बुधवार, 27 नवंबर 2024

शुभ और अशुभ

 जीवन में शुभ और अशुभ का सतत संघर्ष रहता है। गीता में अर्जुन के धर्मसंकट को शुभ और अशुभ के बीच संघर्ष का उदाहरण माना जा सकता है।


शुभ सार्वभौमिक है या सापेक्ष? भारतीय परंपरा में यह मान्यता है कि शुभ की मूल प्रकृति सार्वभौमिक है, लेकिन इसके व्यावहारिक स्वरूप को संदर्भ विशेष के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है।


शुभ को परिभाषित करने में मानवीय इंद्रियां, बुद्धि और आध्यात्मिक ज्ञान का योगदान महत्वपूर्ण है। लेकिन यह पहचान सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत संदर्भों के आधार पर भिन्न हो सकती है।


भारतीय दर्शन में "शुभ" एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो नैतिकता, आध्यात्मिकता और आदर्श जीवन के लिए प्रेरणा का आधार है। शुभ का अर्थ है वह जो कल्याणकारी, हितकारी और सकारात्मक हो। यह सत्य, सुंदरता और न्याय जैसे गुणों के साथ संबद्ध होता है।


भारतीय दर्शन में शुभ का अर्थ है जीवन और समाज के लिए हितकारी कार्य या विचार। इसे धर्म, सत्य और अहिंसा जैसे गुणों के संदर्भ में देखा जाता है। वेदांत, जैन, बौद्ध, सांख्य, और योग जैसे दार्शनिक प्रणालियों में शुभ को आत्मा और ब्रह्म के संबंध में समझाया गया है।


1. वेदांत में शुभ: वेदांत दर्शन शुभ को ब्रह्म के साथ जोड़ता है। ब्रह्म सत्य, चैतन्य और आनंद है, और इससे जुड़कर व्यक्ति अपने जीवन को शुभ बना सकता है। शुभ का लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है।


2. जैन दर्शन में शुभ: जैन धर्म में शुभ को अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य जैसे गुणों के पालन से जोड़ा गया है। शुभ कर्मों से आत्मा की शुद्धि होती है।


3. बौद्ध दर्शन में शुभ: बौद्ध धर्म में शुभ का अर्थ है मध्यम मार्ग का अनुसरण, जिसमें अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक कर्म आदि) के माध्यम से दुःख से मुक्ति पाई जाती है।


क्या शुभ वही है जो धर्म के अनुसार है, या जो परिणामस्वरूप सुखद है? 


शुभ को सार्वभौमिक मानते हुए यह स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति को अपने धर्म और ज्ञान के अनुसार शुभ कार्य करना चाहिए। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने "निष्काम कर्म" को शुभ का सर्वोत्तम साधन बताया है।



शुभ का अनुसरण जीवन में शांति, सद्भाव और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।

प्रारब्ध कर्म

 प्रारब्ध कर्म का अर्थ है वे कर्म जो हमारे पिछले जन्मों के कारण उत्पन्न हुए हैं और वर्तमान जीवन में हमें फलस्वरूप अनुभव करने पड़ते हैं। प्रारब्ध कर्म हमारे जीवन में सुख-दुख, अच्छे-बुरे अनुभवों के रूप में प्रकट होते हैं और ये हमारे नियंत्रण में नहीं होते। इन्हें नष्ट करना सरल नहीं होता, लेकिन कुछ तरीकों से इनके प्रभाव को कम किया जा सकता है या उनसे मुक्ति पाई जा सकती है।


प्रारब्ध कर्म के प्रभाव को कम करने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं:


1. सद्गुरु की कृपा: एक सच्चे गुरु का मार्गदर्शन और उनका आशीर्वाद प्रारब्ध कर्म के प्रभाव को कम कर सकता है। गुरु की कृपा से मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है और प्रारब्ध से मुक्त हो सकता है।


2. भक्ति और प्रार्थना: ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति और प्रार्थना से मन शुद्ध होता है और हमारे भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इससे कर्म के बंधन धीरे-धीरे कम हो जाते हैं।


3. साधना और ध्यान: नियमित साधना, ध्यान और योग अभ्यास से मन और आत्मा शुद्ध होती है, जिससे प्रारब्ध के असर को कम किया जा सकता है। ध्यान से व्यक्ति अपने भीतर की चेतना को जाग्रत करता है और कर्म के परिणामों से ऊपर उठता है।


4. संतोष और समर्पण: प्रारब्ध के प्रति संतोष और ईश्वर में पूर्ण समर्पण रखने से व्यक्ति मानसिक शांति प्राप्त कर सकता है। इससे प्रारब्ध के असर का बोझ कम महसूस होता है और वह जीवन के कठिन समय का सामना सहजता से कर पाता है।


5. सेवा और परोपकार: दूसरों की सेवा करने और परोपकार में संलग्न रहने से हमारे नकारात्मक कर्मों का प्रभाव कम होता है। सेवा और परोपकार के कार्यों से मनुष्य के कर्मों में सुधार आता है, जिससे प्रारब्ध के बंधन धीरे-धीरे ढीले पड़ते हैं।



6. स्वधर्म का पालन: अपने धर्म, कर्तव्यों, और नैतिकता का पालन करते हुए जीवन जीने से भी प्रारब्ध के प्रभाव में कमी आती है। अपने कर्मों का सही तरीके से पालन करना प्रारब्ध को निष्प्रभावी करने का एक तरीका है।


हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि प्रारब्ध से मुक्ति का मार्ग समय ले सकता है और इसमें धैर्य तथा ईश्वर के प्रति  आत्मसमर्पण की आवश्यकता होती है।

आचार्य विनोबा भावे

 आचार्य विनोबा भावे का आध्यात्मिक दृष्टिकोण गहराई से गांधीवादी आदर्शों और भारतीय दर्शन से प्रेरित था। वे अहिंसा, सत्य, और आत्मशुद्धि के सिद्धांतों में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि आत्मा की शुद्धता और व्यक्तिगत विकास ही समाज और राष्ट्र की प्रगति का आधार है।


विनोबा का दृष्टिकोण यह था कि आध्यात्मिकता केवल व्यक्तिगत साधना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य संपूर्ण मानवता की भलाई है। उन्होंने भगवद् गीता, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और उनके ज्ञान का उपयोग समाज सुधार के कार्यों, जैसे भूदान आंदोलन, में किया।


उनका मानना था कि सच्ची आध्यात्मिकता वह है जो व्यक्ति को निःस्वार्थ सेवा और करुणा के मार्ग पर ले जाए, जिससे सामाजिक समरसता और शांति की स्थापना हो सके।


विनोबा भावे की पुस्तक The Intimate and the Ultimate उनके गहन विचारों और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का एक संग्रह है। यह पुस्तक मुख्य रूप से उनके भाषणों और लेखों का संकलन है, जिनमें उन्होंने मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, विशेषकर अध्यात्म, सत्य, अहिंसा, और सामाजिक उत्थान के सिद्धांतों पर अपने विचार साझा किए हैं।



इस पुस्तक में विनोबा भावे का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक गहरी आत्मीयता और परम सत्य (ultimate) का अनुभव करने की क्षमता होती है। वे आत्मशुद्धि, करुणा, और अहिंसक व्यवहार के महत्व को रेखांकित करते हैं, ताकि व्यक्ति स्वयं की उच्चतम क्षमता को प्राप्त कर सके और समाज में सकारात्मक योगदान दे सके।


विनोबा भावे ने इसमें जीवन के सरल लेकिन गहन पहलुओं पर प्रकाश डाला है, जैसे आंतरिक शांति, नैतिक मूल्यों का पालन, और दूसरों के प्रति प्रेम और सेवा का भाव। उनके अनुसार, जीवन की सच्ची पूर्ति तभी संभव है जब व्यक्ति आत्मिक विकास और समाज के कल्याण के बीच संतुलन स्थापित कर सके।


The Intimate and the Ultimate पाठकों को एक गहरे आत्मनिरीक्षण और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना के लिए प्रेरित करती है। यह पुस्तक उनके मानवीय और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है।

प्रथम और अंतिम मुक्ति

 "प्रथम और अंतिम मुक्ति


" (The First and Last Freedom) जे. कृष्णमूर्ति की एक प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व, चेतना, और मुक्ति के विषय पर गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। इस पुस्तक में वे पारंपरिक धार्मिक प्रथाओं और सिद्धांतों से हटकर, आत्म-अन्वेषण और सत्य की खोज पर जोर देते हैं। उनका दृष्टिकोण यह है कि वास्तविक स्वतंत्रता बाहरी अनुकरण और परंपराओं से नहीं, बल्कि भीतर की गहरी समझ और अंतर्दृष्टि से मिलती है।


पुस्तक के खास बिंदु - 


1. स्वयं की समझ:


कृष्णमूर्ति का मानना है कि जीवन की समस्याओं और दुखों की जड़ हमारी सीमित सोच और आत्म-केन्द्रित दृष्टिकोण में है। उन्होंने कहा कि आत्म-जागरूकता और स्वयं का निरीक्षण करना ही सच्ची मुक्ति का मार्ग है।


बाहरी गुरुओं, ग्रंथों या प्रथाओं पर निर्भर रहने के बजाय, उन्होंने आत्म-अन्वेषण की शक्ति पर जोर दिया। स्वयं को जानने से ही हम मानसिक शांति और स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं।


2. मुक्ति का अर्थ:


कृष्णमूर्ति के अनुसार, मुक्ति का अर्थ है मन की पूरी तरह से स्वतंत्रता, जहां विचार बाधाओं और सीमाओं से मुक्त होता है। उन्होंने इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में देखा, जहां व्यक्ति अपने पूर्वाग्रहों, पूर्व धारणाओं और अतीत के बोझ से मुक्त हो जाता है।


उन्होंने यह भी कहा कि मुक्ति कोई गंतव्य नहीं है, बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जो तब होती है जब व्यक्ति हर क्षण को जागरूकता के साथ जीता है।


3. डर और इच्छा:


पुस्तक में कृष्णमूर्ति ने बताया कि डर और इच्छा मानव मन की मूल समस्याएं हैं। ये हमारे दृष्टिकोण और व्यवहार को नियंत्रित करते हैं, जिससे हम अपनी वास्तविकता से अलग हो जाते हैं।


डर से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि व्यक्ति को अपने विचारों और प्रतिक्रियाओं का गहन अवलोकन करना चाहिए। जब हम बिना किसी निर्णय के अपने डर को देख पाते हैं, तभी उसका समाधान हो सकता है।


4. संबंधों का महत्व:


कृष्णमूर्ति ने कहा कि हमारे संबंध ही हमारे मन का आईना होते हैं। उन्होंने यह बताया कि अगर हम अपने संबंधों को समझ लें और उनमें पूरी तरह से उपस्थित रहें, तो हम अपने भीतर की जटिलताओं और विरोधाभासों को भी समझ सकते हैं।


उन्होंने संबंधों में प्रेम की भूमिका को भी महत्वपूर्ण बताया, जहां प्रेम का अर्थ किसी प्रकार की आसक्ति या स्वार्थ नहीं, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता है।


5. ध्यान और मन की स्थिति:


ध्यान के बारे में उन्होंने कहा कि यह किसी पद्धति या तकनीक का अभ्यास नहीं है। बल्कि, ध्यान का अर्थ है हर क्षण में पूरी तरह से जागरूक रहना और बिना किसी प्रयास के, बिना किसी सीमा के अपनी चेतना का निरीक्षण करना।


ध्यान में व्यक्ति खुद को और अपनी दुनिया को बिना किसी विभाजन के देखता है, जिससे एक अद्वितीय समझ और शांति की स्थिति उत्पन्न होती है।


"प्रथम और अंतिम मुक्ति" में कृष्णमूर्ति ने यह संदेश दिया कि सच्ची मुक्ति बाहरी चीजों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह आंतरिक रूप से आत्म-जागरूकता और स्वतंत्रता पर आधारित है। यह पुस्तक पाठकों को अपने मन के पैटर्न को समझने और एक नई दृष्टि से जीवन को देखने के लिए प्रेरित करती है।

गोवर्धन पूजा

 गोवर्धन पूजा का संबंध भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की पूजा से है, जो इस बात का प्रतीक है कि भगवान प्रेम से पूजे जाते हैं, न कि भय से। गोवर्धन पूजा की कथा में बताया गया है कि गांववाले इंद्र देव की पूजा करते थे क्योंकि उन्हें डर था कि अगर वे इंद्र की पूजा नहीं करेंगे, तो उन्हें बारिश नहीं मिलेगी और उनके खेत बर्बाद हो जाएंगे।


भगवान कृष्ण ने लोगों को समझाया कि पूजा भय के कारण नहीं बल्कि प्रेम और कृतज्ञता से होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि गोवर्धन पर्वत, जो गांववासियों की रक्षा करता है और उनके पशुओं के लिए चारा प्रदान करता है, उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। इस पर सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इंद्र ने नाराज़ होकर भारी बारिश शुरू कर दी, लेकिन भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर सबको सुरक्षित किया।



इस कथा का संदेश यही है कि भगवान को प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से पूजना चाहिए, न कि भय से। कृष्ण ने यह सिखाया कि ईश्वर प्रेम और सेवा भाव के प्रतीक हैं, और उनके साथ सच्चा संबंध केवल प्रेम से ही बन सकता है, न कि डर से।


कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा रोकने के बाद उन्होंने गोवर्धन पर्वत की पूजा का प्रस्ताव रखा। इसके बाद गांववालों ने गोवर्धन पर्वत, गौधन (गायों), और प्रकृति की पूजा की, क्योंकि कृष्ण ने उन्हें समझाया कि प्रकृति के तत्व, जो उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सहायता और संरक्षण प्रदान करते हैं, उनकी वास्तविक पूजा के पात्र हैं।


इस पूजा में सभी ने मिलकर गोवर्धन पर्वत को प्रतीकात्मक रूप से अन्नकूट का भोग लगाया और विभिन्न प्रकार के पकवानों का अर्पण किया। इसके अलावा, गायों और बछड़ों का पूजन कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। इस प्रकार, गोवर्धन पूजा के दिन मुख्य रूप से गोवर्धन पर्वत, गौधन और प्रकृति की पूजा की गई, जो एक नई चेतना और भक्ति का प्रतीक बन गई।

दीपावली

 "भारत" शब्द का एक आध्यात्मिक और गूढ़ अर्थ "प्रकाश में रत" या "ज्ञान में लीन" भी है। इस व्याख्या के अनुसार "भा" का अर्थ "प्रकाश" या "ज्ञान" और "रत" का अर्थ "लगा हुआ" या "लीन" होता है।


इस प्रकार, "भारत" का अर्थ होता है वह देश या भूमि जहाँ लोग ज्ञान, प्रकाश और सत्य की खोज में रत रहते हैं। यह दृष्टिकोण भारत के उस सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वरूप को दर्शाता है, जहाँ सदियों से ऋषि-मुनि, संत और दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करने और मानवता के कल्याण के लिए साधना करते रहे हैं।



इस अर्थ में, भारत केवल एक देश नहीं है, बल्कि ज्ञान और प्रकाश की भूमि का प्रतीक है, जहाँ लोगों का जीवन सत्य, धर्म और आध्यात्मिक उन्नति के आदर्शों पर आधारित है।


 भारतीय परंपरा में दीपक को ज्ञान, प्रकाश, और आशा का प्रतीक माना गया है। इसे अज्ञानता से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर जाने का प्रतीक माना जाता है।


दीपक जलाने के प्रमुख आध्यात्मिक अर्थ निम्नलिखित हैं:


1. ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक: दीपक का प्रकाश अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है। यह हमारे मन और हृदय में ज्ञान और विवेक की ज्योति जलाने का संकेत देता है।


2. सकारात्मकता और शांति का प्रतीक: दीप जलाने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक विचार एवं भावनाओं का नाश होता है। यह मन में शांति और समर्पण का भाव उत्पन्न करता है।


3. आत्मा का प्रतीक: दीपक की लौ आत्मा का प्रतीक मानी जाती है। जैसे दीपक जलता रहता है, वैसे ही आत्मा भी जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों के बीच सजीव रहती है और प्रकाश फैलाती है।


4. दिव्यता और आस्था: दीपक में घी या तेल का उपयोग हमारी आस्था और समर्पण का प्रतीक है, जो जलते हुए अर्पण को दिखाता है। यह जीवन में ईश्वर और धर्म के प्रति आस्था को और प्रगाढ़ करता है।


5. समाज और समर्पण का प्रतीक: दीप जलाने की परंपरा से यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने आसपास के लोगों के जीवन में प्रकाश फैलाना चाहिए।


त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों में दीप जलाना अज्ञानता से ज्ञान की ओर, निराशा से आशा की ओर और नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर एक आध्यात्मिक यात्रा को प्रदर्शित करता है।


आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं

भगवान धन्वंतरि

 धन्वंतरि को भारतीय चिकित्सा विज्ञान, विशेषकर आयुर्वेद के जनक के रूप में जाना जाता है। उनका योगदान स्वास्थ्य और चिकित्सा क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। धन्वंतरि का उल्लेख आयुर्वेदिक ग्रंथों और पुराणों में किया गया है, जहाँ उन्हें देवताओं के वैद्य का दर्जा प्राप्त है। आयुर्वेद के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन को रोगों से मुक्ति दिलाने और स्वस्थ जीवन जीने के उपाय बताए।


1. आयुर्वेद का प्रवर्तन:


धन्वंतरि ने आयुर्वेद को एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप दिया। उन्होंने इसे आठ भागों में विभाजित किया, जिसे "अष्टांग आयुर्वेद" कहा जाता है। इन आठ अंगों में काय चिकित्सा (सामान्य चिकित्सा), शल्य चिकित्सा (सर्जरी), शालक्य (नेत्र, नाक, कान और गला रोग), कौल चिकित्सा (बालरोग), अगद तंत्र (विष चिकित्सा), रसायन (जीवन को लंबा करने वाले औषध) और वाजीकरण (प्रजनन चिकित्सा) शामिल हैं।


2. सर्जरी और औषध निर्माण में योगदान:


धन्वंतरि को औषध निर्माण और सर्जरी के क्षेत्र में महान योगदान के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने विभिन्न जड़ी-बूटियों और औषधियों की खोज की, जिनका उपयोग आज भी आयुर्वेद में होता है। माना जाता है कि उन्होंने शल्य चिकित्सा के भी कई उन्नत तरीकों को अपनाया, जिनका उपयोग उस समय असाध्य माने जाने वाले रोगों के इलाज के लिए किया जाता था।


3. रोगों का निदान और उपचार पद्धति:


धन्वंतरि ने विभिन्न रोगों के निदान और उपचार के लिए विभिन्न पद्धतियों का विकास किया। उन्होंने शरीर को वात, पित्त, और कफ – तीन दोषों के आधार पर समझा और इसी संतुलन से स्वास्थ्य और रोग की स्थिति का निर्धारण किया।


4. स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता:


उन्होंने स्वस्थ जीवनशैली और रोगों से बचाव के महत्व पर जोर दिया। आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुसार, भोजन, दिनचर्या, और प्राकृतिक जीवन शैली पर ध्यान देना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।


धन्वंतरि की शिक्षा और चिकित्सा पद्धतियां आज भी आयुर्वेद चिकित्सा का आधार मानी जाती हैं। उनके योगदान से न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को एक प्राचीन चिकित्सा पद्धति का उपहार मिला, जो आज भी लाखों लोगों के लिए उपयोगी है।