मंगलवार, 17 अक्टूबर 2023

महा पराशक्ति

महा पराशक्ति 

शाक्त परंपराओं के अनुसार, त्रिपुर सुंदरी आदि देवियां महापराशक्ति की भौतिक अवतार हैं। वह आसुर को नष्ट करने के लिए इस ब्रह्माण्ड के ऊपर अन्य ब्रह्माण्ड मणिद्वीप से आईं, बाद में कामाक्षी पराभट्टारिका के रूप में कामकोटि पीठ में निवास करने लगीं। उनके निवास को चित्रात्मक रूप से श्री चक्र के रूप में दर्शाया गया है।

 इस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, शिव उसके अधीनस्थ हैं और उनकी शक्ति के बिना कार्य नहीं कर सकते। इस प्रकार, शक्तिवाद में महा पराशक्ति को  सर्वोच्च देवी और प्राथमिक देवता माना जाता है क्योंकि वह आदि पराशक्ति की निकटतम प्रतिनिधि हैं जो आगे चलकर पार्वती के रूप में अवतरित हुईं। इस मत के अनुसार कोई व्यक्ति जिस भी देवता की पूजा कर रहा है, अंततः, वे आदि पराशक्ति की पूजा कर रहे हैं।

उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए समय-समय पर विभिन्न अवतार लिए। उच्चतम क्रम के योगियों के अनुसार, महा पराशक्ति वह शक्ति है जो अंबा के रूप में कुंडलिनी में निवास करती है, वह आकार में 3+1/2 कुंडल है और जब कुंडलिनी को हर इंसान की त्रिकास्थि हड्डी से एक उच्च एहसास द्वारा उठाया जाता है जिस आत्मा की कुंडलिनी भी जागृत होती है, वह मानव की रीढ़ की हड्डी के माध्यम से सभी चक्रों मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और अंत में सहस्रार चक्रों से ऊपर उठती है और आत्मा को सर्वव्यापी शक्ति (या सामूहिक चेतना) से जोड़ती है। दिव्य तीन नाड़ियों, इड़ा (बाएं चैनल- तमो गुण), पिंगला (दायां चैनल-रजो गुण) और सुषुम्ना (केंद्रीय चैनल-सत्व गुण) पर, कुंडलिनी सभी बाएं और दाएं चैनल को संतुलित करते हुए केंद्रीय चैनल से गुजरती है। इस प्रकार इड़ा पिंगला और सुषुम्ना भी महा पराशक्ति की ही ऊर्जाएं हैं । 

काली देवी आदि पराशक्ति का तीसरा अंश हैं। वह शक्ति, आध्यात्मिक पूर्ति, समय की देवी हैं, साथ ही ब्रह्मांड के विनाश की अध्यक्षता भी करती हैं। वह मानव जाति को मोक्ष प्रदान करती है। वह पार्वती का अवतार और शिव के अवतार महाकाल की पत्नी भवानी दुर्गा हैं। उन्होंने महामाया के रूप में भगवान महा विष्णु को मधु और कैटभ नामक राक्षसों का वध करने में मदद की। उन्होंने ही कौशिकी के रूप में शुंभ और निशुंभ का भी वध किया था, जो अज्ञानता के प्रतीक हैं। इन्हें योगमाया के नाम से भी जाना जाता है। दुर्गा सप्तशती के अनुसार उन्हें तामसी देवी और चंडी देवी भी कहा जाता है। वह लाल या काला वस्त्र पहनती है और तमस गुण की स्वामी है।

फोटो- महा पराशक्ति देवी , मलेशिया 
श्री महापराशक्ति Pachai Amman Temple, Malaysia (90 फ़ीट विग्रह)

गुरुवार, 7 सितंबर 2023

कणिक नीति

चाणक्य (कौटिल्य) से 100 गुना आगे थे कणिक : 
(आज के समय मे इनकी नीतियों की जरूरत है) 

जब भी विश्व के प्रसिद्ध राजनीतिक कूटनीतिक ज्ञानी की बात होती है तो भारत के 4थी शताब्दी ईसा पूर्व के चाणक्य और  15 वी शताब्दी ईसवी  में हुए इटली के मेकियावली का नाम लिया जाता है । यद्यपि दोनो अलग अलग समय काल के व्यक्ति है । दोनो में लगभग 1800 वर्षों का अंतर होगा , फिर भी राजनीति व कूटनीति में चाणक्य मेकियावली से 100 गुना आगे थे । 

लेकिन एक व्यक्ति ऐसा भी हुआ है जो कूटनीति में चाणक्य से भी अधिक ऊंचाई पर था । और वे थे ऋषि  कणिक । इनका नाम अधिकांश लोगों ने सुना भी नही । जिनका समय ईसा पूर्व लगभग 3000 होगा । 
कणिक के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है । संभवतः ये महाभारत काल मे थे , क्योकि एक बार धृतराष्ट्र ने इनसे सलाह मांगी थी । महाभारत में सर्वत्र विदुर नीति का जिक्र है , जो कि राजा धृतराष्ट्र के राजनीतिक व कूटनीतिक सलाहकार थे । विभिन्न प्राचीन आख्यानों में कणिक का नाम और उनके कुछ सूत्र इधर उधर बिखरे मिलते हैं । जिससे पता चलता है कि वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक ज्ञानी थे । 

अध्ययन से पता चलता है कि आचार्य कणिक किसी राजा के दरबार मे नही थे । ये राज्य से कोई भी सुविधा वेतन नही लेते थे । नगर से बहुत दूर किसी जंगल मे इनकी कुटिया थी । ये सुकरात की तरह स्वतंत्र चिंतक थे । राजाओं और व्यवस्था को खरी खोटी सुनाते थे । इसलिए राजा लोग इनको महत्व नही देते थे । 

कणिक के कुछ सूत्र इस प्रकार हैं--
-- मूर्ख है वह राजा जो राज मुकुट को शोभा या गर्व की वस्तु मानता है , वास्तव में यह राजा के सर पर दायित्वों का भारी बोझ होता है जिसे वह जीवन भर उठाये रखता है ।  
-- मूर्ख है वह राजा जो कमर में बंधी इस तलवार को अपनी समझता है , वास्तव में यह प्रजा ने राजा को उसकी सुख और संपत्ति की रक्षा के लिए दी हुई है ।

-- जिस प्रकार माली किसी बगीचे का स्वामी नही होता उसी प्रकार राजा भी प्रजा का स्वामी नही होता । बगीचे के फलों पर और फूलों की सुगंध पर माली का कोई अधिकार नही होता । वह सिर्फ इनकी देखभाल के लिए है । 

--- मूर्ख है वह राजा जो राजमुद्रा को अपने अधिकार का चिन्ह मानता है , वास्तव में यह उसके कर्तव्यों का प्रतिबिंब होता है । 

-- यदि राजा को लगता है कि उसके देश पर (यवन शक हूण असुर मलेक्ष्य आदि) विदेशी आक्रमण करेंगे तो उनके आक्रमण की प्रतीक्षा नही करनी चाहिए अपितु स्वयं उनपर आक्रमण कर उनकी शक्ति को यथाशीघ्र समाप्त कर देना चाहिए । 
-- जो बार बार शत्रुता दिखा चुका हो ऐसे राज्य से संधि कर उसे अनुकूल होने का समय देने के स्थान पर उसपर आक्रमण कर नष्ट कर देना चाहिए ।
-- राजा का कर्तव्य है कि वह देखे कि प्रजा में सम्पन्न लोग दरिद्र का अहित ना कर सकें । जिस राज्य में दरिद्र का अहित होता है वह राज्य नष्ट हो जाता है ।
-- जिस राज्य में शिक्षक आचार्य विशारद वैद्य उपाध्याय से अधिक सम्मान व सुविधा राजकर्मी दंडपाल को मिलती है उस राज्य में सदैव अव्यवस्था बनी रहती है एवं समाज पतन की ओर जाता है । 
-- राजा को चाहिए कि सभी नवयुवकों को सेना में प्रशिक्षित कर दे । किंतु उनमें से परीक्षा लेकर योग्य को ही सेना में स्थायी पद दे । अस्त्र शस्त्रों का संचालन राज्य के प्रत्येक युवक को आना चाहिए । ये अपने ग्राम की रक्षा करें । सेना की कमी पड़ने पर इन युवकों को बुलाया जा सकता है । 

-- राजन आपको कंबोज गंधार वल्हिक बल्ख उत्तरकुरु और हरिवर्ष ( अफगानिस्तान ईरान चीन सीमा ) पर अधिक शक्तिशाली सेना रखनी चाहिए क्योंकि यवनों व मलेक्षो के आक्रमण का मार्ग यही है । इन प्रदेशो के क्षत्रप योग्य सेनापति को नियुक्त करें । 

---मन में क्रोध भरा हो, तो भी ऊपर से शांत बने रहे और हंस कर बातचीत करें। क्रोध में किसी का तिरस्कार ना करें। किसी शत्रु पर प्रहार करते समय भी उससे मीठे वचन ही बोले।
-- प्रतिकूल समय में एक राजा को यदि शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पड़े तो उसे ढोना चाहिए, परंतु जब अपना अनुकूल समय आ जाए, तब शत्रु को उसी प्रकार नष्ट कर दें जैसे घड़े को पत्थर पर पटक कर फोड़ दिया जाता है।
-- विदेश से आने वाले लोगो पर राजा विशेष निगरानी रखे । ये लोग निश्चित समय से अधिक राज्य में न रहने पाये । यदि इनको राज्य में बसने की अनुमति दी जाएगी तो एक दिन ये लोग राज्य और प्रजा को नष्ट कर देंगे । 
--राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्र का शत्रु को पता न चले, परंतु वह शत्रु के छिद्र को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रों को छिपाये रखे। ‘राजा बगुले के समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्‍यविषय को चिंतन करे। सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियें की भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रु का धन लूट ले तथा बाण की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़े।

मित्र इतिहासकार राजीव रंजन प्रसाद आचार्य कणिक पर शोध कर रहें है । उनको शुभकामनाएं ।

भारतवर्ष

"भारतवर्ष" 

भारत में भा का अर्थ ज्ञान रूपी प्रकाश और रत का अर्थ जुटा हुआ, खोजी या लीन। इस तरह भारत का अर्थ होता है जो लोग इस भूमि पर ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। दूसरा अर्थ है जो भरत के वंशज हैं। इसमें वर्ष का अर्थ है एक वर्षा ऋतु से दूसरी वर्षा ऋतु के बीच का समय या साल। भिन्न भिन्न प्रकृति या वर्षा क्षेत्र को वर्ष कहा जाता है। चूंकि भारत में सभी तरह की प्रकृति, 4 ऋतुएं और वर्षा क्षेत्र हैं तो एकमात्र यही देश है जिसके नाम के आगे वर्ष लगाया जाता है। अन्य कई देशों में 2 ऋतुएं ही होती हैं तो वर्ष का कोई अर्थ नहीं।
 
उल्लेखनीय है कि भरत शब्द (भारत नहीं) का अर्थ भारण पोषण करने वाला। प्रजा को पालने वाला होता है।

हिमाद्रेर्दक्षिण वर्षं भरतस्य न्यवेदयत्।
तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधा:।
- लिंग पुराण (47-21-24).

अर्थात : अर्थात इंद्रिय रूपी सांपों पर विजय पाकर ऋषभ ने हिमालय के दक्षिण में जो राज्य भरत को दिया तो इस देश का नाम तब से भारतवर्ष पड़ गया।....इसी बात को प्रकारान्तर से वायु और ब्रह्मांड पुराण में भी कहा गया है। भरत का क्षेत्र होने के कारण यह भारत कहा गया।

ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते
भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रातिष्ठता वनम्

अर्थात-पिता ऋषभदेव ने वन जाते समय अपना राज्य भरतजी को दे दिया था. तब से यह इस लोक में भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
(विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय प्रथम श्लोक ३२)

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।।

अर्थात-समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है, उसे भारत कहते हैं और इस भूभाग में रहने वाले लोग इस देश की संतान भारती हैं.
(विष्णु पुराण द्वितीय खंड तृतीय अध्याय प्रथम श्लोक)

गायन्ति देवा: किल गीतकानि, धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरूषा सुरत्वात्

अर्थात- देवता निरंतर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के बीच में बसे भारत में जन्म लिया है, वो पुरुष हम देवताओं से भी ज्यादा धन्य हैं.
(विष्णु पुराण द्वितीय खंड तृतीय अध्याय २४ वां श्लोक)
शकुन्तलायां दुष्यन्ताद् भरतश्चापि जज्ञिवान
यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्

अर्थात-परम तपस्वी महर्षि कण्व के आश्रम में दुष्यंत के द्वारा शकुंतला के गर्भ से भरत का जन्म हुआ. उन्हीं महात्मा भरत के नाम से यह भरतवंश भारत नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ, 
(महाभारत आदिपर्व द्वितीय अध्याय श्लोक ९६)

सोभिचिन्तयाथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सल:
ज्ञानवैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रिय महोरगान्।
हिमाद्रेर्दक्षिण वर्षं भरतस्य न्यवेदयत्।
तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधा:।

अर्थात-अपने इन्द्रिय रूपी सांपों पर विजय पाकर ऋषभ ने हिमालय के दक्षिण में जो राज्य भरत को दिया तो इस देश का नाम तब से भारतवर्ष पड़ा. 
(लिंगपुराण)

भारते तु स्त्रियः पुंसो नानावर्णाः प्रकीर्तिताः।
नानादेवार्चने युक्ता नानाकर्माणि कुर्वते॥

अर्थात-भारत के स्त्री और पुरुष अनेक वर्ण के बताए गए हैं. ये विविध प्रकार के देवताओं की आराधना में लगे रहते हैं और अनेक कर्मों को करते हैं.
(कूर्मपुराण पूर्वभाग अध्याय ४७ श्लोक २१वां)

अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्षम् भारत भारतम्। प्रियं इन्द्रस्य देवस्य मनो: वैवस्वतस्य च।
पृथोश्च राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाको: महात्मन:। ययाते: अम्बरीषस्य मान्धातु: नहुषस्य च।
तथैव मुचुकुन्दस्य शिबे: औशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा।
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥

अर्थात -(हे महाराज धृतराष्ट्र,) अब मैं आपको बताऊंगा कि यह भारत देश सभी राजाओं को बहुत ही प्रिय रहा है। इन्द्र इस देश को अत्यंत प्रेम करते थे तो विवस्वान् के पुत्र मनु भी इस देश से अत्यंत स्नेह करते थे। ययाति हों या अम्बरीष, मन्धाता रहे हो या नहुष, मुचुकुन्द, शिबि, ऋषभ या महाराज नृग रहे हों, इन सभी राजाओं को तथा इनके अलावा जितने भी महान और बलवान राजा इस देश में हुए, उन सबको भारत देश बहुत प्रिय रहा है।
(महाभारत)

नारद ने कहा : हे अर्जुन, मैं तुम्हें बर्बरी तीर्थ की महिमा का वर्णन करूंगा , कि कैसे राजकुमारी शतशंगा, जो कुमारिका के नाम से प्रसिद्ध थी, बर्बरिका बन गई । उनके नाम पर ही इस खंड को कौमारिका-खंड कहा जाता है । उन्हीं के द्वारा पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के गाँवों का निर्माण हुआ। उन्हीं के द्वारा इस भरत खण्ड को सुव्यवस्थित एवं स्थापित किया गया।

धनंजय (अर्जुन) ने कहा :
हे ऋषि, यह अत्यंत चमत्कारी कथा मुझे अवश्य सुननी चाहिए। मुझे कुमारी की कथा विस्तारपूर्वक सुनाओ। कर्मण (कर्म) और जाति (जन्म और पितृत्व) के माध्यम से यह ब्रह्मांड कैसे विकसित हुआ ? भारत का उपमहाद्वीप कैसा (सुव्यवस्थित) था? यह सुनने की मेरी सदैव इच्छा रही है।
(भुवनकोश 'स्कंदपुराण')

येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्‍ठगुण आसीद् यनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति।
- भागवत पुराण (स्कन्द 5, अध्याय 4)

वैदिक काल में भरत नाम से एक प्रसिद्ध राजा हुआ करते थी जो सरस्वती और सिंधु नदी के क्षेत्र में राज करते थे । उनके वंशजो का का इतिहास में प्रसिद्ध दस राजाओं से युद्ध हुआ था। जिसे दासराज्ञ का युद्ध कहा जाता है। विजयी होने पर उनका राज्य क्षेत्र पूर्व और दक्षिण तक विस्तृत हो गया , जिसे भारतवर्ष कहा जाने लगा । 

संकल्प का श्लोक

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये पर्राधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतर्वषे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते.....

हाथीगुम्फा शिलालेख में उल्लेख है कि: 

"भारत" के पूर्वी तट पर उदयगिरि गुफाओं में रानी गुम्फा या "रानी की गुफा" से जूते और चिटोन के साथ एक यवन / इंडो-ग्रीक योद्धा की संभावित मूर्ति (प्राप्त हुई है), यह वही स्थान है जहां हाथीगुम्फा शिलालेख प्राप्त हुआ था। दूसरी या पहली शताब्दी ईसा पूर्व। 

वेदों, पुराणों, अभिलेखों आदि में सहज उपलब्ध प्रमाणों में से ये प्रमाण मात्र 1% हैं। पर इतने ही ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त करने के उपरांत भी  'इंडिया दैट इज भारत' जैसा धूर्त प्रयास अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन की अधीनता का ही प्रतीक था जिसे भारत सरकार को वर्तमान परिस्थितियों के प्रकाश में तत्काल प्रभाव से संशोधित किया है। 

बाकी हम सरस्वती विद्या मंदिर के विद्यार्थियों के लिए तो हमारी मातृभूमि का नाम सदैव से 'भारतवर्ष' ही रहा है। अपनी पुरानी पोस्ट्स पर भी दृष्टि डालता हूँ तो पाता हूँ कि कभी अचेतन मन से भी राष्ट्र के लिए भारत के अतिरिक्त इंडिया जैसे किसी अवांछित नाम का प्रयोग नहीं किया है।

जयतु भारत। 

जन्माष्टमी पर

विष्णोर्नु कं॑ वीर्य॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यः पार्थिवनी विम॒मे रजां॑सि। यो अस्क॑भय॒दुत्तिरं स॒धस्थं॑ विचक्र्मा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः
विष्णोर्नु कं वीर्यणि प्र वोचं यः पार्थिवनि विम्मे रजांशी। यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमानस्त्रेधोरुगायः
विशोर नु कां वीर्यानि प्रा वोकां यां पार्थिवनि विममे राजंसी | यो अस्कभयद उत्तरम साधस्थां विक्रमांस त्रेधोरुगय: || (ऋग्वेद विष्णुसूक्त  1.1.154.1 )
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उक्त सूक्त से पता चलता है कि ऋग्वेद काल मे विष्णु भगवान देवता के रूप में पूजे जाते थे । 
जबकि तथाकथित इतिहासकारों के अनुसार विष्णु गुप्तकाल (300 ईसवीं )के भगवान हैं । इन इतिहासकारों के अनुसार सनातन धर्म नाम की कोई चीज नही होती हैं बल्कि वैष्णव धर्म , शैव धर्म , शाक्त धर्म आदि होते हैं । 

तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में मेगस्थनीज ने मथुरा को मेथोरा नाम  से संबोधित करके लिखा है कि यहां हर घर मे भगवान कृष्ण की पूजा होती है ।
दक्षिण भारत मे भी संगम काल मे (लगभग 300 ई पू ) हम्पी कर्नाटक में कृष्ण भगवान की मूर्ति प्राप्त हुई है । 
ईसा पूर्व करीब 150 वर्ष पूर्व का विदिशा म.प्र. के निकट यह हेलियोडोरस स्तंभ दरअसल गरूड़ ध्वज है, जो उस समय के विष्णु मंदिर के सामने था। एक ग्रीक राजदूत  हेलियोडोरस ने वैष्णव धर्म को स्वीकार कर यह स्तंभ लगवाया था, इसीलिए इसे हेलियोडोरस स्तंभ ( Heliodorus Pillar ) कहा जाने लगा। स्तंभ के चबूतरे पर खम्बे का इतिहास लिखा है, जिस पर वर्णन है इस खम्बे को खांब बाबा भी कहते हैं  ।

यदु- नन्द नन्दन देवकी- वसुदेव नन्दन वन्दनम् ।
मृदु चपल नयननम् चंचलम् मनमोहनम् अभिनन्दनम् ।।
योगेश्वरम् सर्वेश्वरम् राधेरमण ब्रजभूषणम् ।
हे! माधवम् मधुसूदनम् जय जयति जय नारायणम् ।।

आप सभी को जन्माष्टमी की शुभकामनाएं 

चित्र - बैक्ट्रिया (ताजिकिस्तान उज्बेकिस्तान) के ग्रीक राजा Agathocles Dikaios द्वारा जारी किया गया भगवान श्रीकृष्ण का सिक्का 180 BCE

शनिवार, 26 अगस्त 2023

जौहर

आज 26 अगस्त 1303 को जौहर_दिवस पर महाराणी माता पद्मिनी एवं साथ मे जौहर करने वाली सोलह हजार क्षत्राणियों को नमन 👏👏

करीब 700 वर्ष पूर्व सन 1303 को चितौड़ की महारानी मां पद्मनी ने सतीत्व की रक्षा के लिये 16000 राजपूतानियों व अन्य स्त्रियों तथा बालिकाओं के साथ जौहर किया था!


जौहर' एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर हमारी 'रुह कांप' जाती है, परन्तु उसके साथ ही साथ यह शब्द हिन्दू नारियों के अभूतपूर्व 'बलिदान' का स्मरण कराता हैँ! जो जौहर शब्द के अर्थ से अनभिज्ञ हैँ! उन्हेँ मेँ बताना चाहुँगा....॥ जब किसी हिंदू राजा के राज्य पर विधर्मी आक्रमणकारीयोँ का आक्रमण होता तो युध्द मेँ जीत की कोई संम्भावना ना देखकर क्षत्रिय और क्षत्राणी आत्म समर्पण करने के बजाय लड़कर मरना अपना धर्म समझते थे! क्योकिँ कहा जाता है ना "वीर अपनी मृत्यु स्वयं चुनते है!" इसिलिए भारतीय वीर और वीरांगनाए भी आत्मसमर्पण के बजाय साका +जौहर का मार्ग अपनाते थे! पुरुष 'केसरिया' वस्त्र धारण कर प्राणोँ का उत्सर्ग करने हेतु 'रण भूमि' मेँ उतर जाते थे! और राजमहल की समस्त महिलाएँ अपनी 'सतीत्व की रक्षा' हेतु अपनी जीवन लीला समाप्त करने हेतु जौहर कर लेती थी! महिलाँए ऐसा इसलिए करती थी क्योँकि मलेक्ष् आक्रमणकारी युध्द मेँ विजय के पश्चात महिलाओँ के साथ बलात्कार व नेक्रोफिलिया करते थे! और उन्हें सुल्तान के हरम में भेज देते थे ।  अत: हिन्दू स्त्रियां व बालिकाएं अपनी अस्मिता व गौरव की रक्षा हेतु जौहर का मार्ग अपनाती थी! जिसमेँ वे जौहर कुण्ड मेँ अग्नि प्रज्जवलित कर धधकती अग्नि कुण्ड मेँ कुद कर अपने प्रणोँ की आहुती दे देती थी!! जौहर के मार्ग को एक क्षत्राणी अपना गौरव व अपना अधिकार मानती थी! और यह मार्ग उनके लिए स्वाधिनता व आत्मसम्मान का प्रतिक था! ये जौहर कुण्ड ऐसी ही हजारोँ वीरांगनाओ के बलिदान का साक्ष्य हैँ! नमन है ऐसी  वीरांगनाओँ को...और गर्व है हमे हमारे गौरवपूर्ण इतिहास पर......


शनिवार, 5 अगस्त 2023

वैज्ञानिक प्रफुल्ल चंद्र राय

आज महान भारतीय वैज्ञानिक प्रफ़ुल चंंद्र राय का जन्मदिन है।
आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। वर्ष 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रसायन वर्ष के रूप में मनाया गया। भारत में इसका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि यह वर्ष एक मनीषी तथा महान भारतीय रसायनविज्ञानी  आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के जन्म का 150वाँ वर्ष भी था। आचार्य राय भारत में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक पुनर्जागरण के स्तम्भ थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आजादी की लड़ाई के साथ साथ देश में ज्ञान-विज्ञान की भी एक नई लहर उठी थी। इस दौरान अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने जन्म लिया। इसमे जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय, श्रीनिवास रामानुजन और चंद्रशेखर वेंकटरामन जैसे महान वैज्ञानिकों का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने पराधीनता के बावजूद अपनी लगन तथा निष्ठा से विज्ञान में उस ऊंचाई को छुआ जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। ये आधुनिक भारत की पहली पीढ़ी के वैज्ञानिक थे जिनके कार्यों और आदर्शों से भारतीय विज्ञान को एक नई दिशा मिली। इन वैज्ञानिकों में आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का नाम गर्व से लिया जाता है। वे वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक महान देशभक्त भी थे। सही मायनों में वे भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतीक थे। इनका जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर जिले के ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांगलादेश में है तथा खुल्ना जिले के नाम से जाना जाता है। 
प्रफुल्ल चंद्र राय को एडिनबरा विश्वविद्यालय में अध्ययन करना था जो विज्ञान की पढ़ाई के लिए मशहूर था। वर्ष 1885 में उन्होंने पी.एच.डी का शोधकार्य पूरा किया। तदनंतर 1887 में "ताम्र और मैग्नीशियम समूह के 'कॉन्जुगेटेड' सल्फेटों" के बारे में किए गए उनके कार्यों को मान्यता देते हुए एडिनबरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस.सी की उपाधि प्रदान की। उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें एक साल की अध्येतावृत्ति मिली तथा एडिनबरा विश्वविद्यालय की रसायन सोसायटी ने उनको अपना उपाध्यक्ष चुना। तदोपरान्त वे छह साल बाद भारत वापस आए। उनका उद्देश्य रसायन विज्ञान में अपना शोधकार्य जारी रखना था। अगस्त 1888 से जून 1889 के बीच लगभग एक साल तक डा. राय को नौकरी नहीं मिली थी। यह समय उन्होंने कलकत्ता में जगदीश चंद्र के घर पर व्यतीत किया। इस दौरान ख़ाली रहने पर उन्होंने रसायन विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन किया और रॉक्सबोर्ग की 'फ्लोरा इंडिका' और हॉकर की 'जेनेरा प्लाण्टेरम' की सहायता से कई पेड़-पौधों की प्रजातियों को पहचाना एवं संग्रहीत किया।
आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक "द ग्रीक एल्केमी" पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलाट के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक "रसेन्द्र सार संग्रह" पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा। बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा "जर्नल डे सावंट" में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।

१९१२ में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक यौगिकों के प्रथम विरचन से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

अनुसंधान
डाक्टर राय ने अपना अनुसंधान कार्य पारद के यौगिकों से प्रारंभ किया तथा पारद नाइट्राइट नामक यौगिक, संसार में सर्वप्रथम सन् 1896 में, आपने ही तैयार किया, जिससे आपकी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्रारंभ हुई। बाद में आपने इस यौगिक की सहायता से 80 नए यौगिक तैयार किए और कई महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्याओं को सुलझाया। आपने ऐमोनियम, जिंक, कैडमियम, कैल्सियम, स्ट्रांशियम, वैरियम, मैग्नीशियम इत्यादि के नाइट्राइटों के संबंध में भी महत्वपूर्ण गवेषणाएँ कीं तथा ऐमाइन नाइट्राइटों को विशुद्ध रूप में तैयार कर, उनके भौतिक और रासायनिक गुणों का पूरा विवरण दिया। आपने ऑर्गेनोमेटालिक (organo-metallic) यौगिकों का भी विशेष रूप से अध्ययन कर कई उपयोगी तथ्यों का पता लगाया तथा पारद, गंधक और आयोडीन का एक नवीन यौगिक, (I2Hg2S2), तैयार किया तथा दिखाया कि प्रकाश में रखने पर इसके क्रिस्टलों का वर्ण बदल जाता है और अँधेरे में रखने पर पुन: मूल रंग वापस आ जाता है। सन् 1904 में बंगाल सरकार ने आपको यूरोप की विभिन्न रसायनशालाओं के निरीक्षण के लिये भेजा। इस अवसर पर विदेश के विद्धानों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मानपूर्वक आपका स्वागत किया।

अन्य कार्य
विज्ञान के क्षेत्र में जो सबसे बड़ा कार्य डाक्टर राय ने किया, वह रसायन के सैकड़ों उत्कृष्ट विद्वान् तैयार करना था, जिन्होंने अपने अनुसंधानों से ख्याति प्राप्त की तथा देश को लाभ पहुँचाया। सच्चे भारतीय आचार्य की भाँति डॉ॰ राय अपने शिष्यों को पुत्रवत् समझते थे। वे जीवन भर अविवाहित रहे और अपनी आय का अत्यल्प भाग अपने ऊपर खर्च करने के पश्चात् शेष अपने शिष्यों तथा अन्य उपयुक्त मनुष्यों में बाँट देते थे। आचार्य राय की रहन सहन, वेशभूषा इत्यादि अत्यंत सादी थी और उनका समस्त जीवन त्याग तथा देश और जनसेवा से पूर्ण था।

सन् 1920 में आप इंडियन सायंस कांग्रेस के सभापति निर्वाचित किए गए थे। सन् 1924 में आपने इंडियन केमिकल सोसाइटी की स्थापना की तथा धन से भी उसकी सहायता की। सन् 1911 में ही अंग्रेज सरकार ने आपको सी. आई. ई. की उपाधि दी थी तथा कुछ वर्ष बाद "नाइट" बनाकर "सर" का खिताब दिया। इस तरह विदेशी सरकार ने अपनी पूर्व उपेक्षा का प्रायश्चित किया। अनेक देशी तथा विदेशी विश्वविद्यालयों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने उपाधियों तथा अन्य सम्मानों से आपको अलंकृत किया था।

प्रफुल्ल चंद्र राय को जुलाई 1889 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में 250 रुपये मासिक वेतन पर रसायनविज्ञान के सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया। यहीं से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन् 1911 में वे प्रोफेसर बने। उसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1916 में वे प्रेसिडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत हुए। फिर 1916 से 1936 तक उसी जगह एमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत रहे। सन् 1933 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय ने आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय को डी.एस-सी की मानद उपाधि से विभूषित किया। वे देश विदेश के अनेक विज्ञान संगठनों के सदस्य रहे।

अमोनियम नाइट्राइट का संश्लेषण

एक दिन आचार्य राय अपनी प्रयोगशाला में पारे और तेजाब से प्रयोग कर रहे थे। इससे मर्क्यूरस नाइट्रेट नामक पदार्थ बनता है। इस प्रयोग के समय डा. राय को कुछ पीले-पीले क्रिस्टल दिखाई दिए। वह पदार्थ लवण भी था तथा नाइट्रेट भी। यह खोज बड़े महत्त्व की थी। वैज्ञानिकों को तब इस पदार्थ तथा उसके गुणधर्मों के बारे में पता नहीं था। उनकी खोज प्रकाशित हुई तो दुनिया भर में डा. राय को ख्याति मिली। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया था। वह था अमोनियम नाइट्राइट का उसके विशुद्ध रूप में संश्लेषण। इसके पहले माना जाता था कि अमोनियम नाइट्राइट का तेजी से तापीय विघटन होता है तथा यह अस्थायी होता है। राय ने अपने इन निष्कर्षों को फिर से लंदन की केमिकल सोसायटी की बैठक में प्रस्तुत किया।

स्वदेशी उद्योग की नींव
उस समय भारत का कच्चा माल सस्ती दरों पर इंग्लैंड जाता था। वहाँ से तैयार वस्तुएं हमारे देश में आती थीं और ऊँचे दामों पर बेची जाती थीं। इस समस्या के निराकरण के उद्देश्य से आचार्य राय ने स्वदेशी उद्योग की नींव डाली। उन्होंने 1892 में अपने घर में ही एक छोटा-सा कारखाना निर्मित किया। उनका मानना था कि इससे बेरोज़गार युवकों को मदद मिलेगी। इसके लिए उन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ा। वे हर दिन कॉलेज से शाम तक लौटते, फिर कारखाने के काम में लग जाते। यह सुनिश्चित करते कि पहले के आर्डर पूरे हुए कि नहीं। डॉ. राय को इस कार्य में थकान के बावजूद आनंद आता था। उन्होंने एक लघु उद्योग के रूप में देसी सामग्री की मदद से औषधियों का निर्माण शुरू किया। बाद में इसने एक बड़े कारखाने का स्वरूप ग्रहण किया जो आज "बंगाल केमिकल्स ऐण्ड फार्मास्यूटिकल वर्क्स" के नाम से सुप्रसिद्ध है। उनके द्वारा स्थापित स्वदेसी उद्योगों में सौदेपुर में गंधक से तेजाब बनाने का कारखाना, कलकत्ता पॉटरी वर्क्स, बंगाल एनामेल वर्क्स, तथा स्टीम नेविगेशन, प्रमुख हैं।