बुधवार, 19 जुलाई 2023

क्रांतिकारी वीर हलधर बाजपेई


क्रांतिकारी वीर योद्धा पंडित हलधर बाजपेई
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हलधर बाजपेई चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह के साथी व हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सक्रिय सदस्य थे |
कानपुर देहरादून षड्यंत्र केस के संदर्भ में 12 अगस्त 1932 की रात कानपुर में पुलिस ने शहर में लगभग 30 - 32 घरों में एक साथ छापा मारा उसमें से परमट , कुरसवां और कछियाना मोहाल प्रमुख थे | कानपुर इलेक्ट्रिसिटी दफ्तर मे काम करने वाला युवक हलधर फूलबाग के सामने कुरसवां की सकरी गली में बड़ी तेजी से घुसा और अपने मकान में ऊपर के कमरे में पहुंचकर पिस्तौल छोटे-मोटे घातक औजार व क्रांतिकारी साहित्य को इकट्ठा करके हटाने की योजना बना ही रहा था की पुलिस पार्टी मकान में दाखिल हुई | पुलिस पार्टी को जीने का दरवाजा खुला मिला तो वह  धड़धड़ाते हुए हुए ऊपर चढ़ने लगी | हलधर बाजपेई छत पर अपने कमरे में सामान इकट्ठा कर ही रहे थे कि उन्होंने सीढ़ियों पर पुलिस पार्टी के आमद की आहट से सशंकित हो उठे थे और  जीने से छत पर आने वाला दरवाजा को तुरन्त बंद किया और पिस्तौल व गोलियां लेकर ऊपर चढ़ गए पुलिस ने दरवाजा तोड़ा तो हलधर बाजपेई पिस्तौल ताने दरवाजे पर ताक लगाए वीरासन मुद्रा में बैठे दिखे जरा सा भी दरवाजा खुलता तो हलधर बाजपेई तुरंत पिस्तौल दाग देते और दरवाजा बंद हो जाता | पुलिस की भी बंदूके  गरज उठती  वहां निशाना साधने को ताब कहां थी ? रात भर हलधर बाजपेई जी और पुलिस दोनों तरफ से गोलियां चलती है छत वाले कमरे की एक दीवार का एक भाग और दरवाजे के ऊपर अगल-बगल की दीवाले गोली चलने से छलनी हो गई |  इस बीच पुलिस ने आंगन का दरवाजा भी खोल डाला और आंगन से भी गोलियां चलाने लगी पुलिस की टुकड़ी से घर के आस-पास  गोलियों के चलने से वातावरण गूंज उठा | उधर हलधर की पत्नी भी मौका देख अपने पति के कमरे में दाखिल होकर मोर्चे पर आ डर्टी वह पिस्तौल भर भरकर हलधर को देती जाती और  हलधर दोनों तरफ ताक लगाए रहते जैसे ही किसी को झांकते देखते या फिर सिर देखते तो फायर ठोक देते | रात के सन्नाटे मे  हलधर और पुलिस वालों की आवाज भी रह रहकर सुनाई देती ? कोई छत पर मत आना ,सब लोग घरों के अंदर रहे " सवेरा होते होते पुलिस टीम बढ़ती  चली गई | पुलिस वाले कहीं से हलधर बाजपेई के पिता मुरलीधर बाजपेई जी को पकड़ लाए और पुलिस का दरोगा असगर अली मुरलीधर जी को आगे करके आंगन में निकल आया और हलघर बाजपेई पर गोलियां चलाने लगा | लेकिन हां जरा सा मौका मिला तो हलधर ने ऐसा निशाना साधा की गोली सीधे असगर अली के पेट में जा लगी और वह पेट पकड़कर वही लेट गया |  सुबह हुई पुलिस कप्तान  मार्श स्मिथ भी हलधर के पिता मुरलीधर जी की ओट लेकर आंगन में आ गया हलधर ने फिर गोली चलाई जो मार्स स्मिथ के कंधे पर जा लगी  | हलधर के पिता ने अपील की कि बेटा-  अब बहुत हो चुका तुम्हें अब गिरफ्तार होना ही पड़ेगा |  इसके बाद पिता के कहने पर  हलधर बाजपेई ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया | लेकिन हलधर बाजपेई हंस रहे थे और मार्स स्मिथ भी हलधर की वीरता और साहस को देखकर दंग था | पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जिसमें उन्हें 6 वर्ष की कड़ी कैद की सजा दी गई |

1950 में आसाम में भूकंप पीड़ितों की सहायता करते हुए मुंबई कांग्रेस के जत्थे के साथ गए जहां पर 18 अक्टूबर 1950 को मलवा साफ करने के दौरान अचानक एक दीवार गिरने से भारत माता का यह सपूत हलधर बाजपेई समाज सेवा करते करते शहीद हो गया |

           ( ✍️ अनूप कुमार शुक्ल
 महासचिव कानपुर इतिहास समिति कानपुर)

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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

रमा खंडवाला:


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रमा खंडवाला: 

सिर्फ एक टूर गाइड नहीं, वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज में सेकंड लेफ्टिनेंट भी थी
अगर अपने शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा अभिनीत "जब हैरी मेट सेजल" देखी होगी तो उसमें एक टूर गाइड की भूमिका में एक वृद्धा को एक छोटे से,  मगर यादगार रोल में भी देखा होगा. 

यह 94-वर्षीय रमा खंडवाला हैं।  वह मुंबई की  नियमित टूरिस्ट गाइड रही हैं. यह काम उन्होंने अब से लगभग पचास वर्ष पूर्व नेताजी सुभास चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज से क्रियाशीलता खत्म होने के बाद आजीविका के लिए करना शुरू किया था. क्योकि सरकार द्वारा आजाद हिंद फौज के सैनिकों को युद्ध अपराधी मानते हुए पेंशन नही दी गयी । वह १७-वर्ष की आयु में नेताजी की सेना की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन में एक सिपाही के रूप में भर्ती हुई थीं और अपनी निष्ठा, समर्पण और जूनून से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद तक जा पहुंची. 
अभी मुंबई के गिरगांव क्षेत्र में अपने एक कमरे के छोटे से फ्लैट में रहने वाली रमा का जन्म रंगून के एक सम्पन्न मेहता परिवार में हुआ था. रमा को इस भर्ती के लिए किसी और ने नहीं उसकी अपनी माँ ने प्रेरित किया था जो स्वयं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रानी लक्ष्मी बाई बटालियन की भर्ती इंचार्ज थी। उनका मानना था कि अंग्रेजों को भारत  से भगाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस से बेहतर कोई विकल्प नहीं था.

रमा का नेताजी से पहला सामना अचानक तब हुआ जब वह प्रशिक्षण केंद्र के इलाके की देखरेख करते हुए एक खाई  में गिरकर घायल हो गई. यहाँ शत्रु पक्ष की सेना ने भयंकर गोलाबारी की थी. आनन-फानन में उसे अस्पताल ले जाया गया. वहां घायलो को देखने सुभाष चंद्र बोस आये थे . वह यह देखकर विस्मित हो गए कि एक कम उम्र की लड़की जिसके पैरों से कई जगह से लगातार खून बह रहा था, वह सामान्य रूप से अपनी मरहम-पट्टी कराए जाने का इंतजार कर रही थी. उसकी आंखों में कोई आँसू  नहीं थे. उन्होंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 
“यह  तो एक शुरुआत भर है. ..एक छोटी-सी दुर्घटना थी. अभी बहुत बड़ी लड़ाइयों के लिए कमर कसनी है. देश की आजादी के जूनून में रहना है तो हिम्मत बनाये रखो. तुम जैसी लड़कियों के जूनून से ही हम,हमारा भारत देश आजाद हो कर रहेगा.”

रमा की आँखों में हिम्मत और ख़ुशी के आँसू निकल आए. वह जल्दी ही स्वस्थ होकर फिर से अपनी बटालियन के कामों में जुट गई. उसने जल्दी ही निशानेबाजी, घुड़सवारी और सैन्य बल में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने वाले सब गुणों को सीख लिया था. उसका जूनून उसे किसी काम में आगे बढ़ने के लिए मदद करता. उसकी लगन के कारण ही रमा को जल्दी ही सिपाही से सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर प्रोन्नत कर दिया गया. 

रमा का कहना है कि अभी भी जब वह किसी असहज स्थिति में फंस जाती है तो नेताजी के शब्द “आगे बढ़!” उसके कानों में इस तरह से गूँज जाते हैं कि वह अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाती है. 

रमा बताती हैं कि, 

“युवा अवस्था में जीवन के वैभव और सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर संघर्ष का पथ चुनना बहुत कठिन फैसला होता है. मैं भी आरंभिक दिनों में इतनी परेशान रहती थी कि अकेले में दहाड़ मार कर रोया करती. पर धीरे-धीरे समझ में आ गया. फिर, जब नेताजी से स्वयं मुलाकात हुई तो उसके बाद तो फिर कभी पीछे मुड़कर देखा ही नहीं. आरम्भिक दो महीनों मुझे जमीन पर सोना पड़ा. सादा भोजन मिलता था और अनथक काम वो भी बिना किसी आराम के करना बहुत कष्टकर था. मैंने मित्र भी बना लिए थे. जब बड़े उद्देश्य के विषय में समझ आया तो कुछ भी असहज नहीं रहा.”

रमा की तैनाती एक नर्स के रूप में हुई जिस जिम्मेदारी को भी उसने बखूबी निभाया.  उसके लिए अनुशासन, समय का महत्त्व, काम के प्रति निष्ठा और जूनून-- बस इन्हीं शब्दों की जगह रह गई थी. पहले उसे प्लाटून कमांडर बनाया गया और फिर सेकंड लेफ्टिनेंट. 
जब आजाद हिन्द फ़ौज को ब्रिटिश सेना ने कब्जे में ले लिया तो रमा भी गिरफ्तार हुई. उसे बर्मा में ही नजरबंद कर दिया गया. सौभाग्य से जल्दी ही देश आजाद हो गया. तब वह मुंबई चली आई. उसका विवाह हो गया था. आजीविका के लिए पति का साथ देने का निश्चय किया. पहले एक निजी कंपनी में सेक्रेटरी का काम किया, फिर टूर गाइड बनी. 

तब से अब तक वह सैलानियों को पर्यटन के रास्ते दिखाती रही है और तमाम किस्से सुनाया करती है. एक बार सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उन्हें राजनीतिक धारा में भाग लेने का आमन्त्रण भी दिया था, पर तब वह हवाई दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु के समाचार से इतनी विचलित हो गई थी कि उसने राजनीति से दूर रहना ही उचित समझा. 

बमुश्किल दो साल पहले ही उसने टूर गाइड के काम को विदा कहा है, पर अभी भी वह पूरी तरह स्वस्थ और मजाकिया है. कहती हैं, 

“उम्र के कारण नहीं छोड़ा,  इसलिए छोड़ा है कि नई पीढी के लोगों को रास्ते मिलें. मेरी पारी तो खत्म हुई.”

उनके एक बेटी है. पति की मृत्यु सन १९८२ में हो गई थी. सन २०१७ में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उनको बेस्ट टूरिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया था. उनके जीवन पर एक वृत्त फिल्म भी बनी है, और एक किताब ‘जय हिन्द’ भी प्रकाशित हुई है. 

सादर शत शत नमन आपको 🙏🙏🙏

००००
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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक


लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

कई क्रांतिकारियों ने पत्रकारिता के माध्यम से स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वाधीनता के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने का कार्य किया। जिनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक प्रमुख व्यक्ति थे।

यह तिलक ही थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष को ‘स्वराज्य’ का नारा देकर जन-जन से जोड़ दिया। उनके ‘स्वराज्य’ के नारे को ही आधार बनाकर वर्षों बाद महात्मा गाँधी ने स्वदेशी आंदोलन का आगाज़ किया था। 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में जन्में बाल गंगाधर तिलक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। वे उस दौर की पहली पीढ़ी थे, जिन्होंने कॉलेज में जाकर आधुनिक शिक्षा की पढ़ाई की।

वे भारतीयों को एकत्र कर, उन्हें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़ा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने नारा दिया,

“स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा।”
उनका यह नारा धीरे-धीरे लगभग पूरे भारत की सोच बन गया। तिलक की क्रांति में उनके द्वारा शुरू किये गये समाचार-पत्रों का भी ख़ास योगदान रहा। उन्होंने दो समाचार पत्र, ‘मराठा‘ एवं ‘केसरी‘ की शुरुआत की। इन पत्रों को छापने के लिए एक प्रेस खरीदा गया, जिसका नाम ‘आर्य भूषण प्रेस‘ रखा गया। साल 1881 में ‘केसरी’ अख़बार का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इन अख़बारों में तिलक के लेख ब्रिटिश शासन की क्रूर नीतियों और अत्याचारों का खुलकर विरोध करते थे।धीरे-धीरे वे आम जनता की आवाज़ बन गये और इसकी वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ‘मराठा’ और ‘केसरी’ की प्रतियाँ भी वे खुद घर-घर जाकर बांटते। उन्होंने कभी भी अपने अख़बारों को पैसा कमाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया। उनके समाचार पत्रों में विदेशी-बहिष्कार, स्वदेशी का उपयोग, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आधार बनाया गया। अपने इन्हीं स्पष्ट और विद्रोही लेखों के कारण वे कई बार जेल भी गये। इसके बावजूद, तिलक पत्रकारिता के लिए पूर्णतः समर्पित थे और हमेशा अपने विचारों और उसूलों पर अडिग रहे।अपने इसी निडर और दृढ़ व्यक्तित्व के कारण उन्हें आम लोगों से ‘लोकमान्य’ की उपाधि मिली। इतना ही नहीं, उनके लेख युवा क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें। उनका लेखन एवं मार्गदर्शन क्रांतिकारियों को ऊर्जा प्रदान करता था। इसलिए अंग्रेज़ी सरकार हमेशा ही तिलक और उनके अख़बारों से परेशान रहती थी। मांडले (म्यांमार) की जेल में उन्होंने ' गीता रहस्य' पुस्तक लिखी । जो कि हिन्दू धर्म और दर्शन का महान ग्रंथ है । 

जहाँ एक तरफ वे अंग्रेज़ों के लिए “भारतीय अशान्ति के जनक” थे, तो दूसरी तरफ़ लोग उन्हें अपना ‘नायक’ मान चुके थे। पर भारत का यह ‘लोकमान्य नायक’ स्वाधीनता का सूर्योदय होने से पहले ही दुनिया को अलविदा कह गया। 1 अगस्त 1920 को तिलक का निधन हुआ।

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भारतीय इतिहास में नक्शो का फर्जीवाड़ा

इतिहास की किताबों में नक्शो का फर्जीवाड़ा 

इतिहास की किताबों में सुल्तानों बादशाहों के राज्य के नक्शे दिखाए जाते हैं । जिससे पता चलता है कि उनके राज्य की सीमा कितनी थी , कितने भू भाग में उनका शासन था ।

लेकिन हमारे देश के इतिहासकार इसमें भी फर्जीवाड़ा करने से बाज नही आये । भाटों और चाटुकारों की तरह उन्होंने ऐसे नक्शे बनवाये जिसमे सुल्तानों का साम्राज्य बड़ा विशाल दिखाई दे । जबकि सत्यता कुछ और ही है। 
दो उदाहरण काफी है इस कपट को समझने के लिए l उत्तराखंड या गढ़वाल राज्य जिसे पुराणों में केदारखंड या हिमावत कहा गया है , अतिप्राचीन काल से सन 1816 तक हिन्दू राजाओं के आधिपत्य में रहा । यहां सन 822 से 1803 तक (1000 वर्ष तक लगातार ) पाल वंशीय क्षत्रियों का राज्य था और 1803 से गोरखों का राज्य हुआ । 1816 की एक संधि में यह राज्य अंग्रेजो के पास चला गया ।
सन 1200 से 1700 तक गढ़वाल राज्य पर अनेकानेक मु"स्लिम आक्रमण हुए । प्रत्येक बार आक्रमणकारियों की पराजय हुई । रानी कर्णावती को नाक काटने वाली रानी की संज्ञा दी जाती है । यह राज्य हमेशा स्वतंत्र रहा । फिर भी इतिहास लेखन फर्जीवाड़े के तहत इस क्षेत्र को नक्शों में खिलजी साम्राज्य और मुगल साम्राज्य का भू भाग दिखाया जाता है । 
गढ़वाल की तरह अन्य राज्य भी ऐसे थे जिनको भी इतिहासकारों ने इसी तरह नक्शो में जबरन घुसा दिया । 
इसी तरह तुगलक साम्राज्य का नक्शा देखे । जिसमे पूरे राजस्थान को साम्राज्य का हिस्सा दिखाया गया है । एक बार मोहम्मद बिन तुगलक ने राजस्थान पर आक्रमण करने की जुर्रत की थी । मगर मेवाड़ के राणा हम्मीर सिंह ने न केवल उसे पराजित किया बल्कि मेवाड़ की जेल में महान तुगलक सुल्तान को तीन महीने कैद कर के रखा । फिर राणा साहब ने दरियादिली दिखाते हुए जुर्माना ले कर सुल्तान को छोड़ दिया । फिर भी कपटी इतिहासकारो ने नक्शे में पूरे  राजस्थान को तुगलक साम्राज्य का हिस्सा दिखा दिया । 
बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि इन नक्शो में दिखाए गए तथाकथित विशाल साम्राज्य के दर्शाए गए क्षेत्र वास्तविकता में आधे भी इनके अधीन शासन में नहीं थे । 
हालांकि कुछ इतिहासकारों की पुस्तकों में सही नक्शे मिलते है , लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है । 
इतिहास के नक्शों का फर्जीवाड़ा हमारे बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में भी है और प्रतियोगिता परीक्षाओं की किताबो में भी हैं ।

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बुधवार, 5 जुलाई 2023

उद्योगपति और सरकार

पहले टाटा-बिरलाकरण होता था , अब अम्बानीअदाणीकरण हो रहा है !!!

चुनाव लड़ने के लिए पार्टी फण्ड में पैसा गरीब मजदूर किसान नही देता है , न ही हम और आप देते है । बड़े व्यापारी उद्योगपति ही पार्टियों को करोड़ों रुपये का फंड देते है ।

उद्योगपति फ्री में पैसा नही देता है, मुफ्त दान नही करता है । वह निवेश करता है , और चुनाव के बाद अपने निवेश की फसल काटता है । देश मे यह सिस्टम 1952 से लागू है । राजनीतिक पार्टी का आका बन कर उद्योगपति अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है , अपने फायदे के नियम और नीतियां बनवाता है, टैक्स सिस्टम बनवाता है , सरकारी कम्पनियों को खरीदता है और फिर अपने बिज़नेस में प्रॉफिट बढ़ाता है । 
नेहरू इंदिरा गांधी के समय टाटा बिरला उद्योग जगत में छा गए थे । राजीव गांधी के समय बजाज छा गए ।  क्वात्रोचि ने खूब मलाई काटी । मनमोहन सिंह के समय देश का विजय माल्याकरण हुआ , उनको कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा । कार्तिक चिदंबरम , दामाद जी आदि ने जम के पैसा लूटा । 
पार्टी फण्ड में करोड़ों रुपये ले कर केजरीवाल ने बिज़नेसमैन नारायण गुप्ता , सुशील गुप्ता को राज्यसभा में भेजा , अब ये भी अपने बिजनेस में प्रॉफिट की फसल काटेंगे । 

समाजवादी पार्टी के फिनांसर सहारा ग्रुप के सुब्रतराय , ममता बनर्जी की पार्टी के फिनांसर शारदा ग्रुप के बारे में आपको पता ही है । केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के फिनांसर सोने की स्मगलिंग में शामिल है । 

दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के लोकतंत्र की  यही परंपरा रही है  😥😥😥😥 इसी व्यवस्था से राजनीतिक पार्टियों को फंड मिलता है । अम्बानी अडानी मोदी बीजेपी को कोसने से कुछ नही होगा , पूरी राजनीतिक वित्तीय व्यवस्था ही ऐसी बनी हुई है ।

इससे नुकसान यही है कि देश की अधिकांश पूंजी मात्र कुछ व्यापारियों के हाथ मे इकट्ठा हो जाती है , गरीब जनता और गरीब होती जाती है । देश की नीतियां गरीब मजदूर किसान के हित में नही बल्कि फण्ड देने वाले आका व्यापारी के हित में बनती है । अमीर उद्योगपति और ज्यादा अमीर होता चला जाता है , देश मे आर्थिक असमानता की खाई बढ़ती जाती है। 

इसका एक हल यह है कि चुनाव के समय प्रचार का पूरा खर्च सरकार खुद उठाये (स्टेट फंडिंग) जिससे नेताओ को उद्योगपतियों से पैसे न लेने पड़े । लेकिन इसकी भी हानियां हैं ।

और भी कई समाधान हो सकते हैं , जिसे आपलोग कमेंट में बताएं ।

DrAshok Kumar Tiwari 🙏
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छत्रपति शिवाजी

शिवाजी महाराज ने भारत की प्राचीन राज्यव्यवस्था का और राजधर्म का बड़ी गहराई से अवलोकन किया था । उन्होंने अपने यौवन का सदुपयोग जहां बड़ी बड़ी जीतों को प्राप्त करने में किया , वहीं उन्होंने भारतीय राजधर्म की शिक्षा लेने के लिए भी अपना मूल्यवान समय लगाया । यही कारण रहा कि वह भारत के राजधर्म की गहराई को समझ गए थे। शिवाजी ने अपने समकालीन शासकों को देखा था कि उनका शासन पूर्णतया अनुत्तरदायी था और वे निरंकुशता में विश्वास रखते थे। स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश होकर ये शासक अपनी प्रजा पर शासन करते थे , जबकि शिवाजी एक पूर्ण उत्तरदायी शासन की व्यवस्था देने के पक्षधर थे।
एक जनहितकारी शासक और शासन के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें मर्यादा , जनता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध हर पग पर होता है । शिवाजी इसी प्रकार के शासन के पक्षधर थे। यही कारण है कि उनके साम्राज्य में शासन की नीतियों में प्रजावत्सलता , अनुशासन, मर्यादा और उत्तरदायित्व का बोध स्पष्टत: झलकता था । शिवाजी महाराज की प्रबंधन नीतियाँ आधुनिक काल की निगम-नीतियों से कई गुणा अधिक परिपूर्ण थीं ,क्योंकि वह लोगों के लिए हितकारी होने के साथ-साथ बहुत ही व्यवहारिक एवं पारदर्शी भी थीं ।

आधुनिक प्रबंधन की परिभाषा में कुशल नेतृत्व वह है जो जनता को सारे मौलिक अधिकारों को प्रदान करे , और उसके कल्याण के लिए अच्छी से अच्छी योजनाएं लागू करने में विश्वास रखता हो । साथ ही सामाजिक ,आर्थिक , एवं राजनीतिक न्याय प्रदान करते समय जनता के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव न करता हो । ऐसे शासक की दृष्टि और दृष्टिकोण में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं होती । वह विशालहृदयता के साथ और उदारमना होकर अपने लोगों के कल्याण में रत रहता है । 

नेतृत्व केवल सपने ही नहीं देखता है ,अपितु सपनों को साकार रूप देकर उन्हें यथार्थ के धरातल पर लागू भी करता है और जब वह सपने सही अर्थों , संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में लागू हो जाते हैं या व्यावहारिक स्वरूप ले लेते हैं , तभी किसी शासक के नेतृत्व और उसके प्रबंधन के गुणों की सही परख हो पाती है । इस प्रकार नेतृत्व और प्रबंधन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । नेतृत्व के लिए आवश्यक है कि उसकी नीतियों में उसकी प्रजा के लोग स्वाभाविक रूप से न केवल रुचि रखते हों , अपितु उसे अपना समर्थन भी व्यक्त करते हों । साथ ही प्रबंधन की उसकी नीतियों को स्वीकार करते हुए उसके पूरे तंत्र के साथ स्वाभाविक रूप से अपना समर्थन व्यक्त करते हों और उसके साथ समन्वय स्थापित कर उसी दिशा में जोर लगाते हों ,जिस दिशा में प्रबंधन तंत्र स्वयं बल लगा रहा हो । जब ऐसी स्थिति किसी राज्य में स्थापित हो जाती है तो तब समझना चाहिए कि राजा और प्रजा के बीच बहुत ही सुंदर समन्वय है । शिवाजी के समकालीन शासक अर्थात मुगल लोग अपने प्रजाजनों के साथ ऐसा संबंध में कभी भी स्थापित नहीं कर पाए । यही कारण रहा कि उनके विरुद्ध जनांदोलन होते रहे और विद्रोह की स्थिति में रहने वाले प्रजाजन सदैव ही अशांत और असंतुष्ट रहे । शिवाजी ने ऐसा अवसर अपने लोगों को नहीं दिया और यही उनकी महानता का एक बड़ा कारण था ।

शिवाजी महाराज ने देशहित में और भारतीय संस्कृति की रक्षार्थ जिस राज्य की नींव रखी , वह अधिक देर तक इसीलिए स्थापित रहा कि उसकी स्थापना करने में शिवाजी जनहित को साधना था । वह चाहते थे कि भारत में वास्तविक जनतंत्र की स्थापना हो और राजा अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्यभाव से भरा हो । विद्वानों का निष्कर्ष है कि शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की पक्की नींव सामरिक, नैतिक तथा शिष्ट व्यावहारिक परंपराओं पर रखी । जहाँ मुग़ल एवं क्षेत्रीय सल्तनतों के लगातार के आक्रमणों से थककर या डरकर कोई और राजा अपनी पराजय स्वीकार कर लेता वहीँ शिवाजी महाराज वीरता और आक्रमकता से डटकर उनका सामना करते रहे । युद्ध के समय में नियोजन कुशलता, किसी भी व्यक्ति की सही परख, समय का सम्मान और अनुशासन जैसे गुण उनके कुशल नेतृत्व के साक्षी हैं । इसी नेतृत्व में मुट्ठी भर सैनिक हजारों की सेना से लड़ते हुए विजयश्री प्राप्त कर लेते थे । एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण करने का उनका सपना और दृढ़ संकल्प ही वास्तव में उनकी सफलता का आधार था । उनके अनुयायियों में उनके लिए प्रगाढ़ श्रद्धा, सम्मान और निष्ठा का कारण उनका महान नेतृत्व कौशल तथा उच्च नैतिक चरित्र है । आज भी शिवाजी महाराज को एक न्यायसंगत एवं कल्याणकारी राजा और नायक के रूप में ही स्मरण किया जाता है ।

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शिक्षक परामर्शदाता

 क्या एक शिक्षक परामर्शदाता भी हो सकता है?


स्कूल और कॉलेज में आपके बीते दिनों को याद करें और अपने प्रिय शिक्षक के बारे में सोचें।  उनको किस बात ने इतना विशेष बनाया ? कुछ ऐसे है जिन्हे आप उनके आकर्षक तरीके से अध्ययन कराने के तरीके के कारण याद करते हैं, पर कुछ ऐसे भी है जो छात्रों के प्रति सहयोगी व्यवहार और सहानुभूति भाव दिखाते हैं और इस कारण आप उन्हे सानुराग याद करते हैं ।  एक श्रेष्ठ शिक्षक अक्सर दोनों का मिश्रण होता है।


जैसा कि हम सभी को मालूम है कि छात्र अपने वयस्क होने की उम्र का आधा समय स्कूल व कॉलेज में बिताते हैं, छात्रों के व्यक्तित्व को आकार देने में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  स्कूल के परामर्शदाता अनेक मुद्दे सुलझाने के लिए प्रशिक्षित होते हैं जैसे कि टूटे-रिश्ते, माँ-बाप के साथ तनावपूर्ण संबंध, आत्म-सम्मान और देह-छवि समस्याएं, व्यसन और आत्महत्या के विचार या सम्भावित पेशा मार्ग, एक शिक्षक जो छात्रों के साथ लगातार संपर्क में रहता है, छात्रों के साथ बात-चीत भी शुरु कर सकता है और उन्हे अपनी समस्याओं को बताने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। यह परामर्शदाता की भूमिका को शैक्षणिक ढाँचे में अनिवार्य बनाता है, और छात्रों के लिए परिसर में सहायता पहुंचाने हेतु शिक्षक एक प्राथमिक स्रोत बन सकता है।


केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) भारत ने इस बात की सिफारिश की है कि विद्यालय परिसर में एक पूर्णकालिक परामर्शदाता को नियुक्त किया जाए, लेकिन यह ज्यादातर कार्यान्वित नहीं हुआ है।  कभी-कभी यह स्कूल-व्यवस्था की अनिच्छा, और अक्सर प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की अनुपलब्धता होने का परिणाम है।  दूसरी चुनौती है कि जब छात्र अपने आप को परेशान स्थितियों में पाता है तो स्कूल के परामर्शदाता से मिलने मे हिचकता है।  इस अंतर को भरने में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। एक शिक्षक जिसपर विश्वास किया जा सके और जो सहानुभूति रखता हो, छात्रों को सहायता पहुंचा सकता है और जब जरूरत हो स्कूल के परामर्शदाता की ओर मार्गदर्शित कर सकता है।  यद्यपि, ऐसा करने के लिए हर शिक्षक के पास एक जैसे गुण नहीं होते।


इस भूमिका को कौन निभा सकता है?


छात्रों के लिए यह आसान नहीं कि वे शिक्षक से अपनी सारी समस्याएं बता दें।  यह शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे उदार-चित्त और सहायता करने के लिए इच्छुक हों।  यदि एक शिक्षक हमराज़ होना चाहता है तो छात्रों के मन में उसके प्रति विश्वास होना आवश्यक है। 


ऐसे कुछ गुण जो छात्रों को शिक्षक से बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं:


दृष्टिकोण में निष्पक्षतावाद: एक शिक्षक द्वरा छात्र को व्यक्तित्व या शैक्षिक रिकार्ड के आधार पर, किसी वैयक्तिक पक्षपात रहित निष्पक्षतावाद के ढंग से देखना चाहिए।पुराने लोग: एक पुराना व्यक्ति जो संस्था के साथ लम्बे समय से जुड़ा है, वातावरण और छात्रों को जानता है, भी परामर्शदाता की भूमिका के लिए एक आदर्श उम्मीदवार है।  एक शिक्षक जो छात्रों को सुलभ से उपलब्ध होता है, परामर्श-सेवा हेतु पहचाना और प्रशिक्षित किया जा सकता है। सक्रिय रूप से सुनने की कौशलता: छात्र जो कह रहे हैं, शिक्षक को उनकी बातों में स्वाभविक रुचि दिखाना जरूरी है। उन्हें स्वयं पर नियंत्रण रखने का अभ्यास होना चाहिए, उनमें धैर्यता होना जरूरी है, उन्हे सिर हिलाकर और छात्रों के संकेतों पर अनुक्रिया देकर सहिष्णुता और सहायता पहुँचाने हेतु शारीरिक हाव-भाव दिखाने की कोशिश करनी चाहिए।उच्च स्तर की सत्यनिष्ठा: यदि छात्र अपनी सबसे बड़े कठिनाई-भरे मुद्दों को बतलाता है तो शिक्षक का विश्वसनीय होना जरूरी है, जो किसी अन्य से ना बताएं या उससे भी बदतर, उसपर गपशप ना करें।  उदाहरण के लिए, यह विश्वास आए बिना कि जिस व्यक्ति से वे बातें कर रहे हैं वह विश्वसनीय है या नहीं, कोई छात्र अपने अशांत परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में बात करना नहीं चाहेगा।सहानुभूतिपूर्ण और गंवेषणात्मक: शिक्षक को सहानुभूति होना चाहिए क्योंकि यह छात्र के परिपेक्ष्य से जुड़े मुद्दे को समझने में मदद करता है।  उसी तरह, उनके पास बातचीत की युक्ति की कौशलता होनी चाहिए जिससे हल निकाले जाने के लिए छात्र के मन की बात अधिक से अधिक जान सकें।

जब एक छात्र उनके पास आएं तो एक शिक्षक को क्या करना चाहिए:


मेल-जोल बढ़ाएं: यह पहला चरण है जो एक शिक्षक-परामर्शदाता को उठाना चाहिए।  छात्र को अपनी उपस्थिति में तब तक सहज महसूस कराएं जब तक कि वह अपनी बातें सहजता से करना शुरु न कर दें ।  याद रखें कि छात्र आपको विश्वसनीयता की कसौटी पर नापने की कोशिश करता है।  इस पड़ाव पर मौखिक तथा हाव-भाव से मिश्रित सम्प्रेषण का उपयोग करना महत्वपूर्ण है।छात्रों को स्वयं से अभिव्यक्ति की अनुमति दें: जब छात्र सामना की जा रही चुनौतियों के बारे में बातें करना शुरु करता है, तो उन्हे गहराई में उतरने दें।  छात्र की बातों को बिना टोके हर वो बात सुनें जो वह कहना चाहता है।  शिक्षक के रूप में भी, आप छात्र के विचारों को पदच्छेद करके सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपने समस्या को सही तरीके से समझ लिया है।  यह उनके विचारों में स्पष्टता प्रदान करेगा।  “मैंने इस तरह से तुम्हारी सारी समस्या को समझ लिया है और मुझे विश्वास है कि तुम इसका समाधान इस तरह से कर सकोगे।  तुम्हें क्या लगता है?” यह एक तरीका हो सकता है।  छात्र को तुरंत समाधान प्रदान करने के बदले में समस्या से पार पाने के विचारों तक पहुंचने में सहायता करें या समस्या का समाधान करें।गैर-निर्णायक रहें: शिक्षक को छात्र के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और संवेदनशील रहना चाहिए।  उदाहरण के लिए, यदि एक छात्र आकर कहता है कि वह एक दिन में 60 सिगरेट पी गया, तो शिक्षक को यह नहीं कहना चाहिए “अरे, यह बुरी बात है!” उन्हे आत्म-संयम से रहना आवश्यक है।भावनाओं में एकरूपता का होना: शिक्षक के रूप में, व्यक्ति को अपने विचारों तथा भावनाओं में स्थिर होना चाहिए।  उन्हें प्रयत्न करना चाहिए कि वे उनकी मनोदशा तथा भावनाओं को उस छात्र पर ना थोपें जो उनके पास सहायता माँगने आता है।  उन्हे अपनी गंभीरता को बनाएँ रखना होगा।पूर्णरूप से गोपनीयता बनाएँ रखें:छात्र को भरोसा दें कि वे जो बातें बताते है वह गोपनीय ही रहेंगी और किसी से नहीं बताई जाएंगी (यदि छात्र द्वारा कही गई बातें स्वयं या किसी और को नुकसानदाई हो सकती हैं, तो यह स्कूल प्रबंधन के ध्यान में लाना जरूरी है)।

इसके साथ में, स्कूल प्रबंधन ऐसे शिक्षकों की पहचान कर सकता है जिनको छात्रों को परामर्श देने हेतु प्रशिक्षित किया जा सकता है।


(इस विषय-वस्तु को जैन विश्वविद्यालय, बेंगलूर की डॉ. उमा वारियर, मुख्य परामर्शदाता के द्वारा व्यक्त विचारों से लिया गया है।)