटकाता है, लेकिन किताबों के मामले में ऐसा नहीं है, किताबें एकल-आधारित विषय हैं, उनके पास पॉप-अप नहीं हैं और वे ऐसी चीजें किताबों नहीं डालते हैं जिनकी आवश्यकता नहीं है।
पुस्तकों का स्रोत इंटरनेट से अधिक वैध है। इंटरनेट में इतनी जानकारी है, कुछ भी कभी भी पोस्ट किया जा सकता है और आपको पता नहीं है कि यह सच है या गलत है।

किताबें विश्वसनीय हैं ।
इसलिए गूगल और विकिपीडिया की बजाय किताबों पर भरोसा करें ।

नज़ीर अकबराबादी

महान शायर नज़ीर अकबराबादी की पुण्यतिथि है आज ।

आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है,
मुल्ला कहो, दबीर (लेखक) कहो, आगरे का है
मुफ़लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है.’
होली को राष्ट्रीय त्यौहार मानने वाले नज़ीर ने इस पर्व पर 20 से अधिक कविताएं लिखी हैं. आगरा शहर की हर गली में होली किस तरह से खेली जाती है इसका वर्णन उन्होंने किया है. इसके अलावा, दिवाली, राखी, बसंत, कंस का मेला, लाल जगधर का मेला जैसे पर्वों पर भी उन्होंने जमकर लिखा. दुर्गा की आरती, हरी का स्मरण, भैरों और भगवान् के अवतारों का जगह-जगह बयान है उनकी नज़्मों में । गुरु नानक देव पर उनकी नज्म प्रसिद्ध है । पर जब नज़ीर अकबराबादी कृष्ण की तारीफ़ में लिखते हैं तो उन्हें सबका ख़ुदा बताते हैं:-

‘तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी

हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी

तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा

तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी.’

एक कविता में नज़ीर कृष्ण पर लिखते हैं:

‘यह लीला है उस नंदललन की, मनमोहन जसुमत छैया की ...

आज के जमाने मे वे ऐसी शायरी लिखते तो मुल्ला मौलवी उन पर फतवा जारी कर देते ।
आज के शायरों की तरह वे "बंदर वन्दर जितनी ईंटे उतने सिर" या "किसी के बाप का हिंदुस्तान" जैसी छुद्रता पर नही उतरे । 

धार्मिक एकता और सद्भावना की सही  मिसाल थे नज़ीर अकबराबादी ।
महान शायर को नमन 🙏🙏🙏

शिवत्व

ब्रह्मांड की जो टोटल एटर्नल इंटर्नल एनर्जी है या रैंडमनैस या एंट्रापी है ..आप ग्रे मैटर भी कह सकते हैं , वही शिव है जिसका सिंबोलिक मैनिफैस्टेशन शिवलिंगम् है..

सत्य आराध्य तो है किंतु वह शिवम के साथ संयुक्त होकर ही सुन्दर बन पाता है..
शिवम् = शिव और अहम् । अर्थात मैं शिव हूँ परन्तु मैं शिव हूँ मे "मैं" आपका अहंकार नहीं होना चाहिए अपितु "मैं" एकाकी होना चाहिए ।

जो आदमी सत्य का अनुभव करने लगता है, वह तुरंत सत्य को जीने लगता है। उसके सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है। उनका जीवन सत्य है। शिवम सत्य की क्रिया है; सत्य ही चक्रवात का केंद्र है। लेकिन अगर आप सत्य का अनुभव करते हैं, तो आपके आसपास का चक्रवात शिवमय हो जाता है। यह शुद्ध ईश्वरत्व बन जाता है। ब्रह्मांड की समग्रता ही सुंदर है , जिसका अहसास सत्य और शिवम से होता है ।

शिवत्व सत्य के सुन्दर बन जाने की क्रियाविधि है। "सत्यम शिवम् सुंदरम" मात्र तीन शब्द नहीं है, अपितु पूरे ब्रह्माण्ड का सार है ।
ब्रह्माण्ड में दो ही चीजें हैं : ऊर्जा और पदार्थ। हमारा शरीर पदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है। इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते है। 

नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मने।।
रसरूप, जलमय विग्रहवाले हे भवदेव मेरा आपको प्रणाम है। 

हर हर महादेव

गुरू गोविंद सिंह जी

गुरू गोविंद सिंह जी जिनकी आज जयंती है - 
22 दिसम्बर
गुरू गोविंद सिंह जी वीरता बुधिमत्ता और साहस के प्रतिमूर्ति थे। आपका जन्म २२ दिसंबर १६६६ को पटना में हुआ था . औरंगजेब द्वारा पिता तेगबहादुर की हत्या किये जाने के बाद नौ वर्ष की आयु में ही गोविंद सिंह जी को गुरू की गद्दी पर बैठा गया। बचपन में इन्हें सभी प्यार से ‘बाला प्रीतम’ कह कर पुकारते थे। लेकिन इनके मामा इन्हें गोविंद की कृपा से प्राप्त मानकर गोविंद नाम से पुकारते थे। यही नाम बाद में विख्यात हुआ और बाला प्रीतम गुरू गोविंद सिंह कहलाये।

गुरू पद की गरिमा बनाए रखने के लिए गोविंद सिंह जी ने युद्ध कला में प्रशिक्षण प्राप्त करने के साथ ही अनेक भाषाओं की भी शिक्षा प्राप्त की। कुशाग्र बुद्धि और लगन से गोविंद सिंह जी ने कम समय में ही युद्ध कला में महारथ हासिल कर ली और उच्च कोटि के विद्वान बन गये। इन्होंने संस्कृत, पारसी, अरबी और अपनी मातृभाषा पंजाबी को ज्ञान प्राप्त किया। वेद, पुराण, उपनिषद् एवं कुरान का भी इन्होंने अध्ययन किया।

आपने हिन्दुओं से खालसा (शुद्ध ) पंथ की स्थापना की . खालसा की स्थापना करने के बाद गुरू गोविंद सिंह जी ने बड़ा सा कड़ाह मंगवाया। इसमे स्वच्छ जल भरा गया। गोविंद सिंह जी की पत्नी माता सुंदरी ने इसमे बताशे डाले। ‘पंच प्यारों’ ने कड़ाह में दूध डाला और गुरुजी ने गुरुवाणी का पाठ करते हुए उसमे खंडा चलाया। इसके बाद गुरुजी ने कड़ाहे से शरबत निकालकर पांचो शिष्यों को अमृत रूप में दिया और कहा, “तुम सब आज से ‘सिंह’ कहलाओगे और अपने केश तथा दाढी बढाओगे। गुरू जी ने कहा कि केशों को संवारने के लिए तुम्हे एक कंघा रखना होगा। आत्मरक्षा के लिए एक कृपाण लेनी होगी। 
सैनिको की तरह तुम्हे कच्छा धारण करना पड़ेगा और अपनी पहचान के लिए हाथों में कड़ा धारण करना होगा। इसके बाद गुरू जी ने सख्त हिदायत दी कि कभी किसी निर्बल व्यक्ति पर हाथ मत उठाना। इसके बाद से सभी सिख खालसा पंथ के प्रतीक के रूप में केश, कंघा, कृपाण, कच्छा और कड़ा ये पांचों चिन्ह धारण करने लगे। नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। इस घटना के बाद से ही गुरू गोविंद राय गोविंद सिंह कहलाने लगे। 
गुरु गोविंद सिंह जी ने औरंगजेब की क्रूर नीतियों से धर्म की रक्षा के लिए हिन्दुओं को संगठित किया और सिख कानून को सूत्रबद्ध किया। इन्होंने कई काव्य की रचना की। इनकी मृत्यु के बाद इन काव्यों को एक ग्रंथ के रूप में संग्रहित किया जो दसम ग्रंथ के नाम से जाना जाता है। यह पवित्र ग्रंथ गुरू गोविंद सिंह जी का हुक्म माना जाता है। गुरु गोविन्द सिंह का बलिदान सर्वोपरि और अद्वितीय है. क्योंकि गुरूजी ने धर्म के लिए अपने पिता गुरु तेगबहादुर और अपने चार पुत्र अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतह सिंह को बलिदान कर दिया था. एक दिन उन्होंने सिख संगत को बुलाकर कहा, "अब मेरा अंतिम समय आ गया है। मेरे मरने के साथ ही सिख सम्प्रदाय में गुरु परंपरा समाप्त हो जायेगी। भविष्य में सम्पूर्ण खालसा ही गुरु होगा । आप लोग 'ग्रन्थ साहिब' को ही अपना गुरु मानें।"  ७ अक्टूबर, १७०८ को गुरु गोविन्द सिंह का देहांत हो गया । 

गुरु गोविंद सिंह जी को शत शत नमन

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श्री गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस

24 नवंबर 1675 
श्री गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस 

आध्यात्मिक चिंतक व धर्म साधक गुरु तेगबहादुर का जन्म वैशाख की कृष्ण पक्ष-पंचमी को छठे गुरु हरगोबिंद साहिब और माता बीबी नानकी के घर हुआ। बचपन से ही अध्यात्म के प्रति उनका गहरा लगाव था। वे त्याग और वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे। उनका नाम भी पहले ‘त्याग मल’ था। उनमें योद्धा के भी गुण मौजूद थे। 

मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने करतारपुर के युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई। उनकी तेग (तलवार) की बहादुरी से प्रसन्न होकर पिता ने उनका नाम त्यागमल से ‘तेग बहादुर’ कर दिया। सांसारिकता से दूर रहकर गुरु जी आत्मिक साधना में 21 वर्ष तक लीन रहे  थे। गुरु तेगबहादुर के 57 शबद और 59 श्लोक श्री गुरुग्रंथ साहब में दर्ज हैं। श्री गुरु तेग बहादुर जी की वाणी में समायी है राम नाम की महिमा - रे मन राम सिंओ कर प्रीति ।
सखनी गोविन्द गुण सुनो और गावहो रसना गीति।। , 
राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥ 
रट नाम राम बिन मिथ्या मानो, सगरो इह संसारा ।।
उन्होंने अपनी वाणी में जीवन जीने की एक अत्यंत सहज- स्वाभाविक पद्धति प्रस्तुत की है, जिसे अपनाकर मनुष्य सभी तरह के कष्टों से सुगमता से छुटकारा पा सकता है। 
गुरु जी का कथन है कि चिंता उसकी करो, जो अनहोनी हो-‘चिंता ताकी कीजिये जो अनहोनी होय’। इस संसार में तो कुछ भी स्थिर नहीं है। गुरु तेग बहादुर के अनुसार,समरसता सहज जीवन जीने का सबसे सशक्त आधार है।
 आशा-तृष्णाकाम-क्रोध आदि को त्यागकर मनुष्य को ऐसा जीवन जीना चाहिए, जिसमें मान-अपमान, निंदा-स्तुति, हर्ष-शोक, मित्रता-शत्रुता समस्त भावों को एक समान रूप से स्वीकार करने का भाव उपस्थित हो - ‘नह निंदिआ नहिं उसतति जाकै लोभ मोह अभिमाना। हरख सोग ते रहै निआरऊ नाहि मान अपमाना’। गुरु जी का कहना है कि वैराग्यपूर्ण दृष्टि से संसार में रहते हुए सभी सकारात्मक - नकारात्मक भावों से निर्लिप्त होकर ही सुखी और सहज जीवन जिया जा सकता है।
उन्होंने कश्मीरी हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों ‘तिलक’ और ‘जनेऊ’ की रक्षा के लिए दिल्ली के चांदनी चौक (अब शीशगंज) में अपना शीश कटाकर प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। नौवें गुरु की इस बेमिसाल कुर्बानी पर गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा- ‘तिलक जंझू राखा प्रभता का। कीनो बड़ो कलू महि साका।।’ इस अभूतपूर्व बलिदान के कारण ही उन्हें ‘हिंद की चादर - गुरु तेग बहादुर’ कहकर सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।


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शहादत का सप्ताह

तेग साचो, देग साचो, सूरमा सरन साचो, 
साचो पातिसाहु गुरु गोबिंद सिंह कहायो है।

माता गुजरी तथा साहिबजादों 
अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह
के शहादत का सप्ताह है दिसंबर का आखिरी सप्ताह ।

चमकौर के भयानक युद्ध में गुरुजी के दो बड़े साहिबजादे सवा लाख मुगल फौज को धूल चटाते हुए शहीद हो गए। जिनमें बड़े साहिबजादे अजीत सिंह की उम्र महज 17 वर्ष, साहिबजादा जुझार सिंह की उम्र 15 वर्ष थी। गुरुजी ने अपने हाथों से उन्हें शस्त्र सजाकर मैदाने जंग में भेजा था। इस भयानक युद्ध में दोनो बड़े साहिबजादे शहीद हो गए। 

उधर माता गुजरीजी, छोटे साहिबजादे जोरावर सिंघ जी उम्र 7 वर्ष, और साहिबजादा फतेह सिंह जी उम्र 5 वर्ष को गिरफ्तार कर सरहंद के नवाब वजीर खां के सामने पेश किया गया। जहां उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा गया, लेकिन साहिबजादों ने कहा कि हर मनुष्य को अपना धर्म मानने की पूरी आजादी हो। जिससे नाराज वजीर खां ने उन्हें दीवारों में चुनवा दिया। मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए दोनो गुरु पुत्रों ने बलिदान दिया।
साहिबजादों की शहादत के बाद गुरु माता ने वाहेगुरु का शुक्रिया अदा कर अपने प्राण त्याग दिए। तारीख 26 दिसंबर गुरु गोबिन्द सिंह जी के संपूर्ण परिवार के बलिदान के कारण सुनहरी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई। गुरु जी ने कहा था कि चार पुत्र और परिवार नहीं रहा तो क्या हुआ? मुझे खुशी है, ये हजारों सिख जीवित हैं, जो मेरे लिए मेरे पुत्रों से बढ़कर हैं।


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गुरु अर्जुन देव जी महाराज

आज गुरु अर्जुन देव जी महाराज का प्रकाश दिवस है (15 अप्रैल 1563)

गुरू अर्जुन देव 5वे गुरू महाराज थे। गुरु अर्जुन देव जी ईश्वरीय शक्ति एवं शान्तिपुंज हैं। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है।
ग्रंथ साहिबजी का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में किया। ग्रंथ साहिब की संपादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रंथ साहिब में 36 महान वाणीकारोंकी वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई।

जहांगीर ने अर्जुन देव को बंदी बना लिया और मुस्लिम धर्म स्वीकार न करने पर इन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। गुरु महाराज को तीन दिनों तक भयंकर यातनाएं दी गयी लेकिन अर्जुन देव अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे और अंततः 30 मई 1606 को धर्म की खातिर अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।

गुरु जी ने अपने पूरे जीवनकाल में शांत रहना सीखा और लोगों को भी हमेशा नम्रता से पेश आने का पाठ पढ़ाया। यही कारण है की गर्म तवे और गर्म रेत के तसीहें सहते हुए भी उन्होंने केवल उस परमात्मा का शुक्रिया किया और कहा की तेरी हर मर्जी में तेरी रजा है और तेरी इस मर्जी में मिठास भी है। गुरु जी के आख़िरी वचन थे- तेरा कीया मीठा लागै॥


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बिन्देश्वर पाठक

पंडित बिंदेश्वर पाठक वो शख्सियत हैं जिनकी स्वच्छता की सोच ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में एक मिसाल कायम कर दी। करीब पांच दशक पहले उन्होंने एक ऐसा अभियान शुरू किया जो एक विशाल आंदोलन बन गया। स्वच्छ भारत अभियान के करीब तीन दशक पहले उन्होंने खुले में शौच, दूसरों से शौचालय साफ करवाने और प्रदूषण जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों या और कमियों पर रोक लगाने का जनांदोलन खड़ा कर पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया। समाज में सुधार आया और उनकी संस्था सुलभ इंटरनैशनल ने साफ-सफाई का एक मॉडल बनाया जिसने न सिर्फ स्वच्छता के क्षेत्र में, बल्कि रोजगार और आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में भी कामयाबी के झंडे गाड़े।
 डॉ बिंदेश्वर पाठक ने वर्ष 1974 में 'पे एंड यूज' टॉयलेट की शुरुआत की। जल्दी ही उनका ये कॉन्सेप्ट पूरे देश और कई पड़ोसी देशों में लोकप्रिय हो गया। उन्होंने अपनी संस्था का नाम रखा 'सुलभ इंटरनैशनल'। सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करके उन्होंने सफाई के क्षेत्र में जुटे दलितों के सम्मान के लिए कार्य किया। इससे उनके  व्यक्तित्व में बड़ा बदलाव आया। 1980 में जब उन्होंने  सुलभ इंटरनेशनल का नाम सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन किया तो इसका नाम पूरी दुनिया में पहुंच गया। 
स्वच्छता के साथ पद्मभूषण विदेश्वर पाठक ने दलित बच्चों की शिक्षा के लिए पटना, दिल्ली और दूसरी कई जगहों पर स्कूल खोले जिससे स्कैवेंजिंग और निरक्षरता के उन्मूलन में सहायता मिली। समाज के निचले पायदान को लाभान्वित करने के मकसद से उन्होंने महिलाओं और बच्चों को आर्थिक अवसर प्रदान करने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्रों की स्थापना की है। सुलभ को अन्तर्राष्ट्रीय गौरव उस समय प्राप्त हुआ जब संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा सुलभ इंटरनेशनल को विशेष सलाहकार का दर्जा प्रदान किया गया। 
डॉ. बिंदेश्वर पाठक भारत में मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ देश में स्वच्छता अभियान में अहम भूमिका निभा रहे हैं। उनका मानमा है कि सरकार ने देश में 2019 तक खुले में शौच की परंपरा खत्म करने का जो डेड लाइन रखा था उसमें काफी हद तक सफलता मिली है लेकिन  चुनौतियां अब भी मौजूद हैं। महज  राज्य और कॉर्पोरेट घरानों के तालमेल से यह मुमकिन नहीं होगा। जैसा कि प्रधानमंत्री ने संकेत दिये हैं, इसमें सक्रिय लोगों की भागीदारी और सुनियोजित योजनाओं की जरूरत है। उनका कहना है कि स्वच्छता को राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ आगे जारी रखने  की जररूत है। 

बिंदेश्वर पाठक ने एक सामाजिक कुप्रथा में बदलाव लाकर इसे विकास का जरिया बना दिया। उन्होंने सुलभ शौचालयों से बिना दुर्गंध वाली बायोगैस की खोज की। इस तकनीक का इस्तेमाल  भारत समेत अनेक विकासशील राष्ट्रों में धड़ल्ले से हो रहा है। सुलभ शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट का खाद के रूप में इस्तेमाल के लिए उन्होंने प्रोत्साहित किया।  उनको एनर्जी ग्लोब, इंदिरा गांधी, स्टॉकहोम वॉटर जैसे तमाम पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। 2009 में इंटरनेशनल अक्षय ऊर्जा संगठन (आईआरईओ) का अक्षय उर्जा पुरस्कार भी मिला है। ( courtesy फेम इंडिया )

आज (4 march 2019 )दिल्ली में सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक पद्मभूषण आदरणीय श्री बिंदेश्वर पाठक जी से मिलने एवं वार्तालाप का सुअवसर प्राप्त हुआ । पाठक जी ने अपने अनुभवों को बताया एवं अनेक प्रेरणा दायक बातें बताई। ऐसे महान व्यक्तित्व के चरणों मे शत शत नमन ।


इंग्लैंड की रामायण

इंग्लैंड की रामायण -
हरि अनंत हरि कथा अनंता

फादर कामिल बुलके ने आपने शोध प्रबंध हेतु  300 रामायणों का संग्रह व अध्ययन किया था । भारत के अतिरिक्त जापान , इंडोनेशिया, श्रीलंका, कंबोडिया, ईरान, लाओस,थाईलैंड, रूस, तुर्कमेनिस्तान आदि में भी प्राचीन रामायण पाई जाती हैं । ग्रीक एवं रोमन पुराण कथाओं में रामकथा से मिलते जुलते आख्यान पाए जाते हैं । इंग्लैंड में भी प्राचीन रामायण पाई जाती है ।
इंग्लैंड में रोमन शासन 43 AD से पूर्व का इतिहास सही तरह से ज्ञात नही है । किंतु प्राचीन druid (द्रविड़) लोग वहां के मूल निवासी है । पुराणों में अंगुलदेश का वर्णन है जो कि बंद मुट्ठी अंगूठे के आकार का द्वीप है और वहां सर्वप्रथम स्कन्दनाभीय (scandavian) क्षत्रियो (scot) ने राज्य स्थापित किया । जिन्होंने शैलपुरी (salisbury) में सूर्य भगवान को समर्पित stonehenge का मंदिर बनवाया । आज भी उस प्राचीन druid धर्म के अनुयायी हज़ारो की संख्या में वहां रहते हैं । अंग्रेजी भाषा के शब्दों का संस्कृत मूल , प्राचीन 
इंग्लैंड में hadrian दीवाल के किलों में हाथी मोर के चित्र पाए जाना, उत्खनन में शिवलिंग और गणेश की प्रतिमा मिलना, वेस्टमिनिस्टर एब्बे की शिला आदि संकेत देती है कि इंग्लैंड में रोमन राज्य से पूर्व वैदिक संस्कृति थी । आज भी इंग्लैंड में भगवान राम के नाम पर अनेक शहर है जैसे  Ramsgate (राम घाट) , Ramsden (राम देन) , Ramford (राम किला) आदि । कई अंग्रेजों के नाम Ramsay (राम सहाय) होता है। 
इंग्लैंड के एक प्राचीन काव्य Celtic Psalter में प्राचीन किंग रिचर्ड की कहानी लैटिन भाषा मे मिलती है । हालांकि बाद में 12 शताब्दी में इंग्लैंड के अन्य राजाओं का नाम भी रिचर्ड हुआ और उन पर भी किताबे लिखी गयी । बाद की कहानियों में प्राचीन किंग रिचर्ड और 12 वी शताब्दी के किंग रिचर्ड the lion hearted की कहानियों को आपस में मिला दिया गया । फिर शेक्सपियर ने king richard पर प्ले लिखा जिसमे रिचर्ड तृतीय और रोबिन हुड की कहानियों को आपस में मिला दिया गया । 
मूल प्राचीन पुस्तक में काव्यात्मक वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है -
इंग्लैंड के महाप्रतापी राजा थे किंग रिचर्ड (किंग = सिंह, रिचर्ड = राम चन्द्र) जो कि सूर्यदेव के पुत्र अपोलो के वंशज और महान धनुर्धर थे । इनकी पत्नी का नाम रानी Jancy (=जानकी) था । ये अपने पिता की आज्ञा से  वनों में गए ,  जहाँ  Lancashire (लंकेश्वर) के क्रूर राजा, जो एक demon था ,  ने Jancy का अपहरण कर लिया और इटली के नजदीक एक  भूमध्यसागरीय द्वीप में ले गया । 
किंग रिचर्ड ने Germanic tribes के सेनापति कपि Hahnemann की सहायता से जल सेना बनाई और उस द्वीप पर troop of monkey की सेना से  आक्रमण किया । और demon को मार के अपनी पत्नी को मुक्त कराया । 

(विस्तृत अध्ययन हेतु - peter ackroyd की पुस्तक foundation the history of england देखिए)

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सप्तमातृका

सप्तमातृका

‘मातृका’ का मूल शब्द ‘मातृ’ है जिसका अर्थ है ‘माँ’। यह माना जाता है कि उनमें वह शक्ति है जो मातृ गुणों का प्रतीक है और इस ब्रह्मांड की सभी शक्तियों की रक्षक, प्रदाता और पालनकर्ता भी है। जैसे पृथ्वी की हर चीज सूर्य से अपनी स्रोत ऊर्जा प्राप्त करती है, वैसे ही ब्रह्माण्ड की सभी ऊर्जाएं अपनी शक्ति मातृकाओं से प्राप्त करती हैं। मातृकाओं की तंत्र-विद्या में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि उनमें जन्मजात क्षमता है, जिस के फलस्वरूप वह स्वयं का प्रतिरूप बना सकती है और उनके प्रतिरूप भी अन्य शक्तियों और रूपों को जन्म दे सकते हैं। वह अपने सूक्ष्म रूप में हर जगह और हर चीज में है लेकिन यह मान्यता है कि वे अपने प्रकट रूप में ब्रह्मांड में उपस्थित है और आठ दिशाओं पर शासन करती है जो अनंत का भी प्रतीक है।

मार्कण्डेय पुराण में वर्णन मिलता है कि सप्तमातृकाओं की सहायता से चण्डिका देवी ने रक्तबीज का वध किया था। ये सात देवियां अपने पतियों के वाहन तथा आयुध के साथ यहां उपस्थित होती है ‘यस्य देवस्य यत्रूपं यथाभूषण वाहनम्’। ये सात देवियां ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारीय, वाराही और नरसिंही है।

भारत में सप्तमातृकाओं की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी जाती हैं-

1. स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा,
2. आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं,
3. नृत्यरत प्रतिमा।

वराह पुराण में कहा गया है कि मातृकायें आत्म ज्ञान हैं, जो अज्ञानता रूपी अंधकासुर के विरूद्ध युद्ध करती हैं। पुराणों में यह भी कहा गया है कि मातृकायें शरीर के मूल जीवंत अस्तित्व पर शासन करती हैं।

• ऋग्वेद में सात नदियों एवं सात स्वरों को माता कहा गया है। साथ ही वहाँ सप्त माताओं का उल्लेख भी है और कहा गया है कि उनकी देखरेख में सोम की तैयारी होती थी।
• मार्कण्डेय पुराण में वर्णन मिलता है कि युद्ध में चण्डिका की सहायता के लिए सप्तमातृकाएं उत्पन्न हुईं थीं। इन्हीं सप्तमातृकाओं की सहायता से देवी ने रक्तबीज का वध किया था।
• ईसा की पहली शताब्दी से मातृका पूजन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वराहमिहिर के बृहत्संहिता मे एवं शूद्रक के मृच्छकटिकम् में मातृका पूजन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
• स्कंदगुप्त के बिहार स्तंभलेख में मातृका पूजन उल्लेखित है।
• गुप्त शिलालेख के अनुसार ४२३ ई. में मालवा के विश्वकर्मन राजा के अमात्य मयूराक्ष ने मातृकाओं का एक मंदिर बनवाया था ।
• पांचवी सदी के गुप्तसम्राट प्रथम कुमारगुप्त के गंगाधर लेख में मातृका के मंदिर का उल्लेख मिलता है।
• चालुक्य एवं कदंब राजवंश सप्तमातृकाओं के उपासक थे।

चित्र - सरस्वती नदी कालीन (तथाकथित सिंधु घाटी सभ्यता ) सील , जिसमे पीपल के पत्ते पर श्रीकृष्ण , श्रीकृष्ण का श्रृंगी रूप तथा नीचे सप्त मातृकाएं
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शांतिबाई गोंड

माताजी शांतिबाई गोंड बड़ी आध्यात्मिक महिला है। औपचारिक शिक्षा ना होते हुए भी इनको रामायण महाभारत पौराणिक कथाओं का बड़ा ज्ञान है। वे अपना पूरा समय मंडला जिले के काला पहाड़ पर स्थित एक छोटी झोंपड़ी में एकाकी बिताती हैं जिसमे एक ही कमरा है और वह आदिदेवों का मंदिर भी है ।
अर्धमिश्रित गोंडी व हिंदी भाषा मे उन्होंने समझाया कि - पेन का मतलब देव । जैसे बड़ा पेन, बूढ़ा पेन, परसा पेन । ये सब प्रकृति की देव शक्तियां है जो किसी समाज के पहले पूर्वज के रूप में होती है और हमेशा उस परिवार के साथ रहती हैं व रक्षा करती हैं ।
झोपड़ी के अंदर ईश्वर के स्थान पर ज्योति जल रही थी व अनेक चिमटे गड़े थे , उन्होंने एक चिमटे से मेरे सर पर स्पर्श किया और बोली (जिसका अर्थ है) -
हे परसा पेन तू सल्लां और गांगरा शक्ति है ,
तू सभी जीव जगत की पालन शक्ति है ,
तू हमारे कर्म , कर्तव्य और कार्य की शक्ति है ,
तू हमारी शारीरिक , मानसिक और बौद्धिक शक्ति है ,
तू धन और ऋण शक्ति है ,
तू दाऊ और दाई शक्ति है ,
तू हमारी मनन , चिंतन , श्रवण तथा निगाह शक्ति है .
तू इस पोकराल (ब्रम्हाण्ड) की सर्वोच्च शक्ति है .
नाम बोलो - 
हमने कहा - अशोक 
वे बोली- परसापेन अशोक को स्वस्थ रखे , रक्षा करे , सारी परेशानियां दूर हों । लोगो की भलाई करो । जय नर्मदा माई , जय भोलेनाथ और इन्होंने हमको भभूत दी । हमने माताजी के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया । (कुछ पैसा चढ़ाना चाहा मगर उन्होंने नही लिया ) ll जय सेवा ।l

नवागुंजारा

भगवान नवागुंजारा Navagunjara :

यह कहानी महाभारत से है। अज्ञातवास के दौरान अर्जुन एक जंगल मे ध्यान योग कर रहे थे। तभी उनके सामने एक अजीब सा जीव आया जो नौ जीवों का मिश्रण था। वो तीन पैरों पर खड़ा था। उसका एक पैर  हाथी का था, दूसरा पैर चीता का औऱ तीसरा घोड़े का और चौथे पैर की जगह मनुष्य का हाथ था। उसका चेहरा मुर्गे का था औऱ गर्दन मोर की। उसका कूबड़ बैल का था, पीठ शेर को थी औऱ पूँछ सर्प की। अर्जुन ने जब उस जीव को अपने सामने देखा तो पहले तो वे भयभीत हो गए। उन्होंने तीर धनुष उठाया औऱ उस अजीब से जीव पर तान दिया। फिर उन्होंने उसे गौर से देखा तो उसमें मौजूद इंसानी हाथ को वो पहचान गए। उस हाथ मे एक कमल का फूल था। फिर उन्होंने और गौर से देखा तो उसमे मौजूद सभी जीवों को वो पहचान गए। फिर उन्होने धनुष किनारे रखा, घुटनों के बल उस जीव के सामने बैठ गए और बोले, नमस्ते! आपका अस्तित्व मेरी कल्पनाओं से परे हैं। आप मुझसे या मेरे द्वारा देखी सोची गई वस्तुओं से बिल्कुल अलग है, आप जरूर भगवान है। अचानक वो जीव भगवान विष्णु के रूप में बदल गया। ये भगवान विष्णु का नवागुँजारा स्वरूप है। भगवान जगन्नाथ के मंदिर में आप नवागुंजारा स्वरूप की तस्वीरे देख सकते हैं। ओडिसा में इनकी पूजा होती है।
आप सम्मानीय हैं क्योंकि आप मुझसे अलग है। आप मेरी सोच के परे हैं किंतु मेरी सोच सीमित है। ईश्वर उस स्वरूप में भी हो सकता है जिसके बारे में हम सोच नही सकते। यही भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म है । आप मुझसे भिन्न है इसलिए मैं आपका सम्मान करता हूँ , आप ईश्वर भी हो सकते हैं । 

This is indian culture. If You are different from me, you will be respectful , you must be a God.