बुधवार, 27 नवंबर 2024

ब्रम्हरन्ध

 सायर नाही सीप बिन, स्वाति बूंद भी नाहि।

कबीर मोती नीपजे, सुन्नि सिषर गढ़ माहिं।। 


 अर्थात कबीर दास जी अपनी इस साखी में कहते हैं कि शरीर रूपी किले में सुषुम्ना नाड़ी के ऊपर स्थित ब्रह्मरंध्र में ना तो समुद्र है, ना ही सीप है और ना ही वहाँ पर स्वाति नक्षत्र की बूंद है, फिर भी वहाँ मोक्ष रूपी मोती उत्पन्न होता है अर्थात एक अद्भुत दिव्य ज्योति का दर्शन हो रहा है।


ब्रह्मरंध्र का उल्लेख योग और तंत्र शास्त्रों में अत्यधिक महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में किया गया है। यह शरीर के शीर्ष पर स्थित सहस्रार चक्र के भीतर एक सूक्ष्म केंद्र होता है, जो आध्यात्मिकता और चेतना के उच्चतम स्तर का प्रतीक है। "ब्रह्मरंध्र" का शाब्दिक अर्थ है "ब्रह्म का द्वार" या "ईश्वर का द्वार", और यह माना जाता है कि इसी मार्ग से आत्मा शरीर को त्यागती है और ब्रह्मांडीय चेतना से एक हो जाती है।


ब्रह्मरंध्र का महत्व मुख्य रूप से साधक की आध्यात्मिक उन्नति में है। यह स्थान सिर के शीर्ष पर मौजूद होता है, जिसे 'सहस्रार चक्र' कहा जाता है, और इसे हजार पंखों वाले कमल के रूप में वर्णित किया गया है। जब साधक गहन साधना, ध्यान या कुंडलिनी जागरण की अवस्था में पहुंचता है, तब कुंडलिनी शक्ति मेरुदंड के नीचे से ऊपर उठकर इस चक्र को भेदती है, और ब्रह्मरंध्र के माध्यम से साधक को आत्म-साक्षात्कार या मोक्ष की अनुभूति होती है। यह परम आनंद और शांति की अवस्था होती है, जिसे ब्रह्म से मिलन कहा जाता है।



ब्रह्मरंध्र को भेदन करने की प्रक्रिया साधक के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि यह व्यक्ति के सीमित अहंकार को समाप्त कर उसे अनंत चेतना से जोड़ता है। इस चक्र के जागृत होने पर साधक के भीतर दिव्य ज्ञान, सत्य और असीम शांति का अनुभव होता है। योग शास्त्रों में इसे जीवन और मृत्यु के बंधनों से मुक्ति का मार्ग बताया गया है।

ध्यान योग

 भगवद् गीता में ध्यान योग (अध्याय 6: ध्यान योग) को मन की एकाग्रता और आत्मनियंत्रण के माध्यम से आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करने का साधन बताया गया है। इसे साधना की एक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर, ध्यान के माध्यम से, अपने भीतर स्थित आत्मा और परमात्मा को अनुभव कर सकता है।


ध्यान योग के कुछ प्रमुख पहलू निम्नलिखित हैं:


1. मन का नियंत्रण: भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन बड़ा चंचल होता है, परंतु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। मन को इधर-उधर भटकने से रोककर उसे आत्मा पर केंद्रित करना ध्यान योग का प्रमुख उद्देश्य है।


2. साधना की विधि: ध्यान योग में व्यक्ति एकांत स्थान पर बैठकर, शरीर और मन को स्थिर कर, ध्यान के द्वारा आत्मा पर ध्यान केंद्रित करता है। ध्यान करते समय सीधा बैठने, श्वास पर ध्यान केंद्रित करने, और ईश्वर पर मन को लगाकर साधना करने की सलाह दी गई है।


3. समता भाव: ध्यान योग के माध्यम से साधक अपने भीतर और बाहर समता भाव को प्राप्त करता है, अर्थात सुख-दुख, लाभ-हानि, सफलता-असफलता जैसे द्वंद्वों से परे होकर परम शांति का अनुभव करता है।


4. अभ्यास और संयम: ध्यान योग में निरंतर अभ्यास और संयम की आवश्यकता होती है। नियमित साधना से मन को नियंत्रित किया जा सकता है, जिससे अंततः आत्मा का ज्ञान और मुक्ति प्राप्त होती है।



गीता में ध्यान योग को ईश्वर की अनुभूति का साधन बताते हुए कहा गया है कि जब व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर, ध्यान की अवस्था में स्थित होता है, तब उसे आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है और वह परमात्मा से एकाकार हो जाता है।

शांभवी मुद्रा

 मां दुर्गा का एक नाम शांभवी भी है। वह जो अचेतन को भी चेतन कर सकती है। इन्‍हीं के नाम पर बना है -  हजारो वर्ष पुराना शांभवी मुद्रा योग। यह योगमुद्रा मन को एकाग्रचित करने के साथ ही आंखों में मौजूद विकार भी दूर करता है। 

योग जगत में शांभवी मुद्रासन की खास जगह है।  जो कि मन और मस्तिष्क को शांत करने में कारगर भूमिका निभाता है। इस मुद्रा की खास बात यह है कि इसके तहत आपकी आंखें खुली रहती हैं, लेकिन फिर भी आप कुछ देख नहीं पाते। वास्तव में योगाचार्यों के मुताबिक यह मुद्रा एक कठिन साधना है।


शांभवी मुद्रा की विधि (Shambhavi Mudra) -

गुरु के मार्गदर्शन में ध्यान के आसन में बैठें और अपनी पीठ सीधी रखें।

आपके कंधे और हाथ बिलकुल ढीली अवस्था में होने चाहिए।

इसके बाद हाथों को घुटनों पर चिंमुद्रा, ज्ञान मुद्रा या फिर योग मुद्रा में रखें। आप सामने की ओर किसी एक बिंदु पर दृष्टि एकाग्र करें।

इसके बाद ऊपर देखने का प्रयास करें। ध्यान रखिए आपका सिर स्थिर रहे। इस बीच आप अपने विचारों को भी नियंत्रित करने की कोशिश करें। सिर्फ और सिर्फ ध्यान रखें। इस बीच कुछ न सोचें।

शांभवी मुद्रा के दौरान आपकी आपकी पलकें झपकनी नहीं चाहिए।

इस आसन को शुरुआती दिनों में कुछ ही सेकेंड तक करें। यानी जैसे-जैसे आपकी ध्यान लगाने की और अपने विचारों पर नियंत्रण करने की क्षमता में विकास हो, वैसे वैसे इस आसन को करने के समय सीमा भी बढ़ाते रहें। इसे आप अधिकतम 3 से 6 मिनट कर सकते हैं।



शांभवी मुद्रा के लाभ-

शांभवी मुद्रा आज्ञा चक्र को जगाने वाली एक शक्तिशाली क्रिया है। आज्ञा चक्र निम्न और उच्च चेतना को जोड़ने वाला केंद्र है। इस मुद्रा से आपको शारीरिक लाभ तो हासिल होगा ही इसके अलावा यह मुद्रा आपकी आंखों के स्नायुओं को भी मजबूत बनाती है। इतना ही नहीं यह मुद्रा आपके मन और मस्तिष्क को शांत करती है। अर्थात यदि आप किसी बात से तनाव महसूस करें तो इस मुद्रा की मदद से अपने तनाव को कम कर सकते हैं। इसके तहत आंखें खुली रखकर भी व्यक्ति सो भी रहा होता है और ध्यान का आनंद भी ले रहा होता है। इसके योग मुद्रा के जरिए आप डिप्रेशन जैसी बीमारी से भी खुद को दूर कर सकते हैं।


'तुः' अक्षरस्य च देवी शाम्भवी देवता शिवः ।।बीजं 'शं' अत्रिरेवर्षिः शाम्भवी यन्त्रमेव च ।।भूती मुक्ताशिवे मुक्तिः फलं चानिष्टनाशनम्॥

देवी तत्त्व

 देवी तत्व का दर्शन भारतीय दर्शन और आध्यात्मिक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह दर्शन शक्ति या माँ के रूप में देवी की पूजा और मान्यता को केन्द्र में रखता है। देवी तत्व का मुख्य आधार यह है कि समस्त सृष्टि में शक्ति का स्रोत एक मातृ रूपी देवी है, जो सृजन, पालन, और संहार तीनों की अधिष्ठात्री है। इस दर्शन में देवी को संसार की आदि शक्ति माना जाता है, जो ब्रह्मांड की ऊर्जा का प्रतीक होती है।


देवी तत्व के कुछ मुख्य पहलू:


1. शक्ति का स्वरूप: देवी को शक्ति का स्वरूप माना जाता है। वे संसार की ऊर्जा का स्रोत हैं, और इस शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं है। यही शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकट होती है, जैसे दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती आदि।


2. अधिभौतिक और आध्यात्मिक सृजन: देवी न केवल भौतिक जगत की उत्पत्ति करती हैं, बल्कि वे आध्यात्मिक जागरण और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। वे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर सक्रिय रहती हैं।


3. माया और मोक्ष: देवी माया का रूप हैं, जो संसार के बंधनों का कारण बनती हैं, लेकिन वही मोक्ष का द्वार भी खोलती हैं। उन्हें माया और मोक्ष की अधिष्ठात्री माना जाता है।


4. प्रकृति और पुरुष: देवी तत्व दर्शन में प्रकृति को देवी का रूप माना जाता है, और पुरुष या आत्मा को शिव के रूप में। शिव बिना शक्ति (देवी) के निष्क्रिय होते हैं, इसलिए शक्ति को सर्वोच्च माना गया है।


5. त्रिगुण और त्रिदेव: देवी को सत्त्व, रजस और तमस तीनों गुणों का स्वामी माना जाता है। वे ब्रह्मा (सृजन), विष्णु (पालन) और महेश (संहार) की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं।



देवी तत्व का आध्यात्मिक संदेश:


देवी तत्व हमें यह सिखाता है कि जीवन में शक्ति का महत्व है, और हमें इस शक्ति का सम्मान और उपयोग करना चाहिए। देवी का ध्यान और पूजा जीवन में संतुलन, शक्ति, ज्ञान, और समृद्धि लाने के लिए होती है।

गायत्री महाविज्ञान

 गायत्री महाविज्ञान का दर्शन भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का एक गहन एवं व्यापक सिद्धांत है, जो जीवन के भौतिक, मानसिक और आत्मिक विकास पर केंद्रित है। यह दर्शन जीवन की उच्च संभावनाओं को जागृत करने और मानव-चेतना को परम चेतना से जोड़ने का मार्ग दिखाता है। आइए इसके प्रमुख तत्वों को समझें:


1. गायत्री का तात्त्विक स्वरूप


गायत्री को वेदों में महाशक्ति और ऋग्वेद की मातृशक्ति कहा गया है। यह ब्रह्मांड की रचनात्मक और दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है, जो जीवन को समृद्धि, ज्ञान और शुद्धता प्रदान करती है।


गायत्री मंत्र:

"ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥"

यह मंत्र सूर्य रूपी परमात्मा से बुद्धि, विवेक और प्रज्ञा की प्राप्ति का आह्वान करता है।


2. त्रयी शक्ति: सत्य, शिव और सुंदर



गायत्री महाविज्ञान में तीन प्रमुख तत्व माने जाते हैं:


सत्य: सत्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रतीक है। यह व्यक्ति को यथार्थ देखने और सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।


शिव: यह कल्याण का सिद्धांत है, जो अहिंसा, सेवा और परोपकार के मूल्यों को जागृत करता है।


सुंदर: सौंदर्य का अर्थ आत्मा के अंतर्मुखी सौंदर्य से है, जो भीतर की शांति, संतुलन और सद्भाव से प्रकट होता है।


3. बुद्धि और प्रज्ञा का विकास


गायत्री मंत्र के जप का उद्देश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मानसिक और बौद्धिक विकास भी है। यह धारणा है कि मंत्र का नियमित अभ्यास आत्म-चेतना को जागृत कर बुद्धि को शुद्ध करता है और व्यक्ति को विवेकशील एवं कर्मशील बनाता है।


4. विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय


गायत्री महाविज्ञान भौतिक विज्ञान और अध्यात्मिकता के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह दृष्टिकोण है कि विज्ञान की प्रगति का उपयोग मानवता की भलाई के लिए हो और व्यक्ति अपने भीतर के दिव्य तत्व को जागृत कर समाज के उत्थान में योगदान दे। देखिए 

https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC9623891/


5. आत्म-संयम और साधना


गायत्री महाविज्ञान साधना, आत्म-अनुशासन और ध्यान पर विशेष बल देता है। व्यक्ति को बाहरी प्रलोभनों से मुक्त होकर भीतर की शक्तियों को जागृत करना चाहिए।


6. सर्वजनहित और विश्वकल्याण


गायत्री दर्शन केवल व्यक्तिगत मुक्ति का नहीं, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण का भी मार्ग दिखाता है। यह विचारधारा बताती है कि मनुष्य का जीवन तभी सार्थक होता है जब वह अपने ज्ञान, शक्ति और संसाधनों का उपयोग लोकमंगल के लिए करता है।


निष्कर्ष


गायत्री महाविज्ञान का दर्शन व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास का पथप्रदर्शक है। यह जीवन को अनुशासन, ज्ञान, सेवा और परोपकार के आदर्शों से भरकर समाज और विश्व के समग्र कल्याण की दिशा में प्रेरित करता है। यह हमें सिखाता है कि आत्मोन्नति और लोककल्याण एक ही यात्रा के दो पहलू हैं।

शून्य की अवधारणा

 पश्चिमी दर्शन में शून्य (जीरो) का अर्थ है - कुछ नही (nothing) लेकिन हिन्दू और बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा एक गहरा और जटिल विषय है जो कि विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के माध्यम से प्रकट किया गया है। 



1. हिन्दू दर्शन में शून्य की अवधारणा


हिन्दू दर्शन में "शून्य" एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, लेकिन इसे केवल 'नहीं' या 'जीरो' के रूप में नहीं समझा जाता है। यह अस्तित्व के पार एक स्थिति या अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। वेदों, उपनिषदों और भगवदगीता में शून्य को कभी-कभी "ब्रह्म" या "परब्रह्म" के रूप में संदर्भित किया जाता है।


 अद्वैत वेदांत में, शून्य का अर्थ है "निर्गुण ब्रह्म" या "अपरिभाषित ईश्वर", जो न कोई गुण है, न कोई रूप, न कोई रंग, बल्कि वह शुद्ध चेतना है। यह ब्रह्म एकता और अखंडता का प्रतीक है, जहाँ द्वैत (द्विविधा) समाप्त हो जाता है।


पतंजलि के योग सूत्रों में, शून्यता का अर्थ "चित्त वृत्ति निरोध" से है, अर्थात् मन की सभी गतिविधियों और इच्छाओं को रोकने की स्थिति। इस अवस्था में व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है, जिसे शून्यता या कैवल्य भी कहा जाता है।


ब्रह्मांड और शून्य: हिन्दू गणित में, शून्य (0) का भी महत्व है, जिसका आविष्कार वैदिक ऋषि गणितज्ञों द्वारा किया गया था। यह शून्य असीम और अनंत के मध्य का संतुलन है।


पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं दशगुणं पुनः।

पूज्यं पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं पुनः पुनः॥

अर्थात -

शून्य पूज्य है क्योंकि जिसके पीछे लग जाये उसे दसदस  गुना करता जाता है 


ईश्वर से संबंध: हिन्दू दर्शन में शून्यता को अक्सर ब्रह्म, जो साकार और निराकार दोनों है, के साथ जोड़ा जाता है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति ईश्वर को उसके निराकार और अप्रकट रूप में अनुभव करता है। कबीर ने कहा है- गिरह हमारा सुन्य में ..... अर्थात हमारा वास्तविक निवास शून्य में है । 


2. बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा


बौद्ध दर्शन में "शून्यता" (संस्कृत में "शून्यता" और पाली में "सुन्नता") एक केंद्रीय अवधारणा है। यह अस्तित्व की अस्थिरता और असत्यता का प्रतीक है। बौद्ध धर्म में, शून्यता का अर्थ है कि सभी चीजें अस्थायी और निर्भरता से उत्पन्न हैं; उनमें कोई स्थायी आत्मा या स्थायी तत्व नहीं है।


मध्य्यमक दर्शन: नागार्जुन के मध्य्यमक दर्शन में, शून्यता को "प्रतीत्यसमुत्पाद" (परस्पर निर्भरता) के संदर्भ में समझा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी घटनाएं और वस्तुएं परस्पर निर्भरता से उत्पन्न होती हैं, और उनमें कोई स्थायी स्वरूप नहीं होता।


विपश्यना और ध्यान: बौद्ध साधना में, ध्यान का उद्देश्य "शून्यता" की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त करना है, जो यह समझने में सहायक है कि दुनिया की सभी चीजें अनित्य, दुःख और अनात्म (स्वरूपहीनता) हैं।


 बौद्ध धर्म में, शून्यता का ईश्वर की परिभाषा से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। बौद्ध धर्म में एक व्यक्तिगत ईश्वर या सर्वशक्तिमान की अवधारणा नहीं है। शून्यता यहाँ आत्मज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने की दिशा में एक मार्ग के रूप में समझी जाती है, जो अस्तित्व के द्वैत को समाप्त कर देती है।


हिन्दू दर्शन में, शून्यता को ब्रह्म (ईश्वर) की स्थिति के रूप में समझा जाता है, जहाँ व्यक्ति सत्य के साकार और निराकार दोनों पहलुओं को अनुभव कर सकता है।


बौद्ध दर्शन में, शून्यता का अर्थ सभी चीजों की निर्भर उत्पत्ति और अस्तित्व के स्थायित्व की अनुपस्थिति है। यह ईश्वर की अवधारणा से संबंधित नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान की प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण तत्व है।


दोनों दर्शनों में शून्यता की अवधारणा अस्तित्व की मौलिकता और वास्तविकता की समझ को गहरा करती है, चाहे वह ब्रह्म की निराकार अवस्था हो या अस्तित्व की अस्थिरता।

साधनाध्याय

 बादरायण कृत ब्रह्मसूत्र का तीसरा अध्याय साधनाध्याय कहलाता है, और इसमें मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के साधनों का विस्तृत वर्णन किया गया है। साधन का अर्थ है वह मार्ग, जिस पर चलकर साधक ब्रह्मज्ञान या परमात्मा का अनुभव कर सकता है। इस अध्याय में विभिन्न योग, ध्यान, और ज्ञान की विधियों पर प्रकाश डाला गया है, जिनसे साधक आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।


साधनाध्याय के प्रमुख विषय:


1. साधनों का स्वरूप:


इसमें यह बताया गया है कि आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग, और योगमार्ग जैसे साधनों का पालन करना आवश्यक है। इनमें से ज्ञानमार्ग को सर्वोच्च माना गया है, क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही अज्ञान का नाश होता है।


2. श्रवण, मनन और निदिध्यासन:


श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन करना), और निदिध्यासन (ध्यान में स्थिर रहना) को आत्मज्ञान के तीन महत्वपूर्ण साधन बताया गया है। उपनिषदों के ज्ञान को सुनना (श्रवण), उस पर विचार करना (मनन), और गहरे ध्यान में उतरना (निदिध्यासन) आत्मा की प्रकृति को समझने के लिए आवश्यक है।


3. साधक के गुण:


साधक में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता होती है जैसे कि विवेक (सही और गलत में अंतर समझना), वैराग्य (जगत के प्रति अनासक्ति), शम (मन का शांत होना), दम (इंद्रियों का संयम), और एकाग्रता। इन गुणों को विकसित करके ही साधक आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।


4. ध्यान और समाधि:


साधनाध्याय में ध्यान और समाधि का भी महत्त्व बताया गया है। ध्यान में मन को ब्रह्म में एकाग्र करना और समाधि में सभी बाहरी और आंतरिक विकारों को समाप्त कर ब्रह्म में लीन होना मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है।


5. कर्म और ज्ञान का संबंध:


इस अध्याय में कर्म (धर्म के अनुसार आचरण) और ज्ञान (ब्रह्म की पहचान) के बीच संबंध पर भी विचार किया गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि प्रारंभिक अवस्था में कर्म आवश्यक हैं, लेकिन अंतिम मुक्ति ज्ञान से ही संभव है।


6. मुक्ति का स्वरूप:


साधनाध्याय में यह भी बताया गया है कि जब साधक को ब्रह्मज्ञान होता है, तो उसे अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव होता है और वह अज्ञान के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति मोक्ष का कारण बनती है और जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।





साधनाध्याय में आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति के मार्गों का विस्तृत वर्णन है। यह स्पष्ट करता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रवण, मनन, और निदिध्यासन का अभ्यास आवश्यक है। साधक को अपने मन, इंद्रियों और कर्मों पर संयम रखते हुए निरंतर अभ्यास करना चाहिए, जिससे कि वह ब्रह्म का साक्षात्कार कर सके।

विज्ञान और ईश्वर

 विज्ञान और ईश्वर :


नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे।

कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमो नमः ।।

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विज्ञानरूपाय ईश्वर का अर्थ है वह ईश्वर जो विज्ञानस्वरूप हैं, अर्थात जो सम्पूर्ण सृष्टि के नियमों और प्रक्रियाओं का आधार हैं। भारतीय दर्शन में ईश्वर को न केवल सृष्टि का रचयिता माना गया है, बल्कि वह शक्ति भी माना गया है जो प्रत्येक कण, प्रत्येक घटना, और सृष्टि के हर नियम में विद्यमान है।



 ईश्वर वह अदृश्य शक्ति है जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियमों को बनाए रखती है और सृष्टि को एक निश्चित क्रम में चलाती है। जैसे गुरुत्वाकर्षण, विद्युत, चुंबकत्व, ऊर्जा संरक्षण, और अन्य सभी प्राकृतिक सिद्धांत एक अदृश्य नियमों के आधार पर चलते हैं, वैसे ही ईश्वर को उन नियमों का स्रोत और संचालनकर्ता माना गया है। हिन्दू दर्शन में पाश्चात्य धर्मों की तरह साइंस और रिलिजन में विरोधाभास नही है , अपितु समस्त विज्ञान को उपवेद एवं वेदांग कहा गया है । 


विज्ञान में हम पदार्थ, ऊर्जा और उनके विभिन्न रूपों का अध्ययन करते हैं, लेकिन इन सभी का प्रयोजन व अंतिम स्रोत क्या है, इसका उत्तर विज्ञान स्वयं नहीं दे सकता। इसी कारण से, भारतीय आध्यात्मिक परंपराएं यह मानती हैं कि यह सभी नियम, सिद्धांत, और शक्तियाँ विज्ञानरूप ईश्वर के अधीन हैं। 


अतः, विज्ञानरूपाय ईश्वर का अर्थ यह है कि ईश्वर ने अपनी सत्ता को विज्ञान के रूप में हर स्थान पर, हर कण में स्थापित किया है, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड में संतुलन, सामंजस्य और नियमबद्धता बनी रहती है।

क्या खोया, क्या पाया

 इस जीवन में "क्या खोया, क्या पाया" पर चिंतन करने पर हम पाते हैं कि जिंदगी के सफर में कुछ पाने की खुशी होती है, तो कुछ खोने का दुख भी। जीवन की इस यात्रा में खोने-पाने की भावनाएं अक्सर परस्पर गुंथी हुई होती हैं, और यही जीवन को विविधता और गहराई प्रदान करती हैं।


क्या पाया?- पाने की दृष्टि से देखें तो जीवन में हमें अनगिनत अनुभव, रिश्ते, प्रेम, मित्रता, ज्ञान, और अवसर मिलते हैं। यह अनुभव हमारी समझ, सहनशीलता और दृष्टिकोण को परिपक्व बनाते हैं। जो भी हम जीवन में सकारात्मक रूप में संजोते हैं—चाहे वो परीक्षा की या व्यवसायिक सफलता हो, रिश्तों का प्रेम हो , लोगो की सेवा करने से मिलने वाली आत्मतृप्ति या अपने लक्ष्य को पाने की संतुष्टि—ये सब हमारे लिए बहुमूल्य हैं।


क्या खोया?- खोने की दृष्टि से देखें तो जीवन में बहुत कुछ छूटता है। वक़्त के साथ बचपन का मासूमियत, शरारतें, कुछ प्रिय लोग, कुछ अवसर और गतिमान समय हम खोते चले जाते हैं। हर एक अनुभव हमें कुछ सिखाकर ही छोड़ता है, चाहे वो कड़वा अनुभव हो या मीठा। यह खोना हमें सिखाता है कि हर चीज़ अस्थायी है और हमें उसे स्वीकार करना आना चाहिए।


शेष शून्य - अंततः जब हम सब कुछ समेट कर सोचते हैं, तो जीवन का संतुलन शून्य ही होता है। जो पाया है, वो कहीं खोने के डर से घिरा रहता है और जो खोया है, उसकी कसक जीवन भर रहती है। यह शून्य एक ऐसा स्थिर बिंदु है जो हमें यह सिखाता है कि असल में हम कुछ भी सांसरिक वस्तु, जैसे- धन संपत्ति पद , अपने साथ लेकर नहीं जा सकते। यह शून्य हमें जीवन के मर्म का बोध कराता है और सिखाता है कि जीवन का असली अर्थ पाने-खोने से परे, एक संतुलन में है।



इस तरह से, जीवन को एक प्रवाह के रूप में देखना चाहिए जहां खोने और पाने के बीच शून्य का यह संतुलन हमें सच्ची शांति और संतुष्टि की ओर ले जाता है।


उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, 

सत हरि भजन जगत सब सपना.

सचखंड

 सिख दर्शन में सचखंड की अवधारणा एक महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक अवधारणा है, जो आत्मा की मुक्ति और ईश्वर के साथ एकता का प्रतीक है। सचखंड को सिख धर्म में आत्मा की अंतिम और सर्वोच्च स्थिति माना जाता है, जहाँ आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है और ईश्वर के साथ एक हो जाती है।


सचखंड का शाब्दिक अर्थ है "सत्य का क्षेत्र" या "सत्य का लोक"। यह सिख धर्म में पाँच आध्यात्मिक स्थितियों में से अंतिम और सबसे उच्च स्थिति है। इन पाँच स्थितियों को पंच खंड कहा जाता है और वे हैं:


1. धर्म खंड - धर्म का क्षेत्र, जहाँ न्याय और सही-गलत का निर्णय होता है।


2. ज्ञान खंड - ज्ञान का क्षेत्र, जहाँ आध्यात्मिक ज्ञान और सत्य की समझ विकसित होती है।


3. शरण खंड - मेहनत और आत्म-संयम का क्षेत्र, जहाँ व्यक्ति आध्यात्मिक विकास के लिए कठिन परिश्रम करता है।


4. करम खंड - शुभ कर्म एवं कृपा का क्षेत्र, जहाँ ईश्वर की कृपा से आत्मा को शक्ति मिलती है।


5. सचखंड - सत्य का क्षेत्र, जहाँ आत्मा ईश्वर के साथ एक हो जाती है।


सचखंड का आध्यात्मिक महत्व :


सचखंड में, आत्मा को ईश्वर की दिव्य कृपा और सच्चाई का अनुभव होता है। यहाँ आत्मा को किसी प्रकार के दुःख, मोह, या माया (मायावी संसार) से छुटकारा मिल जाता है। सचखंड की स्थिति में पहुँचने के बाद, आत्मा को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त कर दिया जाता है और वह ईश्वर की अनंत कृपा और प्रेम का अनुभव करती है।


गुरु ग्रंथ साहिब में सचखंड को उस स्थान के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ परमात्मा का निवास है। वहाँ पर केवल सत्य, प्रेम, और अनंत शांति का वास है। सिख गुरुओं ने इसे ईश्वर की वास्तविक स्थिति और आध्यात्मिकता के चरम के रूप में प्रस्तुत किया है।


गुरु नानक देव जी ने अपने अनुभव और शिक्षाओं के माध्यम से सचखंड की अवधारणा को व्यक्त किया है। उनके अनुसार, ईश्वर हर जगह और हर एक जीव में विद्यमान है, लेकिन सचखंड वह विशेष अवस्था है जहाँ व्यक्ति ईश्वर की उपस्थिति को सीधे अनुभव करता है।


सचखंड प्राप्त करने का मार्ग :


सिख धर्म में सचखंड प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित आध्यात्मिक मार्ग सुझाए गए हैं:


1. नाम सिमरन (ईश्वर के नाम का स्मरण): ईश्वर के नाम का जाप करना और उसकी महिमा गाना।


2. कीर्तन (भजन-गायन): ईश्वर के गुणों और महिमा का गान।


3. सेवा (निःस्वार्थ सेवा): मानवता की निःस्वार्थ सेवा करना।


4. गुरु की शरण में जाना: गुरु के उपदेशों का पालन करना और उनके बताए मार्ग पर चलना।


5. सत्य और धर्म का पालन: सच्चे मार्ग पर चलना और सद्गुणों को अपनाना।


सचखंड का दार्शनिक दृष्टिकोण:


सचखंड सिख धर्म में सिर्फ़ एक स्वर्गीय या भौतिक स्थान नहीं है, बल्कि यह आत्मा की एक आंतरिक और गहरी अवस्था का प्रतीक है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति अपने अहंकार, इच्छाओं और भ्रम से मुक्त हो जाता है और ईश्वर के अनंत सत्य का अनुभव करता है। सिख दर्शन में, यह माना जाता है कि हर व्यक्ति के भीतर ईश्वर की दिव्य ज्योति है, और सचखंड उस ज्योति का संपूर्ण और पूर्ण अनुभव है।



सचखंड सिख धर्म में आत्मा के लिए अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ आत्मा को ईश्वर के साथ मिलन का अनुभव होता है। सचखंड की अवधारणा व्यक्ति को यह प्रेरणा देती है कि वह अपने जीवन में सच्चाई, धर्म, और सेवा का पालन करे, ताकि वह अपने भीतर की दिव्यता को पहचान सके और ईश्वर के साथ एक हो सके। सिख धर्म में यह विश्वास है कि ईश्वर की कृपा से ही आत्मा सचखंड की ओर अग्रसर हो सकती है।

Space and Time दिक् और काल

 Space and Time 

दिक् और काल 


विज्ञान में स्पेस और टाइम का कॉन्सेप्ट लगभग 100 वर्ष पूर्व से आया है , किंतु भारतीय दर्शन में यह हजारों वर्षों पूर्व विकसित हो चुका था । पुराणों में कहा गया है - दिक् च कालश्च शक्त्योर्या जगतः कारणं स्मृतम्।"

अर्थात "दिक् और काल दोनों ही शक्ति के रूप में जगत के कारण माने गए हैं।"


यह सूत्र यह बताता है कि दिक् और काल शक्ति के दो रूप हैं, जिनसे समस्त जगत का निर्माण होता है।



उपनिषदों, पुराणों, महाभारत आदि के श्लोकों और सूत्रों से यह स्पष्ट होता है कि दिक् और काल को केवल भौतिक आयाम के रूप में नहीं बल्कि ब्रह्मांड की मूलभूत शक्तियों के रूप में देखा गया है, जिनके प्रभाव में सारा जगत है और जिनसे आत्मा को पार जाना चाहिए।


उपनिषदों में दिक् (अर्थात् "स्पेस") और काल (अर्थात् "समय") को भौतिक जगत के महत्वपूर्ण आयामों के रूप में देखा गया है। दोनों की अवधारणा ब्रह्मांड की संरचना और जीवन की वास्तविकता को समझने के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके परस्पर संबंध को समझना आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी महत्वपूर्ण है।


1. दिक् (स्पेस): उपनिषदों के अनुसार, दिक् सभी दिशाओं को इंगित करता है, जिससे यह संपूर्ण ब्रह्मांड का विस्तार या व्याप्ति दर्शाता है। यह किसी एक विशेष दिशा तक सीमित न होकर संपूर्ण जगत में व्याप्त है और सभी वस्तुओं के स्थान और स्थिति को दर्शाता है। यह स्थानिक आयाम (spatial dimension) का प्रतिनिधित्व करता है।


2. काल (समय): काल को परिवर्तन या घटनाओं के क्रम के रूप में देखा गया है। यह निरंतर गतिशील है और इसे किसी बाहरी वस्तु या घटना द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। उपनिषदों में समय को चिरंतन या अनंत कहा गया है। इसे मापा नहीं जा सकता और यह सभी घटनाओं और परिवर्तनों का साक्षी होता है।


"कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।

संयोग एषां न तु आत्मभावाद्, आत्मा ह्यनाश्रयममृतं स्वतन्त्रः॥"(श्वेताश्वतर उपनिषद् 1.2)

 अर्थात -

"समय (काल), स्वभाव, नियति (भाग्य), संयोग, और पुरुष इन तत्वों को ब्रह्मांड के कारणों के रूप में विचार किया गया है। लेकिन ये सब आत्मा का स्वभाव नहीं है, आत्मा इनसे स्वतंत्र, अमर और स्वनियंत्रित है।"


काल का उल्लेख विशेष रूप से गीता के अध्याय 11, श्लोक 32 में मिलता है:

"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।" अर्थात- "मैं (श्रीकृष्ण) समय हूँ, जो संपूर्ण लोकों का संहार करने वाला हूँ और यहाँ सब कुछ नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ।"

 महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है- 

"कालः पचति भूतानि सर्वाण्येव सह प्रभुः।

कालः संहरते सर्वं कालो हि दुरतिक्रमः॥"

अर्थात- "समय (काल) सभी भूतों को पकाता है और संपूर्ण संसार को संहार करता है। समय को कोई पार नहीं कर सकता।"


3. दिक् और काल का परस्पर संबंध: दिक् और काल के बीच का संबंध अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ये दोनों मिलकर भौतिक जगत की संरचना का निर्माण करते हैं। समय के बिना दिशा का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि समय ही घटनाओं को क्रमबद्ध करता है। इसी प्रकार, दिक् के बिना समय की माप भी संभव नहीं है, क्योंकि दिक् का निर्धारण स्थान से होता है, जिससे घटनाओं का स्थान-काल संबंध स्थापित होता है। उपनिषदों में यह भी कहा गया है कि दिक् और काल दोनों ही माया का हिस्सा हैं, जो वास्तविकता का बोध कराते हैं लेकिन स्वयं अपार और अनन्त हैं।


प्रकृतिः पंचभूतानि ग्रहा लोकाः स्वरास्तथा ।

दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम् ।। 


अर्थ: प्रकृति  पांच तत्वों अर्थात् अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और अंतरिक्ष के संयोजन से बनी है. ये पांच तत्व, सभी ग्रह और लोक,  संगीत के सात स्वर, दिक और काल हमारा सदा मंगल करें.


4. आध्यात्मिक दृष्टिकोण: उपनिषदों के अनुसार, जब कोई व्यक्ति आत्म-ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह दिक् और काल की सीमाओं से परे चला जाता है। उस अवस्था में, वह आत्मा को शाश्वत और सर्वव्यापी (अखंड और अनंत) रूप में देखता है, जो किसी भी स्थान और समय के बंधन से मुक्त होती है।

योग वाशिष्ठ का सूत्र है -चित्तकल्पितमेवेदं दिक्कालाद्यन्यथागतम्।

तस्माच्चित्तमयो बन्धः पुमांस्येनं विवर्जये ।।

अर्थात-  "दिक् और काल मन द्वारा कल्पित हैं। इसलिए, मन ही बंधन का कारण है, और पुरुष को इस मनोवृत्ति को त्यागना चाहिए।"


इस प्रकार, दिक् और काल के परस्पर संबंध को समझना ब्रह्मांडीय समझ और आत्मा की वास्तविकता के प्रति जागरूकता की ओर एक कदम है। दिक् और काल के परे जाकर ही आत्म साक्षात्कार होता है ।

विशिष्टाद्वैत

 विशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुसार, निराकार निर्गुण ईश्वर का साकार सगुण रूप में प्रकट होना इस बात पर आधारित है कि ईश्वर स्वभावतः आत्मा और प्रकृति का आधार है और अपनी करुणा के कारण भक्तों की भक्ति और साधना के लिए सगुण रूप में प्रकट होता है। इसका मुख्य सिद्धांत है कि ईश्वर एक है, लेकिन गुण, शक्ति और स्वरूप में विशिष्ट है। ईश्वर अपनी मूल स्थिति में निराकार, निर्गुण और परम चैतन्य है। ईश्वर सदा से निर्गुण और सगुण दोनों ही रूप में विद्यमान है। 


विशिष्टाद्वैत के अनुसार, ईश्वर आत्मा और प्रकृति का अधिष्ठान है।


जैसे आत्मा शरीर में अदृश्य रहकर शरीर को नियंत्रित करती है, वैसे ही ईश्वर संसार में अदृश्य रहकर जब चाहे अपने सगुण रूप में प्रकट हो सकता है।


जब ईश्वर भक्तों के प्रेम और भक्ति का उत्तर देते हैं, तो वे सगुण रूप धारण करते हैं।


यह ईश्वर की शरीर-आत्मा के संबंध की दृष्टि से स्वाभाविक प्रक्रिया है।


भक्तों के लिए ईश्वर का सगुण रूप उनकी साधना और मुक्ति के मार्ग को सरल बनाता है।


इसलिए, विशिष्टाद्वैत दर्शन में साकार सगुण ईश्वर को भक्तों के लिए एक कृपा स्वरूप माना गया है, जबकि वह अपनी मूल स्थिति में सदा निराकार और निर्गुण रहता है।



Statue of equality : रामानुजाचार्य , विशिष्टाद्वैत वेदांत के प्रवर्तक संत (1017-1137 AD)

कामायनी

 कामायनी में मन, श्रद्धा और इड़ा का संबंध यह दर्शाता है कि मानव जीवन में भावनाओं, तर्क और चंचलता का संतुलन आवश्यक है। मनुष्य तभी अपने अस्तित्व की पूर्णता प्राप्त करता है, जब वह श्रद्धा के प्रेम और इड़ा के विवेक से प्रेरित होकर अपने मन को नियंत्रित करता है। यह संबंध जीवन के संघर्षों और समाधान का प्रतीक है।


कामायनी में श्रद्धा, इड़ा और मन का संबंध इस प्रकार स्थापित होता है कि ये तीनों मानव व्यक्तित्व के अभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।


मन: चंचल और अस्थिर।


श्रद्धा: प्रेम और विश्वास, जो मन को स्थिरता देती है।


इड़ा: बुद्धि और तर्क, जो मन को दिशा प्रदान करती है।


इन तीनों के सामंजस्य से ही मानव जीवन संतुलित और पूर्ण बनता है।


जब श्रद्धा और इड़ा दोनों मिलकर मन को नियंत्रित करती हैं, तो व्यक्ति भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में संतुलन प्राप्त करता है।


श्रद्धा मन को भावना और प्रेम देती है, जबकि इड़ा उसे ज्ञान और विवेक से समृद्ध करती है।


कामायनी में यह दर्शाया गया है कि केवल भावना (श्रद्धा) या केवल बुद्धि (इड़ा) के आधार पर जीवन को पूर्णता नहीं मिलती। मन की चंचलता तभी समाप्त होती है, जब श्रद्धा और इड़ा दोनों मिलकर उसे मार्गदर्शन प्रदान करें।


श्रद्धा मनुष्य के हृदय को शांति और संतोष देती है।



इड़ा जीवन की व्यावहारिकता और यथार्थ को समझने में मदद करती है।


मन इन दोनों के बीच का सेतु है, जो संघर्षों और समाधान की प्रक्रिया से गुजरता है।

शुभ और अशुभ

 जीवन में शुभ और अशुभ का सतत संघर्ष रहता है। गीता में अर्जुन के धर्मसंकट को शुभ और अशुभ के बीच संघर्ष का उदाहरण माना जा सकता है।


शुभ सार्वभौमिक है या सापेक्ष? भारतीय परंपरा में यह मान्यता है कि शुभ की मूल प्रकृति सार्वभौमिक है, लेकिन इसके व्यावहारिक स्वरूप को संदर्भ विशेष के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है।


शुभ को परिभाषित करने में मानवीय इंद्रियां, बुद्धि और आध्यात्मिक ज्ञान का योगदान महत्वपूर्ण है। लेकिन यह पहचान सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत संदर्भों के आधार पर भिन्न हो सकती है।


भारतीय दर्शन में "शुभ" एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो नैतिकता, आध्यात्मिकता और आदर्श जीवन के लिए प्रेरणा का आधार है। शुभ का अर्थ है वह जो कल्याणकारी, हितकारी और सकारात्मक हो। यह सत्य, सुंदरता और न्याय जैसे गुणों के साथ संबद्ध होता है।


भारतीय दर्शन में शुभ का अर्थ है जीवन और समाज के लिए हितकारी कार्य या विचार। इसे धर्म, सत्य और अहिंसा जैसे गुणों के संदर्भ में देखा जाता है। वेदांत, जैन, बौद्ध, सांख्य, और योग जैसे दार्शनिक प्रणालियों में शुभ को आत्मा और ब्रह्म के संबंध में समझाया गया है।


1. वेदांत में शुभ: वेदांत दर्शन शुभ को ब्रह्म के साथ जोड़ता है। ब्रह्म सत्य, चैतन्य और आनंद है, और इससे जुड़कर व्यक्ति अपने जीवन को शुभ बना सकता है। शुभ का लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है।


2. जैन दर्शन में शुभ: जैन धर्म में शुभ को अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य जैसे गुणों के पालन से जोड़ा गया है। शुभ कर्मों से आत्मा की शुद्धि होती है।


3. बौद्ध दर्शन में शुभ: बौद्ध धर्म में शुभ का अर्थ है मध्यम मार्ग का अनुसरण, जिसमें अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक कर्म आदि) के माध्यम से दुःख से मुक्ति पाई जाती है।


क्या शुभ वही है जो धर्म के अनुसार है, या जो परिणामस्वरूप सुखद है? 


शुभ को सार्वभौमिक मानते हुए यह स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति को अपने धर्म और ज्ञान के अनुसार शुभ कार्य करना चाहिए। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने "निष्काम कर्म" को शुभ का सर्वोत्तम साधन बताया है।



शुभ का अनुसरण जीवन में शांति, सद्भाव और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।

प्रारब्ध कर्म

 प्रारब्ध कर्म का अर्थ है वे कर्म जो हमारे पिछले जन्मों के कारण उत्पन्न हुए हैं और वर्तमान जीवन में हमें फलस्वरूप अनुभव करने पड़ते हैं। प्रारब्ध कर्म हमारे जीवन में सुख-दुख, अच्छे-बुरे अनुभवों के रूप में प्रकट होते हैं और ये हमारे नियंत्रण में नहीं होते। इन्हें नष्ट करना सरल नहीं होता, लेकिन कुछ तरीकों से इनके प्रभाव को कम किया जा सकता है या उनसे मुक्ति पाई जा सकती है।


प्रारब्ध कर्म के प्रभाव को कम करने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं:


1. सद्गुरु की कृपा: एक सच्चे गुरु का मार्गदर्शन और उनका आशीर्वाद प्रारब्ध कर्म के प्रभाव को कम कर सकता है। गुरु की कृपा से मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है और प्रारब्ध से मुक्त हो सकता है।


2. भक्ति और प्रार्थना: ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति और प्रार्थना से मन शुद्ध होता है और हमारे भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इससे कर्म के बंधन धीरे-धीरे कम हो जाते हैं।


3. साधना और ध्यान: नियमित साधना, ध्यान और योग अभ्यास से मन और आत्मा शुद्ध होती है, जिससे प्रारब्ध के असर को कम किया जा सकता है। ध्यान से व्यक्ति अपने भीतर की चेतना को जाग्रत करता है और कर्म के परिणामों से ऊपर उठता है।


4. संतोष और समर्पण: प्रारब्ध के प्रति संतोष और ईश्वर में पूर्ण समर्पण रखने से व्यक्ति मानसिक शांति प्राप्त कर सकता है। इससे प्रारब्ध के असर का बोझ कम महसूस होता है और वह जीवन के कठिन समय का सामना सहजता से कर पाता है।


5. सेवा और परोपकार: दूसरों की सेवा करने और परोपकार में संलग्न रहने से हमारे नकारात्मक कर्मों का प्रभाव कम होता है। सेवा और परोपकार के कार्यों से मनुष्य के कर्मों में सुधार आता है, जिससे प्रारब्ध के बंधन धीरे-धीरे ढीले पड़ते हैं।



6. स्वधर्म का पालन: अपने धर्म, कर्तव्यों, और नैतिकता का पालन करते हुए जीवन जीने से भी प्रारब्ध के प्रभाव में कमी आती है। अपने कर्मों का सही तरीके से पालन करना प्रारब्ध को निष्प्रभावी करने का एक तरीका है।


हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि प्रारब्ध से मुक्ति का मार्ग समय ले सकता है और इसमें धैर्य तथा ईश्वर के प्रति  आत्मसमर्पण की आवश्यकता होती है।

आचार्य विनोबा भावे

 आचार्य विनोबा भावे का आध्यात्मिक दृष्टिकोण गहराई से गांधीवादी आदर्शों और भारतीय दर्शन से प्रेरित था। वे अहिंसा, सत्य, और आत्मशुद्धि के सिद्धांतों में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि आत्मा की शुद्धता और व्यक्तिगत विकास ही समाज और राष्ट्र की प्रगति का आधार है।


विनोबा का दृष्टिकोण यह था कि आध्यात्मिकता केवल व्यक्तिगत साधना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य संपूर्ण मानवता की भलाई है। उन्होंने भगवद् गीता, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और उनके ज्ञान का उपयोग समाज सुधार के कार्यों, जैसे भूदान आंदोलन, में किया।


उनका मानना था कि सच्ची आध्यात्मिकता वह है जो व्यक्ति को निःस्वार्थ सेवा और करुणा के मार्ग पर ले जाए, जिससे सामाजिक समरसता और शांति की स्थापना हो सके।


विनोबा भावे की पुस्तक The Intimate and the Ultimate उनके गहन विचारों और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का एक संग्रह है। यह पुस्तक मुख्य रूप से उनके भाषणों और लेखों का संकलन है, जिनमें उन्होंने मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, विशेषकर अध्यात्म, सत्य, अहिंसा, और सामाजिक उत्थान के सिद्धांतों पर अपने विचार साझा किए हैं।



इस पुस्तक में विनोबा भावे का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक गहरी आत्मीयता और परम सत्य (ultimate) का अनुभव करने की क्षमता होती है। वे आत्मशुद्धि, करुणा, और अहिंसक व्यवहार के महत्व को रेखांकित करते हैं, ताकि व्यक्ति स्वयं की उच्चतम क्षमता को प्राप्त कर सके और समाज में सकारात्मक योगदान दे सके।


विनोबा भावे ने इसमें जीवन के सरल लेकिन गहन पहलुओं पर प्रकाश डाला है, जैसे आंतरिक शांति, नैतिक मूल्यों का पालन, और दूसरों के प्रति प्रेम और सेवा का भाव। उनके अनुसार, जीवन की सच्ची पूर्ति तभी संभव है जब व्यक्ति आत्मिक विकास और समाज के कल्याण के बीच संतुलन स्थापित कर सके।


The Intimate and the Ultimate पाठकों को एक गहरे आत्मनिरीक्षण और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना के लिए प्रेरित करती है। यह पुस्तक उनके मानवीय और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है।

प्रथम और अंतिम मुक्ति

 "प्रथम और अंतिम मुक्ति


" (The First and Last Freedom) जे. कृष्णमूर्ति की एक प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व, चेतना, और मुक्ति के विषय पर गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। इस पुस्तक में वे पारंपरिक धार्मिक प्रथाओं और सिद्धांतों से हटकर, आत्म-अन्वेषण और सत्य की खोज पर जोर देते हैं। उनका दृष्टिकोण यह है कि वास्तविक स्वतंत्रता बाहरी अनुकरण और परंपराओं से नहीं, बल्कि भीतर की गहरी समझ और अंतर्दृष्टि से मिलती है।


पुस्तक के खास बिंदु - 


1. स्वयं की समझ:


कृष्णमूर्ति का मानना है कि जीवन की समस्याओं और दुखों की जड़ हमारी सीमित सोच और आत्म-केन्द्रित दृष्टिकोण में है। उन्होंने कहा कि आत्म-जागरूकता और स्वयं का निरीक्षण करना ही सच्ची मुक्ति का मार्ग है।


बाहरी गुरुओं, ग्रंथों या प्रथाओं पर निर्भर रहने के बजाय, उन्होंने आत्म-अन्वेषण की शक्ति पर जोर दिया। स्वयं को जानने से ही हम मानसिक शांति और स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं।


2. मुक्ति का अर्थ:


कृष्णमूर्ति के अनुसार, मुक्ति का अर्थ है मन की पूरी तरह से स्वतंत्रता, जहां विचार बाधाओं और सीमाओं से मुक्त होता है। उन्होंने इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में देखा, जहां व्यक्ति अपने पूर्वाग्रहों, पूर्व धारणाओं और अतीत के बोझ से मुक्त हो जाता है।


उन्होंने यह भी कहा कि मुक्ति कोई गंतव्य नहीं है, बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जो तब होती है जब व्यक्ति हर क्षण को जागरूकता के साथ जीता है।


3. डर और इच्छा:


पुस्तक में कृष्णमूर्ति ने बताया कि डर और इच्छा मानव मन की मूल समस्याएं हैं। ये हमारे दृष्टिकोण और व्यवहार को नियंत्रित करते हैं, जिससे हम अपनी वास्तविकता से अलग हो जाते हैं।


डर से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि व्यक्ति को अपने विचारों और प्रतिक्रियाओं का गहन अवलोकन करना चाहिए। जब हम बिना किसी निर्णय के अपने डर को देख पाते हैं, तभी उसका समाधान हो सकता है।


4. संबंधों का महत्व:


कृष्णमूर्ति ने कहा कि हमारे संबंध ही हमारे मन का आईना होते हैं। उन्होंने यह बताया कि अगर हम अपने संबंधों को समझ लें और उनमें पूरी तरह से उपस्थित रहें, तो हम अपने भीतर की जटिलताओं और विरोधाभासों को भी समझ सकते हैं।


उन्होंने संबंधों में प्रेम की भूमिका को भी महत्वपूर्ण बताया, जहां प्रेम का अर्थ किसी प्रकार की आसक्ति या स्वार्थ नहीं, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता है।


5. ध्यान और मन की स्थिति:


ध्यान के बारे में उन्होंने कहा कि यह किसी पद्धति या तकनीक का अभ्यास नहीं है। बल्कि, ध्यान का अर्थ है हर क्षण में पूरी तरह से जागरूक रहना और बिना किसी प्रयास के, बिना किसी सीमा के अपनी चेतना का निरीक्षण करना।


ध्यान में व्यक्ति खुद को और अपनी दुनिया को बिना किसी विभाजन के देखता है, जिससे एक अद्वितीय समझ और शांति की स्थिति उत्पन्न होती है।


"प्रथम और अंतिम मुक्ति" में कृष्णमूर्ति ने यह संदेश दिया कि सच्ची मुक्ति बाहरी चीजों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह आंतरिक रूप से आत्म-जागरूकता और स्वतंत्रता पर आधारित है। यह पुस्तक पाठकों को अपने मन के पैटर्न को समझने और एक नई दृष्टि से जीवन को देखने के लिए प्रेरित करती है।

गोवर्धन पूजा

 गोवर्धन पूजा का संबंध भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की पूजा से है, जो इस बात का प्रतीक है कि भगवान प्रेम से पूजे जाते हैं, न कि भय से। गोवर्धन पूजा की कथा में बताया गया है कि गांववाले इंद्र देव की पूजा करते थे क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वे इंद्र की पूजा नहीं करेंगे, तो उन्हें बारिश नहीं मिलेगी और उनके खेत बर्बाद हो जाएंगे।


भगवान कृष्ण ने लोगों को समझाया कि पूजा भय के कारण नहीं बल्कि प्रेम और कृतज्ञता से होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि गोवर्धन पर्वत, जो गांववासियों की रक्षा करता है और उनके पशुओं के लिए चारा प्रदान करता है, उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। इस पर सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इंद्र ने नाराज़ होकर भारी बारिश शुरू कर दी, लेकिन भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर सबको सुरक्षित किया।



इस कथा का संदेश यही है कि भगवान को प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से पूजना चाहिए, न कि भय से। कृष्ण ने यह सिखाया कि ईश्वर प्रेम और सेवा भाव के प्रतीक हैं, और उनके साथ सच्चा संबंध केवल प्रेम से ही बन सकता है, न कि डर से।


कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा रोकने के बाद उन्होंने गोवर्धन पर्वत की पूजा का प्रस्ताव रखा। इसके बाद गांववालों ने गोवर्धन पर्वत, गौधन (गायों), और प्रकृति की पूजा की, क्योंकि कृष्ण ने उन्हें समझाया कि प्रकृति के तत्व, जो उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सहायता और संरक्षण प्रदान करते हैं, उनकी वास्तविक पूजा के पात्र हैं।


इस पूजा में सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत को प्रतीकात्मक रूप से अन्नकूट का भोग लगाया और विभिन्न प्रकार के पकवानों का अर्पण किया। इसके अलावा, गायों और बछड़ों का पूजन कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। इस प्रकार, गोवर्धन पूजा के दिन मुख्य रूप से गोवर्धन पर्वत, गौधन और प्रकृति की पूजा की गई, जो एक नई चेतना और भक्ति का प्रतीक बन गई।

दीपावली

 "भारत" शब्द का एक आध्यात्मिक और गूढ़ अर्थ "प्रकाश में रत" या "ज्ञान में लीन" भी है। इस व्याख्या के अनुसार "भा" का अर्थ "प्रकाश" या "ज्ञान" और "रत" का अर्थ "लगा हुआ" या "लीन" होता है।


इस प्रकार, "भारत" का अर्थ होता है वह देश या भूमि जहाँ लोग ज्ञान, प्रकाश और सत्य की खोज में रत रहते हैं। यह दृष्टिकोण भारत के उस सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वरूप को दर्शाता है, जहाँ सदियों से ऋषि-मुनि, संत और दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करने और मानवता के कल्याण के लिए साधना करते रहे हैं।



इस अर्थ में, भारत केवल एक देश नहीं है, बल्कि ज्ञान और प्रकाश की भूमि का प्रतीक है, जहाँ लोगों का जीवन सत्य, धर्म और आध्यात्मिक उन्नति के आदर्शों पर आधारित है।


 भारतीय परंपरा में दीपक को ज्ञान, प्रकाश, और आशा का प्रतीक माना गया है। इसे अज्ञानता से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर जाने का प्रतीक माना जाता है।


दीपक जलाने के प्रमुख आध्यात्मिक अर्थ निम्नलिखित हैं:


1. ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक: दीपक का प्रकाश अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है। यह हमारे मन और हृदय में ज्ञान और विवेक की ज्योति जलाने का संकेत देता है।


2. सकारात्मकता और शांति का प्रतीक: दीप जलाने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक विचार एवं भावनाओं का नाश होता है। यह मन में शांति और समर्पण का भाव उत्पन्न करता है।


3. आत्मा का प्रतीक: दीपक की लौ आत्मा का प्रतीक मानी जाती है। जैसे दीपक जलता रहता है, वैसे ही आत्मा भी जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों के बीच सजीव रहती है और प्रकाश फैलाती है।


4. दिव्यता और आस्था: दीपक में घी या तेल का उपयोग हमारी आस्था और समर्पण का प्रतीक है, जो जलते हुए अर्पण को दिखाता है। यह जीवन में ईश्वर और धर्म के प्रति आस्था को और प्रगाढ़ करता है।


5. समाज और समर्पण का प्रतीक: दीप जलाने की परंपरा से यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने आसपास के लोगों के जीवन में प्रकाश फैलाना चाहिए।


त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों में दीप जलाना अज्ञानता से ज्ञान की ओर, निराशा से आशा की ओर और नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर एक आध्यात्मिक यात्रा को प्रदर्शित करता है।


आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं

भगवान धन्वंतरि

 धन्वंतरि को भारतीय चिकित्सा विज्ञान, विशेषकर आयुर्वेद के जनक के रूप में जाना जाता है। उनका योगदान स्वास्थ्य और चिकित्सा क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। धन्वंतरि का उल्लेख आयुर्वेदिक ग्रंथों और पुराणों में किया गया है, जहाँ उन्हें देवताओं के वैद्य का दर्जा प्राप्त है। आयुर्वेद के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन को रोगों से मुक्ति दिलाने और स्वस्थ जीवन जीने के उपाय बताए।


1. आयुर्वेद का प्रवर्तन:


धन्वंतरि ने आयुर्वेद को एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप दिया। उन्होंने इसे आठ भागों में विभाजित किया, जिसे "अष्टांग आयुर्वेद" कहा जाता है। इन आठ अंगों में काय चिकित्सा (सामान्य चिकित्सा), शल्य चिकित्सा (सर्जरी), शालक्य (नेत्र, नाक, कान और गला रोग), कौल चिकित्सा (बालरोग), अगद तंत्र (विष चिकित्सा), रसायन (जीवन को लंबा करने वाले औषध) और वाजीकरण (प्रजनन चिकित्सा) शामिल हैं।


2. सर्जरी और औषध निर्माण में योगदान:


धन्वंतरि को औषध निर्माण और सर्जरी के क्षेत्र में महान योगदान के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने विभिन्न जड़ी-बूटियों और औषधियों की खोज की, जिनका उपयोग आज भी आयुर्वेद में होता है। माना जाता है कि उन्होंने शल्य चिकित्सा के भी कई उन्नत तरीकों को अपनाया, जिनका उपयोग उस समय असाध्य माने जाने वाले रोगों के इलाज के लिए किया जाता था।


3. रोगों का निदान और उपचार पद्धति:


धन्वंतरि ने विभिन्न रोगों के निदान और उपचार के लिए विभिन्न पद्धतियों का विकास किया। उन्होंने शरीर को वात, पित्त, और कफ – तीन दोषों के आधार पर समझा और इसी संतुलन से स्वास्थ्य और रोग की स्थिति का निर्धारण किया।


4. स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता:


उन्होंने स्वस्थ जीवनशैली और रोगों से बचाव के महत्व पर जोर दिया। आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुसार, भोजन, दिनचर्या, और प्राकृतिक जीवन शैली पर ध्यान देना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।


धन्वंतरि की शिक्षा और चिकित्सा पद्धतियां आज भी आयुर्वेद चिकित्सा का आधार मानी जाती हैं। उनके योगदान से न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को एक प्राचीन चिकित्सा पद्धति का उपहार मिला, जो आज भी लाखों लोगों के लिए उपयोगी है।