शनिवार, 13 मई 2023

वैज्ञानिक जानकी अम्माल , जिन्हें देश ने भुला दिया

महिला वैज्ञानिक जानकी अम्माल , जिन्हें देश ने भुला दिया 

विश्व की प्रथम महिला जिन्होंने बॉटनी में D.Sc. किया । 

डॉ जानकी का जन्म केरल के त्रिसूर में 1897 को हुआ । आपने क्वीन मैरी कालेज से बीएससी, मद्रास प्रेसिडेंसी कालेज से एमएससी की । फिर स्कॉलरशिप प्राप्त कर अमेरिका गयी वहां क्रोमोसोम और हाइब्रिड बैगन पर शोध कार्य में पीएचडी की । इस बैगन को janaki brinjal कहा जाता है । आपके द्वारा खोजे गए कुछ प्लांट स्पीशीज को आपके नाम से जाना जाता है जैसे  Sonerila janakiana एवं Dravidogecko janakiae 
1932 से 1934 तक महाराजा कालेज त्रिवेंद्रम में प्रोफेसर रही फिर जॉन इंन्स इंस्टिट्यूट लंदन रिसर्च करने चली गयी । वहाँ पर प्रोफेसर Darlington के साथ 1940 से 1945 तक आपने 10000 पौधों की cytogenetics पर अनुसंधान किया । रॉयल हॉर्टिकल्चर सोसाइटी लंदन ने आपके सम्मान में एक गुलाब के फूल की किस्म   का नाम  janaki ammal रखा । अमेरिका के मिशिगन विश्विद्यालय ने आपको D.Sc. प्रदान की ।

भारत आने पर आप सेंट्रल बॉटनीकल लैबोरेटरी इलाहाबाद में निर्देशक बनी किंतु रिसर्च में नौकरशाही के अनावश्यक दखलअन्दाजी के कारण स्तीफा दे दिया । 
1956 में आपको भारत सरकार ने sugarcane breeding इंस्टिट्यूट कोयंबटूर का डायरेक्टर बनाया । किंतु रिसर्च में लालफीताशाही व नौकरशाही के दखल के कारण आपने फिर स्तीफा दे दिया । 

1977 में आपको पद्मश्री सम्मान मिला । 1984 में आपका स्वर्गवास हुआ ।
विश्व मे आपको प्लांट साइटोजेनेटिक्स का प्रवर्तक माना जाता है ।

वैज्ञानिक न्यूटन को लिखना पड़ी इतिहास की किताब :

जब न्यूटन को लिखना पड़ी इतिहास की किताब :

सर आइजक न्यूटन को हम एक महान गणितज्ञ व भौतिक वैज्ञानिक के रूप में ही जानते है । बहुत कम लोगो को पता होगा कि वे इतिहासकार भी थे और उन्होंने प्राचीन विश्व इतिहास की पुस्तक भी लिखी थी । 

सर न्यूटन दिन रात विज्ञान की खोजो में लगे रहते थे । उनकी पुस्तके प्रिन्सपिया, ऑप्टिक्स, कैल्कुलस आदि पूरे यूरोप में प्रसिद्ध थी । वे उस वक़्त के विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक माने जाते थे । 
एक बार कैम्ब्रिज में उनका पाला इतिहास के प्रोफेसरों से पड़ा । उस वक़्त अंग्रेजों द्वारा जो इतिहास पढ़ाया जाता था उसे सर न्यूटन एक बार ही देख कर वे समझ गए कि ये पूरा झूठ का पुलिंदा है । उन्होंने अपने मित्र Fatio de Duillier से कहा कि अंग्रेज कभी सही इतिहास नही लिख सकते । एक तो इसका कारण यह है कि अपनी संस्कृति को सुप्रीम मानना और अन्य संस्कृतियो को पिछड़ा और ट्राइबल मानना । इसलिए वे जीत को हार और हार को जीत लिखने से बाज नही आते । दूसरा यह कि इनकी मानसिकता मिशनरी प्रभावित होती है । बाइबिल में आदम से ईसा तक की वंशावली उपलब्ध है , जिससे पता चलता है कि लगभग 5000 BC में आदम हुए और उनसे 6 दिन पहले दुनिया बनाई गई। अर्थात मानव जाति 5000 BC से पहले नही थी और किसी भी  नगरीय या ग्राम्य सभ्यता मूसा के काल 1500 BC से पहले की नही हो सकती । जबकि न्यूटन का मानना था कि मानव लाखों वर्षो से धरती पर है और इतना ही पुराना मानव सभ्यता का इतिहास है । 
उन दिनों अंग्रेज इतिहासकार इजिप्ट , पारसी, बेबीलोन और ग्रीक सभ्यता को 1500 BC  से अधिक प्राचीन नही मानते थे । न्यूटन ने इसका अध्ययन कर निष्कर्ष दिया कि इन सभ्यताओं की वास्तविक तिथि आदम से कम से कम 2000 वर्ष पहले की है । इजिप्ट के पिरामिड तथाकथित आदम हव्वा की तारीख से हज़ारों साल पहले बन चुके थे । न्यूटन ने यह भी देखा कि अंग्रेज इतिहासकार किसी देश में ईसाइयत आने से पहले के इतिहास को महत्वपूर्ण नही मानते थे । 

सन 1728 में सर न्यूटन की पुस्तक Revised History of Ancient Kingdoms: A Complete Chronology , ( the chronology of ancient kingdom amended) प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में प्राचीन ग्रीक , मिश्र, असीरिया, बेबिलोनिया, पारसी सभ्यताओं और राज्यो की सही तिथियां और घटनाएं प्रमाण के साथ दी गयी । न्यूटन ने इतिहास को विज्ञान की प्रामाणिकता से जोड़ा । 

इस किताब के पहले पृष्ठ पर ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य John Conduitt का महारानी को लिखा पत्र है , जिसमे न्यूटन द्वारा इस किताब को लिखने का कारण और इतिहास में सुधार करने का औचित्य बताया है ।
इसका विरोध करने का साहस किसी इतिहासकार में नही था क्योकि सर न्यूटन उस वक़्त रॉयल सोसाइटी के अध्यक्ष और 'आर्डर ऑफ द मिंट' थे । उनका पद इंग्लैंड के सम्राट के कैबिनेट मंत्री के तुल्य था । 
अंग्रेज इतिहासकारो ने अपनी किताबे सुधार ली और सही तिथियों को दर्ज किया । अब Cambridge और इंग्लैंड में इतिहास को 4500 वर्ष और पीछे से पढ़ाया जाने लगा । 

उनकी तो सुधर गयी हमारी किताबे कब सुधरेंगी ?

( Reference :1 Never at Rest: A Biography of Isaac Newton by Richard S. Westfall 2 A Portrait of Isaac Newton by Frank E. Manuel
3 Newton and the Origins of Civilization by Jed Z. Buchwald & Mordechai Feingold 4 Priest of Nature: The Religious Worlds of Isaac Newton by Rob Iliffe 5 Isaac Newton and Natural Philosophy by Niccolò Guicciardini)

75000 साल पहले भारतीयों का सफर

75000 साल पहले भारतीयों का सफर :
(ज्वालापुरम से ढाबा 1300 किलोमीटर )

इंडोनेशिया के सुमात्रा में एक ज्वालामुखी है -टोबा । इस ज्वालामुखी में आज से 75000 साल पहले बड़ा भयंकर विस्फोट हुआ । विस्फोट इतना भयंकर था कि इसकी राख और लावा भारत तक आ गया था । और इस विस्फोट ने पूरे दक्षिण भारत को अपनी चपेट में ले लिया था ।

आंध्र प्रदेश के करनूल जिले में एक कस्बा है - ज्वालापुरम । यहाँ वैज्ञानिक व पुरातात्विक परीक्षण से पता चला कि 75000 साल पहले टोबा ज्वालामुखी विस्फोट की राख से यह इलाका दब गया था । राख की परत के नीचे जो साक्ष्य मिले उनसे पता चलता है कि ज्वालामुखी घटना होने के पहले से यहां एक सभ्यता निवास करती थी जो कि खेती करती थी  । अर्थात भारत मे खेती करने का प्रमाण 75000 साल पूर्व का उपलब्ध होता है ।

ज्वालापुरम के निवासी टोबा विस्फ़ोट के बाद उत्तर की तरफ चले गए । क्योकि पूरे दक्षिण भारत मे 6 मीटर राख की परतें जम चुकी थी और सभी पेड़ पौधे व छोटे जानवर समाप्त हो गए थे । दक्षिण भारत के निवासी नर्मदा नदी पार करते हुए मध्यप्रदेश के सीधी जिले के ढाबा गांव में सोन नदी के किनारे पहुचे । यहाँ पर ऑक्सफ़ोर्ड व क़वीन्सलैंड यूनिवर्सिटी के द्वारा हुए पुरातात्विक अध्ययन से पता चलता है कि टोबा विस्फोट के कुछ साल बाद यहां पर दक्षिण से आये हुए लोगो की बसाहट हुई थी और यहां भी खेती करने के प्रमाण मिले हैं । आस पास के गांवों जैसे सिहावल, पटपरा, नकझर , बम्बूरी में भी 75000 वर्ष पुरानी कृषि व घर वाली मानव सभ्यता के अवशेष मिले हैं । 

जरा सोचिए कि आज से 75000 साल पहले हजारों इंसानों का दक्षिण भारत से उत्तर भारत के लिए प्रवजन कैसे हुआ होगा ? (हो सकता है ये लोग जबलपुर से भी गुजरे हों )

क्या ये वही लोग थे जिन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के लहुरादेव (जिला बस्ती) में 14000 साल पहले यंत्र सहित उन्नत खेती की शुरुआत की होगी ?
लेकिन हमें तो मैकाले के मानस पुत्रों ने यही पढ़ाया है कि आज से 5000 साल पहले सिंधुघाटी से पूर्व भारत मे कोई भी विकसित सभ्यता नही थी । भारतीय लोग पहले सिंधुघाटी में बसे - फिर गंगा के किनारे - फिर उत्तर भारत से दक्षिण भारत मे बसे । टोबा विस्फोट , ज्वालापुरम, ढाबा, लहुरादेव आदि का नाम मैकाले पुत्रों ने इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से गायब ही कर दिया ।

होमी जहाँगीर भाभा

होमी जहांगीर भाभा वह नाम है, जिसने हिंदुस्तान के परमाणु कार्यक्रम को बुलंदियों पर ले जाने का सपना देखा था। उन्होंने देश के परमाणु कार्यक्रम के भविष्य की ऐसी मजबूत नींव रखी, जिसके चलते भारत आज विश्व के प्रमुख परमाणु संपन्न देशों की कतार में पूरी शान से खड़ा है।मुंबई में 30 अक्टूबर 1909 को जहांगीर होरमुसजी भाभा और महरबाई के घर में विज्ञान जगत की इस महान विभूति का जन्म हुआ था।महज 25 साल की उम्र में ही कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से परमाणु भौतिकी में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की | वे चाहते तो यूरोप या अमेरिका में उच्च वैज्ञानिक पद प्राप्त कर सकते थे लेकिन वे  भारत में भौतिकी विज्ञान को नई ऊंचाईयां देने में लग गए। वह बंगलुरू के इंडियन स्कूल ऑफ साइंस से जुड़ गए। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सीवी रमन इस संस्थान के प्रमुख थे। यहीं से भाभा के नए सफर की शुरुआत हुई। होमी जहांगीर भाभा का शुरू से मानना था कि परमाणु ऊर्जा देश के लिए काफी फायदेमंद साबित हो सकती है। भाभा मानते थे कि अगर भारत परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आगे बढ़ा तो बिजली की सारी समस्याएं समाप्त हो सकती हैं। उन्होंने टाटा ट्रस्ट के प्रमुख सर दोराब टाटा से कहा भी था कि हम एक ऐसा संस्थान बनाते हैं, जहां से परमाणु वैज्ञानिक तैयार किए जा सकें। अगर ऐसा संस्थाऐन बना तो आज से दशकों बाद भारत में परमाणु बिजली संयत्र लगाए जाएंगे तब देश को बाहर से लोग नहीं लाने पड़ेंगे। देश में ही काफी वैज्ञानिक तैयार होंगे।भाभा के नेतृत्व में इंडियन स्कूल ऑफ साइंस में कॉस्मिक किरणों पर रिसर्च की गई। उस दौरान देश में कॉस्मिक किरणों पर रिसर्च के लिए अच्छी सुविधाएं नहीं थीं। भाभा ने इसी सेंटर में कॉस्मिक किरण रिसर्च यूनिट की स्थापना की। इसके बाद भौतिक विज्ञान की दिशा में भाभा नए-नए आयाम छूते गए। उन्होंने बंबई में जेआरडी टाटा के सहयोग से टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना की। 1948 में उन्होंने भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की और अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। भाभा ने अपना पूरा जीवन भारत में विज्ञान को आगे बढ़ाने में लगा दिया । भाभा एक महान स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने परमाणु वैज्ञानिक राजा रामन्ना से कहा था, "हमें परमाणु क्षमता रखनी चाहिए। पहले हमें खुद को साबित करना चाहिए, उसके बाद अहिंसा और परमाणु हथियारों से मुक्त विश्व के बारे में बात करनी चाहिए।" परमाणु क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान को देखते हए अगर उन्हें 'परमाणु पुरुष' कहा जाए, तो गलत नहीं होगा।1953 में जेनेवा में आयोजित विश्व परमाणुविक वैज्ञानिकों के महासम्मेलन में उन्होंन सभापतित्व भी किया था।
डॉ भाभा ने 4 जनवरी 1966 को भारत सरकार को गोपनीय प्रस्ताव भेजा था जिसमे कहा गया था कि भारत सरकार की अनुमति मिलने पर परमाणु वैज्ञानिक दो साल के भीतर परमाणु बम बना सकते हैं।  इस प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री सहमत थे , किन्तु सम्भवतः दुर्भाग्यवश PMO के किसी अधिकारी ने यह पत्राचार लीक कर दिया . दो वर्ष के भीतर भारत के एटम बम बनाने की क्षमता हासिल करने की बात कहने के कुछ ही समय बाद ताशकंत में 11 जनवरी 1966 को रहस्यमय परिस्थितियों में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु होना और 24 जनवरी 1966 को विमान दुर्घटना में भारतीय एटमी कार्यक्रम के जनक होमी जहाँगीर भाभा का मारा जाना अब भी रहस्य बना हुआ है। डॉ भाभा की मौत को लेकर कहा जाता है कि वे विदेशी ताकतों ( सी आई ऐ , के जी बी ) के साजिश के शिकार हो गये । विदेशी ताकतों को लगता था कि डॉ भाभा के रहते भारत बहुत जल्द ही परमाणु ताकत बन जायेगा। 24 जनवरी 1966 का दिन भारत के इतिहास में एक दुखद दिन के रूप में सामने आया। फ्रांस के मोंट ब्लांक में एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। दुर्घटना के वक्त इसमें भाभा समेत 106 यात्री और 11 कर्मी दल के सदस्य सवार थे। दुर्घटना में कुल मिलाकर 117 लोगों की मौत हुई थी। बरसो बाद आल्पस पर्वतारोहियों को विमान का मलबा मिला जिसे उन्होंने फ़्रांस सरकार को सौपा | एक सूटकेस टुकड़े  की फोरेंसिक जांच से पता चला था की उसमे टाइम बम प्लांट किया गया था और एक यात्री जिसका नाम जॉन गिल्बर्ट था उसने बोर्डिंग पास और लगेज पास लिया था लेकिन विमान में नहीं बैठा | 
इस तरह भारत के महान सपूत भाभा ने अपना बलिदान दिया | भारत रत्न के हकदार है ड़ॉ होमी जहांगीर
 भाभा.....................

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वैज्ञानिक विभा चौधरी

एक और महिला वैज्ञानिक जिसे हमने भुला दिया : विभा चौधरी Bibha Choudhary 

परमाणु के नाभिक में एक कण होता है जिसे मेसॉन (meson) कहते है , मेसॉन की परिकल्पना जापानी वैज्ञानिक युकावा ने 1934 में की थी । किंतु युकावा की खोज पूरी तरह से सैद्धान्तिक व गणितीय थी ।

क्या आप जानते है कि प्रायोगिक रूप से मेसॉन (meson) को सर्वप्रथम किसने साबित किया था ? वे थी कोलकाता की महिला वैज्ञानिक बिभा चौधरी !
बिभा चौधरी का जन्म 1913 में हुआ । इन्होने बैथुन कालेज , राजाबाजार साइंस कॉलेज कलकत्ता यूनिवर्सिटी से बीएससी व एमएससी भौतिकी की शिक्षा प्राप्त की । आपने कोलकाता यूनिवर्सिटी के भौतिक विज्ञान के विभागाध्यक्ष डॉ डी एम बोस के निर्देशन में कॉस्मिक किरणों पर अनुसंधान किया और स्वयं कॉस्मिक किरणों को पहचानने का उपकरण बनाया । जिससे आपने परमाण्विक कण मेसॉन के अस्तित्व को साबित किया और उसके द्रव्यमान की गणना भी की । आपका यह अनुसंधान 1941 में 3 शोधपत्रों के द्वारा अमेरिका की नेचर पत्रिका में प्रकाशित हुआ । द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उपकरण में लगने वाली फोटोग्राफी प्लेट , जो यूरोप से आती थी, उसकी सप्लाई नही हो पाई और मेसोन पर आपका आगामी कार्य नही हो सका । 
फिर आपने मैनचेस्टर विश्वविद्यालय से प्रोफेसर Patrick Blackett के निर्देशन में पीएचडी की । आपके द्वारा किये गए अनुसंधान पर Patrick Blackett को 1948 का नोबल पुरस्कार मिला ।

डॉ विभा चौधरी द्वारा किये गए मेसॉन (meson) के प्रयोगों को ब्रिटिश वैज्ञानिक C F Powell ने रिपीट किया और वही परिणाम प्राप्त हुए । इस रिसर्च पर CF Powell को 1950 में नोबल पुरुस्कार मिला । 
जबकि नोबल पुरस्कार की असली हकदार थी बिभा चौधरी ।
भारत आने पर आपने बोस इंस्टिट्यूट कोलकाता में शोध कार्य किया । फिर होमी भाभा के निमंत्रण पर आपने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च जॉइन किया , जहाँ आपने कोलार गोल्ड फील्ड पर कार्य किया । 

कुछ वर्षों बाद आपने साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स कोलकाता में अनुसंधान कार्य किया और मिशिगन विश्वविद्यालय अमेरिका की विजिटिंग प्रोफेसर रही । 

1991 में आपका स्वर्गवास हुआ ।

भारत सरकार द्वारा इस महान महिला वैज्ञानिक को कोई पुरुस्कार या सम्मान नही मिला ।
 नासा ने आपको मेसॉन (meson) का असली खोजकर्ता माना और आपके सम्मान में 2019 में एक नए तारे का नाम विभा रखा । यह हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है ।

एक श्रृंगी

महाभारत शांतिपर्व 92-93
भगवान श्रीकृष्ण कहते है -
"एक सींग वाले नन्दी वराह रूप में डूबी हुई भूमि का उद्धार करने के कारण मेरा नाम "एक श्रृंगी" हुआ ।।
यह कार्य करने हेतु मैने तीन ककुद वाले वाराह का रूप लिया , शरीर के इस मापन के कारण मैं  "त्रिककुत" नाम से विख्यात हुआ  ।।"
भगवान श्रीकृष्ण के एकशृंगी व त्रिकुट रूप को प्रणाम ।। 
🙏🙏🙏

महान क्रांतिकारी प्रीतिलता वादेदार

महान क्रांतिकारी प्रीतिलता वादेदार

प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 को तत्कालीन पूर्वी भारत (और अब बांग्लादेश) में स्थित चटगाँव के एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता नगरपालिका के क्लर्क थे। वे चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय की मेघावी छात्रा थीं। उन्होंने सन् 1928 में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की। इसके बाद सन् 1929 में उन्होंने ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लिया और इण्टरमिडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं।

दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया। उन्हें 80 वर्ष बाद मरणोपरान्त यह डिग्री प्रदान की गयी।
पूर्वी बंगाल के घलघाट में क्रान्तिकारियों को पुलिस ने घेर लिया था। घिरे हुए क्रान्तिकारियों में अपूर्व सेन, निर्मल सेन, प्रीतिलता और सूर्यसेन आदि थे। सूर्यसेन ने लड़ाई करने का आदेश दिया। अपूर्वसेन और निर्मल सेन शहीद हो गये। सूर्यसेन की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया। सूर्यसेन और प्रीतिलता लड़ते लड़ते भाग गये। क्रांतिकारी सूर्यसेन पर 10 हजार रूपये का इनाम घोषित था।

दोनों एक सावित्री नाम की महिला के घर में गुप्त रूप से रहे। वह महिला क्रान्तिकारियों को आश्रय देने के कारण अंग्रेजो का कोपभाजन बनी। सूर्यसेन ने अपने साथियों का बदला लेने की योजना बनाई। योजना यह थी कि पहाड़ी की तलहटी में यूरोपीय क्लब पर धावा बोलकर नाच गाने में मग्न अंग्रेजों को मृत्यु का दंड देकर बदला लिया जाये। प्रीतिलता के नेतृत्त्व में कुछ क्रांतिकारी वहाँ पहुँचे।

24 सितम्बर 1932 की रात इस काम के लिये निश्चित की गयी। हथियारों से लैस प्रीतिलता ने आत्म सुरक्षा के लिए पोटेशियम साइनाइड नामक विष भी रख लिया था। पूरी तैयारी के साथ वह क्लब पहुंची। बाहर से खिड़की में बम लगाया। क्लब की इमारत बम के फटने और पिस्तौल की आवाज़ से काँपने लगी। नाच रंग के वातावरण में एकाएक चीखें सुनाई देने लगी। 13 अंग्रेज जख्मी हो गये और बाकी भाग गये। इस घटना में एक यूरोपीय महिला मारी गयी। थोड़ी देर बाद उस क्लब से गोलीबारी होने लगी। प्रीतिलता के शरीर में एक गोली लगी। वे घायल अवस्था में भागी लेकिन फिर गिरी और पोटेशियम सायनाइड खा लिया।

उस समय उनकी उम्र 21 साल थी। इतनी कम उम्र में उन्होंने झांसी की रानी का रास्ता अपनाया और उन्ही की तरह अंतिम समय तक अंग्रेजों से लड़ते हुए स्वंय ही मृत्यु का वरण कर लिया।

प्रीतिलता के आत्म बलिदान के बाद अंग्रेज अधिकारियों को तलाशी लेने पर जो पत्र मिले उनमें छपा हुआ पत्र था। इस पत्र में छपा था कि "चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद जो मार्ग अपनाया जायेगा, वह भावी विद्रोह का प्राथमिक रूप होगा। यह संघर्ष भारत को पूरी स्वतंत्रता मिलने तक जारी रहेगा।"
(SN Mishra)


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