सायर नाही सीप बिन, स्वाति बूंद भी नाहि।
कबीर मोती नीपजे, सुन्नि सिषर गढ़ माहिं।।
अर्थात कबीर दास जी अपनी इस साखी में कहते हैं कि शरीर रूपी किले में सुषुम्ना नाड़ी के ऊपर स्थित ब्रह्मरंध्र में ना तो समुद्र है, ना ही सीप है और ना ही वहाँ पर स्वाति नक्षत्र की बूंद है, फिर भी वहाँ मोक्ष रूपी मोती उत्पन्न होता है अर्थात एक अद्भुत दिव्य ज्योति का दर्शन हो रहा है।
ब्रह्मरंध्र का उल्लेख योग और तंत्र शास्त्रों में अत्यधिक महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में किया गया है। यह शरीर के शीर्ष पर स्थित सहस्रार चक्र के भीतर एक सूक्ष्म केंद्र होता है, जो आध्यात्मिकता और चेतना के उच्चतम स्तर का प्रतीक है। "ब्रह्मरंध्र" का शाब्दिक अर्थ है "ब्रह्म का द्वार" या "ईश्वर का द्वार", और यह माना जाता है कि इसी मार्ग से आत्मा शरीर को त्यागती है और ब्रह्मांडीय चेतना से एक हो जाती है।
ब्रह्मरंध्र का महत्व मुख्य रूप से साधक की आध्यात्मिक उन्नति में है। यह स्थान सिर के शीर्ष पर मौजूद होता है, जिसे 'सहस्रार चक्र' कहा जाता है, और इसे हजार पंखों वाले कमल के रूप में वर्णित किया गया है। जब साधक गहन साधना, ध्यान या कुंडलिनी जागरण की अवस्था में पहुंचता है, तब कुंडलिनी शक्ति मेरुदंड के नीचे से ऊपर उठकर इस चक्र को भेदती है, और ब्रह्मरंध्र के माध्यम से साधक को आत्म-साक्षात्कार या मोक्ष की अनुभूति होती है। यह परम आनंद और शांति की अवस्था होती है, जिसे ब्रह्म से मिलन कहा जाता है।
ब्रह्मरंध्र को भेदन करने की प्रक्रिया साधक के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि यह व्यक्ति के सीमित अहंकार को समाप्त कर उसे अनंत चेतना से जोड़ता है। इस चक्र के जागृत होने पर साधक के भीतर दिव्य ज्ञान, सत्य और असीम शांति का अनुभव होता है। योग शास्त्रों में इसे जीवन और मृत्यु के बंधनों से मुक्ति का मार्ग बताया गया है।