शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

आत्म-मूल्य self-worth

जीवन में आत्म-मूल्य (self-worth) का बहुत बड़ा महत्व है क्योंकि यह हमारी सोच, निर्णय, और व्यवहार को गहराई से प्रभावित करता है। आत्म-मूल्य यह दर्शाता है कि हम अपने आप को कितना स्वीकारते हैं, सम्मान देते हैं और खुद पर भरोसा रखते हैं। यह हमारे मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

आत्म-मूल्य का महत्व:

1. आत्मविश्वास बढ़ाता है: जब हमें अपनी योग्यता और मूल्य का एहसास होता है, तो हम जीवन के बड़े और छोटे निर्णयों को अधिक आत्मविश्वास के साथ ले सकते हैं।
2. संबंधों में सुधार: आत्म-मूल्य होने से हम स्वस्थ सीमाएँ तय कर पाते हैं और ऐसे रिश्तों में रहने का चुनाव करते हैं जो हमें प्रेरित करें।
3. तनाव और चिंता कम करता है: जब हम खुद को महत्व देते हैं, तो बाहरी परिस्थितियाँ हमें कम प्रभावित करती हैं।
4. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण: आत्म-मूल्य हमें चुनौतियों से निपटने और असफलताओं से सीखने की ताकत देता है।
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आत्म-मूल्य कैसे बनाए रखें?

1. अपनी खूबियों को पहचानें:
अपनी क्षमताओं और उपलब्धियों पर ध्यान दें। अपनी ताकतों और कमजोरियों को स्वीकार करना आत्म-मूल्य को बढ़ाने में मदद करता है।
2. नकारात्मक आत्म-चर्चा से बचें:
अगर आप अपने बारे में नकारात्मक सोचते हैं, तो उसे पहचानें और सकारात्मक सोच से बदलें। खुद से प्रेम और करुणा करना सीखें।
3. अपनी सीमाएँ तय करें:
दूसरों की अपेक्षाओं में न फंसें। जो आपके लिए सही है और जो नहीं, उसकी पहचान करें। "न" कहना सीखें।
4. आत्म-देखभाल करें:
शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक स्वास्थ्य का ख्याल रखना आत्म-मूल्य को बढ़ाने में मदद करता है। नियमित व्यायाम, ध्यान, और संतुलित आहार से शुरू करें।
5. स्वास्थ्यप्रद रिश्ते बनाएँ:
ऐसे लोगों के साथ समय बिताएँ जो आपकी केयर  करते हैं, आपको प्रेरित करते हैं और आपके आत्म-मूल्य को बढ़ावा देते हैं।
6. स्वयं को सीखने और विकसित होने का मौका दें:
नई चीजें सीखने और अपने कौशल को सुधारने से आत्म-संतुष्टि मिलती है। यह आपके आत्म-मूल्य को बढ़ाता है।
7. अतीत को छोड़ें:
पुरानी तकलीफों, असफलताओं या पछतावों को पीछे छोड़ें। वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करें और आगे बढ़ें।
8.क्षमा करें:  जिन लोगों ने द्वेष वश आपको सताया था , परेशान किया था , आपको अपमानित किया था , उन लोगो को क्षमा करें ।
9. कृतज्ञता का अभ्यास करें:
अपने जीवन में मौजूद अच्छी चीजों पर ध्यान दें और उनके लिए ईश्वरीय आभार व्यक्त करें।
आत्म-मूल्य बनाए रखना एक सतत प्रक्रिया है। जब आप अपने आप को महत्व देते हैं और अपनी भावनाओं को स्वीकार करते हैं, तो जीवन अधिक सकारात्मक और आनंदमय बनता है।

सोमवार, 20 जनवरी 2025

महाकुम्भ प्रयागराज

" जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।" 
-- कबीर दास 

अर्थ :- जिसप्रकार सागर में मिट्टी का घड़ा डुबोने पर उसके अन्दर - बाहर पानी ही पानी होता है , मगर फिर भी उस घट ( कुम्भ ) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है , इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है , पानी पानी में मिल जाता है , सभी अंतर लुप्त हो जाते हैं I ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं , चेतना - युक्त हैं तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप - रंग - आकार - प्रकार ही हैं , इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा, जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी I
कुम्भे त्रिवेणीसंगमे पवित्रे,
मज्जनं कृत्वा नाशिताः दुरितानि।
विकार अहंकार कुविचार हर्ता,
कुम्भं नमस्यामि पुनः पुनः।।

अर्थात- कुम्भ में त्रिवेणी संगम के पवित्र जल में स्नान कर के मेरे समस्त विकार , अहंकार व कुविचार नष्ट हो गए हैं , ऐसे  कुम्भ पर्व को मेरा बारम्बार नमस्कार ।।

शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

निष्काम कर्म कैसे करें

सांसारिक जीवन में निष्काम भाव से कर्म करना यानि बिना किसी स्वार्थ, फल की इच्छा या अहंकार के अपने कर्तव्यों को निभाना है। यह कठिन प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसे अभ्यास से अपनाया जा सकता है। यहां कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं:

1. कर्तव्य को प्राथमिकता दें
अपने कर्म को धर्म (कर्तव्य) मानें और उसे पूरी निष्ठा से करें । यह समझें कि कर्म का उद्देश्य केवल कार्य को पूर्ण करना है, न कि उसके परिणाम पर अधिकार जताना।
2. फल की आसक्ति का त्याग करें
अपने कार्यों का परिणाम ईश्वर या प्रकृति पर छोड़ दें।
यह समझें कि परिणाम आपके हाथ में नहीं है; केवल कर्म पर आपका अधिकार है।
जैसे किसान बीज बोता है और फसल उगने की प्रक्रिया को प्रकृति पर छोड़ देता है, वैसे ही अपने कार्यों का फल छोड़ दें।
3. स्वार्थ त्यागें
कर्म को व्यक्तिगत लाभ, प्रसिद्धि, या सम्मान के लिए न करें। कर्म को समाज, परिवार, या ईश्वर की सेवा के रूप में देखें।
4. साक्षी भाव अपनाएं
अपने कार्य और उसके परिणाम को ईश्वर की इच्छा या प्रकृति का खेल मानें।
अपने आप को केवल एक माध्यम समझें। यह साक्षी भाव अहंकार और आसक्ति को कम करता है।
5. धैर्य और समता रखें
सफलता और असफलता को समान रूप से स्वीकार करें।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, “सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।” अर्थात सफलता और विफलता में समान भाव रखना ही योग है।
6. आत्म-अनुशासन और ध्यान का अभ्यास करें
ध्यान और आत्मचिंतन से मन को शांत और स्थिर बनाएं।
जब मन शांत होगा, तो आसक्ति और अहंकार स्वतः कम हो जाएगा।
7. ईश्वर या उच्च शक्ति को समर्पण
अपने सभी कार्य ईश्वर को समर्पित करें। यह भाव आपको अहंकार और स्वार्थ से मुक्त करता है।
यह विचार करें कि आप ईश्वर के माध्यम से ही कर्म कर रहे हैं।
8. वर्तमान में रहें
अपने कार्य को पूरी तरह से वर्तमान में केंद्रित होकर करें।
भविष्य के परिणाम की चिंता छोड़कर, केवल वर्तमान क्षण में कर्म का आनंद लें।
निष्काम भाव से कर्म करने का अर्थ है कि आप कार्य को अपना धर्म मानकर करें और फल की चिंता ईश्वर पर छोड़ दें। यह न केवल मन को शांति प्रदान करता है, बल्कि जीवन को तनावमुक्त और आनंदमय बनाता है। गीता के अनुसार, ऐसा कर्म ही सच्चा योग है और यही मोक्ष की ओर पहला कदम है।

रविवार, 12 जनवरी 2025

अद्वैत का अधिष्ठान

अद्वैत का अधिष्ठान (स्थापन) का अर्थ है अपने जीवन में अद्वैत के सिद्धांतों को पूर्ण रूप से अपनाना और इसे अनुभव के स्तर तक ले जाना। इसका उद्देश्य आत्मा और ब्रह्म की एकता को न केवल बौद्धिक रूप से समझना बल्कि इसे अपनी चेतना और दैनिक जीवन में स्थिर करना है। इसके लिए एक स्पष्ट मार्गदर्शन और अभ्यास आवश्यक है।
अद्वैत का अधिष्ठान कैसे करें?

1. सत्संग और ज्ञान की प्राप्ति

अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं का अध्ययन करें। उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र जैसे ग्रंथों का गहन अध्ययन करें।

योग्य गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त करें, जो आपकी शंकाओं का समाधान कर सके और सत्य के प्रति आपको मार्गदर्शित कर सके।

सत्संग (संतों और ज्ञानी व्यक्तियों का संग) के माध्यम से अद्वैत के विचारों को गहराई से समझें।

2. विवेक और वैराग्य का विकास करें

विवेक: शाश्वत (अविनाशी) और अशाश्वत (नश्वर) के बीच भेद करें। शरीर, मन और संसार की वस्तुएं नश्वर हैं, जबकि आत्मा शाश्वत है।

वैराग्य: संसार के भौतिक सुखों और इच्छाओं से विरक्ति प्राप्त करें। यह संसार माया है, इसे समझें और इससे ऊपर उठें।

3. ध्यान और आत्मचिंतन

नियमित ध्यान का अभ्यास करें। ध्यान के माध्यम से अपने "मैं" (अहं) को त्यागें और शुद्ध चेतना का अनुभव करें।

आत्मा पर चिंतन करें। विचार करें कि "मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, मैं शुद्ध चैतन्य हूं।"

"अहं ब्रह्मास्मि" और "तत्त्वमसि" जैसे महावाक्यों पर मनन करें।

4. मिथ्या और सत्य का बोध

संसार की अस्थायी वस्तुओं और घटनाओं को मिथ्या (माया) मानें।

सत्य केवल ब्रह्म है, इसे समझें और इसे अपनी दृष्टि का आधार बनाएं।

5. षट्संपत्ति (छह साधन)

शम: मन को शांत करना।

दम: इंद्रियों पर नियंत्रण।

उपरति: संसार के कार्यों में आसक्ति का त्याग।

तितिक्षा: सहनशीलता।

श्रद्धा: गुरु और शास्त्रों में विश्वास।

समाधान: ब्रह्म पर मन का स्थिर होना।

6. मुमुक्षुत्व (मोक्ष की तीव्र इच्छा)

अपने जीवन का लक्ष्य मोक्ष (आत्मा की मुक्ति) को बनाएं।

अपनी सभी क्रियाओं और साधनाओं को आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में केंद्रित करें।

7. द्वैत का त्याग

"मैं" और "तुम" का भेद समाप्त करें। यह समझें कि ब्रह्म से अलग कुछ भी नहीं है।

हर चीज में ब्रह्म को देखना शुरू करें।

सभी में समान भाव रखें; मित्र-शत्रु, सुख-दुख, लाभ-हानि में भेदभाव न करें।

अहंकार और स्वार्थ को त्यागें।

करुणा, प्रेम, और अनासक्ति के साथ जीवन जिएं।

अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करें और फल की चिंता छोड़ दें।

तेलगु रामायण लिखने वाली महान कवियित्री मोल्ला

तेलगु रामायण लिखने वाली महान कवियित्री मोल्ला 

मोल्ला, जिन्हें मोल्ला तुलसी या मोल्ला कवयित्री के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं शताब्दी की एक प्रसिद्ध तेलुगु कवयित्री थीं। उनका जन्म आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के एक छोटे से गांव कवुरु में हुआ था। मोल्ला का जन्म एक साधारण गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ, और उनके पिता का नाम केसनापुन्ना था। वे अपनी असाधारण रचनात्मकता और साधना के लिए जानी जाती हैं, और तेलुगु साहित्य में उनका योगदान अद्वितीय है।
मोल्ला अपनी काव्य रचना "मोल्ला रामायणम्" के लिए प्रसिद्ध हैं, जो वाल्मीकि रामायण का तेलुगु में सुंदर और सरल काव्य अनुवाद है। उनकी शैली विशिष्ट है क्योंकि उन्होंने आम जनता को ध्यान में रखते हुए इसे सरल भाषा में लिखा, ताकि इसे हर वर्ग के लोग समझ सकें। मोल्ला ने अपनी रचना में जटिल अलंकरण और उच्चकोटि के व्याकरण का उपयोग करने से बचते हुए भावपूर्ण और सीधे संवाद प्रस्तुत किए।
मोल्ला की कविताओं में सरलता और सौंदर्य का अद्भुत संगम है। उनकी रचनाओं में गहरी आध्यात्मिकता झलकती है। मोल्ला ने अपनी योग्यता के आधार पर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने अपने समय के शासकों से सम्मान प्राप्त करने के लिए दरबार में जाने से इनकार कर दिया था।
मोल्ला ने समाज के रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करते हुए, अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने अपनी रचनाओं में नारी सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता का भी संदेश दिया।

"जो जन्मा है, वह जाएगा, यह जीवन का सार,
मोह में न पड़ो मानव, यह है संसार।
सत्य और धर्म की राह, बस यही है सच्चा,
राम नाम के सुमिरन से, जीवन हो अच्छा।"
मोल्ला की रचनाएँ आज भी तेलुगु साहित्य में अध्ययन और प्रेरणा का स्रोत हैं। उनके साहित्यिक योगदान ने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चा ज्ञान और कला समाज में सभी सीमाओं को पार कर सकती है।

सर्ग और विसर्ग सृष्टि

सर्ग और विसर्ग सृष्टि के निर्माण और विकास के दो चरणों को दर्शाते हैं। ये भारतीय दर्शन और पुराणों में वर्णित सृष्टि प्रक्रिया से जुड़े हैं।

1. सर्ग (प्रारंभिक सृष्टि)
सर्ग का अर्थ है सृष्टि का मूल निर्माण। यह भगवान या ब्रह्मा द्वारा ब्रह्मांड की उत्पत्ति का प्रथम चरण है। इसे "प्राकृतिक सृष्टि" भी कहा जा सकता है।

यह सृष्टि के मूल तत्वों और प्राणियों का निर्माण है।
इसे भगवान की "मूल रचना" माना जाता है, जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश)।
इसमें 10 प्रकार की सृष्टियों का वर्णन है, जिन्हें दश सर्ग कहते हैं, जैसे:

1. महत्तत्त्व (बुद्धि तत्व)
2. अहंकार
3. पंचमहाभूत
4-8. पंचतन्मात्राएँ (गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द)
9. इंद्रियाँ और उनके अधिष्ठाता देवता
10. मन आदि।

2. विसर्ग (द्वितीयक सृष्टि)

विसर्ग का अर्थ है सृष्टि का विस्तार या विकास। यह ब्रह्मा द्वारा जीवों और संसार के विविध रूपों का निर्माण है।
इसमें जीवों का जन्म, उनके कर्म, और संसार में उनके क्रियाकलाप आते हैं।
जीवों को उनके कर्मों के अनुसार जीवन प्रदान किया जाता है।
यह मानव, पशु, वनस्पति आदि जीवित प्राणियों की रचना और उनकी दिनचर्या से संबंधित है।

इसे "द्वितीयक सृष्टि" भी कहा जाता है।

सर्ग और विसर्ग का संबंध-

सर्ग ब्रह्मांड और उसके मूलभूत तत्वों का निर्माण करता है। विसर्ग उन तत्वों का विस्तार करके विविध जीवन रूपों और संसार की रचना करता है।
यह प्रक्रिया चक्रीय मानी जाती है और प्रत्येक सृष्टि के बाद प्रलय होता है, जिसके बाद सर्ग और विसर्ग पुनः आरंभ होते हैं।
सर्ग और विसर्ग का वर्णन विष्णु पुराण, भागवत पुराण, और महाभारत में मिलता है।
यह प्रक्रिया ब्रह्मा, विष्णु, और शिव के त्रिदेव की भूमिका से संबंधित है।

संक्षेप में, सर्ग सृष्टि की उत्पत्ति है, और विसर्ग सृष्टि का विस्तार है।