बुधवार, 21 जून 2023

यात्रा वृतान्त (Tour Diary)

यात्रा वृतान्त (Tour Diary) :
प्राचीन यात्रियों के यात्रा वृतांत मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं । आज से हजारों साल पहले जब मोटर गाड़ी हवाईजहाज आदि नही थे , तब ये लोग पैदल , बैलगाड़ी , घोड़े या ऊंट से हजारों किलोमीटर की यात्रा कर लेते थे । इनके यात्रा वर्णनों में रोमांच, मानव जीवन का संघर्ष , कठिन परिस्थितियों पर विजय आदि मूल्य हमे प्रेरित करते हैं और जीवन मे सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं । इनके वृत्तांत पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे मैं खुद इनके साथ यात्रा कर रहा हूँ । 

प्राचीन काल मे अनेक विदेशी यात्री भारत आये , इससे उस जमाने मे भारत के इतिहास और समाज का पता चलता है । मूल यात्रा संस्मरण पढ़ने से पता चलता है कि इतिहासकारों द्वारा अनेक तथ्यों को हमारे सामने नही लाया गया है । प्राचीन विदेशी पर्यटकों ने भारत का जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि सच मे सोने की चिड़िया था हमारा देश और साथ ही विश्व गुरु था हमारा देश । 
Preiplus of the erythrean sea - प्राचीन रोमन साम्राज्य में एक अज्ञात ग्रीस नाविक था । वह प्रथम शताब्दी में अपनी नाव से लाल सागर पार कर हिन्द महासागर में व्यापार हेतु आया था । वह भारत मे वर्तमान गुजरात , महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के अनेक शहरों में गया ,  वर्तमान भरूच, उज्जैन, दक्षिणापथ, कालीकट, गोवा, कल्याण मुम्बई, कोचीन, फुहार, आदि शहरों का वर्णन किया । इस पुस्तक में नर्मदा नदी का भी नाम आता है। अज्ञात नाविक ने कश्मीर का नाम कश्यपमारा (home of kashyap) और राजधानी कश्यपपुर लिखा है। इस पुस्तक से पता चलता है कि उस वक़्त गुजरात मे शक , आंध्र में सातवाहन , दक्षिण में पल्लव चोल चेर तथा गंगा के इलाके में मगध राजाओं का राज्य था ।  भारत से मसाले , जड़ी बूटी, रत्न पत्थर, रेशमी कपड़े, कॉटन, टिन सीसा तांबा और कांच के समान आदि एक्सपोर्ट होते थे । ये लिखते है " glass of india as superior to others, because made of pounded crystal" 
इस पुस्तक की एक टिप्पणी समझने लायक है - india is the most populous region of the world, as it was the most cultivated, the most active industrially and commercially, the richest in natural resources and production, the most highly organised socially , and the least powerful politically . "
फाह्यान और हेनसांग के यात्रा वर्णन - इतिहास की पुस्तकों ने इन चीनी यात्रियों के संघर्षों और यात्रा वर्णनों के साथ न्याय नही किया । फाह्यान चौथी शताब्दी में भारत आया - वो लिखते है " प्रजा बहुत साधन सम्पन्न और सुखी है , देश के अधिकांश निवासी न जीवहिंसा करते , न मद्यपान करते हैं ।" उत्तर भारत के अनेक नगरों का वर्णन फाह्यान ने किया , ये श्रीलंका भी गए , वहां से जावा इंडोनेशिया फिर वहां से वापिस चीन । हुएनसांग जो कि 7 वी शताब्दी में भारत आया , उसका विवरण अत्यंत विस्तृत है । दोनो यात्रियों के अनुसार भारत मे सभी पंथ सनातन ( शैव वैष्णव शाक्त आदि ) बौद्ध जैन (श्रमण) आदि समन्वयपूर्वक प्रयेक शहर ग्राम में रहते थे । छिटपुट घटनाओं को छोड़कर इनमें कोई बड़ा विवाद नही हुआ । प्रत्येक राजा सभी पंथों की समान इज्जत करता था । सामान्यतः देश मे अश्पृश्यता कही नहीं थी । न ही किसी जाति या सम्प्रदाय पर अत्याचार होता था । तक्षशिला से गौहाटी तक , श्रीनगर कश्मीर से नासिक तक भारत के अनेक शहरों राजाओं और समाजो का वर्णन हेनसांग ने किया । हेनसांग के समय समरकंद , ताशकंद और कश्मीर बौद्ध बहुल प्रदेश हो चुके थे । हेनसांग दक्षिण भारत में विजयवाड़ा कांचीपुरम भी गया । नालंदा विश्वविद्यालय में उसने 5 साल अध्ययन किया । हेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय का विस्तृत वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि आज के ऑक्सफ़ोर्ड हारवर्ड भी प्राचीन नालंदा से पीछे हैं । हेनसांग के वर्णनों से जो बुद्ध का कालक्रम मिलता है वह वर्तमान मान्य कालक्रम (400-500 BCE)  से मैच नही करता वरन 600 साल और पीछे ले जाता है । इस पर इतिहासकारों को शोध करना चाहिए ।
अलबरूनी - सन 1000 के आसपास अरबी- ईरानी उच्चकोटि का विद्वान अलबरूनी , सुल्तान महमूद के बंधक के रूप में, भारत आया था। इसने भारत के अनेक नगरों की यात्रा की और अनेक भारतीय ग्रंथो का अध्ययन भी किया ।  इसने उस जमाने के भारत का विधितन्त्र , धर्म और दर्शन, समाज , नगर संगठन , धार्मिक नियम, मूर्तिकला, वैज्ञानिक साहित्य , माप कीमिया, भारतीय खगोलशास्त्र, कालानुक्रम, ज्योतिषशास्त्र आदि पर लिखा है। लेकिन अलबरूनी ने कई बाते बिना स्वयं देखे सुनी सुनाई बातों पर आधारित भी लिखी है जिनमें सत्यता नही है। इस समय तक भारत मे जाति प्रथा कठोर हो गयी थी और अस्पृश्यता आ गयी थी । अलबरूनी की अनेक बातें आधुनिक  इकोलॉजी और डार्विन के सिद्धांतों के समकक्ष है, जो उसने भारत मे सीखी ।
इब्नबतूता - इसने 14 वी शताब्दी में मोरक्को (अफ्रीका) से मक्का , मक्का से भारत , भारत से श्रीलंका से इंडोनेशिया से चीन फिर वापिस अफ्रीका से स्पेन की 1 लाख 17 हजार किलोमीटर यात्रा 30 सालों में की।  इब्नबतूता मेरे फ़ेवरिट ट्रेवलर हैं । इनकी पुस्तक संघर्ष और रोमांच से भरी पड़ी है । जंगली जानवरो, डाकुओं, समुद्री तूफान आदि का रोमांचक वर्णन है। भारत मे कालीकट , दिल्ली और मुल्तान शहरों में इब्नबतूता रहे । इससे उस समय की भारत मे डाक व्यवस्था , उस समय की वीसा व्यवस्था , भारत की सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था का पता चलता है । 
मार्कोपोलो - ये इटली का व्यापारी नाविक था  14 वी शताब्दी में गुजरात व केरल आया , भारत  से अनेक पुस्तकें ले गया । (जिसका बाद में इटालियन में अनुवाद हुआ) ।  इनके वर्णन से सेंट थॉमस की मृत्यु के असली कारण का पता चलता है । ये चीन की जेल में भी रहे जहां इन्होंने यह पुस्तक लिखी । 
अंत मे बात करलें अपने देश के घुमक्कड़  राहुल सांस्कृतायन जी की जिन्होंने वोल्गा से गंगा तक की संस्कृति 6000 BCE से 1942 तक के कालखंड की 20 कहानियों में समेट दी । 

आप भी इन प्रेरणादायक रोमांचक यात्रा वृतांतों को स्वयं अवश्य पढ़े ।

indian history in hindi, भारतीय इतिहास , Travelers 

मंगलवार, 20 जून 2023

योग दिवस

योग के प्रवर्तक ऋषि पतंजलि को माना जाता है , जिनका काल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी है । अर्थात यह बताने का प्रयास किया जाता है कि योग के जनक महर्षी पतंजलि थे , पतंजलि से पूर्व योग दर्शन नही था , अथवा उनसे पहले लोग योग नही जानते थे ।
जबकि पतंजलि से हजारों वर्ष पूर्व भी योग पूर्ण रूप में प्रचलित था , इसके अनेक प्रमाण वेदों में मिलते है -

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥
योग के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता, वे सदसस्पति देव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओं से युक्त करते हैं।[ऋग्वेद 1.18.7]

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे सखाय इन्द्र मूतये
(यजुर्वेद 11/14)

क्व१॒॑ त्री च॒क्रा त्रि॒वृतो॒ रथ॑स्य॒ क्व१॒॑ त्रयो॑ व॒न्धुरो॒ ये सनी॑ळाः । क॒दा योगो॑ वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॒ येन॑ य॒ज्ञं ना॑सत्योपया॒थः ॥ [ऋग्वेद 1.34.9] 

अनेक उपनिषदों में भी योग के समस्त अंगों का विस्तृत वर्णन मिलता है ।

पतंजलि के पूर्व गौतम बुद्ध ने भी योग से यम नियम पद्मासन ध्यान व समाधि को अपनाया और प्रचलित किया। 
महर्षि पतंजलि ने पूर्व प्रचलित योग के 195 सूत्रों को संकलित किया, जो योग दर्शन के स्तंभ माने गए। महर्षि पतंजलि ही पहले और एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को आस्था और धार्मिक कर्मकांड से बाहर निकालकर एक जीवन दर्शन का रूप दिया था।

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की महिमा को बताया, जो स्वस्थ जीवन के लिए महत्वपूर्ण माना गया । 
(सभी फ़ोटो- हड़प्पा कालीन योग मुद्राये ) 
आजकल योग को सिर्फ शारीरिक समस्याओं से छुटकारा दिलाने का साधन मान लिया गया है , जबकि यह अध्यात्मिक उन्नति और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की पद्धति है । 

शरीर मन और आत्मा को जोड़ने का विज्ञान है योग

योग दिवस की शुभकामनाएं !

शुक्रवार, 16 जून 2023

पुस्तकें

पढ़ना हमें बुद्धिमान और जीवंत महसूस कराता है, पढ़ना अधिक आरामदायक और अधिक कल्पनाशील होता है, जब हम कोई पुस्तक पढ़ते हैं तो हम उसमें समा जाते हैं, हमारा मस्तिष्क काम करना शुरू कर देता है, हमारी कल्पना को पंख लग जाते हैं ।

पुस्तकें एकल-विषय की जानकारी का भंडार हैं, यह व्यापक, विशिष्ट और पूर्ण है, किताबें सभी आवश्यक जानकारी को भीतर संग्रहीत करती है, किताबें हमें भ्रमित नहीं करती हैं, यह हमारे मस्तिष्क की ऊर्जा को यह तय करने के लिए कभी भी बर्बाद नहीं करती है कि आगे कहाँ तक जाना है, आगे की ओर पलटा प्रत्येक पृष्ठ हमारे लिए यह निर्णय लेता है, और सीखने के लिए हमारी सारी ऊर्जा आरक्षित करता है।

पुस्तकों के माध्यम से हम विद्वानों से सीखते हैं, हम उन लोगों से सीखते हैं जिन्होंने उसी समस्या का सामना किया था जिसका हम अभी सामना कर रहे हैं ।  पुस्तकों में संरक्षक समाधान, उनके ज्ञान, उनके अनुभव और वे समस्याओं से कैसे निपटते हैं, इसका पता चलता है । पुस्तकें समाधान दाता हैं।

सबसे तकनीकी रूप से कुशल मशीन जिसका आविष्कार मनुष्य ने कभी किया है वह पुस्तक है। - नॉर्थ्रॉप फ्राई 

पुस्तकों को अधिक गहन अध्ययन के लिए पढ़ा जाता है और इंटरनेट का उपयोग सूचना इकट्ठा करने व विषय के सतही ज्ञान के लिए किया जाता है।

इंटरनेट सर्फर को पढ़ने, ध्वनि और दृश्य के अनुभव प्रदान करता है, लेकिन पुस्तकें मस्तिष्क की कल्पना शक्ति को ऊंचाइयां प्रदान करती हैं , क्योकि ध्वनि व दृश्य आपको मस्तिष्क में स्वयं बनाने होते हैं ।

किताबों में आमतौर पर असत्य तथ्य, कुतर्क या गलत जानकारी नहीं होती है, पुस्तकें प्रकाशित होने से पहले पूरी तरह से जांच से गुजरती हैं, जबकि इंटरनेट में नकली तथ्यों की भरमार है, इंटरनेट पॉप-अप , विज्ञापन और लिंक द्वारा उपयोगकर्ताओं को विचलित करता है, और ध्यान भटकाता है, लेकिन किताबों के मामले में ऐसा नहीं है, किताबें एकल-आधारित विषय हैं, उनके पास पॉप-अप नहीं हैं और वे ऐसी चीजें किताबों नहीं डालते हैं जिनकी आवश्यकता नहीं है।
पुस्तकों का स्रोत इंटरनेट से अधिक वैध है। इंटरनेट में इतनी जानकारी है, कुछ भी कभी भी पोस्ट किया जा सकता है और आपको पता नहीं है कि यह सच है या गलत है।

किताबें विश्वसनीय हैं ।
इसलिए गूगल और विकिपीडिया की बजाय किताबों पर भरोसा करें ।

नज़ीर अकबराबादी

महान शायर नज़ीर अकबराबादी की पुण्यतिथि है आज ।

आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है,
मुल्ला कहो, दबीर (लेखक) कहो, आगरे का है
मुफ़लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है.’
होली को राष्ट्रीय त्यौहार मानने वाले नज़ीर ने इस पर्व पर 20 से अधिक कविताएं लिखी हैं. आगरा शहर की हर गली में होली किस तरह से खेली जाती है इसका वर्णन उन्होंने किया है. इसके अलावा, दिवाली, राखी, बसंत, कंस का मेला, लाल जगधर का मेला जैसे पर्वों पर भी उन्होंने जमकर लिखा. दुर्गा की आरती, हरी का स्मरण, भैरों और भगवान् के अवतारों का जगह-जगह बयान है उनकी नज़्मों में । गुरु नानक देव पर उनकी नज्म प्रसिद्ध है । पर जब नज़ीर अकबराबादी कृष्ण की तारीफ़ में लिखते हैं तो उन्हें सबका ख़ुदा बताते हैं:-

‘तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी

हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी

तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा

तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी.’

एक कविता में नज़ीर कृष्ण पर लिखते हैं:

‘यह लीला है उस नंदललन की, मनमोहन जसुमत छैया की ...

आज के जमाने मे वे ऐसी शायरी लिखते तो मुल्ला मौलवी उन पर फतवा जारी कर देते ।
आज के शायरों की तरह वे "बंदर वन्दर जितनी ईंटे उतने सिर" या "किसी के बाप का हिंदुस्तान" जैसी छुद्रता पर नही उतरे । 

धार्मिक एकता और सद्भावना की सही  मिसाल थे नज़ीर अकबराबादी ।
महान शायर को नमन 🙏🙏🙏

शिवत्व

ब्रह्मांड की जो टोटल एटर्नल इंटर्नल एनर्जी है या रैंडमनैस या एंट्रापी है ..आप ग्रे मैटर भी कह सकते हैं , वही शिव है जिसका सिंबोलिक मैनिफैस्टेशन शिवलिंगम् है..

सत्य आराध्य तो है किंतु वह शिवम के साथ संयुक्त होकर ही सुन्दर बन पाता है..
शिवम् = शिव और अहम् । अर्थात मैं शिव हूँ परन्तु मैं शिव हूँ मे "मैं" आपका अहंकार नहीं होना चाहिए अपितु "मैं" एकाकी होना चाहिए ।

जो आदमी सत्य का अनुभव करने लगता है, वह तुरंत सत्य को जीने लगता है। उसके सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है। उनका जीवन सत्य है। शिवम सत्य की क्रिया है; सत्य ही चक्रवात का केंद्र है। लेकिन अगर आप सत्य का अनुभव करते हैं, तो आपके आसपास का चक्रवात शिवमय हो जाता है। यह शुद्ध ईश्वरत्व बन जाता है। ब्रह्मांड की समग्रता ही सुंदर है , जिसका अहसास सत्य और शिवम से होता है ।

शिवत्व सत्य के सुन्दर बन जाने की क्रियाविधि है। "सत्यम शिवम् सुंदरम" मात्र तीन शब्द नहीं है, अपितु पूरे ब्रह्माण्ड का सार है ।
ब्रह्माण्ड में दो ही चीजें हैं : ऊर्जा और पदार्थ। हमारा शरीर पदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है। इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते है। 

नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मने।।
रसरूप, जलमय विग्रहवाले हे भवदेव मेरा आपको प्रणाम है। 

हर हर महादेव

गुरू गोविंद सिंह जी

गुरू गोविंद सिंह जी जिनकी आज जयंती है - 
22 दिसम्बर
गुरू गोविंद सिंह जी वीरता बुधिमत्ता और साहस के प्रतिमूर्ति थे। आपका जन्म २२ दिसंबर १६६६ को पटना में हुआ था . औरंगजेब द्वारा पिता तेगबहादुर की हत्या किये जाने के बाद नौ वर्ष की आयु में ही गोविंद सिंह जी को गुरू की गद्दी पर बैठा गया। बचपन में इन्हें सभी प्यार से ‘बाला प्रीतम’ कह कर पुकारते थे। लेकिन इनके मामा इन्हें गोविंद की कृपा से प्राप्त मानकर गोविंद नाम से पुकारते थे। यही नाम बाद में विख्यात हुआ और बाला प्रीतम गुरू गोविंद सिंह कहलाये।

गुरू पद की गरिमा बनाए रखने के लिए गोविंद सिंह जी ने युद्ध कला में प्रशिक्षण प्राप्त करने के साथ ही अनेक भाषाओं की भी शिक्षा प्राप्त की। कुशाग्र बुद्धि और लगन से गोविंद सिंह जी ने कम समय में ही युद्ध कला में महारथ हासिल कर ली और उच्च कोटि के विद्वान बन गये। इन्होंने संस्कृत, पारसी, अरबी और अपनी मातृभाषा पंजाबी को ज्ञान प्राप्त किया। वेद, पुराण, उपनिषद् एवं कुरान का भी इन्होंने अध्ययन किया।

आपने हिन्दुओं से खालसा (शुद्ध ) पंथ की स्थापना की . खालसा की स्थापना करने के बाद गुरू गोविंद सिंह जी ने बड़ा सा कड़ाह मंगवाया। इसमे स्वच्छ जल भरा गया। गोविंद सिंह जी की पत्नी माता सुंदरी ने इसमे बताशे डाले। ‘पंच प्यारों’ ने कड़ाह में दूध डाला और गुरुजी ने गुरुवाणी का पाठ करते हुए उसमे खंडा चलाया। इसके बाद गुरुजी ने कड़ाहे से शरबत निकालकर पांचो शिष्यों को अमृत रूप में दिया और कहा, “तुम सब आज से ‘सिंह’ कहलाओगे और अपने केश तथा दाढी बढाओगे। गुरू जी ने कहा कि केशों को संवारने के लिए तुम्हे एक कंघा रखना होगा। आत्मरक्षा के लिए एक कृपाण लेनी होगी। 
सैनिको की तरह तुम्हे कच्छा धारण करना पड़ेगा और अपनी पहचान के लिए हाथों में कड़ा धारण करना होगा। इसके बाद गुरू जी ने सख्त हिदायत दी कि कभी किसी निर्बल व्यक्ति पर हाथ मत उठाना। इसके बाद से सभी सिख खालसा पंथ के प्रतीक के रूप में केश, कंघा, कृपाण, कच्छा और कड़ा ये पांचों चिन्ह धारण करने लगे। नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। इस घटना के बाद से ही गुरू गोविंद राय गोविंद सिंह कहलाने लगे। 
गुरु गोविंद सिंह जी ने औरंगजेब की क्रूर नीतियों से धर्म की रक्षा के लिए हिन्दुओं को संगठित किया और सिख कानून को सूत्रबद्ध किया। इन्होंने कई काव्य की रचना की। इनकी मृत्यु के बाद इन काव्यों को एक ग्रंथ के रूप में संग्रहित किया जो दसम ग्रंथ के नाम से जाना जाता है। यह पवित्र ग्रंथ गुरू गोविंद सिंह जी का हुक्म माना जाता है। गुरु गोविन्द सिंह का बलिदान सर्वोपरि और अद्वितीय है. क्योंकि गुरूजी ने धर्म के लिए अपने पिता गुरु तेगबहादुर और अपने चार पुत्र अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतह सिंह को बलिदान कर दिया था. एक दिन उन्होंने सिख संगत को बुलाकर कहा, "अब मेरा अंतिम समय आ गया है। मेरे मरने के साथ ही सिख सम्प्रदाय में गुरु परंपरा समाप्त हो जायेगी। भविष्य में सम्पूर्ण खालसा ही गुरु होगा । आप लोग 'ग्रन्थ साहिब' को ही अपना गुरु मानें।"  ७ अक्टूबर, १७०८ को गुरु गोविन्द सिंह का देहांत हो गया । 

गुरु गोविंद सिंह जी को शत शत नमन

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श्री गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस

24 नवंबर 1675 
श्री गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस 

आध्यात्मिक चिंतक व धर्म साधक गुरु तेगबहादुर का जन्म वैशाख की कृष्ण पक्ष-पंचमी को छठे गुरु हरगोबिंद साहिब और माता बीबी नानकी के घर हुआ। बचपन से ही अध्यात्म के प्रति उनका गहरा लगाव था। वे त्याग और वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे। उनका नाम भी पहले ‘त्याग मल’ था। उनमें योद्धा के भी गुण मौजूद थे। 

मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने करतारपुर के युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई। उनकी तेग (तलवार) की बहादुरी से प्रसन्न होकर पिता ने उनका नाम त्यागमल से ‘तेग बहादुर’ कर दिया। सांसारिकता से दूर रहकर गुरु जी आत्मिक साधना में 21 वर्ष तक लीन रहे  थे। गुरु तेगबहादुर के 57 शबद और 59 श्लोक श्री गुरुग्रंथ साहब में दर्ज हैं। श्री गुरु तेग बहादुर जी की वाणी में समायी है राम नाम की महिमा - रे मन राम सिंओ कर प्रीति ।
सखनी गोविन्द गुण सुनो और गावहो रसना गीति।। , 
राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥ 
रट नाम राम बिन मिथ्या मानो, सगरो इह संसारा ।।
उन्होंने अपनी वाणी में जीवन जीने की एक अत्यंत सहज- स्वाभाविक पद्धति प्रस्तुत की है, जिसे अपनाकर मनुष्य सभी तरह के कष्टों से सुगमता से छुटकारा पा सकता है। 
गुरु जी का कथन है कि चिंता उसकी करो, जो अनहोनी हो-‘चिंता ताकी कीजिये जो अनहोनी होय’। इस संसार में तो कुछ भी स्थिर नहीं है। गुरु तेग बहादुर के अनुसार,समरसता सहज जीवन जीने का सबसे सशक्त आधार है।
 आशा-तृष्णाकाम-क्रोध आदि को त्यागकर मनुष्य को ऐसा जीवन जीना चाहिए, जिसमें मान-अपमान, निंदा-स्तुति, हर्ष-शोक, मित्रता-शत्रुता समस्त भावों को एक समान रूप से स्वीकार करने का भाव उपस्थित हो - ‘नह निंदिआ नहिं उसतति जाकै लोभ मोह अभिमाना। हरख सोग ते रहै निआरऊ नाहि मान अपमाना’। गुरु जी का कहना है कि वैराग्यपूर्ण दृष्टि से संसार में रहते हुए सभी सकारात्मक - नकारात्मक भावों से निर्लिप्त होकर ही सुखी और सहज जीवन जिया जा सकता है।
उन्होंने कश्मीरी हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों ‘तिलक’ और ‘जनेऊ’ की रक्षा के लिए दिल्ली के चांदनी चौक (अब शीशगंज) में अपना शीश कटाकर प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। नौवें गुरु की इस बेमिसाल कुर्बानी पर गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा- ‘तिलक जंझू राखा प्रभता का। कीनो बड़ो कलू महि साका।।’ इस अभूतपूर्व बलिदान के कारण ही उन्हें ‘हिंद की चादर - गुरु तेग बहादुर’ कहकर सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।


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