बुधवार, 27 नवंबर 2024

शांभवी मुद्रा

 मां दुर्गा का एक नाम शांभवी भी है। वह जो अचेतन को भी चेतन कर सकती है। इन्‍हीं के नाम पर बना है -  हजारो वर्ष पुराना शांभवी मुद्रा योग। यह योगमुद्रा मन को एकाग्रचित करने के साथ ही आंखों में मौजूद विकार भी दूर करता है। 

योग जगत में शांभवी मुद्रासन की खास जगह है।  जो कि मन और मस्तिष्क को शांत करने में कारगर भूमिका निभाता है। इस मुद्रा की खास बात यह है कि इसके तहत आपकी आंखें खुली रहती हैं, लेकिन फिर भी आप कुछ देख नहीं पाते। वास्तव में योगाचार्यों के मुताबिक यह मुद्रा एक कठिन साधना है।


शांभवी मुद्रा की विधि (Shambhavi Mudra) -

गुरु के मार्गदर्शन में ध्यान के आसन में बैठें और अपनी पीठ सीधी रखें।

आपके कंधे और हाथ बिलकुल ढीली अवस्था में होने चाहिए।

इसके बाद हाथों को घुटनों पर चिंमुद्रा, ज्ञान मुद्रा या फिर योग मुद्रा में रखें। आप सामने की ओर किसी एक बिंदु पर दृष्टि एकाग्र करें।

इसके बाद ऊपर देखने का प्रयास करें। ध्यान रखिए आपका सिर स्थिर रहे। इस बीच आप अपने विचारों को भी नियंत्रित करने की कोशिश करें। सिर्फ और सिर्फ ध्यान रखें। इस बीच कुछ न सोचें।

शांभवी मुद्रा के दौरान आपकी आपकी पलकें झपकनी नहीं चाहिए।

इस आसन को शुरुआती दिनों में कुछ ही सेकेंड तक करें। यानी जैसे-जैसे आपकी ध्यान लगाने की और अपने विचारों पर नियंत्रण करने की क्षमता में विकास हो, वैसे वैसे इस आसन को करने के समय सीमा भी बढ़ाते रहें। इसे आप अधिकतम 3 से 6 मिनट कर सकते हैं।



शांभवी मुद्रा के लाभ-

शांभवी मुद्रा आज्ञा चक्र को जगाने वाली एक शक्तिशाली क्रिया है। आज्ञा चक्र निम्न और उच्च चेतना को जोड़ने वाला केंद्र है। इस मुद्रा से आपको शारीरिक लाभ तो हासिल होगा ही इसके अलावा यह मुद्रा आपकी आंखों के स्नायुओं को भी मजबूत बनाती है। इतना ही नहीं यह मुद्रा आपके मन और मस्तिष्क को शांत करती है। अर्थात यदि आप किसी बात से तनाव महसूस करें तो इस मुद्रा की मदद से अपने तनाव को कम कर सकते हैं। इसके तहत आंखें खुली रखकर भी व्यक्ति सो भी रहा होता है और ध्यान का आनंद भी ले रहा होता है। इसके योग मुद्रा के जरिए आप डिप्रेशन जैसी बीमारी से भी खुद को दूर कर सकते हैं।


'तुः' अक्षरस्य च देवी शाम्भवी देवता शिवः ।।बीजं 'शं' अत्रिरेवर्षिः शाम्भवी यन्त्रमेव च ।।भूती मुक्ताशिवे मुक्तिः फलं चानिष्टनाशनम्॥

देवी तत्त्व

 देवी तत्व का दर्शन भारतीय दर्शन और आध्यात्मिक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह दर्शन शक्ति या माँ के रूप में देवी की पूजा और मान्यता को केन्द्र में रखता है। देवी तत्व का मुख्य आधार यह है कि समस्त सृष्टि में शक्ति का स्रोत एक मातृ रूपी देवी है, जो सृजन, पालन, और संहार तीनों की अधिष्ठात्री है। इस दर्शन में देवी को संसार की आदि शक्ति माना जाता है, जो ब्रह्मांड की ऊर्जा का प्रतीक होती है।


देवी तत्व के कुछ मुख्य पहलू:


1. शक्ति का स्वरूप: देवी को शक्ति का स्वरूप माना जाता है। वे संसार की ऊर्जा का स्रोत हैं, और इस शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं है। यही शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकट होती है, जैसे दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती आदि।


2. अधिभौतिक और आध्यात्मिक सृजन: देवी न केवल भौतिक जगत की उत्पत्ति करती हैं, बल्कि वे आध्यात्मिक जागरण और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। वे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर सक्रिय रहती हैं।


3. माया और मोक्ष: देवी माया का रूप हैं, जो संसार के बंधनों का कारण बनती हैं, लेकिन वही मोक्ष का द्वार भी खोलती हैं। उन्हें माया और मोक्ष की अधिष्ठात्री माना जाता है।


4. प्रकृति और पुरुष: देवी तत्व दर्शन में प्रकृति को देवी का रूप माना जाता है, और पुरुष या आत्मा को शिव के रूप में। शिव बिना शक्ति (देवी) के निष्क्रिय होते हैं, इसलिए शक्ति को सर्वोच्च माना गया है।


5. त्रिगुण और त्रिदेव: देवी को सत्त्व, रजस और तमस तीनों गुणों का स्वामी माना जाता है। वे ब्रह्मा (सृजन), विष्णु (पालन) और महेश (संहार) की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं।



देवी तत्व का आध्यात्मिक संदेश:


देवी तत्व हमें यह सिखाता है कि जीवन में शक्ति का महत्व है, और हमें इस शक्ति का सम्मान और उपयोग करना चाहिए। देवी का ध्यान और पूजा जीवन में संतुलन, शक्ति, ज्ञान, और समृद्धि लाने के लिए होती है।

गायत्री महाविज्ञान

 गायत्री महाविज्ञान का दर्शन भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का एक गहन एवं व्यापक सिद्धांत है, जो जीवन के भौतिक, मानसिक और आत्मिक विकास पर केंद्रित है। यह दर्शन जीवन की उच्च संभावनाओं को जागृत करने और मानव-चेतना को परम चेतना से जोड़ने का मार्ग दिखाता है। आइए इसके प्रमुख तत्वों को समझें:


1. गायत्री का तात्त्विक स्वरूप


गायत्री को वेदों में महाशक्ति और ऋग्वेद की मातृशक्ति कहा गया है। यह ब्रह्मांड की रचनात्मक और दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है, जो जीवन को समृद्धि, ज्ञान और शुद्धता प्रदान करती है।


गायत्री मंत्र:

"ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥"

यह मंत्र सूर्य रूपी परमात्मा से बुद्धि, विवेक और प्रज्ञा की प्राप्ति का आह्वान करता है।


2. त्रयी शक्ति: सत्य, शिव और सुंदर



गायत्री महाविज्ञान में तीन प्रमुख तत्व माने जाते हैं:


सत्य: सत्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रतीक है। यह व्यक्ति को यथार्थ देखने और सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।


शिव: यह कल्याण का सिद्धांत है, जो अहिंसा, सेवा और परोपकार के मूल्यों को जागृत करता है।


सुंदर: सौंदर्य का अर्थ आत्मा के अंतर्मुखी सौंदर्य से है, जो भीतर की शांति, संतुलन और सद्भाव से प्रकट होता है।


3. बुद्धि और प्रज्ञा का विकास


गायत्री मंत्र के जप का उद्देश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मानसिक और बौद्धिक विकास भी है। यह धारणा है कि मंत्र का नियमित अभ्यास आत्म-चेतना को जागृत कर बुद्धि को शुद्ध करता है और व्यक्ति को विवेकशील एवं कर्मशील बनाता है।


4. विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय


गायत्री महाविज्ञान भौतिक विज्ञान और अध्यात्मिकता के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह दृष्टिकोण है कि विज्ञान की प्रगति का उपयोग मानवता की भलाई के लिए हो और व्यक्ति अपने भीतर के दिव्य तत्व को जागृत कर समाज के उत्थान में योगदान दे। देखिए 

https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC9623891/


5. आत्म-संयम और साधना


गायत्री महाविज्ञान साधना, आत्म-अनुशासन और ध्यान पर विशेष बल देता है। व्यक्ति को बाहरी प्रलोभनों से मुक्त होकर भीतर की शक्तियों को जागृत करना चाहिए।


6. सर्वजनहित और विश्वकल्याण


गायत्री दर्शन केवल व्यक्तिगत मुक्ति का नहीं, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण का भी मार्ग दिखाता है। यह विचारधारा बताती है कि मनुष्य का जीवन तभी सार्थक होता है जब वह अपने ज्ञान, शक्ति और संसाधनों का उपयोग लोकमंगल के लिए करता है।


निष्कर्ष


गायत्री महाविज्ञान का दर्शन व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास का पथप्रदर्शक है। यह जीवन को अनुशासन, ज्ञान, सेवा और परोपकार के आदर्शों से भरकर समाज और विश्व के समग्र कल्याण की दिशा में प्रेरित करता है। यह हमें सिखाता है कि आत्मोन्नति और लोककल्याण एक ही यात्रा के दो पहलू हैं।

शून्य की अवधारणा

 पश्चिमी दर्शन में शून्य (जीरो) का अर्थ है - कुछ नही (nothing) लेकिन हिन्दू और बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा एक गहरा और जटिल विषय है जो कि विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के माध्यम से प्रकट किया गया है। 



1. हिन्दू दर्शन में शून्य की अवधारणा


हिन्दू दर्शन में "शून्य" एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, लेकिन इसे केवल 'नहीं' या 'जीरो' के रूप में नहीं समझा जाता है। यह अस्तित्व के पार एक स्थिति या अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। वेदों, उपनिषदों और भगवदगीता में शून्य को कभी-कभी "ब्रह्म" या "परब्रह्म" के रूप में संदर्भित किया जाता है।


 अद्वैत वेदांत में, शून्य का अर्थ है "निर्गुण ब्रह्म" या "अपरिभाषित ईश्वर", जो न कोई गुण है, न कोई रूप, न कोई रंग, बल्कि वह शुद्ध चेतना है। यह ब्रह्म एकता और अखंडता का प्रतीक है, जहाँ द्वैत (द्विविधा) समाप्त हो जाता है।


पतंजलि के योग सूत्रों में, शून्यता का अर्थ "चित्त वृत्ति निरोध" से है, अर्थात् मन की सभी गतिविधियों और इच्छाओं को रोकने की स्थिति। इस अवस्था में व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है, जिसे शून्यता या कैवल्य भी कहा जाता है।


ब्रह्मांड और शून्य: हिन्दू गणित में, शून्य (0) का भी महत्व है, जिसका आविष्कार वैदिक ऋषि गणितज्ञों द्वारा किया गया था। यह शून्य असीम और अनंत के मध्य का संतुलन है।


पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं दशगुणं पुनः।

पूज्यं पूज्यं दशगुणं शून्यं शून्यं पुनः पुनः॥

अर्थात -

शून्य पूज्य है क्योंकि जिसके पीछे लग जाये उसे दसदस  गुना करता जाता है 


ईश्वर से संबंध: हिन्दू दर्शन में शून्यता को अक्सर ब्रह्म, जो साकार और निराकार दोनों है, के साथ जोड़ा जाता है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति ईश्वर को उसके निराकार और अप्रकट रूप में अनुभव करता है। कबीर ने कहा है- गिरह हमारा सुन्य में ..... अर्थात हमारा वास्तविक निवास शून्य में है । 


2. बौद्ध दर्शन में शून्य की अवधारणा


बौद्ध दर्शन में "शून्यता" (संस्कृत में "शून्यता" और पाली में "सुन्नता") एक केंद्रीय अवधारणा है। यह अस्तित्व की अस्थिरता और असत्यता का प्रतीक है। बौद्ध धर्म में, शून्यता का अर्थ है कि सभी चीजें अस्थायी और निर्भरता से उत्पन्न हैं; उनमें कोई स्थायी आत्मा या स्थायी तत्व नहीं है।


मध्य्यमक दर्शन: नागार्जुन के मध्य्यमक दर्शन में, शून्यता को "प्रतीत्यसमुत्पाद" (परस्पर निर्भरता) के संदर्भ में समझा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि सभी घटनाएं और वस्तुएं परस्पर निर्भरता से उत्पन्न होती हैं, और उनमें कोई स्थायी स्वरूप नहीं होता।


विपश्यना और ध्यान: बौद्ध साधना में, ध्यान का उद्देश्य "शून्यता" की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त करना है, जो यह समझने में सहायक है कि दुनिया की सभी चीजें अनित्य, दुःख और अनात्म (स्वरूपहीनता) हैं।


 बौद्ध धर्म में, शून्यता का ईश्वर की परिभाषा से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। बौद्ध धर्म में एक व्यक्तिगत ईश्वर या सर्वशक्तिमान की अवधारणा नहीं है। शून्यता यहाँ आत्मज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने की दिशा में एक मार्ग के रूप में समझी जाती है, जो अस्तित्व के द्वैत को समाप्त कर देती है।


हिन्दू दर्शन में, शून्यता को ब्रह्म (ईश्वर) की स्थिति के रूप में समझा जाता है, जहाँ व्यक्ति सत्य के साकार और निराकार दोनों पहलुओं को अनुभव कर सकता है।


बौद्ध दर्शन में, शून्यता का अर्थ सभी चीजों की निर्भर उत्पत्ति और अस्तित्व के स्थायित्व की अनुपस्थिति है। यह ईश्वर की अवधारणा से संबंधित नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान की प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण तत्व है।


दोनों दर्शनों में शून्यता की अवधारणा अस्तित्व की मौलिकता और वास्तविकता की समझ को गहरा करती है, चाहे वह ब्रह्म की निराकार अवस्था हो या अस्तित्व की अस्थिरता।

साधनाध्याय

 बादरायण कृत ब्रह्मसूत्र का तीसरा अध्याय साधनाध्याय कहलाता है, और इसमें मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के साधनों का विस्तृत वर्णन किया गया है। साधन का अर्थ है वह मार्ग, जिस पर चलकर साधक ब्रह्मज्ञान या परमात्मा का अनुभव कर सकता है। इस अध्याय में विभिन्न योग, ध्यान, और ज्ञान की विधियों पर प्रकाश डाला गया है, जिनसे साधक आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।


साधनाध्याय के प्रमुख विषय:


1. साधनों का स्वरूप:


इसमें यह बताया गया है कि आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग, और योगमार्ग जैसे साधनों का पालन करना आवश्यक है। इनमें से ज्ञानमार्ग को सर्वोच्च माना गया है, क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही अज्ञान का नाश होता है।


2. श्रवण, मनन और निदिध्यासन:


श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन करना), और निदिध्यासन (ध्यान में स्थिर रहना) को आत्मज्ञान के तीन महत्वपूर्ण साधन बताया गया है। उपनिषदों के ज्ञान को सुनना (श्रवण), उस पर विचार करना (मनन), और गहरे ध्यान में उतरना (निदिध्यासन) आत्मा की प्रकृति को समझने के लिए आवश्यक है।


3. साधक के गुण:


साधक में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता होती है जैसे कि विवेक (सही और गलत में अंतर समझना), वैराग्य (जगत के प्रति अनासक्ति), शम (मन का शांत होना), दम (इंद्रियों का संयम), और एकाग्रता। इन गुणों को विकसित करके ही साधक आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।


4. ध्यान और समाधि:


साधनाध्याय में ध्यान और समाधि का भी महत्त्व बताया गया है। ध्यान में मन को ब्रह्म में एकाग्र करना और समाधि में सभी बाहरी और आंतरिक विकारों को समाप्त कर ब्रह्म में लीन होना मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है।


5. कर्म और ज्ञान का संबंध:


इस अध्याय में कर्म (धर्म के अनुसार आचरण) और ज्ञान (ब्रह्म की पहचान) के बीच संबंध पर भी विचार किया गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि प्रारंभिक अवस्था में कर्म आवश्यक हैं, लेकिन अंतिम मुक्ति ज्ञान से ही संभव है।


6. मुक्ति का स्वरूप:


साधनाध्याय में यह भी बताया गया है कि जब साधक को ब्रह्मज्ञान होता है, तो उसे अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव होता है और वह अज्ञान के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति मोक्ष का कारण बनती है और जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।





साधनाध्याय में आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति के मार्गों का विस्तृत वर्णन है। यह स्पष्ट करता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रवण, मनन, और निदिध्यासन का अभ्यास आवश्यक है। साधक को अपने मन, इंद्रियों और कर्मों पर संयम रखते हुए निरंतर अभ्यास करना चाहिए, जिससे कि वह ब्रह्म का साक्षात्कार कर सके।

विज्ञान और ईश्वर

 विज्ञान और ईश्वर :


नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे।

कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमो नमः ।।

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विज्ञानरूपाय ईश्वर का अर्थ है वह ईश्वर जो विज्ञानस्वरूप हैं, अर्थात जो सम्पूर्ण सृष्टि के नियमों और प्रक्रियाओं का आधार हैं। भारतीय दर्शन में ईश्वर को न केवल सृष्टि का रचयिता माना गया है, बल्कि वह शक्ति भी माना गया है जो प्रत्येक कण, प्रत्येक घटना, और सृष्टि के हर नियम में विद्यमान है।



 ईश्वर वह अदृश्य शक्ति है जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियमों को बनाए रखती है और सृष्टि को एक निश्चित क्रम में चलाती है। जैसे गुरुत्वाकर्षण, विद्युत, चुंबकत्व, ऊर्जा संरक्षण, और अन्य सभी प्राकृतिक सिद्धांत एक अदृश्य नियमों के आधार पर चलते हैं, वैसे ही ईश्वर को उन नियमों का स्रोत और संचालनकर्ता माना गया है। हिन्दू दर्शन में पाश्चात्य धर्मों की तरह साइंस और रिलिजन में विरोधाभास नही है , अपितु समस्त विज्ञान को उपवेद एवं वेदांग कहा गया है । 


विज्ञान में हम पदार्थ, ऊर्जा और उनके विभिन्न रूपों का अध्ययन करते हैं, लेकिन इन सभी का प्रयोजन व अंतिम स्रोत क्या है, इसका उत्तर विज्ञान स्वयं नहीं दे सकता। इसी कारण से, भारतीय आध्यात्मिक परंपराएं यह मानती हैं कि यह सभी नियम, सिद्धांत, और शक्तियाँ विज्ञानरूप ईश्वर के अधीन हैं। 


अतः, विज्ञानरूपाय ईश्वर का अर्थ यह है कि ईश्वर ने अपनी सत्ता को विज्ञान के रूप में हर स्थान पर, हर कण में स्थापित किया है, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड में संतुलन, सामंजस्य और नियमबद्धता बनी रहती है।

क्या खोया, क्या पाया

 इस जीवन में "क्या खोया, क्या पाया" पर चिंतन करने पर हम पाते हैं कि जिंदगी के सफर में कुछ पाने की खुशी होती है, तो कुछ खोने का दुख भी। जीवन की इस यात्रा में खोने-पाने की भावनाएं अक्सर परस्पर गुंथी हुई होती हैं, और यही जीवन को विविधता और गहराई प्रदान करती हैं।


क्या पाया?- पाने की दृष्टि से देखें तो जीवन में हमें अनगिनत अनुभव, रिश्ते, प्रेम, मित्रता, ज्ञान, और अवसर मिलते हैं। यह अनुभव हमारी समझ, सहनशीलता और दृष्टिकोण को परिपक्व बनाते हैं। जो भी हम जीवन में सकारात्मक रूप में संजोते हैं—चाहे वो परीक्षा की या व्यवसायिक सफलता हो, रिश्तों का प्रेम हो , लोगो की सेवा करने से मिलने वाली आत्मतृप्ति या अपने लक्ष्य को पाने की संतुष्टि—ये सब हमारे लिए बहुमूल्य हैं।


क्या खोया?- खोने की दृष्टि से देखें तो जीवन में बहुत कुछ छूटता है। वक़्त के साथ बचपन का मासूमियत, शरारतें, कुछ प्रिय लोग, कुछ अवसर और गतिमान समय हम खोते चले जाते हैं। हर एक अनुभव हमें कुछ सिखाकर ही छोड़ता है, चाहे वो कड़वा अनुभव हो या मीठा। यह खोना हमें सिखाता है कि हर चीज़ अस्थायी है और हमें उसे स्वीकार करना आना चाहिए।


शेष शून्य - अंततः जब हम सब कुछ समेट कर सोचते हैं, तो जीवन का संतुलन शून्य ही होता है। जो पाया है, वो कहीं खोने के डर से घिरा रहता है और जो खोया है, उसकी कसक जीवन भर रहती है। यह शून्य एक ऐसा स्थिर बिंदु है जो हमें यह सिखाता है कि असल में हम कुछ भी सांसरिक वस्तु, जैसे- धन संपत्ति पद , अपने साथ लेकर नहीं जा सकते। यह शून्य हमें जीवन के मर्म का बोध कराता है और सिखाता है कि जीवन का असली अर्थ पाने-खोने से परे, एक संतुलन में है।



इस तरह से, जीवन को एक प्रवाह के रूप में देखना चाहिए जहां खोने और पाने के बीच शून्य का यह संतुलन हमें सच्ची शांति और संतुष्टि की ओर ले जाता है।


उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, 

सत हरि भजन जगत सब सपना.